"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

दो राष्ट्र् नीति और विभाजन, ऐतिहासिक नजर

पश्चिमी पत्राकारों, विद्वानों और अनेक ब्रिटिशों का बारंबार का दावा है कि इस उपमहाद्वीप के हिंदू और मुसलमान हमेशा युद्धरत रहे हैं और उनमंे सदियों तक घृणा व्याप्त रही है। इसलिए, विभाजन आवश्यक था। शायद यहां तक कि एक ऐतिहासिक जरूरत की तरह। और, पाकिस्तान को दो जनताओं के ’’प्राचीन’’ बैरभाव की तार्किक उत्पति की तरह से माना जाना चाहिए।

मध्यकालीन भारत के कुछ इस्लामी राजा हमलावर थे, यह एक निर्विवाद तथ्य है। इन हमलावरों में से कुछ बर्बरता और आतंक से संलग्न थे, यह भी एक अकाट्य तथ्य है। यदि इस्लामी आक्रमणकारियों एवं विजेताओं की विनाशकारी शक्ति के परिणाम स्वरूप हिंदू और मुस्लिमों के बीच विरोधभाव होते तो विभाजन की वकालत करने वाले मुसलमान होते, न कि हिंदू। परंतु 1947 में विभाजन की मांग मुस्लिम लीग ने की थी, न कि हिंदू महासभा ने। हम कैसे इस विरोधाभास को सुलझा पायंेगे ?

जो यह तर्क देते हैं कि हिंदू और मुस्लिम दो परस्पर विरोधी राष्ठ्र् हैं, वे इस तथ्य का सहारा लेते कि भारत को इस्लामिक हमलावरों से निपटना पड़ा था। उनकी यह भी मान्यता है कि इन दोनों में कभी समझौता नहीं हो सकता। ऐसे विचार रखने वालों को यह बतलाना चाहिए कि ऐसे लोगों की संख्या कितनी थी जिन्होंने बर्बरताओं मंे सहयोग दिया था ? वे यह भी बतायें कि क्या आम मुसलमानों ने इन इस्लामी आक्रमणकारियों को अपना हिमायती या मुक्तिदाता माना था ? क्या कोई ऐसा मान सकता है कि इस्लाम इस उपमहाद्वीप में केवल विजेेता शक्ति के बतौर आया था ? क्या सभी मुसलमान इन हिंसक कार्यवाहियों के लिए जिम्मेवार थे ? यदि यह सही होता तो इस्लामी हमलावरों को स्थानीय इस्लामी राजाओं से क्यों लड़ना पड़ा था ? और यह कि हिंदुओं की तरह आम मुसलमान भी उनकी लूटपाट और डकैतियों के शिकार क्योंकर बने ?

यदि हमें इसके साक्ष्य मिलें कि हिंदू राजा एवं हिंदू समाज के अन्य वर्ग मुस्लिम राजाओं के सहयोगी रहे थे, तो क्या दो देश की नीति हमारे उपर लागू होगी ? यदि हमें पढ़ने मिल जाये कि बाद के इस्लामी राजा, जो भारत में पैदा हुए, पले बढ़े, और भारतीय समाज में समाहित हो गये, तब भी क्या, वह नीति लागू होगी ? यदि साधारण हिंदू और मुस्लिम मैत्राीपूर्ण और शांतिपूर्वक एक-दूसरे के रिश्ते में हों ? तो ?

यदि इन हमलों ने भारतीय समाज में एक गंभीर विभेद पैदा कर भी दिया तो क्या आधुनिक जनतांत्रिक समाज विरासत से मिले इस विभेद पर हावी नहीं हो सकता और एक धर्मनिरपेक्ष राजतंत्रा का निर्माण नहीं कर सकता जिसमें हिंदु, मुसलमान और अन्य धर्मावलंबी एक साथ सामंजस्य बैठाकर रह सकें ?

धार्मिक समानतायें और राष्ट्र्ीयता

सर्वप्रथम, हम इस बात की जांच करें कि क्या धार्मिक समानता आधुनिक राष्ट्र्ीयता के पीछे मूल प्रेरक शक्ति होती है ? यदि धार्मिक समानता ही राष्ट्र् निर्माण की मूल प्रेरक शक्ति होती, तो यूरोप के क्रिश्चियन अनुयायी इतने राष्ट्र्ों में क्योंकर बंटे हुए हैं ? यदि हम यह भी स्वीकार कर लें कि साम्प्रदायिक असमानतायें उन्हें बांटे हुए हैं, तो भी प्रश्न उठेगा कि यूरोप में सभी रोमन कैथोलिक अनुयायी एक राष्ट्र् के रूप में एकीकृत क्यों नहीं हैं ? वे मध्य और दक्षिण अमेरिका में एकीकृत क्यों नहीं हैं ? सभी प्रोटेस्टेंट एक साथ होकर एक ही राष्ट्र् क्यों नहीं हैं ?

यदि केवल धर्म ही राष्ट्र्ीय एकता का आधार हो सकता तो एकीकरण के अनेक प्रयत्नों के बावजूद इस्लाम, अरवी भाषी उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व के लोगों के एकीकरण में असफल क्यों रहा ?

यदि इस्लाम अरब दुनिया में राष्ट्र्ीय पहचान का मूलभूत आधार नहीं बन सका, खासकर जहां इस्लाम पैदा भी हुआ और जहां उसके सर्वाधिक अनुयायी रहते हों, तो क्या यह अजीब नहीं है कि इस उपमहाद्वीप में, इस्लाम को राष्ट्र्ीय पहचान की प्रमुख शक्ति या आधार माना जाये ?

यदि हम दूसरे एशियाई और यूरोपीय राष्ट्र्ों के अनुभव के आधार पर चलें तो हम पायेंगे कि सांस्कृतिक और भाषाई कारक तथा एक साथ भोगे ऐतिहासिक अनुभव, राष्ट्र्ीयता के विचार को सुदृढ़ करने में अधिक निर्णयकारी होते हैं।

यह कहना कि यह उपमहाद्वीप हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र्ों से बना है तो दुनिया के अन्य हिस्सों में राष्ट्र् बनने के सामान्य सिद्धांतों का एक ज्वलंत अपवाद है। इस पर भी, पश्चिम के अधिकांश विद्वानों ने इसी ज्वलंत अपवाद का समर्थन किया मानो कि यही सामान्य तौर पर स्वीकृत है या विश्व स्तर पर प्रमाणिक है !

पश्चिमी विद्वानों ने बताने की कोशिश की है। संभवतः दो देश की नीति का दावा इस उपमहाद्वीप के अद्वितीय एवं विशेष अनुभवों के भीतर से उपजा था। उनका तर्क है कि धर्म ने इस उपमहाद्वीप में ऐसी श्रेष्ठ एवं शक्तिशाली भूमिका अदा की है कि जैसा विश्व में अन्य किसी जगह नहीं हुआ। अतः इस उपमहाद्वीप में राष्ट्र्ीयता को परिभाषित करने का धर्म ही केवल विवेक सम्मत आधार है।

परंतु यदि ये विद्वान सिद्ध भी कर दें कि भारत के लोगों की धर्मनिरपेक्ष जीवन शैली पर धर्म हावी हो गया या यह सिद्ध कर दें कि अन्य किसी देश की अपेक्षा भारतीय जीवन में धर्म की मूलतः प्रमुख भूमिका रही है, तब भी यह, उनको दो देश सिद्धांत के औचित्य को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। सिद्धांत में दो जनगण हार्दिक तौर पर धार्मिक हो सकते हैं, भिन्न धर्मों को अपना सकते हैं परंतु एक दूसरे के धर्म के प्रति आदर सहित एवं सहिष्णु रह सकते हैं। और, एक ही देश में रहने की कामना कर सकते हैं।

अपने इस दावे को सिद्ध करने के लिए इन विद्वानों को यह भी सिद्ध करना होगा कि जनता के बीच संभाव्य विरोधाभासों में धार्मिक विरोधाभास ही सबसे सुसंगत है। न केवल यह कि धर्म ने भारतीय जनगण को इस प्रकार विभक्त कर दिया है कि उसे आसानी से पुनः नहीं जोड़ा जा सकता। उन्हें यह बताना पड़ेगा कि सामाजिक एवं आर्थिक संबंध, सांस्कृतिक कार्यकलाप और राजनैतिक कार्य हिंदुत्व या इस्लाम के प्रति किसी खास निष्ठा से अनुप्रेरित होते थे। उन्हंे सिद्ध करना होगा कि हिंदु या इस्लाम दोनों के अंदर सांस्कृतिक, भाषायी, आर्थिक और राजनैतिक विरोध कम से कम थे, परंतु इन दोनांे धर्मों के अनुयायियों के मध्य झगड़े इतने बड़े थे कि प्रजातंत्रात्मक ढांचे में उनका समाधान संभव नहीं था। उन्हें यह भी दिखाना होगा कि इन दोनों संप्रदायों में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व या परस्पर सहिष्णुता के उदाहरण नहीं हैं या नहीं के बराबर हैं।

परंतु ऐतिहासिक अभिलेखों की सरसरी पड़ताल उपर्युक्त परिकल्पना को नकारती है। न केवल अधिकांश हिंदू और मुस्लिम एक दूसरे के साथ शांति से रहते थे बल्कि कई मौकों पर एकता एवं सहयोग के महत्वपूर्ण उदाहरण दोनों जातियों के बीच मौजूद हैं।

मुगलकाल में हिंदू मुस्लिम सहयोग

16 वीं शताब्दी में, जब दो तिहाई उत्तरी भारत का राजा अकबर था, उसके सबसे करीबी राजनैतिक सहयोगी बीकानेर और जयपुर के हिंदू राजपूत थे। मुगल-राजपूत मैत्राी उसकी मृत्यु के बाद भी चलती रही। दतिया, ओरछा और झांसी के हिंदू राज्य आम तौर पर मुगलों के साथ थे। अकबर के मुख्य सलाहकार और प्रधानमंत्राी बीरबल थे, जो एक हिंदू थे। उनके सबसे सफल सेनापति जयपुर के राजा मानसिंह थे। देश में सबसे शक्तिशाली लड़ाकू जयपुर के राजपूत थे। अकबर के काल में, एशिया का सबसे अच्छा तोप-कारखाना उनकेे पास था और वे तोपें मुगलशक्ति को पश्चिम में अफगानिस्तान और पूर्व में आसाम तक फैलाने में निर्णयकारी थीं। अनेक युद्ध में राजपूत सेनापतियों ने मुगल सेनाओं का विजयी नेतृत्व किया। यदि हिंदू और मुस्लिमों के मध्य विरोध कथित तौर पर तीखे होते तो क्या यह सैन्य-सहयोग 200 वर्षों से अधिक रह सका होता ?

अभिलेख मुगलों और राजपूतों के वैवाहिक संबंधों को भी प्रगट करते हैं। अकबर की रानियों में से अनेक रानियां हिंदू राजकुमारियां थीं। उनकी पटरानी जयपुर घराने की राजपूतानी थीं। फतेहपुर सीकरी में उनकी पत्नियों के लिए निर्मित महलों में से सबसे बड़ा महल रानी जोधाबाई का था। शादी के बाद भी रानी जोधाबाई हिंदू रीति रिवाजों का पालन करतीं रहीं। जहांगीर रानी जोधाबाई का बेटा था। वह अकबर के बाद राजसिंहासन पर बैठा और हिंदू पत्नियां रखता रहा। उसका बेटा शाहजहां एक राजपूतानी पत्नि के गर्भ से पैदा हुआ था। शाहजहां की भी एक पत्नि हिंदु थी।

यदि राजपूत घराने अपनी सैन्य कुशलता के लिए मशहूर नहीं होते तो ये रिश्ते ज्यादा महत्व के नहीं रहे होते। तब यह माना जाता कि ताकतवर मुगल बादशाहों की आधीनता स्वीकार करते हुए कमजोर राजसी घरानों ने अपनी राजकुमारियां उन्हें समर्पित कर दीं थीं। परंतु ऐसी स्थिति में राजपूत राजकुमारियों को इतना महत्व नहीं मिला होता। इसके अलावा, बीकानेर और जयपुर के राजपूत ही मुगलों की ओर से सबसे अधिक युद्ध किया करते थे। इन वैवाहिक संबंधांे में यदि उन्होंने कोई लाभ नहीं देखा होता तो वे प्रतिरोध करने एवं अस्वीकार करने में अधिक समर्थ थे। मगर ये समझौते बने रहे क्योंकि इनसे दोनों धन और शक्ति बढ़ी थी। बीकानेर और जयपुर के राजपूत सबसे प्रभावशाली और समृद्ध होकर उभरे जबकि मुगलों ने अन्य हिंदू और मुस्लिम प्रतिद्वंिद्वयांे पर प्रभुत्व कायम किया।

मुगल राज्य सिंहासन के उत्तराधिकार के संघर्ष धार्मिक प्रतिबद्धता के आधार पर नहीं लड़े गए। औरंगजेब को राजसिंहासन के लिए अपने तीन भाइयों से लड़ना पड़ा। इन लड़ाइयों में से हर लड़ाई में औरंगजेब को अपने हिंदू सहयोगियों से निर्णायक सहायता मिली। उसका प्रत्येक भाई भी हिंदू राजाओं और सेनापतियों से सहयोग पाता रहा।

गुुजरात और दक्षिण के मुस्लिम शासक इसी प्रकार की नीति का पालन करते रहे। बाद में जब मध्य भारत के मराठों ने मुगलों के विरूद्ध विद्रोह किया, हिंदू और मुस्लिम दोनों मराठा सेना में थे। मराठा सेनाएं शिवाजी, एक हिंदू, के नेतृत्व में थीं और उनके कुछ सैन्य योजनाओं का नेतृत्व मुस्लिम सेनापतियों के हाथों में था।



18 वीं सदी में औरंगजेब की मृत्यु के बाद जब मुगल साम्राज्य बिखरनेे लगा, दिल्ली की सत्ता से राज्य दूर छिटकने लगे, तो यह धार्मिक भिन्नता के आधार पर नहीं वरन् क्षेत्राीय स्वाधीनता के आधार पर हो रहा था। राजनैतिक सीमा, उनकी भाषाई और सांस्कृतिक सीमा से मेल खाती थी। स्थानीय विवाद, अधिक करारोपण और मुगल सलतनत की केंद्रीकरण की प्रवृतियां इस अलगाव में सर्वोपरि बन गए थे।

16 वीं, 17 वीं और 18 वीं शताब्दी के शासकों मंें धर्मों पर आधारित दो राष्ट्र् होने की सोच इस उपमहाद्वीप में कतई नहीं थी। यद्यपि इस्लामी शासकों ने अपने दरबार में ज्यादा मुसलमानों को और हिंदू शासकों ने प्रशासनिक निकायों के उंचे पदों पर अधिक हिंदुओं को रखा। परंतु ऐसे साक्ष्य नहीं मिलते कि मध्यकालीन भारत के किसी राज्य ने धार्मिक झुकाव के आधार पर शासन किया हो और कट्टर धार्मिक सिद्धांत पर आधारित तो दूर की बात है।

शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और जनता की एकता

तत्कालीन कारीगरों के संगठन और कृषक वर्गों में हिंदु और मुसलमान लगातार लड़ते रहते थे के प्रमाण शायद ही भारतीय ऐतिहासिक अभिलेखों में मिलें। दूसरी ओर, अधिकतर शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का नमूना ही पाते हैं। हिंदू और मुस्लिम कारीगर तथा शिल्पकार अकसर नगरों के निर्माण में, निर्माण-स्थल पर और राज्य के कारखानों में साथ साथ काम करते थे। यहां तक कि भिन्न धर्मो का अनुसरण करते हुए भी उनकी आस्थाओं की आधारशिलायंे समान रहतीं थीं कि भगवान के सामने सभी समान हैं। यही शिक्षा सिख, इस्लामी, सूफी और हिंदू संतों की भी थी। लोकप्रिय हिंदू साधू के मुस्लिम अनुयायी या एक जनप्रिय सूफी साधू के हिंदू अनुयायी होते थे। ऐसे जनप्रिय साधू जब त्यौहार मनाते थे तो सभी संप्रदायों के लोग अपने धार्मिक मतभेद भुलाकर उनमें शामिल होते थे।

मध्य काल में, यूरोप धार्मिक परीक्षणों के क्रूर अतिरेकों का शिकार बना था। इस प्रकार की धार्मिक दहशत के उदाहरण भारत के किसी ऐतिहासिक अभिलेख में नहीं मिलते। स्पष्टतया, इसी कारण इस्लामी राजाओं के अनेक शताब्दियों के शासन के बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम आबादी कभी भी बहुसंख्यक नहीं हुई। यद्यपि धर्म परिवर्तन में बलप्रयोग हुआ, फिर भी अनेक इतिहासकार विश्वास करते हैं कि धर्म परिवर्तन का बड़ा भाग स्वैच्छिक था, प्रायः बौद्ध धर्म से इस्लाम में और सूफियों के सिद्धांतों की प्रेरणा से। कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं कि इस्लाम धर्म स्वीकार करने के बाद भी लोगों ने अपने धार्मिक रिवाजों को नहीं त्यागा और जनप्रिय हिंदू त्यौहारों को मनना जारी रखा।

14 वीं सदी में ट्यूनिशियाई इतिहासकार इब्नबतूता जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में घूमा था, ने दोनों समुदायों के बीच आपसी सहनशीलता और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को प्रमाणित किया था। उसने एक हिंदू और इस्लामी शासक के बीच विवाद का संदर्भ दिया, तो वह कर लगाने, व्यापारिक रियायतें देने और वाणिज्यिक समझौतों के अधिकार के बारे में था। ऐसे विवाद स्पष्टतया धर्मनिरपेक्ष विवाद थे जो एक ही धर्म के अनुयायी के बीच में भी हो सकते थे जैसा कि आटोमन तुर्क और फारस के शासकों के बीच या मध्य एशिया के राजाओं और शाहजहां के बीच हुआ करते थे।

भारतीय समाज के हर क्षेत्रा में, धर्म के द्वारा फूट डालने की भूमिका का आरोप या तो गलत सूचना पर आधारित है या फिर जानबूझकर गढ़ा गया है।

वास्तव में भारतीय जनता ने प्रथम स्वतंत्राता संग्राम 1857 में दोनों पक्षों की एकजुटता को प्रभावशाली ढंग से प्रगट किया। 1857 की क्रांति थी जिसने भारत में ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया था। लगभग एक वर्ष तक उत्तरी भारत का संपूर्ण मैदानी हिस्सा औपनिवेशिक शासन से मुक्त रहा था। हिंदू और मुस्लिम सैनिकों ने साथ साथ विद्रोह किया और एक होकर ब्रिटिश सैनिकों से लड़े। जब पटना, लखनउ और मेरठ जैसे शहरों में लोगों ने विद्रोह किया, जेल तोड़ ड़ाले और ब्रिटिश शस्त्रागार को रौंद डाला तब उन्होंने यह नहीं देखा कि वे हिंदू हैं या मुसलमान। बल्कि, एक होकर अपने साझे और घृणित दुश्मन-ब्रिटिश से लड़े।

जब क्रांतिकारी प्रशासन गठित हुआ, उसकी सभी घोषणायें हिंदू और मुस्लिम, दोनों के नाम पर कीं गईं। प्रमुख शासकीय निकायों में हिंदू और मुस्लिमों का समान प्रतिनिधित्व रखा गया। घोषणाएं आम भाषाओं में कीं गईं। साथ में हिंदी और उर्दू के अनुवाद भी दिये गए।

स्वतंत्राता की पहली लड़ाई में, उपमहाद्वीप में दो अलग राष्ट्र्ों के होने की बिलकुल ही बात नहीं थी। विदेशी और क्रूर शासन का एक साथ भोगा गया अनुभव, सशस्त्रा राष्ट्र्ीयता को आकार दे रहा था जो धार्मिक सीमाओं को फलांगता था। भारतीय चेतना पर धार्मिक निष्ठा हावी होना तो दूर ही रहा। 1857 के क्रांतिकारियों के मस्तिष्क में स्वशासित होने की भावना घर कर गई थी। चैतन्य राष्ट्र्ीयता के प्रथम उद्गार ने धार्मिक विभेदों को पचा लिया। भारतीय राजनीति में, बारंबार उभरती इस धर्मनिरपेक्ष चेतना को गहरा नुकसान पहंुचाने में औपनिवेशिक शासन को एक समूची शताब्दी ही लगी।

ब्रिटिश साम्प्रदायिक नीतिः प्रेरक शक्तियां और व्यवहार

आम धारणा के विपरीत भारत के अधिकांश इस्लामी राजा आक्रांता नहीं थे। वे भारत की मिट्टी में पैदा हुए और भारत भूमि पर मरे। यहां तक कि जो आक्रांता की तरह आये थे उनमें से अधिकांश ने भारत को अपना घर बना लिया था। इसके विपरीत, ब्रिटिश औपनिवेशिक स्वामियों का मन भारत को स्थाई निवास बनाने का नहीं था। जबकि इस्लामी राजाओं ने अपने भाग्य को भारतीय उपमहाद्वीप से बरबस जुड़ा हुआ पाया। ब्रिटिश ने भारत को एक सुदूर विजित स्थान की तरह देखा, शोषण करने और लूटने के लिए, उसके पोषण या विकास के लिए नहीं।

इस्लामी शासकों ने किसानों पर कर लगाया परंतु उन्होंने सिंचाई योजनाओं और तकनीकी सुधारों में निवेश भी किया जिससे पैदावार बढ़ी। उन्होंने नगरों में विशाल इमारतों के बनाने या उनके संरक्षण में पुनर्निवेश किया। दूसरी ओर, ब्रिटिश ने ब्रिटेन को समृद्ध करने के लिए भारत को बुरी तरह निचोड़ा।

ब्रिटिश प्रशासक जानते थे कि भारत में उनके दिन सीमित हैं और इसलिए हर प्रकार के फरेब और क्रूरता की अंतिम सीमा तक जा सके। इस्लामी शासक जानते थे कि उन्हें भारत की जनता के बीच ही रहना है और इसलिए उनके असंतोष और क्रोध का शिकार बन सकते थे। इसके मायने हैं कि इस्लामी शासक ब्रिटिश शासक की तरह अत्याचार करके भाग नहीं सकते थे।

ये कुछ महत्वपूर्ण प्रमुख अंतर भारत के इस्लामी शासकों और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों के बीच के थे। इस्लामी शासकों ने भारत को अपना घर बनाने की योजना बनाई और संचित संपदा को भारत में खर्च किया। विवेक ने अधिकांश शासकों को धर्मनिरपेक्ष व्यवहार की ओर मोड़ दिया। हिंदू और मुस्लिमों के बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को बढ़ावा मिला। परंतु ब्रिटिश शासन के लाभार्थियों की भारत में अर्जित राशि भारत में खर्च करने के लिए नहीं थी। प्रत्येक प्रशासक का सेवा काल अस्थाई था। उनके द्वारा निचोड़ी गई संपदा मूलतः ब्रिटेन अथवा यूरोप के किसी भाग या अमेरिका में उपयोग के लिए थी। उनके अस्तित्व के लिए धर्मनिरपेक्ष जैसी नीति न तो आवश्यक थी और न ही भारत की संपदा द्वारा ब्रिटिश को संपन्न बनाने के उनके लक्ष्य में मददगार थी। उन्हें 1857 ने बतला दिया था कि उनकी राजनैतिक संप्रभुता के लिए भारतीय जनता की एकता कितनी खतरनाक थी।

इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं कि दोनों समुदायों के बीच वे जातिगत विद्वेष 19 वीं शताब्दी की शुरूआत से भड़काते आ रहे थे। उदाहरण के लिए 1821 में ही एक ब्रिटिश अधिकारी ने ’’कर्नाटिकस’’ के छद्म नाम से एशियाटिक रिव्यू में लिखा थाः ’’हमारे भारतीय प्रशासन का लक्ष्य, चाहे वह राजनैतिक, नागरिक या सैनिक कुछ भी हो, फूट डालो और राज करो होना चाहिए।’’ 1857 की घटना ने ब्रिटिश शासकों को भयभीत करके साम्प्रदायिकता के प्रचार के लाभ उठाने हेतु और अधिक संकल्पित कर दिया।

आर. नाथ जिन्होंने मुगल वास्तुशिल्प का इतिहास लिखा ह,ै ने बतलाया कि किस प्रकार से भारत के वास्तुशिल्प के अभिलेखों में दोनों समुदायों में घृणा फैलाने के लिए ब्रिटिश ने जानबूझकर और कपटी तरीके से हेराफेरी की थी। उन्हांेने अफवाहें फैलाना, ऐतिहासिक झूठ और मिथ्या वर्णन करना, उपद्रवों को उकसाना और जानबूझकर एक समुदाय का दूसरे के विरूद्ध पक्ष लेने के कार्य किये। एक शताब्दी से अधिक समय तक इस उपमहाद्वीप को लूटने के बाद उन्होंने यह भ्रम फैलाना शुरू कर दिया कि इस्लामी आक्रांताओं के द्वारा भारत को पहले ही लूटा और पददलित किया जा चुका था। और जब वे आये तो भारत में कुछ भी नहीं बचा था।

यद्यपि यह सच है कि अनेक इस्लामी स्मारक पूर्व निर्मित हिंदू स्मारकों पर बनाये गए थे, हिंदुओं को उकसाने के लिए ब्रिटिश ने जानबूझकर पुरातात्विक इकाइयांे को स्थानांतरित किया। इस्लामी धार्मिक चिहनों को प्रसिद्ध हिंदू मंदिरों में लगाकर या उनको विकृत कर वेे इसके लिए ’’पहले के’’ मुस्लिम ’’विजेताओं’’ को दोषी ठहराते थे। वे बार बार दुहराते रहे कि इस्लामिक काल में भारत को तबाह किया गया था और मुस्लिमों द्वारा जितने हिंदू सताये गए थे उतने कोई भी लोग नहीं।

’’हमने भारत में अपनी सत्ता एक को दूसरे के विरूद्ध भड़काकर कायम रखी’’, भारत के स्टेट सेक्रेटरी ने वाइसराय, लार्ड एलगिन, 1862-63, को याद दिलायाः ’’हमें ऐसा ही करते रहना चाहिए। इसलिए सबकी एकता की भावना को रोकने के लिए जो कुछ तुम कर सकते हो, करो।’’

ब्रिटिश इतिहासकार सर हेनरी ईलियट ने अपने आठ खंडों के भारत का इतिहास को, जो अधिकतर विकृत एवं कपटी साक्ष्यों पर आधारित थे 1867 में प्रकाशित किया। उसका दावा है कि हिंदू मुसलमानों द्वारा मारे जाते; उनकी प्रतिमायें खंडित कर दी जातीं, उनके मंदिर तोड़ दिये जाते, जबरदस्ती उनका धर्मातरण किया जाता, उनकी लड़कियां शादी के लिए उठा लीं जातीं और वे नशेड़ी मुस्लिम जालिमों द्वारा मार दिये जाते। इस प्रकार सर हेनरी एवं साम्राज्यवादी दूसरे विद्वानों ने भारत के इतिहास को हिंदू विरूद्ध मुस्लिम के भड़काउ रूप में प्रकाशित करना जारी रखा।

यह कि हिंदूओं को पूजापाठ करने और धार्मिक जुलूस निकालनेे से रोका जाता - एकदम झूठ है। मंदिरों और मूर्तियों के विनाश की बात यद्यपि सच है परंतु पागलपन की हद तक अतिरंजित है। इन इतिहासकारों ने जो छोड़ दिया वह कहीं अधिक महत्व का है। विजय प्राप्ति के लिए किये गए युद्ध आवश्यकरूप से विनाशकारी होते हैं और ये न केवल भारत में वरन् पूरी दुनियां में हुए हैं। यह तथ्य उनसे लिखा नहीं गया !

यह सही था कि अधिकांश इस्लामी राजाओं ने गरीब किसानों को दबाया था। परंतु मुस्लिम राजाओं ने ब्रिटिश के मुकाबले बहुत कम दर पर कर लगाये। इस तथ्य को पूरी तरह से छिपाया गया। मुस्लिम शासकों के अनेक धर्मनिरपेक्ष कार्यकलापों को छोड़ दिया गया। मुस्लिम शासकों ने महल, सार्वजनिक मस्जिदें, सरायें, अदालतें, और दवाखाने बनवाये, सिंचाई योजनाओं पर व्यय किया और उद्योग नगरों का संरक्षण किया। इस सब में उनका योगदान किसी भी हिंदू राजा से कम नहीं था। इससे हिंदू और मुसलमानों दोनों को आय और नौकरियां पाने के अवसर मिले। जब उत्पादन के विस्तार में मदद की, तो हिंदू और मुस्लिम दोनों को मदद प्राप्त हुई। इस बात का संज्ञान नहीं लिया गया। बहुसंख्यक मुसलमान शासक नहीं थे और शासकों के युद्ध अभियानों में भाग नहीं लेते थे। इस तथ्य को भी जानबूझकर छिपाया गया।

’’बांटो और राज करो’’ की नीति को मिथ्या वर्णन और पर्दे की जरूरत थी। लार्ड डफरिन, वायसराय 1884-88, को लंदन के सेक्रेटरी आॅफ स्टेट ने सलाह दी कि ’’धार्मिक भावना का बंटवारा हमारे लिए बड़े पैमाने पर लाभदायक है’’ और उसने आशा की ’’भारतीय शिक्षा और शिक्षा-सामग्री पर आपकी जांच समिति से कुछ अच्छे परिणाम’’ निकलेंगे।

लार्ड कर्जन, गवर्नर जनरल आॅफ इंडिया 1895-99 और वायसराय 1899-1925, को सेक्रेटरी आॅफ स्टेट फार इंडिया, जार्ज फ्रांसिस हेमिल्टन ने कहा था कि वे ’’शैक्षणिक पाठ्य पुस्तकों की ऐसी योजना बनायें कि एक समुदाय से दूसरे समुदाय के बीच भेदभाव दूर दूर तक पुख्ता हो।’’

इस प्रकार से ब्रिटिश का जानाबूझा सुनियोजित प्रचार तंत्रा ऐसा था कि दोनों समुदायों के बीच घृणा और दुश्मनी भड़कती रहे। ध्यान देने योग्य है कि साम्प्रदायिक समस्या ब्रिटिश भारत की खासियत बन गई थी। जबकि भारतीय राजाओं द्वारा प्रशासित प्रदेश अपेक्षाकृत साम्प्रदायिक कलह से मुक्त थे। साइमन रिपोर्ट /पेज 29/ ’’... भारतीय राज्यों में साम्प्रदायिक कलह की तुलनात्मक अनुपस्थिति आज ... स्वीकार करने के लिए मजबूर थी।’’

यह अवधारणा कि हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र् हैं जो एक साथ मिलकर नहीं रह सकते, ब्रिटिश द्वारा रोपी और पाली गई थी। सबसे पहले यह अवधारणा कि हिंदू और मुस्लिम इस उपमहाद्वीप के दो भिन्न जनगण थे; ठोंस राजनैतिक रूप में तब प्रगट हुई जब 1906 में, ब्रिटिश शासकों के संरक्षण में आॅल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना की गई। यह बात ब्रिटिश द्वारा 1857 के विप्लव को हराने के एवं गंगा के मैदान को पुनः जीतने के लगभग 50 वर्षों के बाद की है।

मुस्लिम लीग

कांग्रेस के सभापति मौलाना आजाद ने ’’इंडिया विंस् फ्रीडम’’ में मुस्लिम लीग के उत्थान के बारे में लिखा हैः ’’यह कहा गया था कि लीग के उद्देश्यों में से एक है भारत के मुस्लिमों के बीच ब्रिटिश राजभक्ति की भावना को पैदा और दृढ़ करना। दूसरा उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यशाही के नीचे नौकरियों के संबंध में, हिंदू और अन्य जातियों के विरूद्ध मुसलमानों के दावों को बढ़ावा देना था और इस प्रकार से मुस्लिमों के हितों एवं अधिकारों की सुरक्षा करना था। इसलिए लीग के नेता कांग्रेस के द्वारा राजनैतिक स्वतंत्राता की मांग उठाये जाने का स्वाभाविक रूप से विरोध करते थे। वे महसूस करते थे कि यदि मुस्लिम लीग ऐसी किसी मांग से जुड़ी तो ब्रिटिश सत्ता नौकरियों एवं शिक्षा में विशेष व्यवहार की उनकी मांगों को स्वीकार नहीं करेगीे। वास्तव में, उन्होंने कांग्रेस को गैरराजभक्त विद्रोहियों का संगठन निरूपित किया और गोखले तथा फीरोजशाह मेहता जैसे उदारवादी नेताओं को ’’विप्लववादी’’ कहा था। इस काल के दौरान ब्रिटिश सत्ता मुस्लिम लीग को कांग्रेस की मांगों के विरूद्ध उपयोग किया करती थी।’’

’’मुस्लिम लीग अपनी गतिविधि के दूसरे काल में तब पहुंची जब उसने पाया कि ब्रिटिश सरकार कांग्रेस के दबावों के परिणाम स्वरूप कुछ सुधारों को लागू करने के लिए मजबूर हो गई थी। लीग बहुत विचलित हुई जब उसने देखा कि कांग्रेस पग दर पग अपने उद्देश्यों को प्राप्त करती जा रही थी। लीग तब भी राजनैतिक संघर्ष से दूर रही। परंतु जैसे ही कोई लाभदायी प्रगति देखती, वह मुस्लिम समुदाय की ओर से अपने दावे प्रस्तुत करने लगती। मुस्लिम लीग का यह कार्यक्रम उपनिवेशिक सरकार को अच्छा लगता। वास्तव में, इस बात को सोचने के लिए अनेक कारण थे कि लीग ब्रिटिश सत्ता की इच्छाओं के अनुरूप काम कर रही थी।’’

इस समय के इर्द गिर्द ब्रिटिश ने भारतीय जनता की एकता को तोड़ने के लिए कुछ और कदम उठाये। अब तक उन्होंने धार्मिक संबंधों के आधार पर सरकारी नौकरियों में कोटा चालू कर दिया था। अब, स्थानीय निकायों के चुनाव के लिए विभाजित मतदाता पद्धति को लागू किया। अर्थात् हिंदू और मुस्लिम सीटंे अलग अलग की गईं। पहले संपत्ति और बाद में शिक्षा के आधार पर मतदान सीमित किया। चंूकि शिक्षा बहुत कम थी - प्रथम युद्ध के बाद मात्रा 8 प्रतिशत और 1947 में 11 प्रतिशत - बहुत ही कम लोग मतदान कर पाते थे। किंतु जो मतदान करने के अधिकारी थे उन्हें धार्मिक आधार पर विभाजित कर दिया गया।

इन सब कुचक्रों के बाद भी, प्रारंभ में उपमहाद्वीप के संभ्रान्त मुसलमानों के बीच मुस्लिम लीग ने बहुत कम समर्थन प्राप्त किया। 1945 के पूर्व मुस्लिम बहुल प्रदेशों में भी मुस्लिम लीग की मिनिस्ट्र्ी नहीं बन पाई थी।

भारत की बहुसंख्यक जनता भारतीय नेशनल कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष कार्यक्रम के साथ थी या अपेक्षाकृत क्रांतिकारी शक्तियों के साथ। सीमा प्रांत में कांग्रेस की मिनिस्ट्र्ी थी। पंजाब में युनियनिस्टांे की मिनिस्ट्र्ी थी। युनियनिस्ट पार्टी में पंजाब के संभ्रान्त लोग के साथ सभी सिख, मुस्लिम और हिंदू शामिल थे। सिंध मेें, गुलाम हुसैन की मिनिस्ट्र्ी कांग्रेस के समर्थन पर आश्रित थी।

फिर भी, जब ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने राजनैतिक समझौतों के लिए 1945 में भारत की जनता के प्रतिनिधियों को निमंत्राण दिया तो मुस्लिम लीग को कांग्रेस के बराबर ही प्रतिनिधित्व करने का मौका दिया। कांग्रेस जो भारतीय समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती थी और जिसे संपूर्ण देश का समर्थन प्राप्त था को 14 में से मात्रा 5 सदस्यों को नामांकित करने की अनुमति दी गई। और, कांग्रेस के जनाधार के एक अंश मुस्लिम लीग को भी 5 सदस्यों को नामांकित करने की अनुमति दी गई ! औपनिवेशिक सरकार ने खुद अपने 4 सदस्य सिख, दलित और मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने के लिए नियुक्त किये।

कांग्रेस ने अपने 5 सदस्यों में से केवल 2 हिंदू, 1 मुस्लिम, 1 ईसाई और 1 पारसी को अपनी धर्मनिरपेक्ष संरचना के अनुरूप नामांकित किया। जबकि मुस्लिम लीग ने केवल मुसलमानों को नामांकित किया और जब कांग्रेस नेे 1 मुस्लिम को नामांकित किया था तो उसने शिकायत दर्ज की थी कि किसी मुसलमान को नामांकित करने का अधिकार केवल लीग को ही था। कांग्रेस ने दावा कायम रखा क्योंकि वह सब समुदायों का प्रतिनिधित्व करती थी इसलिए वह मुस्लिम प्रतिनिधि को नामांकित करेगी। इस प्रकार से 14 में से 7 मुस्लिमों के द्वारा भारत का प्रतिनिधित्व हुआ था। यद्यपि उस समय मुस्लिम आबादी देश का लगभग 25 प्रतिशत ही था। कोई भी यह नहीं कह सकता कि स्वतंत्राता के लिए विचार विमर्श तथा समझौतों में हिंदू और मुस्लिम में से कोई भी किसी पर हावी था। वास्तव में, यह बतला देना संगत होगा कि ब्रिटिश सरकार से समझौतों के लिए नामांकित प्रतिनिधि भारतीय जनता का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते थे।

1942 और 1945 के बीच जब कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ किया, उसके सभी वरिष्ठ नेता बंदी बना लिए गए। इससे मुस्लिम लीग को उपमहाद्वीप के शिक्षित मुस्लिमों के बीच साम्प्रदायिक भावनायें उकसाने के लिए खुली छूट मिल गई। इस दौरान ब्रिटिश अधिकारियों ने लीग का खुल्लमखुल्ला समर्थन किया। मुस्लिम बहुल राज्यों के संभ्रान्त मुस्लिमों से लीग ने कहा कि हिंदू बहुसंख्यक भारत में वे अपने अधिकारोें से वंचित हो जायंेगे और यह कि उनके अधिकारों की रक्षा करने में केवल मुस्लिम लीग ही समर्थ है। इन आशंकाओं से 1945 के प्रांतीय चुनावों में बंगाल में लगभग आधी सीटें लीग ने जीतीं, पंजाब में कांग्रेस से अधिक और युनियनिस्टों के बराबर सीटें प्राप्त कीं। सिंध में शक्ति को बढ़ाया परंतु बहुमत प्राप्त नहीं कर पाई। लीग अपना असर उत्तर पश्चिमी सरहदी प्रदेशों और बलूचिस्तान में बढ़ा नहीं पाई। सरहदी प्रदेशों में कांग्रेस फिर से मंत्राीमंडल बना पाई।

ये जीतें ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के इस दावे केे लिए पर्याप्त थीं कि मुस्लिम लीग को आजादी की शतों के विचार विमर्श में कांग्रेस के बराबर का महत्व दिया जाये। उन्होंने कांग्रेस के व्यापक प्रभाव को कम महत्व दिया। वह प्रभाव ऐसा था जो थोड़े से परिसीमित चुनाव में मतदान की अनुमति प्राप्त संभ्रान्तजनों तक सीमित नहीं था, दूर दूर तक जनसाधारण में व्याप्त था। इस बात को भुला दिया गया कि मुस्लिम लीग तो कुछ ही समर्थन बढ़ा पाई जबकि कांग्रेस को अपने अधिकांश नेताओं के जेल में होने के कारण गंभीर तौर पर नुकसान उठाना पड़ा था।

यह स्पष्ट तौर पर एक ब्रिटिश चाल थी। वे देश की सर्वाधिक अप्रजातंत्रात्मक शक्तियों के हाथ में सत्ता सौंपना चाहते थे, शक्तियां जो उनके शासन के प्रति सबसे अधिक निष्ठावान थीं और इसलिए उपमहाद्वीप के सबसे अधिक लोगों की अभिलाषाओं के प्रति विश्वासघाती भी थीं। उन्होंने भारत की स्वतंत्राता कीरूप रेखा इस तरह से बनायी कि भारत के भविष्य की उन्नति में रोड़ा और रोक बनीं रहें यदि वे भारत पर सीधे नियंत्राण को खो भी दें तो भारत बाह्य हस्तक्षेप के लिए खुला रहे और पश्चिम में बैठे नीतिकारों के निर्देशों और मांगों का चापलूस बना रहे।

औपनिवेशिक षड़यंत्राः बटवारा

1946 आते आते, मुस्लिम लीग स्वायत्तता स्वीकार करने के लिए तैयार हो गई। मगर एकता के लिए उसने जो कीमत मांगी वह अप्रजातंत्रात्मक एवं अस्वीकार्य मांगों पर आधारित थी। मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों की मांग उनकी जनसंख्या के अनुपात में कहीं बहुत अधिक थी, इस आधार पर कि वे देश के भूतकालीन शासक थे। उन्होंने दबाव डाला कि भविष्य के अनेक प्रशासनिक कार्य साम्प्रदायिकता के आधार पर चलाये जायें। ये पृथकतावादी और अप्रजातंत्रात्मक मांगें थीं। उनके अनुसार मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना को प्रधानमंत्राी बनाना चाहिए। यद्यपि जिन्ना की जनप्रियता कांग्रेस के किसी भी नेता की तुलना में कहीं नहीं टिकती थी।

ये लीग की असली मांगें थीं। मगर कांग्रेस से अपनी वार्ताओं की असफलता को ’’मुस्लिम स्वनिर्णय’’ के आडंबर में व्यक्त किया। स्वनिर्णय का अधिकार आम तौर पर ऐतिहासिक तौर पर दबे हुए लोगों द्वारा मांगा जाता है, न कि उन लोगों के द्वारा जो कभी सम्राट अथवा शासक वर्ग से रहे हों। यह कि भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक थे मुश्किल से संगत होती थी क्योंकि भारत की एकता धर्म के आधार पर या किसी एक निर्णायक समूह के बहुमत के आधार पर नहीं बनी थी। भारतीय हिंदू कोई एक सजाति समूह नहीं था। वे जाति, प्रदेश, संस्कृति और भाषा में बंटे हुए थे। हिंदुओं को जिसने एक किया था, उसी ने मुस्लिमों को एक किया। और वह था औपनिवेशिक शासन द्वारा त्रास्त किए जाने का सामूहिक अनुभव और बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक गहरे संबंध जिसने धर्म और भाषा की भिन्नताओं को पार किया था।

भारत के सामने हिंदू या मुस्लिम दो देशों में से एक के चुनने का नहीं था। विकल्प था कि वह अनेक छोटे देशों में विभाजित हो, जो निश्चित तौर से नवऔपनिवेशिक साजिशों का शिकार बने या फिर एक बड़ा संघीय देश बने जो मतभेदों को प्रजातंत्रात्मक ढंग से सुलझा सके और एक संयुक्त देश का निर्माण कर सके जो बाह्य हस्तक्षेप से मुक्त होकर विकास और प्रगति कर सके।

कांग्रेस ने मुस्लिमों को मजहबी मामलों में संवैधानिक सुरक्षाएं देने का वादा किया जिससे वे धर्म का निर्वाह कर सकें और पर्सनल लाॅ और व्यक्तिगत संपत्ति के संबंध में खुद के नियम बना सकंे। परंतु मुस्लिम लीग ने सभी समझौतों को नकारा और बटवारे पर जोर दिया। ब्रिटिश ने समस्या के समाधान के लिए नकली जनमत संग्रह का आदेश दिया। बिना सार्वभौम मतदान के कोई भी मत निर्णायक या प्रतिनिधित्वकारक नहीं माना जा सकता। यद्यपि, मुस्लिम लीग इस मतदान में मूल पाकिस्तान के दो सबसे बड़े राज्यों, पंजाब और पूर्वी बंगाल के शिक्षित संभ्रान्त वर्ग के मत प्राप्त कर बहुत कम मतों से जीती परंतु उत्तर पश्चिम सीमाप्रांत के राजनैतिक दलों ने विभाजन का विरोध करते हुए जनमत गणना का बहिष्कार किया था। जहां मुसलमानों का बहुमत नहीं था उन राज्यों में जनमत गणना हुई ही नहीं थी। निश्चित रूप से राजनैतिक देह-विच्छेदन जैसे महत्वपूर्ण फैसले पर तो राष्ट्र्व्यापी जनमत संग्रह होना चाहिए था और पर्याप्त समय के साथ विरोधियों को भी अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाना चाहिए था। हिंदू बहुल राज्यों मंे रहने वालेे लाखों मुस्लिमों की इच्छा को गणना में न लेना प्रगट करता है कि भारत के मुसलमानों का एकमात्रा प्रतिनिधित्व करने का मुस्लिम लीग का दावा कितना झूठा और कमजोर था।

इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि सभी महत्वपूर्ण इस्लामी विद्वान बंटवारे के खिलाफ थे। मौलाना मदनी ने मुस्लिम लीग के विरोध में धुआंधार यात्राएं की थीं। मुस्लिम कामगार वर्ग के प्रतिनिधि स्पष्टतया बंटवारे के खिलाफ थे। गंगा के प्रदेशों में राजनैतिक तौर पर काफी जागरूक और अच्छे संगठित बुनकर जाति के अंसारी मुसलमानों ने लीग के बंटवारे के विरूद्ध सार्वजनिक प्रदर्शन किए थे।

मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश सत्ता के साथ मिलकर बंटवारे की योजना बनायी और उसे प्रस्तुत किया। बहुतों ने इसे अस्थायी आघात के रूप में बड़े दुख के साथ स्वीकारा था और आशा की थी कि एकबार ब्रिटिश वापिस चले गए तो भविष्य कुछ और ही हो जायगा। परंतु मुस्लिम लीग और ब्रिटिश सत्ता इस मौके को खोना नहीं चाहती थी। इस बात की सुनिश्चितता के लिए कि हिदू और मुस्लिम इस हड़बड़िया प्रक्रिया की वापसी के लिए कहीं एक साथ न मिल जायें, मुस्लिम लीग ब्रिटिश सहारे और छत्राछाया में आतंक एवं भयादोहन के कामों में जुट गई। सभी मुस्लिम सरकारी कर्मचारी और सेनाधिकारी पाकिस्तान चले जाने के लिए प्रोत्साहित किए गए। उन्हें चेतावनी दी गई कि भारत में उनके साथ बुरा वर्ताव होगा। परंतु मौलाना अब्दुल कलाम ने लीग के कुत्सित भ्रमजाल को नकारा और मुसलमानों को विश्वास दिलाया कि धर्मनिरपेक्ष भारत में उनके अधिकारों की रक्षा की जायेगी और अनेक मुसलमानों ने ठहर जाने का निर्णय भी लिया। इस नुक्ते पर लीग ने पाकिस्तान में उनकी संपत्ति के अधिकारों और रिस्तेदारों को नुकसान पहुंचाने की धमकी दी। इस भयदोहन के प्रभाव में बहुत लोग आये और पाकिस्तान चले गए।

साथ ही साथ ब्रिटिश और लीग अधिकारियों की सांठगांठ से सशस्त्रा गिरोहों ने पाकिस्तानी सिख और हिंदू अल्पसंख्यकों के विरूद्ध आतंकवादी अभियान शुरू किया। आगजनी, बलात्कार और कत्लेआम का ही परिणाम लाखों बेघरबार लोगों का अभूतपूर्व पलायन था और भारत में इसकी अनिवार्य परिणति मुस्लिम विरोधी दंगों के रूप में प्रगट हुई।

पाकिस्तान के हिंदू और सिख अपना वतन छोड़ना नहीं चाहते थे। अपने समुदाय और पास पड़ोस के मजबूत संबंधों के कारण वस्तुस्थिति के जल्दी बिगड़ने की वे आशंका नहीं कर रहे थे, जितनी कि वह बिगड़ गई थी। उन्होंने बंटवारे को स्वीकार कर लिया और आशा की थी कि शताब्दियों से जैसे वे रहते आये हैं वैसे ही उन्हंे शांति से रहने दिया जायेगा। उनका अनुमान था कि पीढ़ियों से चले आ रहे पारस्परिक बंधन दोनों देशों के बीच स्वतंत्रा आवागमन और व्यापार को बनाये रखेंगे। बंटवारे के घृणित स्वरूप ने सारी आशाओं को समाप्त कर दिया। बंटवारे ने न केवल उपमहाद्वीप को गैर ऐतिहासिक और अलोकप्रिय आधार पर बांटा बल्कि जिस ढंग से वह हुआ उससे तय हो गया कि दो देश खूनी वेदना के बीच पैदा होंगे और वे दोनों लम्बे समय तक अपने घावों को सहलाते रहेंगे।

मौलाना आजाद ने 1957 में लिखा कि बंटवारा कैसे उपमहाद्वीप के मुस्लिमों के लिए महाविनाशक साबित हो रहा था। उनने चिंहित किया कि पाकिस्तान के नेता किस प्रकार से भारत के विभिन्न भागों से भागकर आये थे और यह कि वे लोग स्थानीय भाषा तक नहीं बोल पाते थे। उसके अलावा वे वहां की जनता से भयभीत थे और आम चुनावों से कतराते थे। उन्होंने यह भी बताया कि पाकिस्तान बनने का मात्रा एक ही परिणाम था कि उपमहाद्वीप में मुसलमानों की स्थिति कमजोर हो गई। उन्होंने जोर दिया कि यह जनता के साथ सबसे बड़ी धोखाधड़ी थी कि केवल धार्मिक आधार पर भौगोलिक रूप से, आर्थिक रूप से, भाषायी रूप से और सांस्कृतिक रूप से भिन्न भूभाग एक हो सकते हैं। पाकिस्तान से बंगला देश अलग होने के 14 वर्ष पहले ही उन्होंने चिंता व्यक्त की थी कि पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान को एक करने के लिए एक मात्रा धर्म का आधार ही पर्याप्त नहीं होगा। यह भी बतलाया कि कैसे पाकिस्तान का विशाल सैन्य बजट वहां के विकास को रोक देगा और अधिकांश पाकिस्तानियों को नुकसान पहुंचायेगा। उनकी चिंता यह भी थी कि हिंदू और मुस्लिम के बीच के वैमनस्य बंटवारे के बाद और अधिक बढ़ेंगे।

पीछे देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि बंटवारा बड़े पैमाने पर औपनिवेशिक बदमाशी थी। मुस्लिम लीग अपनी ताकत किसी भी प्रजातंत्रात्मक मतदान में व्यक्त नहीं कर पाई। ब्रिटिश जानते थे कि कांग्रेस शीघ्र स्वतंत्राता पाने के लिए भारी दबाव में है। उन्होंने कांग्रेस की अधीरता और व्यग्रता का दुरूपयोग बंटवारे को स्वीकार कराने में किया जबकि वास्तव में, भारतीय उपमहाद्वीप की जनता ऐसा बिलकुल नहीं चाहती थी।

मुस्लिम लीग को जिस ढंग से ब्रिटिश ने बढ़ावा दिया और औपनिवेशिक शासन के वरिष्ठ अधिकारियों ने हिंदू और सिख को पाकिस्तान से जिस तरह से बाहर खदेड़ा, प्रगट करता है कि यह उनकी पूर्वनियोजित बांटो और जीतो की नीति की ही परिणति थी। यह छोटे से अधिक बड़ा व्यंग था कि जो ब्रिटिश लगभग सौ साल से हिंदुओं को समझाते रहे कि उनको मुस्लिमों से ज्यादा किसी ने भी नहीं दबाया; अब पलटकर. भारत के मुस्लिमों के स्वनिर्णय के लिए बंटवारे की वकालत करने लगे।

यह उतना ही विडंवनापूर्ण है कि मुस्लिम लीग ने ’’मुसलमानों की रक्षा’’ के नाम पर इस उपमहाद्वीप की चीरफाड़ कराई। इस क्षेत्रा के मुसलमान को तीन देशों में बांट दिया। इससे बढ़कर विश्वासघात और क्या हो सकता है कि मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश के साथ मिलकर यह कदम उठाया जिन्होंने 200 साल से मुसलमानों को हिंसक, आक्रांता, विजेता और भारतीय संस्कृति का विध्वंसक कहकर बदनाम किया ? अंत में, पाकिस्तान की आम जनता है जिसने स्वाधीनता के फल को सबसे कम चखा। यह उनके लिए सबसे अधिक अफसोसनाक है कि उनका देश एक विभाजनकारी एवं गैरप्रजातंत्रात्मक संगठन द्वारा स्थापित हुआ था और जिसने इस उपमहाद्वीप की जनता के सबसे बड़े दुश्मान, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासक एवं शोषक के साथ मिलकर निकृष्टतम तरीके से काम किया।

पाकिस्तान इस बात का जीवित अनुस्मारक है कि हमारी स्वतंत्राता की जीत किस प्रकार से अधूरी है और यह कि सामने अधिकाधिक कठिन परिस्थितियां मौजूद हैं।