/ब्रिटिश शासन के दौरान राजभक्ति के दबाव का परिशिष्ठ/
भाग एक : भारतीय कुलीनों और शुरू की कांग्रेस में राजभक्तों के ऐजेंटस्।
भाग दो : ’’स्वराज’’ और ’’स्वदेशी’’ के संघर्ष में ’’मध्यममार्गी’’ के विरूध ’’विप्लववादी’’।
तिलक और उनके निंदक - हिंदू पुनरूत्थान और साम्प्रदायवाद के आरोप।
स्वतंत्राता आंदोलन में तिलक की भूमिका के मूल्यांकन पर प्रायः ’’साम्प्रदायवाद’’ और ’’हिंदू पुनरूत्थान’’ के आरोपों द्वारा अड़ंगा डाला जाता रहा है। परंतु तिलक के सार्वजनिक जीवन के इतिहास का सूक्ष्म और संतुलित परीक्षण एक दूसरी ही कहानी कहता है। 1888 के करीब तिलक ने अपने पूर्व सहयोगी चिपलूंकर के साथ अंधदेशभक्त हिंदू पुनरूत्थानवाद के संकुचित और अलगाववादी कार्यक्रम के खिलाफ निर्णायक शुरूआत की। इसका मतलब यह नहीं कि वे हिंदू रीतिरिवाजों के प्रति उदासीन थे। परंतु कुछ नेता अवश्य थे। अनेक मुस्लिम नेता मौलाना थे और प्रायः हिंदू नेता आर्य समाज या ब्रम्ह समाज से ताल्लुकात रखते थे। गीता में तिलक की रूचि न तो अपवाद थी और न ही उसने कोई अप्रिय आलोचना पाई।
वास्तव में, तिलक की हिंदू दर्शन में रूचि न तो पुराणपंथता से और न ही प्रतिक्रियावादी पुनरूत्थान के रूझान से उत्पन्न हुई थी। स्वतंत्राता आंदोलन में उनके कर्मठ योगदान, राजनैतिक स्पष्टता एवं उनके संदेश की सरलता के संदर्भ में, यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि उनकी हिंदू और मराठा धरोहरों में रूचि ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली की छद्म और विदेशी चारित्रिकता से उत्पन्न हुई सांस्कृतिक शून्यता से पैदा हुई थी। प्राचीन भारतीय ग्रंथों और परंपरागत भारतीय निबंधों से प्रेरणा पाने के लिए समकालीन मूल्य की अंतरदृष्टि तिलक /और उनके समान अन्य नेताओं/ के लिए स्वाभिमान एवं स्वचेतना को बढ़ाने में सहायक हुई। उस समय उपनिवेशिन से प्रेरित मतों ने भारत की हर बात का मखौल उड़ाया और पश्चिमी विज्ञान तथा सभ्यता को भारत के शेष सब को समाप्त कर देने के लिए प्रोत्साहित भी किया। इनको चुनौति देता हुआ तिलक का यह एक महत्वपूर्ण कार्य था।
ऐसे समय जब पश्चिमी साहित्य और मूल्यों ने ’’राजभक्त’’ और ’’उदारपंथी’’ भारतीय राजनीतिज्ञों को मोहित कर लिया था, भारतीय सांस्कृतिक रीतिरिवाजों के साथ जुड़ना और उन्हें उभारकर सामने लाना किसी उत्कर्ष से कम न था। तिलक के संबंध में विशेष बात यह है कि उन्होंने कभी पश्चिम के वैज्ञानिक ज्ञान और तकनीक के साथ भारतीय रीतिरिवाजों को प्रतिपक्ष के समान पेश नहीं किया। वे विदेश-द्वेषी नहीं थे। वे यूरोप की वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक प्रगति से भारत को लाभांवित करना चाहते थे। औपनिवेशिक कार्यक्रमों के घोर आभारियों के विपरीत, उनने कोई ऐसा कारण नहीं देखा कि शिक्षित भारतवासी अपने देश की धरोहरों में रूचि रखने से परहेज करें।
गीता के बारे में तिलक
यह ध्यान देने योग्य है कि गीता पर उनकी विवेचना वास्तविक दुनिया से पलायन और त्याग को मानने वालों के लिए क्रांतिकारी है। गीता की उनकी व्याख्या समयानुकूल थी, स्वतंत्राता आंदोलन की भागीदारी को विस्तारित करने पर केंद्रीभूत थी और बहुत से मायने में गांधी की अपेक्षा उनकी अंतरदृष्टि दूरगामी थी। जबकि गांधी की दिशा आदर्शवाद की और, यहां तक कि, रहस्यवादी छायावाद की ओर उन्मुख थी। तिलक का तरीका कुशाग्रता से व्यवहारिक और वास्तविक कार्य की ओर सदैव उन्मुख होता था। हिंदू आध्यात्मवाद में उनकी रूचि अनुभव से पैदा हुई कि ब्रिटिश भारत में समाज को नैतिक मान्यताओं विहीन बना रहे थे, कि औपनिवेशिक शोषण जनता, समाज और देश के प्रति सामाजिक एकता और कर्तव्य की भावना को नष्ट कर रहा था। गांधी कभी कभी एकदम स्वेच्छाचारी प्रतीत होते और जो अपनी राजनीति में अस्थिर थे, के विपरीत तिलक ने अपनी शिक्षाओं के पालन में कठोर परिश्रम किया और वही शिक्षा दी जिसका वे पालन करतेे थे। जबकि गांधी आम जनता के सैन्य विप्लव से डरते थे। इसलिए उनने ऐसे विचारों को आगे किया जिसने खदबदाते सामाजिक और नैतिक विरोधाभासों को अस्पष्ट एवं धंुधला किया। तिलक को ऐसी कुंठा पालने की कोई मजबूरी नहीं थी। औपनिवेशिक शोषण के गैर समझौतावादी विरोध ने उनको ’’धर्म’’ या कर्तव्य के दृष्टिकोण का समर्थन करने का मौका दिया और यह एक प्रकार से औपनिवेशिक शासन एवं अन्याय के विरूध लड़ने में ज्यादा सुयोग्य एवं नीतिपूर्ण था।
अपने शुरूआती वर्षों में जब उन्होंने महाराष्ट्र् के हिंदू त्यौहारों में भागीदारी को प्रोत्साहित किया था, वे लोगों में विश्वास पैदा करने की इच्छा से प्रेरित हुए थे जिससे उपनिवेशन के प्रति जड़वत्ता के प्रभाव से लड़ा जा सके। इन गतिविधियों से मुस्लिमों में शत्राुता, आक्रोश और अलगाववादी भावनायें भड़केंगी यह बात उनको कभी नहीं सूझी क्योंकि वे कभी भी नहीं चाहते थे कि दो समुदायों के मध्य कोई दरार पैदा हो और वे चाहते थे कि समस्त त्यौहारों में दोनों समुदाय भाग लेते रहें।
हिंदू मुस्लिम एकता का महत्व
जैसे जैसे वे राष्ट्र्ीय नेता की तरह परिपक्व हुए वे स्वतंत्राता संग्राम में हिंदू मुस्लिम एकता के महत्व के प्रति ज्यादा सचेत हुए। 1893 तक तिलक जान चुके थे कि कैसे औपनिवेशिक प्रशासन के ऐंग्लो इंडियन अधिकारियों के उकसाने से हिंदू और मुस्लिम के बीच तकरारें पैदा होतीं थीं। औपनिवेशिक प्रशासकों की ’’बांटो और राज करो’’ नीति के प्रति वे भुलक्कड़ नहीं थे और जानते थे कि स्वतंत्राता के उद्देश में वह नीति कितनी घातक थी।
जेल से छूटने के बाद उनने देखा कि उनके जेल के वर्षों के दौरान राष्ट्र्ीय आंदोलन का कैसे पराभव हो चुका था और राष्ट्र्ीय आंदोलन की प्रगति के लिए हिंदू मुस्लिम अंग कितने गंभीर रोड़े बन गए थे। तिलक और कांग्रेस के उन जैसे धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने मुस्लिम नेताओं को शांत किया, स्वतंत्राता संग्राम में वापिस लाये और ’’स्वराज’’ के लिए मुस्लिम लीग के विश्वास को जीतने के लिए अपने प्रयासों को दुगना किया। हिंदू-मुस्लिम एकता को सर्वोपरि मानते हुए तिलक ने 1916 के कांग्रेस-मुस्लिम लीग के समझौते को पक्का करने में सहायता की जो वास्तव में, लीग की सभी मांगों को स्वीकार करता था।
लखनउ के 31 वें कांग्रेस के राष्ट्र्ीय अधिवेशन के भाषण में अपने धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण को इससे अधिक और क्या स्पष्ट किया जा सकता था जब उनने कहाः ’’कुछ लोगों के द्वारा कहा जाता है कि हम हिंदू अपने मुस्लिम भाईयों के लिए बहुत अधिक झुक चुके हैं। मुझे भरोसा है कि संपूर्ण भारत के हिंदू समुदाय की भावना का मैं प्रतिनिधित्व करता हूं, जब मैं यह कहता हूं कि हमें इतना अधिक नहीं झुकना चाहिए था।’’ उनने जोर देकर कहा कि वे भारतीय मुस्लिमों को /या कोई भी जाति के भारतीयों को/ ब्रिटिश द्वारा भारत के शासन को सौंपा जाना देखना ज्यादा पसंद करेंगे अपेक्षाकृत भारत में औपनिवेशिक सत्ता के सर्वोपरि की तरह ब्रिटिश के बने रहने के।
यद्यपि मुस्लिम लीग के राष्ट्र्ीय अधिवेशन के प्रति अमैत्राीपूर्ण रवैया दूर करने के तिलक के प्रयास असफल रहे और उस समय के दौरान लीग की गैर प्रजातंत्रात्मक और अतार्किक मांगों को लेकर तिलक और कांग्रेस के बीच की दूरी काफी बढ़ गई थी। इस बात को नकारा नहीं जा सकता।
इस प्रकार से तिलक के समकालीन मुस्लिमों ने तिलक को सच्चा ’’राष्ट्र्वादी’’ माना था। मौलाना शौकतअली और मौलाना हसरत मुहानी जो खिलाफत आंदोलन के पक्के सदस्य और राष्ट्र्ीय आंदोलन के शुरूआती समर्थक थे, तिलक के प्रशंसक थे, मुस्लिम लीग से जुड़ने तक। देशबंधु चितरंजनदास के विश्वसनीय समर्थक और ’’सुराजी’’ मजरूल हक ने तिलक की प्रशंसा की। कांग्रेस के अध्यक्षों में से एक डा. अंसारी ने भी स्वीकार किया कि तिलक की दृष्टि हिंदू प्रभुत्व की नहीं थी।
एक बार मुस्लिम लीग ने विभाजन का रास्ता पकड़ लिया, मुस्लिम लीग के जिन्ना, जो पहले तिलक का मैत्राीवत् आदर करते थे, जैसे पाकिस्तान पक्षधर एवं उत्पाती ने तिलक की निंदा करना शुरू किया, उनको हिंदू पुनरूत्थानवादी और साम्प्रदायवादी कहना शुरू किया।
एकबार मुस्लिम लीग ने विभाजन का मोड़ दृढ़ता से पकड़ा, यह आश्चर्यजनक नहीं था कि पाकिस्तान के चितेरे तिलक के विरूद्ध तीक्षणता से मुड़ गए और तिलक के बारे में जो कुछ पहले कहा था का खंडन करना शुरू कर दिया। दो-देश नीति को इस प्रकार के खंडन मंडन की आवश्यकता थी और भारतीय स्वतंत्राता आंदोलन के शुरू के वर्षों में उत्साहवर्धक योगदान देने वाले तिलक के सार्वजनिक जीवन को तंगनजरी से खंडित रूप में प्रस्तुत किया गया।
यद्यपि जिन्ना समानरूप से कांग्रेस /जिसे ’’हिंदू’’ संगठन कहकर त्यागा था/ पर प्रहार करने से चूकते नहीं थे, उनके तिलक के प्रहार कुछेक भारतीय उदारपंथियों में प्रतिछाया स्वरूप पाये जाते थे। परंतु पहले जैसा कहा गया है, तिलक हिंदू संस्कृति और दर्शन में रूचि रखने वाले राष्ट्र्ीय नेताओं में मुश्किल से अकेले ही थे। खास विडम्बना यह थी कि उनके बड़े आलोचक खुद साम्प्रदायिकता में डूबे हुए थे और स्वतंत्रा भारत में समाज के विकास और प्रौढ़ता के संबंध में प्रतिक्रियावादी तथा पुरांणपंथी दृष्टिकोण रखते थे। तिलक के भारतीय आलोचक जो उन्हें ’’जातिवादी’’ अछूत मानते थे, वे गंभीररूप से विभ्रांत या मिथ्यासूचित थे, परंतु संभवतया वे धर्मनिरपेक्षता की हिंदू-दुर्भीति की भावना के वशीभूत हो चुके थे।
अहिंसा और तिलक
1908 में /हिंदू, मुस्लिम या सिख/ भारतीय स्वतंत्राता आंदोलन में तिलक के स्तर के कम ही नेता थे और अनेक मायनों में उनके विचार गांधी के विचारों से आगे थे। कोई भी स्वतंत्राता या उन्नति प्रेमी इस बात से अवगत होगा। अहिंसा पर तिलक के आलेख अग्रिमबुद्धि को प्रगट करते थे। तिलक न तो बंदूक-पूजक थे और न ही हिंसा त्याग के आदर्शवादी। 1908 में उनने देखा कि नागरिक अवज्ञा के द्वारा अहिंसक प्रतिकार ही संघर्ष का उपयुक्त तरीका था क्योंकि उस खास समय में ब्रिटिश के विरूद्ध सशस्त्रा संघर्ष के जीतने की संभावनायें उनने नहीं देखीं। परंतु न तो इस शंका से इंकार किया कि एक समय ऐसा आ सकता है कि जब भारतीय जनता सशस्त्रा संघर्ष के लिए समर्थ, तत्पर और तैयार होगी, यदि अन्य कोई विकल्प ब्रिटिश को परास्त करने के लिए सफल नहीं होता तो। इस कारण वे सशस्त्रा क्रांतिकारियों की निंदा करने के लिए कभी तैयार नहीं हुए और भारतीय स्वतंत्राता के उद्देश के लिए हर एक सशस्त्रा क्रांतिकारी को विधिसम्मत योद्धा एवं शहीद मानते थे। व्यवहारिक यथार्थवाद के तत्वों को निडर त्याग के सिद्धांत के साथ संलग्न करना वह था जिसने युवा तिलक को राष्ट्र्ीय महत्व के बड़े नेता बनने में परिपक्व किया। उनका सार्वजनिक जीवन बतलाता है कि वे भारतीय जनता के प्रति अपेक्षाकृत अपने धोखेबाज एवं पाखंडी विरोधियों के, ज्यादा स्पष्टवादी और निष्कपट थे। परंतु वे अपने समकालीनों की तुलना में दांवपेंच एवं रणनीति के मामलों में अधिक जकड़े हुए थे। तिलक ने राष्ट्र्हित के लिए धैर्य एवं समर्पण का वह स्तर दिखलाया जो उनके निंदकों से ज्यादा उंचा था, वह भारतवासियों को संदेश देने में कतई नहीं हिचकचाये। यद्यपि शुरू के वर्षों में नजरबंदी ने तिलक की हिम्मत को गंभीररूप से कमजोर किया पर तिलक जैसे नेता थे जिनने जनता के आंदोलन में जान फूंकी और समय के साथ स्वतंत्राता संग्राम के विस्तार और गूढ होने के लिए भूमि तैयार की।
"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।