"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

जम्मू और कश्मीरः स्व निर्णय, जनमत संग्रह की मांग और अलहदगी विरोधाभाषों का परीक्षण

( डा. महाराज कौल, जन्म श्रीनगर, कश्मीर)

1989 से जम्मू एवं कश्मीर राज्य में पाकिस्तान के धीमे मुखतारी युद्ध की शुरूआत से, आतंकवादी हिंसा ने 20,000 निरापराध लोगों की जान ले ली। कश्मीर घाटी और अन्य सीमावर्ती क्षेत्रों के 3,00,000 लोगों से अधिक हिंदू और सिख अल्पसंख्यक विस्थापित हो चुके हैं। हिंसा और अभित्रास ने राज्य के नागरिक जीवन की शांति भंग कर डाली है और सीमापार का आतंकवाद हर दिन निरापराध लोगों का जीवन लेता आ रहा है। हाल ही में, पाकिस्तान ने कारगिल आक्रमण का उपयोग, बड़े पैमाने पर, भाड़े के सशस्त्रा सैनिकों को राज्य में घुसपैठ कराने के लिए किया जिन्होंने हाल के लोक सभा के चुनावों में लोगों की भागीदारी को गंभीररूप से उलझाते हुए हिंसा को एक और कदम आगे सरका दिया।

जम्मू और कश्मीर में आतंकवादी हिंसा के द्वारा पैदा की गई खलबली ने पाकिस्तान और राज्य के अनेक अलहदगी खेमों को जम्मू और कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग को तेज करने का मौका दिया जिसे अगस्त 13, 1948 और जनवरी 5, 1949 में युनाईटेड नेशनस् कमीशन फाॅर इंडिया एण्ड पाकिस्तान, युएनसीआइपी, ने प्रस्तावित किया था। जनमत संग्रह के वर्तमान पक्षधरों ने यह कभी नहीं बतलाया कि वह तो पाकिस्तान ही था जिसने युएनसीआइपी के प्रस्तावों के परिपालन में रूकावटें डाली थीं और 1972 के भारत एवं पाकिस्तान के शिमला समझौता ने दोनों देशों के बीच के दूसरे समझौतों को युएनसीआइपी के प्रस्तावों समेत खारिज कर दिया था।

तब भी जनमत संग्रह का मसला जिसे पाकिस्तान और साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा बहुत अधिक प्रचारित किया गया था, ने अनेक नेकनियत भारतीयों को तंग किया जो यह जानते हैं कि शिमला समझौते पर जोर देकर और जनमत संग्रह को त्याग कर, नैतिक तौर पर, भारत एक कमजोर धरातल पर खड़ा है। जम्मू और कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग बहुत ज्यादा गलत समझी गई है। यह एक भ्रम है कि जनमत संग्रह की मांग राज्य की जनसंख्या के सब लोगों की इच्छा या एक बड़े बहुमत को जाहिर करती है, और केवल वही एक रास्ता है, जम्मू और कश्मीर की जनता के स्वनिर्णय के अधिकार को स्पष्ट करने का। यद्यपि सद्इच्छा सदृश्य, जो राज्य की जनता की सभी समस्याओं का निदान जनमत संग्रह को मानते हैं, वास्तव में, वे इस मसले की चारों तरफ की ऐतिहासिक और सामाजिक जटिलताओं से अनभिज्ञ हैं।

जम्मू और कश्मीरः एक बहुजातीय राज्य

समाचार माध्यमों की रिपोर्ट के विपरीत, जम्मू और कश्मीर एक ऐसा राज्य नहीं है जहां केवल कश्मीरी मुस्लिम रहते हों। यह एक बहुजातीय और बहुधर्मी राज्य हैः 64 प्र.श. मुस्लिम; 33 प्र.श. हिंदू और 3 प्र.श. बौद्ध, सिख, ईसाई और अन्य। वहां तीन खास भौगोलिक क्षेत्रा हैं - लद्दाखः 58 प्र.श. क्षेत्रा और 3 प्र.श. जनसंख्या; जम्मूः 26 प्र.श. क्षेत्रा और 45 प्र.श. जनसंख्या और कश्मीरः 16 प्र.श. क्षेत्रा और 52 प्र.श.जनसंख्या। /प्रदेश के अल्पमतांबलंबियों का 90 प्र.श. से अधिक अर्थात् राज्य की कुल संख्या का 3 प्र.श. राज्य के बाहर खदेड़ दिया गया है।/ लद्दाख की मूल भाषायें लद्दाखी और बल्की हैं, जम्मू की डोंगरी और कश्मीर की कश्मीरी। इनके अतिरिक्त गुजरी, पहारी, पंजाबी, सिंहा और मिश्रित भाषायें एवं विभिन्न बोलियां राज्य में, विभिन्न जातीय समूहों द्वारा बोलीं जातीं हैं।

राज्य के 15 प्र.श. मुस्लिम जम्मू और लद्दाख के प्रांतों में रहते हैं। वे गैरकश्मीरी हैं और कमोबेश, जम्मू और कश्मीर की भारत के साथ संयुक्तता के पक्षधर हैं। /डोंडा जिले के कुछ शहरों में अपवाद हैं।/ राज्य का 49 प्र.श. जो कश्मीर प्रदेश में रहता है, लगभग 13 प्र.श. शिया मुस्लिम हैं। इस बात को पूरी तरह से जानते हुए कि पाकिस्तान में उनके भाग्य का क्या होगा शिया मुस्लिम सुन्नी शासित पाकिस्तान के साथ कुछ भी करने के इच्छुक नहीं हंै। /अभी अभी अक्टूबर 4 को हिंदुस्तान टाईम्स् ने खबर छापी थी। पाकिस्तान के शूरावहादत ये इस्लामी को उद्धृत किया जिसने पाकिस्तान में शिया मुस्लिमों के संहार की भर्तस्ना की थी।/ कारगिल के शिया के साथ यह खास सत्य है कि उनके जातीय सहोदरों ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के एक हिस्से ’’उत्तरी क्षेत्रा’’ बल्टिस्तान में भयंकर गरीबी और अधोगति अनुभव की थी । कश्मीर प्रदेश की जनता के 14 प्र.श. घुमंतू पशुपालक गुजर और बकरबाल लोग हैं। आतंकवादी गतिविधि के विरूद्ध सुरक्षा ताकतों को मदद देने में वे लोग भारत के साथ जुड़ाव के बड़े समर्थक हैं और इस बात को मिलीटेंसी मुखालिफ मोर्चा /ऐंटी मिलीटेंसी फ्रंट/ संगठित करके प्रगट कर चुके हैं जहां तक गैर मुस्लिम हिस्सों का संबंध है उनके लिए तो बहुधर्मी और धर्मनिरपेक्ष भारत के बाहर रहने के विचार का कोई कारण ही नहीं है। संदर्भ 1।

जम्मू और कश्मीर की अलहदगी का बड़े पैमाने पर समर्थन कश्मीर घाटी के गैर पशुपालक सुन्नी मुस्लिमों तक सीमित है जो राज्य जनसंख्या के 22 प्र.श. हैं या लगभग 1.9 मीलियन लोग हैं। राज्य की राजनीति पर जनता का यह हिस्सा प्रभाव रखता है। बहुत लोग जम्मू और कश्मीर में बहुत दूर दूर तक फैली अलहदगी की भावना के होने का विश्वास करते हैं क्योंकि इस प्रभावी हिस्से ने राज्य की दूसरी आवाजों को दबा रखने में सफलता पाई है और सामान्य कार्यकलापों को पंगू बना डालने की क्षमता कश्मीर प्रदेश के समाज को हासिल है, फिर चाहे पाकिस्तानी घुसपैठियों या आतंकवादियों या उससे भी बुरा तोड़ फोड़ करने वालों के खिलाफ उनके निष्क्रिय या अपर्याप्त कार्यकलाप ही क्यों न हों। राज्य की जनता का यह वह हिस्सा है जो पाकिस्तान और साम्राज्यवादी देशों से पूरा ध्यान प्राप्त करता है और भारतीय प्रेस से भी।

चूंकि जम्मू और कश्मीर की अद्वितीय जनता के हर हिस्से पर स्वनिर्णय के विचार को लागू किया जाना चाहिए, वहां अलहदगी के साथ स्वनिर्णय का कोई भी समीकरण नहीं हो सकता। सचमुच ही, यदि अविभाजित राज्य में /कश्मीर के पाकिस्तान अधिकृत प्रदेश जिसे पाकिस्तान ’’आजाद’’ कश्मीर और ’’उत्तरी प्रदेश’’ कहता है/ और तटस्थ देखरेख में वहां के लोगों को तीन विकल्प देकर - भारत से जुड़ो, पाकिस्तान से जुड़ो या स्वतंत्रा होकर रहो - जनमत संग्रह करवाया जाये तो परिणाम अलहदगीवाले मतदाताओं के लिए विस्मयकारी होंगे। बहुमत भारत के साथ जायेगा क्योंकि अलहदगीकारी मत पाकिस्तान के पक्ष और स्वतंत्राता के पक्ष में बंट जायेगा। सयैद अली गिलानी, जम्मू और कश्मीर की जामयते इस्लामी नेता, स्वतंत्राता के विकल्प का विरोध करते हैं क्योंकि उनको भय है कि यह मत भारत के पक्ष में विभक्त हो जायेगा। संदर्भ 2।

दूसरी ओर, यदि राज्य की जनता को केवल दो ही विकल्प दिये जायें - भारत से या फिर पाकिस्तान से जुड़ने का, तब भी बहुमत भारत के पक्ष में ही जायेगा। 12.8 मीलियन लोग अविभाजित राज्य के /1999 का अनुमान, नोट को देखिए/ और अब जम्मू और कश्मीर की जनसंख्या है 8.5, ’’आजाद’’ कश्मीर की 2.8 और ’’उत्तरी क्षेत्रों’’ की 1.5 मीलियन। यदि जम्मू और कश्मीर, ’’आजाद’’ कश्मीर और ’’उत्तरी क्षेत्रों’’ के सभी 1.9 मीलियन मत पाकिस्तान को जाते हैं तब भी, 6.6 मीलियन मत भारत को प्राप्त होंगे और इस तरह 6.2 मीलियन मत पाकिस्तान को छोड़ देगा ! यहां तक कि हाल की हलचलों के परिणामस्वरूप भारत की पक्षधता में आई गिरावट के विश्लेषण की स्थिति और राज्य के कुछ मुस्लिम गुट्टों के पाकिस्तान के पक्ष में कुछ छिड़काव की स्थिति में जनमत संग्रह के परिणाम बहुत ही कांटे की टक्कर के होंगे। वास्तव में निम्नलिखित कारणों से पाकिस्तान को बहुत ही कम मत प्राप्त होंगेः-

1. क्योंकि 1948 से घाटी की सुन्नी जनता, राज्य की जनसंख्या का 22 प्र.श. को जम्मू और कश्मीर के वैधानिक, राजनैतिक, प्रशासनिक ढांचों और विधानसभा के चुनावों मंे जम्मू प्रदेश की अपेक्षा ज्यादा वजन प्राप्त होता रहा। जनसंख्या के आकार पर आधारित कश्मीर प्रदेश को विधानसभा में 44 सदस्य भेजना चाहिए परंतु भेजे जाते हैं 46 सदस्य। दूसरी ओर जम्मू प्रदेश को 39 सदस्य भेजना चाहिए परंतुु भेजे जाते हैं 37 सदस्य ! सरकारी मंत्राणालय और प्रशासनिक निकाय भी कश्मीर भाषायी घाटी के सुन्नियों द्वारा ही प्रशासित किए जाते थे।

इस गुट्टीकरण ने स्त्रोत्ों का असंतुलित भाग खुद की उन्नति के लिए छीना। इस गुट ने ही जनमत संग्रह एवं अलहदगी के हौआ को /स्वनिर्णय की पकड़ में/ भारत की केंद्रीय सरकार से सहुलियतें मूलरूप से अपनी ओर खींच लेने के लिए उभाड़ा था। ये सहुलियतें आर्थिक अनुदान, परिदान और अन्य तरीकों से दीं गईं थीं। इस तरह इस गुट ने अपना राजनैतिक दबाव बनाये रखने और राज्य की प्रजातंत्रात्मक व्यवस्था को क्षति पहुंचाने में मदद की।

जो भी हो यदि भारत की केंद्रीय सरकार इस झांसे को बता पाती तो जम्मू और कश्मीर में अलगाववादी राजनीति बदल जाती और यदि सचमुच में जनमत संग्रह करवा दिया जाता तो जम्मू और कश्मीर से पाकिस्तान के समर्थन का जनाधार 1.9 मीलियन से नीचे गिर गया होता। जनमत संग्रह और उसके प्रचार का मूल्य साफ तौर पर, उसे भारत के द्वारा अस्वीकार करने में ही है। इस मांग की कूट उपयोगिता खत्म होती और अलगाववादियों के समझदार लोग पाकिस्तान को छोड़ भारत को अपना समर्थन देते।

2. इस बात की भी संभावना है कि ’’उत्तरी क्षेत्रों’’ की जनता का एक महत्वपूर्ण प्रतिशत भारत के लिए मतदान करे। इस प्रदेश की जनता इस क्षेत्रा की संपूर्ण उपेक्षा के कारण पाकिस्तान के प्रति बहुत प्रतिकूल है। जम्मू और कश्मीर की 59 प्र.श. शिक्षा के मुकाबले ’’उत्तरी क्षेत्रों’’ की शिक्षा मात्रा 7 प्र.श. है। 1947 से वहां की समाज में बहुत की कम प्रगति हो पाई है - स्कूल, अस्पताल, पक्की सड़कें, बिजली और पानी की नल व्यवस्था व्यवहारिक तौर पर अस्तित्व में ही नहीं हैं। निवासियों को संवैधानिक अधिकार नहीं हैं और अभी तक भी वे सीमावर्ती कानूनों के द्वारा ही शासित हैं। इन कानूनों को ब्रिटिश शासन ने लागू किया था। वहां के पहले के निरंकुश राजाओं में से कुछ के द्वारा अभी भी लोगों से कृषि दासों जैसा व्यवहार किया जाता है। ऐसी खबरें प्राप्त होतीं रहतीं हैं। क्योंकि ’’उत्तरी क्षेत्रों’’ के पूर्वी हिस्सों की जनता बल्ती भाषायी सुन्नी मुस्लिम हैं वे सहज ही कारगिल इलाके के अपने भाईयों से मिलने का निर्णय कर सकते हैं और भारत के पक्ष में मत दे सकते हैं। /यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारतीय चुनावों में करगिल और लद्दाख की जनता की उत्साहपूर्वक भागीदारी होती है और मतदान 70-80 प्र.श. नित्यकर्म की तरह से राष्ट्र्ीय औसत को पार करता है।/

इस सब पर विचार करते हुए कोई पूंछ सकता हैः तब भारत जनमत संग्रह को स्वीकार क्यों नहीं कर लेता ? सच तो यह है कि भारत ने तो तब स्वीकार किया था जब उसने शुरूआत में युनाईटेड नेशनस् में अपने ओर के हिस्से में पाकिस्तान के आक्रमण के खिलाफ शिकायत दर्ज की थी। उस समय एंग्लो-अमेरिकन साम्राज्यवादी संधि ने भारत की इस शिकायत को भारत और पाकिस्तान के बीच के झगड़े में बदल दिया था। इस प्रकार से आक्रमणकारी को आक्रांतित के बराबरी का मानते हुए, समीकरण बदल दिया था। भारत बहुत समय तक जनमत संग्रह के लिए युएनसीआइपी के प्रस्तावों के द्वारा निर्धारित पूर्व स्थितियों को पाकिस्तान के द्वारा कायम किये जाने का रास्ता देखता रहा था। परंतु उन प्रस्तावों की परिपूर्णता के बजाय पाकिस्तान ने 1965 में दुबारा कश्मीर पर आक्रमण कर दिया था !

1947 में कश्मीर का भारत में आगमनः स्वनिर्णय की प्रक्रिया

’’पाकिस्तान ने क्या किया और क्या नहीं किया इसको ध्यान दिए बिना कश्मीर ने एकबार एक प्रकार का जनमत संग्रह 1947 में कर लिया था। यह संग्रह तब किया जब विभिन्न हिस्सों और तकबे के कश्मीरियों ने पाकिस्तान के आक्रमण और उसी वर्ष अक्टूबर में पाकिस्तान समर्थित छापामारों का उद्धता से प्रतिरोध किया था। छापामारों ने मुजफराबाद को लूटा, बारामूला तथा राजौरी के शहरों को तहस नहस कर डाला और हजारों नागरिकों की हत्या की। सब कुछ मात्रा कुछेक दिनों में।’’ इस बात को जानते हुए कि घाटी को पाकिस्तानी लुटेरे खा जायेंगे, सर्वाधिक प्रचलित राजनैतिक पार्टी नेशनल कांफे्रंस ने वहां का वास्तविक प्रशासन अपने हाथों में ले लिया था और आक्रमण को रोकने तथा जरूरी संस्थानों की सुरक्षा के लिए 10,000 कश्मीरी स्त्राी पुरुषों की एक सेना संगठित की। शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने महात्मा गांधी से कश्मीर की रक्षा के लिए भारतीय सेना को भेजने की प्रार्थना की थी। उस समय, नेशनल कांफ्रेस ने अपने यहां की सभी गाड़ियों को भारतीय सेना को जो हवाई रास्ते से वहां पहुंचने वाले थे, मुहैया कराने के लिए अपने आधीनस्थ कर लिया था। जब भारत की सेना का पहला जत्था नवम्बर 1947 में सड़क मार्ग से पहुंचा, श्रीनगर में रास्ते के दोनों ओर पंक्तिबद्ध भीड़ ने भारतीय तिरंगे झंडे हिलाते हुए उनका स्वागत किया था। वह कश्मीर के स्वनिर्णय का नमूना ही था।

जब शेख मोहम्मद अब्दुल्ला, बक्सी गुलाम मोहम्मद, गुलाम मोहम्मद सादिक, मौलाना सईद मसूदी कश्मीर के राजशाही से स्वतंत्राता के नेताओं ने पाकिस्तान के सामंतशाही राज्य और कश्मीर में उनके साम्राज्यवादी स्वार्थों के खिलाफ बोला था, दो राष्ट्र् सिद्धांत के विरूद्ध सार्वजनिक घृणा प्रगट की, जब उन्होंने कश्मीर की सुरक्षा के लिए भारतीय सैन्य टुकड़ियों का अभिवादन किया तब उन्होंने कश्मीरियों के बहुमत की भावनाओं को ही तो व्यक्त किया था। वह भी तो कश्मीरियों के स्वनिर्णय का इजहार था।

आज के आतंकवाद की तुलना ’’स्वतंत्राता संघर्ष’’ से करना उन बलिदानियों एवं नेताओं का अपमान करना होगा। आज शेख अब्दुल्ला की कब्र को राष्ट्र्ीय सुरक्षा शक्तियों द्वारा रक्षित करना होता है क्योंकि डर है और जैसी आतंकवादियों ने धमकी भी दी है कि मृत नेता के शरीर को खोद निकालेंगे एवं उसे अपवित्रा करेंगे। आठ साल पहले आतंकवादियों की गोलियों के शिकारों में से आसीतिक वर्षीय मौलाना सईद मसूदी भी एक थे, एक स्वतंत्राता संग्राम सेनानी। आज कश्मीर में जो हो रहा है वह है पाकिस्तान के द्वारा दो राष्ट्र् सिद्धांत और इस्लामी रूढ़िवाद की अगुआई में भारत के विरुद्ध धीमी प्रगाढ़ता का युद्ध। ’’आजादी’’ तो एक झीना परदा है जिसके तहत वास्तव में, धार्मिक कट्टरपंथी एवं मजहबी पाकिस्तान के समर्थन से ’’स्वतंत्राता संग्रामी’’ ने धर्मनिरपेक्ष भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है। सत्य यह है कि 1947 में, कश्मीर ने जनमत संग्रह कर लिया था और वहां की जनता ने भारत के पक्ष में अपना मत प्रगट किया था और आज भारत दूसरे जनमत संग्रह के लिए नकारता है तो उसके अनेक वैधानिक कारण हैं। क्या वहां जनमत संग्रह आतंकवाद और हिंसा के वातावरण में कराया जा सकता है ? गत दो माह में श्रीनगर के अखबार अलहदगी के समर्थन के समाचार प्रकाशित कर रहे थे और भारतीय संसदीय चुनावों को प्रोत्साहित करने या उनमें भाग लेने वालों के लिए मौत की धमकियां दे रहे थे। जब तक कि स्वतंत्रा और निष्पक्ष बातचीत का वातावरण और विश्वास एवं आस्था की स्थितियां मौजूद न हों, कोई वास्तविक प्रतिनिधित्वकारी जनमत संग्रह संभव नहीं। इस पर भी सीमा के दोनों ओर स्वतंत्रा और ईमानदार अभियान और भयरहित भागीदारी की सुनिश्चितता की आवश्यकता है। पाकिस्तान की मोहरा समाचार तंत्रा का इतिहास, सैन्य तख्ता पलट और जनता द्वारा चुनी गईं सरकारों की बरखास्तगी - क्या ये सब ईमानदार स्थितियों का आस्वाशन दे सकेंगे - संभव नहीं, और दुनियां के संबंधों में पक्षपाती भूमिका होने के कारण संयुक्त राष्ट्र् ही कोई ऐसा आस्वाशन दे सकेगा - संभव नहीं। याद कीजिए साम्राज्यवाद की बड़ी बड़ी गतिविधियां - कोरिया से इराक और यूगोस्लाविया तक - में संयुक्त राष्ट्र् को किस प्रकार से एक प्यादे की तरह से उपयोग में लाया गया था।

1948-49 में युएनसीआइपी के जनमत संग्रह से संबंधित प्रस्तावों ने पाकिस्तान पर सुस्पष्ट जिम्मेवारियां सौंपीं थीं जिन्हें पाकिस्तान वहां दे सकने में असफल रहा था। किसी भी नए जनमत संग्रह के स्वीकारने का मतलब पुनः उन्हीं शक्तियों को पुख्ता करना होगा जिन्होंने पहले जनमत संग्रह को रोका था।
साम्राज्यवाद के युग में अलहदगी

जैसा पहले बताया गया है कि स्वनिर्णय के अधिकार को अलहदगी के अधिकार से नहीं तौला जा सकता और न ही जोड़ा जा सकता, खासकर वहां जहां बहुजातीय, बहुभाषी और बहुधर्मी समाज हो। तब भी अलहदगी के मत के परीक्षण में अनेक दूसरे गंभीर कारण हैं, ऐसे युग में जहां साम्राज्यवाद एक बड़ी शक्ति और दुनियां की प्रबल ताकत हो। 1947 में, कश्मीर ने अपने स्वनिर्णय के अधिकार का पहला उपयोग किया था परंतु उसे साम्राज्यवादी ताकतों ने स्वीकार नहीं किया इसलिए उसकी सारता को निरस्त करने का रवैया जारी है। यही रवैया जम्मू और कश्मीर के लिब्रेशन फ्रंट, जेकेएलएफ, के 33 वर्षीय यासमीन मलिक को कश्मीर में दूसरे जनमत संग्रह की मांग के लिए प्रोत्साहित करता रहता है क्योंकि वह पहले जनमत संग्रह के 19 वर्षों बाद पैदा हुआ था और जिसे वह आसानी से खारिज करता है। यदि कोई इस बात को मान ले कि 1947 में कश्मीर का भारत से अधिमिलन अवैधानिक था, तब स्वनिर्णय के मत का समूचा ही सिद्धांत ओछा हो जायेगा। तब स्वनिर्णय का अधिकार एक मतदान प्रक्रिया के रूप में सीमित हो जायेगा। नई पीढ़ी की मांग के लिए प्रति 25 वर्षों में दुहराया जाने जैसा हो जायेगा और उनकी नसमझी से एक देश की सीमायें पुनः परिभाषित की जायेंगी ! यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि यदि इसी नुख्से को स्वीकार कर संपूर्ण दुनियां पर लागू किया गया तो दुनियां का क्या हश्र होगा ?

बहुजातीय, बहुभाषी और बहुधर्मी राज्य में अलहदगी

दूसरे, जनमत संग्रह में अल्पसंख्यक की भावनाओं का क्या होगा ? यदि जम्मू और कश्मीर की 51 प्र.श. जनता मजहबी पाकिस्तान या मजहबी स्वतंत्रा कश्मीर को मत देता है तो क्या इस प्रकार से, 49 प्र.श. अल्पसंख्यकों को उस मजहबी राज्य को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाना न्यायपूर्ण होगा, उस राज्य द्वारा बड़ी धमकियों के बाबजूद ? जम्मू और कश्मीर के हिंदू, बौद्ध, सिख, गूजर, बकरबाल और शिया लोग वास्तविक रूप से डरते हैं कि पाकिस्तान राज्य या तालिबान जैसे राज्य में उनको मार डाला जायेगा। महिलायें डरतीं हैं कि जो स्वतंत्राता उनके पास है वह छीन ली जायेगी और उन्हें तालिबान जैसी बर्बर पितृसत्तात्मक व्यवस्था की ओर ढकेल दिया जायेगा। यदि ’’बहुमत’’ एक बहुधर्मी धर्मनिरपेक्ष भारत में नहीं रह सकते तो फिर एक बड़े अल्पमत को धर्मतंत्रा में रहने के लिए कहना कहां तक न्यायपूर्ण होगा ?

यदि बहुमत स्वतंत्रा रहने या पाकिस्तान में रहने के पक्ष में हो जाता है तो अल्पमत लोगों की सुरक्षा का क्या आश्वासन होगा ? यद्यपि जेकेएलएफ जैसे कुछ गुट धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं परंतु उनका नेतृत्व और सदस्यता लगभग सुन्नी मुस्लिमों से बनी है। उनकी सदस्यता में हिंदू, सिख अथवा बौद्ध नहीं हैं। साथ ही जेकेएलएफ का पाकिस्तान की आईएसआई से घनिष्ठ संबंध हैं - तालिबानों के निकट के सहयोगी। यही संबंध जेकेएलएफ को सबसे पहला अवसरवादी संगठन प्रगट करता है जो अपनी रूढ़िगत विचारधारा को धर्मनिरपेक्षता और स्वतंत्राता के मुखौटों से ढांपे हुए है। उसके ’’आजादी’’ जैसे नारे से किसी को भी भ्रमित नहीं होना चाहिए। यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि 1990 के दशक में उनका नारा थाः ’’आजादी का क्या मतलब ? ला इल्लाह इल्लाल अल्लाह’’ को आजादी माना था, इस्लामी शासन से सीधे सीधे ! ’’आजादी’’ के मानने वाले अपने समर्थकों को बहुदा सर्व इस्लामी नारों के पीछे लाने का प्रयास करते रहते थे जो ’’आजाद’’ कश्मीर के भविष्य के प्रश्न से जुड़ा था ठीक वैसे ही जैसे कि साउदी अरेबिया और अफगानिस्तान के असहय इस्लामी राज्य हैं। अलहदगीवादी नेता जो कुछ कहते हैं के विपरीत ’’आजादी’’ के मतदाताओं और इस्लामी रूढ़िवादियों के बीच अटूट और गूढ़ संबंध हैं।

इस सब के उपर, स्वनिर्णय का सिद्धांत सभी जातियांे पर लागू होना चाहिए। यदि कश्मीर प्रदेश के बहुसंख्यक मुस्लिमों को भारत से अलग होने और एक अलहदा राज्य बनाने का अधिकार है तो अल्पसंख्यकों को उस नये राज्य से अलहदगी का अधिकार होना चाहिए। यदि शिया सुन्नियों द्वारा दबाये जाते हैं तो वही अधिकार उनको भी मिलना चाहिए। अलहदगी चाहने वालों की विडम्बना यह है कि वे नितांत अपने लिए ही अलहदगी का अधिकार चाहते हैं। वे स्वतंत्राता चाहते हैं केवल दूसरों की स्वतंत्राता को नकारने के लिए।

एक आंशिक समाधान की तरह कुछ लोग प्रदेशबार जनमत संग्रह का सुझाव देना चाहेंगे परंतु अविभाजित राज्य के नक्शे को देखने से पता लगेगा कि यह सुझाव कितना अव्यवहारिक होगा। कश्मीर घाटी कारगिल और लद्दाख के दूरस्थ प्रदेशों को जम्मू और बाकी भारत से विभाजित करती है। कारगिल और लद्दाख के पहाड़ों की सुरक्षा के रास्ते कश्मीर घाटी में से होकर जाते हैं। कश्मीर घाटी के अलहदगी को स्वीकार करने का मतलब है कारगिल और लद्दाख की जनता का विनाश। और सबसे बुरा तो यह होगी कि कश्मीर प्रदेश भौगोलिकरूप से बिखरी हुई जागीरों की गुदड़ी में खुदबखुद बिखरकर विभाजित हो जायेगा।

क्या कश्मीरी उत्पीड़ित हैं ?

तीसरे, यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अलहदगी की ओर स्वनिर्णण की मांग आम तौर पर उत्पीड़ित लोगों के द्वारा की जाती है। क्या कश्मीरी लोग उत्पीड़ित हैं ? 1947 में, भारत में जम्मू और कश्मीर आर्थिक सीढ़ी पर नीचे की ओर था। 1960-61 में भारत के 16 राज्यों में से प्रति व्यक्ति आय के मामले में 11 वीं श्रेणी में था और 1971-72 में 24 राज्यों में से 14 वीं श्रेणी में। परंतु प्रचुर केंद्रीय सहायता से उसने अपनी स्थिति को 1981-82 में 7 वीं श्रेणी तक औद्योगिक पश्चिमी बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तामिलनाडू को पीछे छोड़ते हुए सुधार लिया था। संदर्भ 3।

सबसे ज्यादा आय श्रीनगर जैसे बड़े शहरी इलाकों के इर्द गिर्द बढ़ी थी जहां सामाजिक विकास का सूचनांक /जो साक्षरता, स्वास्थ्य देखरेख और अन्य सामाजिक सेवा इत्यादि/ राज्य के 14 जिलों में से सबसे अधिक है। तब भी अलगाववादी भावना इस प्रदेश में सबसे अधिक है। संदर्भ 4।

कश्मीर पाकिस्तान की तुलना में

सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि भारतीय कश्मीर और पाकिस्तान की तुलना करना बेहतर होगा। कश्मीर की साक्षरता 59 प्र.श. पाकिस्तान की 44 प्र.श. साक्षरता की तुलना में अधिक है। सामान्यतया, भारत में सामाजिक स्तर पाकिस्तान से कई घाट आगे है। यहां तक कि यदि कश्मीर की सांकेतिकताएं भारत की औसत से अच्छी नहीं थीं, तब भी, वे भारत के साथ पाकिस्तान की तुलना में ज्यादा अच्छीं थीं। भारत में प्रति व्यक्ति ली जाने वाली उष्मा अब उंची है और शिशु मृत्यु दर कमतर है। भारत ने मूलभूत सुविधायें विकसित करने में बड़े बड़े कदम उठाये हैं - जैसे रेलवे, दूरभाष या जनसंपर्क साधन। भारतवासी अब संभवतया दूरभाष, रंगीन और केबिल दूरदर्शन को पायेंगे। वे अंतरराष्ट्र्ीय आर्थिक समुदाय के कम कर्जदार हैं। पाकिस्तान में प्रति व्यक्ति कर्ज भारत के कर्ज से दुगना है। भारत ने धर्मनिरपेक्ष राज्य होने के कारण वैज्ञानिक और अनिवेषणात्मक शिक्षा को ज्यादा महत्व दिया है। उदाहरण के लिए स्वतंत्राता बाद दी गईं पाकिस्तान में 5000 पीएचडी में से 4,500 पीएचडी इस्लामिक अध्ययन के लिए और 500 से कम वैज्ञानिक अध्ययनों के लिए। भारत में 75,000 पीएचडी में से 35,000 पीएचडी धार्मिक अध्ययन के लिए और 40,000 पीएचडी वैज्ञानिक अध्ययनों के लिए दीं गईं। इसका मतलब है कि यद्यपि भारत की जनसंख्या 6 गुना ज्यादा है पाकिस्तान के मुकाबले, तो भी भारत ने पाकिस्तान की तुलना में 80 गुना अधिक पीएचडी वैज्ञानिकों के तैयार करने में दीं। सभी प्रकार की चीजों पर विचार करने से जम्मू और कश्मीर की जनता के पास भारत में ज्यादा अवसर हैं अपेक्षाकृत यदि वे अलहदगी को स्वीकार कर पाकिस्तान से जुड़ते हैं, तो।

युनाईटेड स्टेटस् के उद्देश्य और कूटनीतियां

चैथा, और सबसे महत्वपूर्ण साम्राज्यवाद की भूमिका में एक कारक कैसे काम करता है ? हाल के कारगिल झगड़े में, यद्यपि ’’निष्पक्ष’’ प्रतीत होने वाली युनाईटेड स्टेटस् की भूमिका, ’’न सम्हाले जा सकने योग्य’’ बड़े भारत को ’’सम्हाले जा सकने योग्य’’ टुकड़े में गढ़ लिए जाने तक निश्चित तौर पर पाकिस्तान को अपनी पसंदगी के हथियार की तरह उपयोग में लाकर त्याग देने जैसी है। इसके अतिरिक्त युनाईटेड स्टेटस् जम्मू और कश्मीर क्षेत्रा में विशेष रुचि रखता है। जम्मू और कश्मीर एशिया के उस जगह है जहां से अनेक पड़ौसी राज्यों की घटनाओं को नियंत्राण में रखा जा सकता और जब भी आवश्यकता हो आसानी से हस्तक्षेप शुरू किया जा सकता है और ऐसे हस्तक्षेप आगे बढ़ाये जा सकते हैं। इस कारण से युनाईटेड स्टेटस् जम्मू और कश्मीर को स्वतंत्रा राज्य बनाना चाहता है जिससे उसके उपर आसानी से नियंत्राण कायम किया जा सके। यदि राजनैतिक परिस्थितियां उसे स्वतंत्रा न होने दें तो युनाईटेड स्टेटस् भारत और पाकिस्तान को ’’कश्मीरी समस्या’’ पर खदबदाती हिंसक गतिविधियों में ही उलझाये रखना चाहता है। पाकिस्तानी शासक जो 1947 के पूर्व अपने ब्रिटिश औपनिवेशिक स्वामियों की राग पर नाचते रहते थे और उसके साम्राज्यवादी शासक खुश होकर उनको उपकृत करता रहता था। और, क्योंकि भारत संतापन वह गोंद है जिसका पाकिस्तान विद्वानजन उसे एक साथ बने रखने के लिए करते रहे हैं।

हाल की घटनायें भारत और युनाईटेड स्टेटस् के बीच संबंधों के ’’ताजे’’ होने की संभावना के संकेत देतीं हैं। यह महत्वपूर्ण है कि भारत सुरक्षित रहे और उसे साम्राज्यवाद की दयालुता में विश्वास करने की थपकियां न दीं जायें। युनाईटेड स्टेटस् समय समय पर भिन्न तौर तरीके अपना सकता है परंतु इन्हें भारत के प्रति मित्रावत्ता से मिला कर न लिया जाये। इसे ध्यान में रखा जाना चाहिए कि युनाईटेड स्टेटस् ने पाकिस्तान से कारगिल से वापिसी के लिए तब तक नहीं कहा जब तक कि यह स्पष्ट नहीं हो गया था कि भारत ने पाकिस्तान को अपनी सैन्य वरीयता से पीछे नहीं खदेड़ दिया था। खबरें उपर आने लगीं थीं कि पाकिस्तान पीछे हटने से निराश था और पाकिस्तानी सैन्य आफीसर सैनिकों को अपनी जगह पकड़े रहने के लिए या यदि वे पीछे हटे तो फिर गोली मार दिए जाने की जोखिम उठाने के आदेश दे रहे थे। पाकिस्तानी उस समय घबराकर युद्ध विराम चाहते थे। उसके पूर्व भारत एलसीओ को पार नहीं करने और पाकिस्तान से समझौता करने पर जोर देता रहा था। कारगिल के तुरंत बाद पाकिस्तान के एक उन्नत जासूसी विमान जिसने बारंबार भारतीय सीमा का उल्लंघन और पूर्व चेतावनियों की उपेक्षा की थी को गिराने के संबंध में युनाईटेड स्टेटस् ने भारत के प्रति एक आक्रमक रूख अखतियार कर लिया था। यह भी ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि युनाईटेड स्टेटस् ने भारत के वाणिज्यक एवं आर्थिक मामलों में दखलंदाजी करके दुखी किया है। भारत में डब्ल्युटीओ ने अनेक सुविधायें दीं परंतु युनाईटेड स्टेटस् ने प्रत्युत्तर में कुछ भी नहीं किया। भारत के विरुद्ध अनेक आर्थिक और तकनीकी प्रतिबंध तो हैं ही। इनमें से कोई भी नुक्ता युनाईटेड स्टेटस् को भारत का सच्चा दोस्त जैसा प्रगट नहीं करता।

उपसंहार

एक धुव्रीय दुनियां में तीसरी दुनियां के देशों /जो साम्राज्यवाद के सहयोगी नहीं हैं/ का बिखराव केवल साम्राज्यवाद को ही मदद देगा। खासकर, अब इसलिए कि उसकी प्रतिकारीशक्ति - सोवियत युनियन - नहीं है। बिखरे हुए देश, सबसे ज्यादा संभावना है, अधिक गहरे तक विदेशी बैंकों के कर्जदार बनाये जायंेगे, उन्हें सैन्य आधार बनना स्वीकार करना पड़ेगा, संयुक्त राष्ट्र् में युनाईटेड स्टेटस् और उसके सहयोगियों के पक्ष में मतदान करना पड़ेगा इत्यादि। और इस बात की भी संभावना है कि उन्हें अपनी सीमाओं में अल्पमतावलंबियों का दमन करना पड़ेगा जिससे नए नए तनाव और विभाजक प्रवृतियां पैदा होंगीं।

पाकिस्तान के विपरीत, भारत समान बड़ा और प्रजातंत्रात्मक देश विभिन्न समुदायों को विरोध रखने और प्रभाव को बढ़ाने के लिए ज्यादा अवसर प्रदान करता है। यह नहीं कहा जा रहा है कि भारत में प्रजातंत्रा परिपूर्ण है या वह सभी समस्याओं से मुक्त है जो असमान वितरण व्यवस्था से उत्पन्न होतीं हैं। तब भी, यह सोचकर कि जम्मू और कश्मीर के लिए किसी भी विभाजनकारी के पास विकासशील /प्रजातंत्रात्मक/ आर्थिक आधारशिला नहीं है, भारत के साथ संबंधित लाभ महत्वपूर्ण बन आते हैं।

सोचिए वर्तमान राष्ट्र्पति ऐतिहासिक तौर से दमित समुुदाय से आये हैं। सोचिए किस प्रकार मायावती राजनैतिक आज्ञाओं की प्रवर्तक, भारत की सबसे दलित जातियों की होकर भी भारत की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य की प्रथम मुख्यमंत्राी बनीं। सोचिए कैसे मुलायमसिंह यादव, भारत के दलित कृषक जातियों से होने पर, 1990 में भारत के रक्षा मंत्राी रहे।

भारत की विदेश नीति पर भी ध्यान दीजिए। ऐतिहासिक तौर से अधिकतर भारत ने साम्राज्यवाद विरोधी विदेश नीति के सिद्धांत का पालन किया। हाल ही में, युगोस्लाविया के उपर क्रूर बमवारी का विरोध किया और इराक में मौतीली अनुमतियों का विरोध किया। पहले सूडान में बमवारी की भर्तस्ना की और पाकिस्तान के विपरीत, वह अफगानिस्तान या अन्य जगह युनाईटेड स्टेट्स साम्राज्यवादियों का समर्थक नहीं बना।

पाकिस्तान ने दूसरी ओर, अफगानिस्तान में प्रजातंत्रा की क्रांति को नष्ट करने के लिए गंदी भूमिका अदा की थी और खाड़ी युद्ध तथा बाल्कानों में भागीदार रहा था। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि वैसी ही भूमिका पाकिस्तान जम्मू और कश्मीर के संबंध में ही निभाये। दक्षिण एशिया में साम्राज्यवादियों की तरफ से पाकिस्तान दो राष्ट्र्ीय नीति जब से वह उत्पन्न की गई थी, के जहर को फैलाता चला आ रहा है। जो कश्मीर में इस जहर से पीड़ित हैं वे अल्पमत में हैं और राज्य के बहुमत संख्यक लोगों को बंदी बनाये हुए हैं। कोई भी तर्क कर सकता है कि यदि वे भारत द्वारा प्रस्तावित प्रजातंत्रा एवं धर्मनिरपेक्षता से घुटन महसूस कर रहे हैं तो वे किस आशय से नियंत्राण रेखा को पार कर सकते हैं, पाकिस्तान नियंत्रित आजाद कश्मीर में धर्मपक्षता तथा असहष्णिुता का आनंद उठा सकते हैं जिसे वे भारत की अनिच्छुक जनता पर थोपना चाहते हैं। परंतु इसके विपरीत वे भारत की हर मौके पर मलामत करते हैं यद्यपि यह तो उनके आतंकवाद और हिंसा के ही कृत्य हैं कि राज्य में 20,000 हजार लोगों की मृत्यु हुई और 3,00,000 लोग विस्थापित हुए।

अंत में इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि जनमत संग्रह और अलहदगी की मांग राजनैतिक तौर पर दबंग और बड़बोले कश्मीरी अल्पमत से आती है और उसे बेपर्दा कर देना चाहिए कि वह वास्तव में क्या है। जम्मू और कश्मीर की जनता का 70 से 80 प्र.श. बहुमत धर्मनिरपेक्ष एवं प्रजातंत्रात्मक भारत का हिस्सा बना रहना चाहता है और ये ही वे हैं जिन्हें हमारा निर्बाध्य समर्थन विभाजनवाद और पाकिस्तान का कश्मीर में मुखतारी युद्ध दोनों, के खात्मे के लिए दिया जाना चाहिए।

संदर्भः

1.एथेनिक आइडेंटिटीज् एंड पोलीटीकल डेडलाॅक इन जम्मू एंड कश्मीर - हरिओम, इंडियन डिफेंस रिव्यु, 1997।
2.रूदादे कफस - सयैद अली गुलानी, वाल्यूम 1, पृष्ठ 412, अल हुदा पब्लिशिंग हाउस, श्रीनगर, 1993।
3.स्टेटिस्टीकल ईयर बुक आॅफ इंडिया, 1983।
4.पावर्टी, प्लानिंग एंड इकोनाॅमिक्स चेंज इन जम्मू एंड कश्मीर - एम.एल.मिसरी और एम.एस.भट्ट, विकास पब्लिशिंग हाउस प्रा. लि; दिल्ली, 1994।

नोटस्ः

1947 में ’’आजाद’’ कश्मीर और ’’उत्तरी क्षेत्रा’’ की संयुक्त जनसंख्या कुल जनसंख्या का लगभग 25 प्र.श. थी। वह अब 33 प्र.श. है, इस तथ्य के बाबजूद कि जम्मू और कश्मीर की जनसंख्या 29 प्र.श. की उंची दर से 1961 से प्रत्येक दशक में बड़ी। ’’आजाद’’ कश्मीर और ’’उत्तरी क्षेत्रा’’ की जनसंख्या में आकस्मिक बढ़ोत्तरी का संकेत पाकिस्तान के अपने आधीनस्थ क्षेत्रों में जनसंख्यकी को बदलने की कोशिशों की और खासकर ’’उत्तरी क्षेत्रा’’ में पंजाबी और एनडब्ल्युएफपी पठानों के इन इलाकों में पुनस्र्थापना को जाता है। इस पुनस्र्थापना की नीति को 1988 के शिया विद्रोह जिसे पाकिस्तान के प्रमुख जनरल परवेज मुर्शरफ द्वारा बर्बरतापूर्वक कुचल दिया गया था, के बाद से सक्रियरूप से पाला जा रहा है।

दूसरी और यह घ्यान रखने योग्य है कि जम्मू और कश्मीर के अनिवासी जम्मू और कश्मीर और भारतीय संविधान द्वारा जम्मू और कश्मीर में संपदा खरीदने से प्रतिबंधित हंै। इसने भारतीय सरकार को वहां के राज्य की जनसंख्यकी के बदले जाने से प्रतिबंधित किया हुआ है।

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