"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

पंजाब और गजनी एवं गौर आक्रमण

इतिहास लेखन प्रायः शासकीय प्रचार का साधन बनता है बनिस्पत यथार्थ के ईमानदार अभिलेखन के। यह बात सदैव स्वीकारी नहीं जाती। भारतीय ’’हिंदू बाहुल्य’’ के परिणामस्वरूप पाकिस्तान के निर्माण के बचाव में दो देश नीति और अन्य सैद्धांतिक दबावों की आवश्यकता थी। पाकिस्तान के इतिहास लेखन में इस आवश्यकता ने बड़े पैमाने पर भ्रम पैदा किये हैं। उत्तर भारत में महमूद गजनवी और मोहम्मद गौरी लोभी लुटेरांे की तरह जाने गए जबकि पाकिस्तान के शासकीय हलकों में इस्लामी जिहाद और सभ्य एवं न्यायपूर्ण राज्य की स्थापना के लिए महान योद्धा की तरह माने जाते हंै।

तब भी, उपलब्ध अभिलेखों के परीक्षण से जो तस्वीर बनती है वह बहुत जटिल है और वास्तव में, अपेक्षाकृत गजनवी और गौर के दरबारी इतिहासकारों या उनके वर्तमान प्रशंसकों के चित्राण के। सिंध आक्रमण को सरकारी इतिहासकारों के समान ही व्यर्थ ही बढ़ा चढ़ाकर व्यक्त किया गया और दारुण विवरणों और तथ्यों को समझदारी से छुपाया भी गया। मध्य एशिया के तुर्कों की पंजाब की जीतें उसी तरह की ही रहीं हैं।

जबकि किसी प्रकार की शंका नहीं है कि गौरी और गजनी दोनों के पास उल्लेखनीय सैन्य कुशलता और विवेक था और वे बड़ी चतुरता, लगातारता तथा दृढ़ता से लड़े परंतु उनकी अन्य उपलब्धियां ज्यादा ही विवादस्पद रहीं हैं। उनकी सैन्य विजयों की कीमत को आसानी से नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यह खास ध्यान देने योग्य बात है कि उनकी सैन्य कार्यवाहियों के दबाव को उत्तरी भारत की जनता के विभिन्न हिस्सों ने अलग अलग ढंग से महसूस किया था।

प्रथम, यह ध्यान में रखना चाहिए कि गजनी और गौर तुर्की राजधानियों से, जो अब अफगानिस्तान में हैं, आकर उत्तरी भारत को रौंदने के उद्देश के बारे में गहरे मतभेद हैं। महमूद गजनी के दरबारी इतिहासकार उत्बी ने उसके सैन्य आक्रमणों को ’’मूर्ति उन्मूलन’’ और ’’इस्लाम के प्रसार’’ के लिए ’’पवित्रा युद्ध’’ की तरह से व्यक्त किया। परंतु यह विचित्रा बात है कि इस्लामी प्रभाव में आ चुके मुलतान को छोड़ा नहीं गया और उस पर बारंबार आक्रमण किए गए थे। यदि सचमुच में धार्मिक जोश ही आक्रमणों का मूल उद्देश्य रहा होता तब यह कहा जा सकता कि शिया और इस्माइली मतावलंबी जो मुलतान और सिंध में 11 वीं सदी में प्रबल हुए थे के उपर सुन्नियों को वर्चस्व कायम करना ही ध्येय था। मोहम्मद हबीब जैसे भारतीय इतिहासकार ’’जिहाद’’ की धारणा को नकारते हुए आर्थिक और राजनैतिक कारणों पर अधिक बल देते हैं।

महमूद गजनी के आक्रमण के पूर्व पूरी काबुल घाटी, पेशावर प्रदेश और पंजाब जयपाल के हिंदुस्तानी राज्य में इकट्ठे थे। उसने दो शताब्दियों तक पश्चिम के कत्लेआमों को सफलतापूर्वक रोक रखा था। गजनी के पास के सबसे अच्छे सिंचित प्रदेशों में से एक पंजाब न केवल किसी भी विस्तारवादी सेना के लिए अनाज का प्रचुर स्त्रोत् था वरन् विशाल राजस्व प्राप्त करने का आधार भी था। और ये दोनों, अनाज और राजस्व किसी भी राज्य के अस्तित्व के लिए आवश्यक थे। केवल जरूरत थी इन पर अपना अधिकार कायम करने की। पंजाब के मैदानों तक पहुंचने के लिए काबुल घाटी और उसके दर्रे स्वाभाविक तौर पर, युद्ध कौशल के दृष्टिकोण से बड़े ही महत्व के थे। ऐसा ही महत्व यमुना गंगा दोआब वालों को पंजाब के अति धनाढ्य मथुरा और कन्नौज शहर पहुंचने का था। बड़ी बड़ी लूटें और बहुमूल्य रत्न जड़ित सोने या चांदी की मूर्तियांे का ध्वंस के साथ राजनैतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक केंद्रों की हार ने इस धारणा की पुष्टि की थी कि भारत की प्रचुर संपदा को लूटा जा सकता था। यही गजनवी आक्रमणों की मूल प्रेरक शक्ति थी।

गजनी के दरबारी इतिहासकार विलाप करते थे कि कैसे ’’हिंदू’’ राज्यों के सरोकार और सांस्कृतिक कौशल के प्रति पूरी तरह से निर्लिप्त थे और वे अधिकतर आत्मलीन तथा आत्मसंतोषी थे। इस बात की संभवना है कि गजनी के महत्वाकांक्षी विद्वानों ने हिंदू दरबारों में अपनी प्रायोजितता की कामना की हो और विफल होने पर ईषालु हो गये हों क्योंकि वे काबुल और लाहौर में अपने कदम नहीं जमा पाये। परिणाम स्वरूप पंजाब के विरूद्ध सैन्य आक्रमणों के पक्षधर बन गए हों।

यह भी ध्यातव्य है कि मध्य एशिया की तुर्की जनजातियां जिन्होंने रेशम के रास्तों को जीता था, बड़े तौर पर व्यापार से प्राप्त आय पर जीवनयापन के लिए निर्भर थे। यह संभावना है कि चीनी, परशियन अथवा एशियन सामान पंजाब में बेचने में परेशानी होने से वे जनजातियां जयपाल राज्य की हार के निहित स्वार्थ संजोये हों। रेशम के रास्ते पर बसे शहर विरल थे और उद्यम स्थलों पर दास मजदूरों और कुशल कारीगरों की मांग निरंतर बनी रहती थी। भारत के मैदानी इलाके ही भारी तादाद में अकुशल या कुशल दास मजदूर उपलब्ध करा सकते थे। उदाहरण के लिए, यह उल्लेखनीय है कि गूरिद दास व्यापारी थे और पंजाब की विजय ने उत्तरी भारत से दासों की विशाल आपूर्ति शुरू कर दी थी। जबकि इस्लामी विस्तारवाद के बचाव में रूढ़िवादी याचकवर्ग सुस्पष्ट है और यह भी बहुत संभव है कि हितों की समानता ने उत्तरी भारत में गजनी और बाद में गौरी के आक्रमणों के लिए उन्हें उत्प्रेरणा दी हो।

गजनी के दरबार में भारत पर लुटेरों के समान आक्रमण और पंजाब विजय बड़ी गूंज की तरह आई और महमूद के शासन काल में गजनी शहर एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र की तरह उन्नत हुआ। जो भी हो, यह नकारा नहीं जा सकता कि गजनी की उन्नति बड़ी भारी कीमत पर हुई थी। कोई तर्क कर सकता है कि मंदिर की मूर्ति में सोना और चांदी का निवेश गैर उत्पादक संपदा थी और उसकी चोरी करना नकारात्मक महत्व का नहीं मानना चाहिए। परंतु हजारों किसानों और कारीगरों का नरसंहार और दास प्रक्रिया की उपेक्षा नहीं की जा सकती। गैर सुन्नियों की सजायें और सुन्नियों की अति मालिकानेपन को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

यद्यपि 11 वीं सदी में हिंदू समाज कुछ कुछ रूढिवादी बल्कि प्रतिक्रियावादी रवैया अपना रहा था, यह देखना मुश्किल था कि मध्य एशियन जीतों ने कैसे इन मामलों में सहायता की होगी। कुछ इतिहासकारों का अनुमान कि हिंदू समाज पूरी तौर पर भ्रष्ट और बिखरा हुआ था के विपरीत, जयपाल जैसे हिंदू राजा ने राजपूतों से मित्रावत् सहायता प्राप्त की और यहां तक कि मुलतान और सिंध के शिया शासकों से भी सहयोग पाया था। जो भी हो, पंजाब के अनेक जनगण लड़ाइयों से दूर रहे यह मानकर कि उनका भाग्य इनसे या उनसे नहीं बदला जा सकेगा। निश्चित तौर से जिन्होंने जाति भेदभाव का सबसे बुरा परिणाम सहा था, खोने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं बचा था।

परंतु जैसे जैसे यह स्पष्ट हुआ कि पश्चिमी पंजाब की हार समाज का वास्तविक विनाश और जनता की दासता बनती रहेगी, पूर्वी पंजाब की जनता को समझ आई और बाद के आक्रमणों के प्रतिरोध ज्यादा कठोर साबित हुए।

पंजाब मध्य एशिया के लिए दासों का मुख्य आपूर्तिकत्र्ता बना। फलतः कारीगरों और विद्वानों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा। उदाहरण के लिए भाषा, विश्वास और रिवाजों की समानताओं के कारण एक सत्याभाषी मत है कि रोमा लोग पंजाब और सिंध में पलायन की सजा पर ही यूरोप पहुंचे थे।

महमूद के इतिहासकार अलबरूनी, ने लिखाः ’’महमूद ने देश की समृद्धि को बुरी तरह से नष्ट किया और स्तब्धकारी शोषण किए जिनके कारण हिंदू धूल के कणों की तरह चारों दिशाओं में बिखर गये ... उनके बिखरे हुए अवशेषों में सभी मुसलमानों के प्रति गहरी घृणा घर कर गयी। यह वह कारण है कि हिंदू विज्ञान विजित भागों से इतनी दूर चला गया कि हमारे हाथ न लग सके यथा कश्मीर, बनारस और अन्य स्थान।’’

उपर्युक्त उदाहरण का अंतिम हिस्सा खास है क्योंकि वह बताता है कि पंजाब की तुर्क विजय और इस्लामी शासन के लागू होने के पूर्व हिंदू समाज में विज्ञान के अध्ययन का रिवाज था और वैज्ञानिक कार्यकलाप कायम रह सकें इसके लिए ही हिंदू वैज्ञानिक उन भूभागों से दूर चले गए।

गजनी और गौरी की सेना को कुछ हिंदुओं ने सैनिक या गुप्तचर बनकर अपनी सेवाएं दीं यह सोचकर कि उपर उठने का यही एक मात्रा तरीका बचा था। जबकि बहुसंख्यक हिंदुओं के पास दो विकल्प थेः इस्लाम में परिवर्तित होना या फिर हिंदू बने रहकर उंचे करों का भुगतान करना। जो इस्लाम को स्वीकार भी कर लेते थे वे भेदभाव के भागीदार बने ही रहते थे। तुर्की कुलीनजन परिवर्तित हिंदू - इस्लामियों को निचले दर्जे का मानते थे। इस प्रकार इस्लामी समानतावाद के विपरीत वे उंची जाति के बने रहे और विदेशी मुसलमानों की एक नई सर्वशक्तिमान जाति के बतौर प्रगट हुए। सूफियों की दखलंदाजी से जातिभेदभाव में कुछ सुधार अवश्य हुए परंतु यह भी भारत के भक्ति आंदोलनवादियों और वैष्णवों के प्रभाव से संभव हो सका।

यद्यपि समय बीतने पर आपस में शादियां और राजघरानों के उपर नीचे होने से विदेशी मूल के मुसलमानों और भारत के परिवर्तित हिंदू - मुसलमानों के बीच कुछ थोड़ी समानता पैदा हुई थी जैसा कि हिंदू और मुसलमानों के बीच। यह ध्यान देने योग्य है कि विदेशी मूल के मुसलमान, खासकर अशरफ, दूसरे भारतीय मुसलमानों से अलग ही बने रहे और मुस्लिम लीग के मुख्य समर्थकों में से थे और पाकिस्तान बनने के सबसे ज्यादा हिमायती वे ही थे। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इतिहास की ऐसी व्याख्या जो मुस्लिम जनता के इस हिस्से को उपयुक्त था, पाकिस्तान की समस्त जनता पर चालाकी से थोप दी गयी थी।

इसके अतिरिक्त गजनी एवं गौरी आक्रमणों ने पंजाब की जनता का राजनीतिकरण किया जो ज्यादा अंतर्मुखी बने और बहुतायत से इस्लाम में स्वार्थवश परिवर्तित हुए न कि किसी सही सैद्धांतिक समझ से। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि अलबरूनी जैसे इतिहासकार की टिप्पणी के अनुसार पंजाबी समाज धर्म के प्रति उदार एवं अनासक्त भाव रखता था और अलबरूनी उनके मसीही झुकाव के अभाव को जानकर चकित हुआ जिसे उसने मध्य एशिया के अपने भाईयों में पाया था। उसने यह भी पाया कि सभी मुख्य बातों में पंजाबी पुरुष अपनी पत्नि से सलाह मशविरा किया करते थे। अलबरूनी मध्य एशिया की तुर्की प्रथा के अनुरूप आशा करता था कि पुरुष एकतरफा फैसले लें या फिर अन्य किसी पुरुष से मिलकर परंतु किसी भी हालत में अपनी पत्नि से मिलकर नहीं। इसलिए इस बात की संभावना है कि इन आक्रमणों ने पंजाबी समाज में खास परिवर्तन किए और आध्यात्मिक एवं दार्शनिक जिज्ञासा के अवसर बेहद कम कर दिए। आगे बढ़कर, समाज में नारी की भूमिका को सीमाओं में बांध दिया गया था।

इस बात का उल्लेख करना जरूरी होगा कि इस्लामी आक्रमणों के पूर्व क्षत्रिय योद्धाओं के बीच युद्ध के नियम ऐसे थे कि आम जनता को सताया नहीं जाता था। जनदासता और स्त्रिायों पर आम बलात्कार की इजाजत नहीं होता थी। जो भी हो, मध्य एशियन आक्रमणकारियों की दास रखने और दास व्यापार की संस्कृति में यह बात आम थी कि आम जनता को सताया जाये, उस पर बलात्कार किया जाये और उन्हें दास बना लिया जाये। परिणामतः स्त्रिायों और बच्चों की स्वतंत्राता तथा अधिकारों में बेहद कमी आई और वे निर्विघ्न यात्रा तक नहीं कर सकते थे और लोगों के बीच असुरक्षित एवं अकेले देखे जाने की जोखिम नहीं उठा सकते थे।

वास्तव में, गजनी का उत्थान थोड़े से समय के लिए हुआ था और महमूद की मृत्यु के बाद गौर शासक के द्वारा एक दशक में ही शहर तहस नहस हो गया था। वहां के कुलीनवर्ग का इतिहास दास व्यापार का इतिहास था। इसी प्रकार से गजनी का भी वही हस्र हुआ था जो कन्नौज और मथुरा का पहले हो चुका था। कमोवेश, पंजाब और उत्तरी भारत में तुर्की साम्राज्य बेहद अस्थाई रहा। आक्रमणकारियों के लिए पंजाब से जुड़े राज्यों पर धावा बोलना विजित प्रदेशों पर शासन करने के मुकाबले ज्यादा आसान काम था। यह भी ध्यातव्य है कि पश्चिमी पंजाब के पतन के बाद पूर्वी भारत के दुआबी इलाके में आक्रमणकारियों को और भी अधिक संगठित प्रतिरोधों का सामना करना पड़ा। जसपाल के पुत्रा आनंदपाल को न केवल अमीरों का वरन् बुनकारों और दस्तकारों का भी समर्थन मिला। परंतु अंत में, राजा आनंदपाल की सेना पर आक्रमणकारियों की लगातार जीतें होती रहीं।

पंजाब और दिल्ली के सल्तनतकाल का इतिहास एक ऐसे काल की ओर इशारा करता है जिसमें दरबारी जटिलतायें, षड़यंत्रा, हत्यायें और उत्तराधिकार की विकृत लड़ाईयां होतीं रहीं। पंजाब जो आक्रमणों के एकदम सामने की कतार में पड़ता था, स्वाभाविक तौर पर सबसे ज्यादा असुरक्षित रहता था। परंतु उसके मैदानी इलाके की कुछ भौगोलिक विशेषतायंे थीं जो विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध गौरिल्ला युद्ध के लिए सुविधायुक्त थीं। राजपूताना, पूर्वी पंजाब की पहाड़ियां और मध्य पठारी इलाके सदैव शक्तिशाली रूप से संघर्ष करते थे और किसी भी आक्रमणकारी के आधीन नहीं रहना चाहते थे। बाद में यादव, सिख और जाट सरदारों ने मैदानों में भी सैन्य प्रतिकार शुरू कर दिया था। यह कुछ हद तक भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम की घुसपैठ की विशेष भिन्नता की व्याख्या करता है।

पंजाब में तुर्क की इस्लामी जीत का कारण पंजाब की पूर्ववर्ती शताब्दियों की विशेष परिस्थितियां थीं। पंजाब ने गंभीर अस्थिरतायें झेलीं, आर्थिक और सांस्कृतिक पतन के काल के कष्ट और शायद गंभीर चिंता एवं तनाव झेले। यद्यपि सीधे तौर पर अपमान या उत्पीड़न नहीं भी झेले हों। अतः उनके लिए सबसे अच्छा यही था कि आक्रमणकारियों की मांगों या आदेशों को स्वीकार करके समाज के कुछ हिस्सों को जीवित रखा जा सके।

कमोवेश, बहुत समय बाद पंजाब को पुनर्जीवन मिला। भारत के सूफी दार्शनिक और कलाकारों के वास्तुशिल्प में नए निर्माण, हस्तकौशल और उद्योगों में विस्तार की प्रभावी भूमिका थी। सूफियों से आई इस प्रथा का केंद्रबिंदू मुगलों के उत्थान तक मुलतान था। बाद में यह वरीयता लाहौर को प्राप्त हुई थी।

पंजाब से दासों के निर्यात् में हुई दारुण और आकस्मिक उछाल के विपरीत वहां की इस अप्रत्यक्ष सकारात्मक धरोहर का मूल्याकंन एवं मनन किया जाना चाहिए। पंजाब के पतन ने रेशम के रास्ते के शानदार व्यापारिक शहरों और राजनीतिक केंद्रों के तेज अभ्युदय के रास्ते खोल दिये थे। इन केंद्रांे में मध्य एशिया में खिबा, समरकंद, बुखारा और आज के अफगानिस्तान में हेरात और अन्य शहर प्रमुख थे। परंतु मध्यकालीन गौरव और भव्यता ने उत्तरी भारत की कृषि समृद्धि को लूटा और कृषक जनता को दासता की त्रासदी दी थी।

इसलिए यह एक व्यंग है कि गजनी और गौर से आने वाले आक्रमणों के लिए जिस भूमि ने बहुत ही बड़ी कीमतें चुकाईं थीं क्या उसे आज सैन्य कुलीनों द्वारा शासित होना चाहिए ? और जो, इस बात पर प्रसन्न हैं कि उनकी जनता उन आक्रांताओं को आदर्श नायक माने ? इस प्रकार से वहां मध्यकाल की बाध्यताकारी सैद्धांतिक दासता आज भी जीवित है। पंजाब की जनता की चहुमुखी उन्नति रोक दी गई है। जबकि दूसरी ओर, अन्य देश तेज गति से प्रगति एवं समृद्धि कर रहे हैं।