"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

प्राचीन भारत में दार्शनिक विचार और वैज्ञानिक तौर तरीकों का विकास

सामान्यतया जनधारणा रही है कि भारतीय सभ्यता अधिकांशतः आत्मा और मृत्यु पश्चात् जीवन के मामलों में ही उलझी रही किन्तु भारतीय इतिहास के अभिलेख इस धारणा के विपरीत बताते हैं कि कुछ श्रेष्ठ भारतीय मस्तिष्क उन दार्शनिक रूपरेखाओं के विकास में लगे हुए थे जिनका आधार वास्तविकता थी। यह कथन कि भारतीय दर्शन केवल रहस्यवाद और वैराग्य पर केंद्रित है उन उपनिवेशवादी प्राच्यविद्या के विद्वानों की उपज है जो भारत में उपजे वैज्ञानिक विचारों और मीमांसाओं की समृद्ध परंपरा को नकारना चाहते हैं।

भारत के प्राचीन तर्कशास्त्रिायांे और वैज्ञानिकों द्वारा विकसित सिद्धांतों के साक्ष्य उन खंडनात्मक पुस्तकों में मिलते हैं जिन्हें सामान्यतः वैज्ञानिक साहित्य की श्रेणी में नहीं स्वीकारा जाता है। गणित, तर्कशास्त्रा और औषधिविज्ञान पर कुछ पुस्तकें अभी भी ज्यों की त्यों हैं परंतु कई दार्शनिक गं्रथों के लिए जिनमें संसार के बारे में विवेक सम्मत और वैज्ञानिक विचार प्रस्तुत किए गए हैं, के लिए हमें जैन और बौद्ध साधुओं तथा हिंदू विद्वानों, सामान्यतया ब्राहमणों, के दार्शनिक ग्रंथों और टीकाओं में प्राप्य विस्तृत संदर्भों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। यद्यपि ये अभिलेख सामान्यतः धार्मिक अध्ययन के क्षेत्रा में शामिल किए जाते हैं तथापि यह कहना उचित होगा कि इनमें से कई विस्तारित खंडनात्मक ग्रंथों के रूप में हैं जो ईसाई और इस्लामी धर्म ग्रंथों की तरह नहीं हैं। इन ग्रंथों में वास्तविक संसार और आत्मा परमात्मा के मूल्यों का तुलनात्मक विवेचन किया गया है। इनमें अनीश्वरवादी और संशयवादी विचारकों के सिद्धांतों का खंडन करने का प्रयास किया गया है। लेकिन रहस्यवादी आत्मा की महत्ता सिद्ध करने के प्रयास में ये ग्रंथ अपने प्रतिस्पर्धी विवेकवादी और सांसारिक दर्शनों की विस्तार से व्याख्या भी करते हैं जो अपेक्षाकृत अधिक वास्तविक और वैज्ञानिक रूप से संसार का विचार प्रस्तुत करते हैं। उनकी व्यापक समीक्षायें उस समय के बहस के, परिकल्पना प्रस्तुत करने के, कोई सिद्धांत का प्रसार करने या उसकी व्याख्या करने के तथा पक्ष विपक्ष में विचार प्रस्तुत करने के प्रचलित तरीकों का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।

यह भी ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि मूलरूप से विश्व के प्रति बौद्धदर्शन मुख्यतः अनीश्वरवादी था। प्राचीनकाल में, जैनदर्शन के अनुयायी भी ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। हिंदुत्व की विस्तृत धारा में कई ऐसी अपरंपरावादी लहरें थीं जो मुख्यतः अनीश्वरवादी दृष्टिकोण के पक्ष में थीं। इस अर्थ में ये विचार धर्म में सम्मलित नहीं थे जैसा कि आज उनके बारे में सोचा जाता है क्योंकि धर्म के बारे में आधुनिक समझ प्रकृति से परे एक परम सत्ता में विश्वास करने की परिकल्पना है।

इन दार्शनिक विचार धाराओं में से प्रत्येक के विद्वानों ने अपने परलोक संबंधी सिद्धांतों को सिद्ध करने के लिए डिडक्टिव और इंडक्टिव तर्कशास्त्रा जैसे विवेक सम्मत औजारों का प्रयोग अनिवार्य समझा। इससे यह पता चलता है कि परम सत्ता में विश्वास वाली बात आसानी से गले नहीं उतरती थी। इसके प्रमाण चीनी यात्राी ह्वेनसांग के संस्मरणों में मिलते हैं जिसने 7 वीं सदी में भारत की विस्तृत यात्रा की थी। उसने वाराणसी के व्यापारियों को नास्तिक बतलाया था और विभिन्न बौद्ध संप्रदायों के अनुयायियों के बीच होने वाली बहसों और तीव्र खंडन-मंडन के बारे में भी लिखा।

इसी प्रकार अन्य साक्ष्य भी हैं जिनसे पता चलता है कि प्राचीन भारत के विचारकों में अनीश्वरवाद और संशयवाद की लहरें बहुत ही शक्तिशाली थीं जिनको बदलकर अपने पक्ष में करने के लिए बारंबार जोरदार प्रयास की जरूरत पड़ती थी। इसके बाबजूद सदियों तक आस्तिकों और नास्तिकों के बीच चलने वाले ये विवाद धीरे-धीरे शांत होते गए। रहस्यवादी विचारधारा के पक्षधर बौद्धिक संशयवादियों पर हावी हो गये। फलस्वरूप इनमें से प्रत्येक दर्शन पारंपरिक धर्म के रूप में अपने सारे देवी-देवताओं के साथ स्वीकृत हो गया और अधिकांश बुद्धिवादी विचारकों को अपने में उलझाकर जड़वत बना दिया। लेकिन विवेकवादी विचारधारा भारतीय दर्शन में इस प्रकार संपृक्त हो गई थी कि शुद्ध धर्म के पक्षधर कभी भी इतने शक्तिशाली नहीं हो पाये कि उसे पूर्णरूपेण समाप्त कर दें।

प्रारंभिक विवेकवादी विचारधाराएं

भारत की विवेकवादी परंपरा में लोकायत प्राचीनतम परंपराओं में से एक है जिसे तांत्रिक बौद्ध और वेदांती हिंदुत्व के अनुयायियों द्वारा बहुत बदनाम किया गया है और नुकसान पहुुंचाया गया। संसार के प्रति इनका दृष्टिकोण अपने समय के अनुसार वैज्ञानिक था और वे नास्तिक कहलाते थे। उनका न तो पुनर्जन्म में विश्वास था और न ही मृत्यु उपरांत जीवन में और न ही मानवीय आत्मा की अनश्वरता में। इन सब में विश्वास करने वालों के विपरीत उन्होंने देह और मन में कृत्रिम अंतर भी नहीं माना। उन्होंने मानव मन को मानव शरीर का ही अंग माना जिसका शरीर से अलग स्वतंत्रा अस्तित्व नहीं हो सकता। सिवाय भौतिक शरीर और इसके चारों ओर स्थित भौतिक विश्व के उन्होंने कुछ भी और का अस्तित्व नहीं माना। उन्होंने मृत्यु उपरांत जीवन के लिए बलि या अन्य भेंट-उपहार की परंपरा को नकार दिया जो ब्राहमणवादी हिंदुत्व के अनुयायियों में 900 ई. में प्रचलित था। इसी समय के एक विद्वान मेधातिधि ने जिन्होंने मनु की कृतियों पर भाष्य लिखा है, लोकायतों को नास्तिक और अनीश्वरवादी बताया है। उदाहरणार्थ लोकायतों ने ब्राहमणों में प्रचलित पशु बलि प्रथा का इस प्रकार खंडन किया थाः

’’यदि बलि चढ़ाया गया पशु सीधे स्वर्ग चला जाता ह,ै तो बलि चढ़ाने वाला व्यक्ति अपने पिता को भी क्यों नहीं अर्पित कर देता ?’’
’’यदि यहां अर्पित दान स्वर्ग में पितरों को मिलता है, तो मकान में उपर रहने वालों को नीचे ही क्यों नहीं अर्पित कर देते ?’’
’’यदि अर्पित दान मरे हुए लोगों तक पहुंच जाता है तो लम्बी यात्रा पर जाने वालों के लिए गठरी बांधकर देने की क्या जरूरत है ?’’
’’यदि देह से अलग होने वाला व्यक्ति दूसरे लोक में चला जाता है तो अपने आत्मीयजनों के प्रति प्यार से आकर्षित होकर वह फिर वापिस क्यों नहीं आ जाता ?’’

लोकायतों ने वैदिक पुरोहितों और वैदिक मंत्रों को निरर्थक बताया और इसे उन लोगों के लिए खाने-कमाने का साधन बताया जो शारीरिक या मानसिक रूप से वास्तव में काम नहीं करना चाहते थे। इसके बदले लोकायतों ने मानवीय ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव को महत्व दिया और निष्कर्ष निकालने की रीति के प्रयोग द्वारा विश्व के बारे में अपने सिद्धांत विकसित किये।

लोकायतों की मंतव्य प्रणाली के सर्वाधिक ध्यानाकर्षक दृष्टिकोणों में से एक है प्रकृति के द्वंदों की स्पष्ट समझ। कई लोग मन और शरीर के अलग-अलग होने के बारे में इस प्रकार तर्क देते हैंः शरीर जिन वस्तुओं से बना है उन सब में चेतना का अभाव है, लेकिन मन तो चैतन्य इकाई है - अतः शरीर और मन अनिवार्य रूप से अलग-अलग हैं - और चेतना का अस्तित्व आत्मा से मिलती-जुलती किसी वस्तु के अस्तित्व की ओर इंगित करता है। लोकायतों ने इस तर्क का खंडन करते हुए किण्वन प्रक्रिया का उदाहरण दिया जिसमें एक ऐसी वस्तु से जिसमें नशा का लवलेश भी नहीं है, एक मदोत्पादक पेय का निर्माण हो जाता है। सारांश यह है कि लोकायतों ने इस सिद्धांत की खोज कर ली थी कि कई भाग मिलकर उनका योग समूचे से कहीं ज्यादा हो जाता है। यह कि भौतिक और रासायनिक प्रक्रियायें संयुक्त होने वाले पदार्थों के गुणों में आश्चर्यजनक परिवर्तन ला सकते हैं। वे यह समझने में समर्थ रहे कि जब कुछ चीजों के संयोजन से एक नई वस्तु का निर्माण होता है तो इस विशेष परिवर्तन में निर्मित नई वस्तु के गुण संयुक्त होने वाली वस्तुओं के गुणों से भिन्न होते हैं।
प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षक होने के नाते संभवतः उन्होंने ही सर्वप्रथम विभिन्न पौधों और जड़ी-बूटियों की प्रकृति को और मानव कल्याण के लिए उनके उपयोग को पहचाना। इस प्रकार से लोकायतों के प्रारंभिक वैज्ञानिक ज्ञान और समझ से भारतीय औषधियों का विकास हुआ। चंूकि लोकायतों का विश्वास था कि चेतना का आविर्भाव जीवित मानव शरीर में होता है और मृत्यु के साथ ही इसका अंत होता है इस बात की प्रबल संभावना है कि मृत शरीर का दाह संस्कार करने की प्रचलित भारतीय प्रथा की शुरूआत उनसे ही हुई होगी।

कोई यह न समझे कि लोकायतों की विश्व के बारे में समझ उतनी ही विस्तृत और सूक्ष्म थी जितनी आज का विज्ञान प्रस्तुत करता है। 20 वीं सदी के मानदण्ड के अनुसार उनके कुछ सूत्रा अधूरे और अविकसित माने जा सकते हैं। यह आशा अनुरूप है भी। उस समय के बाद विज्ञान का भंडार बहुत विकसित हो चुका है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि विश्व को देखने का उनका दृष्टिकोण विवेक सम्मत और वैज्ञानिक था।

उदाहरण के लिए कुछ परवर्ती दार्शनिक विचारधाराओं ने लोकायतों के शरीर-मन की एकता संबंधी तर्क का खंडन स्मरण के साक्ष्य का पोषण करके किया था। जयंत और उदयन जैसे न्याय-वैशेषिक दार्शनिकों ने तर्क प्रस्तुत किया कि प्रतिदिन भोजन करने की प्रक्रिया का अर्थ है कि मानव शरीर निरंतर परिवर्तित होता रहता है। आयु वृद्धि की प्रक्रिया भी यही इशारा करती है कि मानव शरीर किस प्रकार सदा परिवर्तनशील है। फिर भी एक वृद्ध व्यक्ति बचपन की किसी घटना को विस्तारपूर्वक याद रख सकता है। दूसरे शब्दों में - उन्होंने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि स्मरणशक्ति इस बात का साक्ष्य है कि मानव आत्मा का अस्तित्व मानव शरीर से परे भी है। फिर भी, आज हम जानते हैं कि स्मरणशक्ति कुछ प्रोटीनों की समष्टि है और परिवर्तनशीन भी है। लोकायतों का विश्व-दृष्टिकोण चाहे जितना अपरिपक्व और अधूरा रहा है, आधुनिक विज्ञान के विपरीत नहीं था।

यदि उनके कुछ विवरणों या व्याख्याओं को बाद में संशोधित या परिमार्जित करना या सुधारना भी पड़ा तोे इससे उनका मलभूत वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं बदला। उनकी अपूर्णता उनके अपूर्ण ज्ञान के कारण थी। उनके पास आज की तरह विकसित वैज्ञानिक यंत्रा या उपकरण और सदियों का संचित ज्ञान नहीं था। उनकी अपर्याप्तता का कारण इस परिप्रेक्ष्य में हम समझ सकते हैं। उनकी भूलों का कारण उनकी हठधर्मिता या जानबूझकर वास्तविकता को और वास्तविक विश्व के तथ्य को नकारना नहीं था।

कुछ इतिहासकारों का मत है कि भारत के प्राचीन तांत्रिक अनुयायी भी शायद व्यवहारतः संसार के बारे मंे विवेक सम्मत दृष्टिकोण रखते थे जो व्यवहारिक मस्तिष्क की उपज थी। लेकिन उस समय मानव मात्रा को उपलब्ध वैज्ञानिक ज्ञान सीमित होने के कारण उनका भी दृष्टिकोण सीमित रहा। तांत्रिकों के आलोचकों ने उन्हें कामवासना के दुराग्रही भोगी मानकर तिरस्कार किया। किन्तु वे यह देखने में असफल रहे कि प्रारंभिक तांत्रिकों में एक स्वतः स्फूर्त वैज्ञानिक झलक थी और यौन एवं काम केंद्रित वंश वृद्धि के बारे में उनकी जानकारी ने संभवतः उन्हें आधारभूत या मूलभूत कृषि के औजार और अन्य साधन विकसित करने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार वे भारत के प्रारंभिक तकनीक विशेषज्ञ बने।

विज्ञान और तर्क का युग

लेकिन उन भारतीय दार्शनिकों में भी, जिन्होंने देह और मन का अलग-अलग अस्तित्व स्वीकार कर लिया था और आत्मा के अस्तित्व के प्रति तर्क प्रस्तुत करते थे, वैज्ञानिक तौर तरीकों के प्रति और डिडक्शन और इंडक्शन तर्कशास्त्रा के सिद्धांतों के विकास के प्रति काफी लगाव था। 1000 ई.पू. से 4 ई. तक के काल में जिसे भारत का विवेकवादी युग भी कहा जाता है ज्योतिष, गणित, तर्कशास्त्रा, औषधि और भाषाशास्त्रा पर कई ग्रंथों की रचना हुई। सांख्यदर्शन, न्याय-वैशेषिक विचारधारा, जैन और बौद्धमत के विद्वानों ने विज्ञान और शिक्षा के विकास में उल्लेखनीय योगदान दिया। धातु कर्म, वस्त्रा उत्पादन और रंगाई जैसे व्यवहारिक विज्ञानों में भी काफी उन्नति हुई। तर्कवादी युग ने, विशेषकर वैज्ञानिक रीति का गठन करने वाले विषयों और सर्वाधिक उपयोगी संवादों का एक तारतम्य उत्पन्न किया। हमारी ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त अनुभूतियों को स्वप्न और मरीचिकाओं /छलावों/ से कैसे अलग किया जाये ? वास्तविकता का एक निरीक्षण कब एक तथ्य और वैज्ञानिक सत्य के रूप में स्वीकार्य हो जाता है ? डिडक्टिव और इनडक्टिव तर्क के सिद्धांतों का विकास और उनका प्रयोग कैसे किया जाये ? किसी परिकल्पना के मूल्यांकन को वैज्ञानिक महत्व की कसौटी पर किस प्रकार परखा जाये ? एक सही निष्कर्ष क्या है ? एक वैज्ञानिक प्रमाण के अवयव क्या हैं ?

इन और इस प्रकार के प्रश्नों पर आशातीत और बौद्धिक उत्साह के साथ प्रहार हुए। प्रकृति और मानव शरीर के सजग निरीक्षक के रूप में भारत के प्रारंभिक वैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने मानवीय ज्ञानेन्द्रियों का अध्ययन किया, स्वप्न, स्मरण शक्ति और चेतना का विश्लेषण किया। उनमें जो सर्वश्रेष्ठ थे उन्होंने प्रकृति के द्वंद को गुणात्मक और परिमाणात्मक दोनों रूप से समझा तथा आधुनिक परमाणु सिद्धांत के एक प्रारंभिक ढांचे की भी परिकल्पना कर ली। यह तर्कवादी आधार ही था जिस पर भारतीय सभ्यता पल्लवित हुई।

उस काल के महत्वपूर्ण यूनानी वैज्ञानिकों और दार्शनिकों के साक्ष्यों से इन बातों का पता चलता है - यूनानी गणितज्ञ और दार्शनिक पायथागोरस, जो 6 वीं सदी ई.पू. में हुआ था, उपनिषदों से परिचित था और उसने अपनी प्रारंभिक ज्यामिति सुल्व सूत्रों से सीखी थी। पायथागोरस का मशहूर प्रमेय वास्तव में, प्रारंभिक भारतीयों गणितज्ञों द्वारा ज्ञात और लिखित एक परिणाम का पुनर्कथन है। बाद में, यूनानी इतिहास के प्रणेता हेरोडोटस ने लिखा कि तत्कालीन विश्व में भारतीय सबसे महान थे। यूनानी यात्राी मेगास्थनीज ने 4 थी सदी ई.पू. में पूरे भारत का विस्तृत भ्रमण किया था। उसने भी सविस्तार विवरण लिखे जो उस काल की भारतीय सभ्यता का अच्छा चित्राण है।

प्राचीन यूनान और भारत के बुद्धिजीवियों के संपर्क मामूली नहीं थे। यूनान और भारत के बीच वैज्ञानिक विचार विनिमय दोनों के लिए लाभकारी थे और दोनों देशों में विज्ञान के विकास में सहायक हुए। 6 वीं सदी तक प्राचीन यूनानी और भारतीय पुस्तकों की मदद से तथा अपनी प्रतिभा से भारतीय ज्योतिषियों ने ग्रहों की गति के बारे में अनुसंधान किए। भारतीय ज्योतिर्विद आर्यभट पहला व्यक्ति था जिसने बतलाया कि पृथ्वी गोल है और अपने अक्ष पर घूर्णन करती है। इसके बाद उसने यह भी परिकल्पित किया कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। उसने सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण जैसे घटनायें कैसे होती हैं, उनकी सही-सही व्याख्या की।

चूंकि ज्योतिष विज्ञान में जटिल गणितीय समीकरणों की आवश्यकता पड़ी, प्राचीन भारतीयों ने गणित में उल्लेखनीय उन्नति की। इस बात की पूरी संभावना है कि आधुनिक कैलकुलस का आधार, डिफरेंसियल समीकरण, भारत में ही अविष्कृत हुए हों। ग्रहों की गति का प्रादर्श बनाने के लिए डिफरेंशियल समीकरण अनिवार्य हैं। शुद्ध असीम संख्याओं - जिन्हें केवल मात्रा शुद्ध /सैद्धांतिक/ गणितीय सूत्रों जैसे अंकगणितीय या ज्यामितीय की असीम श्रेणियों की अवधारणा भी भारतीय गणितज्ञों ने सर्वप्रथम प्रस्तुत की थी। संभवतया वे बहुपदीय समीकरणों से भी परिचित थे जिनकी उच्चस्तर ज्योतिष विज्ञान में अनिवार्यता है तथा वे आधुनिक अंकीय प्रणाली के भी अविष्कत्र्ता थे जिन्हें यूरोप में अरबी अंक प्रणाली के रूप में जाना जाता है।

दशमलव प्रणाली का उपयोग और शून्य की परिकल्पना बड़ी ज्योतिषीय गणना के लिए अनिवार्य थे और इनकी मदद से 7 वीं सदी में ब्रह्मगुप्त जैसे गणितज्ञों ने पृथ्वी की परिधि की गणना लगभग 23000 मील कर लेने में समर्थ बनाया जो आधुनिक गणना के करीब ही है। इसने भारतीय ज्योतिषियों को भारत के महत्वपूर्ण स्थानों के देशांतर की भी काफी शुद्ध गणना करने में समर्थ बनाया था।

आयुर्वेद विज्ञान, एक प्राचीन भारतीय प्रणाली इसी काल में फलीफूली। वैद्यों ने शवविच्छेदन किया, शल्यक्रिया का अभ्यास किया, जनप्रिय पोषण दिशा निर्देशों का विकास किया और वैद्यक प्रणाली, रोगियों की सूश्रूषा और रोग के लक्षणों की पहचान के लिए विधि संहितायें लिखीं। वस्त्रों को रंगने और धातु निष्कर्षण से संबंधित रासायनिक प्रक्रियाओं का अध्ययन किया गया और उन्हें लिपिबद्ध किया गया। रंगाई के लिए मारडेंट और धातु निष्कर्षण और शुद्धिकरण के लिए उत्प्रेरकों के प्रयोग का अनुसंधान हुआ।

इस वैज्ञानिक चेतना का प्रभाव कला और साहित्य पर भी पड़ा। सामाजिक संरचना में विकास के साथ-साथ चित्राकला और मूर्तिकला का भी पल्लवन हुआ। विश्वविद्यालयों में विश्रामालय और सभागार बनाये गए। इसके अतिरिक्त, चीनी यात्राी ह्वेनसांग के अनुसार दिशा संकेत युक्त सड़कें बनाईं गईं। छायादार पेड़ लगाये गए। यात्रा और व्यापार की सुविधा के लिए राजमार्गों पर जगह-जगह सरायें और अस्पतालें बनाई र्गइं।

भारत का विवेकवादी युग इस प्रकार प्रकाण्ड बौद्धिक उत्तेजना और जीवांतता का युग था। यह वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी अविष्कार का युग था। जाति विभेद, अक्खड़ता और धर्मांधता को चुनौती देने के साथ-साथ यह महान सामाजिक उथल-पुथल का काल था जिसने अंततः समाज को अधिक जनतांत्रिक बनाया, विभिन्न जातियों के लोगों के बीच अधिकाधिक आदान-प्रदान संभव बनाया और जनता के बीच सामाजिक उतार-चढ़ाव के अवसरों का विस्तार किया। सामाजिक नीतिशास्त्रा ने इस काल में लोगों का पर्याप्त ध्यान आकर्षित किया। युद्ध के दौरान काम आने वाले ऐसे नियम बनाये गए जिनसे असैनिक हताहत, चारागाहों, कृषि भूमि या बाग बगीचों की हानि रोकी जा सके। युद्ध में सद्भावना प्रदर्शन की नीति का प्रसार किया गया ताकि पलायन कर रहे या घायल सैनिकों पर हमला न किया जाये और युद्धरत सेनायें औरतों, बच्चों, वृद्धों और युद्ध से विरत अन्य लोगों को सुरक्षित निकल जाने दें।

इस प्रकार इस विवेकवादीकाल ने कई मोर्चाें पर प्रगति का अवलोकन किया। इसने भारतीय सभ्यता के विकसित और परिपक्व होने के लिए न केवल एक श्रमसाध्य नींव का निर्माण किया बल्कि अन्य सभ्यताओं के विकास पर भी अपना प्रभाव डाला। वास्तव में, भारत के विवेकवादीयुग ने मानवीय सभ्यता की दीर्घ और परिवर्तनशील श्रंृखला में एक जीवांत कड़ी का काम किया। यद्यपि उपनिवेशवादी इतिहास ने इस ग्रह की सामूहिक विरासत को अनाधिकृत रूप से हथियाने का प्रयास किया और इसे यूरोप-केंद्रित बनाने की कोशिश की है, यह ध्यातव्य है कि विज्ञान और तकनीक में महत्वपूर्ण अनुसंधान और अविष्कार विश्व के विभिन्न भागों में हुए हैं। इस मामले में भारत ने उल्लेखनीय योगदान दिया है। औपनिवेशिक शासन के लूटपाट और विध्वंस से पूर्णरूपेण उबरने के लिए यह आवश्यक है कि हम इस उत्प्रेरक युग की उपलब्धियों को न भूलें।

टिप्पणीः यूनान और भारत का संदर्भ एक वृहद रूप में लिया गया है। प्राचीन विश्व में यूनानी विश्व अधिकांश भूमध्य सागरीय राष्ट्र्ों - उत्तरी अफ्रीका, फिलिस्तीन, आधुनिक तुर्की, बुलगारिया और युगोस्लाविया को समाहित करता था। भारत को भी जहां संदर्भित किया गया है, वह उपमहाद्वीप के विस्तार को समाहित करता है।

विभिन्न विवेकवादी विचारधाराओं और भारत में उनके प्रादुर्भाव की विस्तृत रूप रेखा के लिए देखिए - ’’उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास’’ जो न्यायदर्शन, जैनदर्शन के स्यादवाद और कार्यकारण के सिद्धांत और जैन तथा बौद्ध दार्शनिकों के परमाणु सिद्धांतों की रूपरेखा बताता है। ’’बौद्ध नीतिशास्त्रा और सामाजिक आलोचना’’ का भी अवलोकन कीजिए।

अन्य संबंधित आलेखः
1. भारत में गणित का इतिहास,
2. भारत में तकनीकी खोजें और उनके उपयोग।

संदर्भः
1.भारतीय विचारधाराः एक आलोचनात्मक परिदृश्य - के. दामोदरन,
2.लोकायतः प्राचीन भारतीय भौतिकवाद का अध्ययन - देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय,
3.प्राचीन भारतीय सभ्यता का इतिहास - आर. सी. दत्त,
4.भारत में विज्ञान का इतिहासः एक अध्ययन - देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय,

कृपया देखिएः इंडिक मैथामेटिक्स - डा. डेविड ग्रे।

भारतीय विज्ञान पर अलबरूनीः

10 से 11 वीं सदी में खीवा में जन्मे अलबरूनी ने अपने संस्मरणों में ब्रह्मगुप्त और वाराहमिहिर, पृथ्वी के गोलाकार होने के बारे में और पृथ्वी पर उपस्थित वस्तुओं के पृथ्वी के केंद्र की ओर आकर्षित होने के उन के तर्कों की चर्चा करता है। चंद्रमा के उदय औ अस्त होने के सापेक्ष, समुद्री ज्वार की दैनिक अवस्थाओं के बारे में उनकी गणनाओं की भी उसने चर्चा की हैै। उसने भारतीय गणित, दर्शन और भारतीय जनजीवन के अन्य पहलुओं पर भी अपने विचार व्यक्त किए हैं।
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कृपया देखिएः ग्लोरिया एमिग्वाली कृत - यूरोप केंद्रित पूर्वाग्रह और विज्ञान एवं तकनीकी इतिहास।