"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

बौद्ध नीतिशास्त्र और सामाजिक समीक्षा

भारत में बौद्ध दर्शन गहन बौद्धिक और सामाजिक विक्षुब्धता के काल में उत्पन्न हुआ था। यह वह काल था जब वेदों की सत्ता पर शंका शुरू हो चुकी थी, ईश्वर की सर्वशक्ति और सृजकता पर प्रश्न चिह्न, जाति की गतिशीलता और जन्मजात पाबंदियों पर आघात होने लगे और ब्राह्मण कर्मकाण्डों को चुनौतियां दी जाने लगीं। उपनिषदों के रचनाकारों ने शास्त्रा विरोधी मतों के अभ्युदय के लिए दरवाजे खोल दिये और उनमें सबसे ज्यादा महत्वकारी थे ’’लोकायत’’ जिन्होंने धार्मिक निवारणों के विरोध में काम किया। ’’न्यायवादियों’’ के ज्ञानशास्त्रा ने दार्शनिक विमर्श की आधारशिला रखी, वास्तविक दुनियां को तर्क और विवेक आधारित खोजों के लिए प्रेरणा दी थी और बोझिल कर्मकांडों एवं अविवेकी अंधविश्वासों के बोझ से छुटकारा दिलाया। शासक कुलीन और जनता का ध्यान तथा उन दोनों की स्वीकृति पाने की होड़ विभिन्न वैचारिक पंथों में प्रबल थी। इनमें सबसे महत्वपूर्ण थे जैन और बौद्ध। यद्यपि हरएक पंथ ने दर्शनशास्त्रा में मौलिक और रोचक योगदान दिया तब भी, पूर्ववर्ती बौद्धों ने एक एकीकृत दार्शनिक पद्धति देने की कोशिश की जिसमें नैतिक आचरण और सामाजिक समीक्षा दोनों उनकी सैद्धांतिक पद्धति के मर्म में थे।

यद्यपि बौद्ध दर्शन को एक धर्म की तरह उसके अनेक अनुयायियों के द्वारा माना जाता है तथापि शरू से ही बौद्धपंथ नास्तिक - निरीश्वरवाद - या अज्ञेयवादी था। निरीश्वरवादियों का विश्वास था कि ’’ईश्वर ने अपनी कल्पना में मनुष्य को पैदा किया’’ की अपेक्षा यह तो मनुष्य ही था जिसने अपनी कल्पना में ’’ईश्वर’’ को पैदा किया था। उनके मतानुसार ’’ईश्वर’’ के अस्तित्व की भ्रांति को त्यागकर ही मानव की स्वतंत्राता की संभावना पैदा होती थी।

उपलब्ध बौद्ध ग्रंथों की कुछ नीति कथायें अज्ञेयवाद की सूचना देती हैं। उदाहरण स्वरूप बौद्ध अनुयायियों के लिए आदेश था कि उन्हें उलझे हुए आध्यात्मिक प्रश्नों पर समय नहीं गंवाना चाहिए जैसे कि ’’क्या ईश्वर ह,ै’’ भगवान की पहिचान की खोज, उसके स्वरूप की कल्पना, सत्य की खोज आदि निरर्थक प्रश्न माने जाते थे।

ईश्वर के खिलाफ बौद्धों का तर्क था कि यदि एक सर्वशक्तिमान अथवा सर्वज्ञ ’’ईश्वर’’ जैसा कुछ होता और जिसे संपूर्णरूप से शुभ ही माना जाता था तो फिर वास्तविक दुनियां में चंहुओर फैला दुख होता ही नहीं। बौद्ध ग्रंथ के ये कुछ श्लोक् इस बात को प्रगट करते हैंः

यदि समूचे विश्व का सृजक जिसे ’’ईश्वर’’ कहते हैं, ही समस्त जीवों का स्वामी है, तब,
वह इतने दुर्भाग्य का आदेश क्यों दे रहा है और सामंजस्य सृजन का आदेश क्यों नहीं देता ?
यदि समूचे विश्व का सृजक जिसे ’’ईश्वर’’ कहते हैं, ही समस्त जीवों का स्वामी है, तब,
धोखा, झूठ और अज्ञान क्यों है, इतनी असमानता और अन्याय क्यों पैदा करता रहता है ?
यदि समूचे विश्व का सृजक जिसे ’’ईश्वर’’ कहते हैं, ही समस्त जीवों का स्वामी है, तब,
वह एक शैतान है यह जानते हुए कि सही क्या है, गलत को क्यों हावी होने देता रहता है ?

उन धर्मों के विपरीत जो जीवन के कष्टों को मनुष्य के पापों का परिणाम मानते थे, जो ईश्वर के कोप के कारण पैदा हुए और जिनसे डरना चाहिए बौद्ध दर्शन मानवीय कष्टों की जड़ अज्ञान में देखते और उनका अंत ज्ञान की प्राति में होना मानते थे। किसी अलौकिक शक्ति द्वारा मनुष्य के कष्टों के निवारण की अपेक्षा बौद्ध यह मानते थे कि कष्टों का निवारण आदमी के अपने ही हाथों में था। ज्ञान एवं मानव स्वभाव तथा भौतिक दुनियां की सही समझ द्वारा उत्पे्ररित आचरण एवं कार्य के द्वारा मनुष्य अपने दुखों का अंत कर सकता था। इसलिए ज्ञान की पिपासा और जिज्ञासा को अंधविश्वासों के सही उत्तर की तरह माना गया। यद्यपि इस मत को उन्नत करने वाले बौद्ध अकेले ही नहीं थे परंतु इस नुक्ते की व्याख्या पूर्ववर्ती बौद्ध दर्शन के लिए मूलभूतिक थी।

बौद्ध दर्शन के केंद्र में मानव स्वभाव और दुख के कारण की समझ ही थी। उन्होंने मानव व्यक्तित्व के संगठकों की तरह से इन पांच तत्वों को देखाः शरीर, स्पर्श, बोध, मनोवृति और चेतना, और वे इसी ढांचे का उपयोग मानवीय दुखोें को समझने में करते थे। मनुष्य के दुखों के कारण संबंधी उदाहरणों यथा बढ़ती उम्र, बीमारी या मृत्यु या अप्रिय से संलग्नता या प्रिय से विलगता या इच्छित को प्राप्त करने की अयोग्यता - को बतलाते हुए कहते थे कि दुख तनाव की स्थिति, मानवीय अस्तित्व के भीतरी संघर्ष और संसार के साथ पारस्परिक क्रिया का ही प्रतिफल है।

उन्होंने दुख को वस्तुओं की नश्वरता से जोड़ा और अवलोकन किया कि किस प्रकार से लोग प्रिय के खो जाने पर विलाप करते या दुख का अनुभव करते। किसी वस्तु या व्यक्ति जिसने कभी प्रसन्नता दी हो, से प्रथक होना दुख का कारण था। उन्होने यह भी पाया कि मानव सुख दुख उन्मुक्त नहीं क्योंकि वे सदैव नहीं रहते और सुख के खो जाने से लोग आवश्यक रूप से वंचित हुआ अनुभव करते। यह देखते हुए कि वस्तुएं वास्तविक रूप से अस्थाई थीं और उनसे जुड़े रहना किस प्रकार से दुख का एक मूलभूत कारण था उन्होंने अत्याधिक जुड़ाव के खिलाफ चेतावनी दी। साथ ही, उन्होंने बारंबरिक और सामान्य अशांति एवं चिंतनीयता जो जीवन की नश्वरता से उत्पन्न होती और दुनियां के कार्यकलापों के नियंत्राण अथवा उन्हें समझने में हमारी अक्षमता को पहिचाना तथा जिसे उन्होंने विपरिणाम दुख कहा।

परंतु दुख व्यक्ति की कठनाईयों मात्रा से उत्पन्न नहीं होता, बौद्धोेें ने ऐसा देखा। उन्होंने दुखों को बड़े पैमाने पर प्रतिकूल सामाजिक दशाओं से उत्पन्न होते देखा। उदाहरण स्वरूप युद्ध और सामाजिक अत्याचार या उत्पीड़न तथा जिसे उन्होंने दुख-दुख कहा।

इन विभिन्न दुखों का सामना करने के लिए बौद्धों ने एक सूत्रा - ’’चार मूल्य’’ दुखों को समझने के लिए प्रतिप्रादित किया। उदाहरण के लिए 1. दुख, 2. दुख के कारण को ढूंढना, 3. उस समस्या के निवारण का उद्देश्य निर्धारित करना अर्थात् दुख का अंत /निर्वाण/ और 4. जीवन को सही रास्ते या सही तरीके से अर्थात् ’’मार्ग’’ से जीना।

इस तरह से अनुयायियों को वैयक्तिक नीति शिक्षा और सामाजिक सद्विवेक के लिए प्रेरणा दी जाती थीः

’’जिसमें समझ और महान बुद्धि है वह स्वयं या दूसरे या दोनों को नुकसान पहुंचाने का विचार नहीं कर सकता। बल्कि वह न केवल अपने, दूसरों के, दोनों के और समस्त विश्व कल्याण के लिए सोचता है। इस तरह से वह समझ और विशाल बुद्धि का प्रदर्शन करता है।’’ अन्यगुतारा निकाय।

’’अपनी स्वयं की रक्षा से /नैतिक रक्षा/ दूसरे की रक्षा करता है, दूसरों की रक्षा द्वारा अपने स्वयं की रक्षा करता है।’’ सम्युक्त निकाय।

बौद्ध मत में मानवीय कर्म की परीक्षा चेतना और कर्म के विपाक द्वारा होती थी। परोपकारी काम जो न्यायपूर्ण समाज की स्थापना और उन्नति में सहायक हों उनको नैतिक कर्तव्यों के अंतर्गत प्रोत्साहित किया जाता था।

दिग् नियाय के सूत्रा बतलाते हैं कि सामाजिक स्थितियों का बुद्ध के मूल्यों, सामाजिक समानता और न्याय को पैदा करने में कितना गहरा संबंध था। इन दृष्टिकोणों ने निश्चय ही, ’’हितग्राही राज्य’’ के निर्माण में साम्राट अशोक के शासनकाल के दौरान, 274 से 236 ई.पू; में प्रभाव डाला था।

कार्य कारण संबंधी अपने सिद्धांतों में बौद्धों ने इस दृष्टिकोण को चुनौति दी थी कि मानवीय भाग्य मानवीय कार्यों की नैतिकता के द्वारा अप्रभावी होता है। उन्होंने अक्रियावाद या निनेंतिक कार्य-कारण सिद्धांत का प्रतिरोध किया जिसके अनुयायी दावा करते थे कि अच्छा करने में कोई पुण्य नहीं और बुरा करने में कोई पाप नहीं। /यह विचार उन दार्शनिकों में पाया जाता है जो समस्त पुण्यों को नकारते हैं और किसी व्यक्ति की हत्या करने में कोई अपराध का बोध नहीं करते।/
इस बात को जानकर कि ऐसा विश्व दृष्टिकोण नैतिक मान्यताओं और अपने कार्यों की व्यक्तिगत जिम्मेवारिओं के परित्याग को बढ़ावा देगा उन्हांेने ऐसे विश्वासों के विरुद्ध कठोर दावे किए। उन्होंने मक्काली घोष या गोशाला के सिद्धांत का भी विरोध किया जो विश्वास करते थे कि मनुष्यों का भाग्य पूर्व निर्धारित है और इसलिए वे मनुष्यों के कार्यों का प्रभाव वस्तुओं के परिणामों पर /अहेतूवाद/ होना अस्वीकार करते थे और वे यह कहते कि मनुष्य के अभिप्राय और प्रयास शक्तिहीन होते मनुष्य के भाग्य के बदलने में, और इसलिए, वे नियति की वकालत करते थे।

’’परम संशयवाद’’के मत के दार्शनिक जो प्रत्येक वस्तु पर संशय करते और सिद्धांत संबंधी मीमांसा के प्रति कटिबद्ध नहीं होते थे का भी उन्होंने विरोध किया। इस मत के दार्शनिक जैसे संजय बिलरथपुत्रा जो अंतहीन शब्दछल के सिद्धांतकार की तरह ख्यात था या एक शब्दछली था, को ब्रहम्यजालसूत्रा में आलोचित किया गया। उन्हें ’’सर्पमीन पैतरेबाज’’ कहा गया जो किसी भी मूल दार्शनिक प्रश्न पर निर्णयक मुद्रा कायम करने में अक्षम थे। संशयवाद को भूल में होने के डर और विचारार्थ रखे गये प्रश्न के विवेकपूर्ण उत्तर देने के ज्ञान की कमी या अक्षमता से पैदा होने के रूप में देखा गया। सदैव रहने वाली पागलपन की ऐसी संशयवादी शंका को मनोवैज्ञानिक अवरोध और बुद्धि के मार्ग में रोड़े की तरह से देखा गया।

मानवीय कार्य के अन्य विरोधीमत संयोगिकतावाद, ईश्वरीय निर्णयवाद और पूर्व कर्म निर्णयवाद, इन सभी का बौद्धों ने विरोध किया। संयोगिकवाद एक अनिर्णयकारी मत था, जो मानता था कि जो कुछ अनुभव में आया वह अकारण और मनुष्य के दखल से परे अपरिस्थितिगत था। ईश्वरीय निर्णयवाद एक निर्णयकारी सिद्धांत था जो मानता था कि जो कुछ भी अनुभव में आता है वह ईश्वर की इच्छा या सर्वोपरि शक्ति के कारण था। पूर्व-कार्य निर्णयवाद भी निर्णयकारी सिद्धांत था परंतु वह इस बात की स्थापना करता था कि जो कुछ अनुभव में आता था - दुख या सुख अथवा दोनों - ये सब पूरी तौर पर भूतकालीन कर्मों के कारण थे और वर्तमान के कर्मों से उनका कोई सरोकार नहीं।

इनमें से प्रत्येक सिद्धांत के खतरे को इन शब्दों में बताया गया था ’’इन तीन भ्रामक मतों को जो मानेगा उसे जो करना चाहिए उसकी इच्छा नहीं रहेगी; उसे जो नहीं करना चाहिए उसे नहीं करने की और न उस कार्य के करने की आवश्यकता रहेगी, न ही उससे दूर होने की। उनसे किसी नैतिक उन्नति या विवेकी संस्कृति की अपेक्षा नहीं की जा सकेगी।’’

उस समय कुछ प्रचलित सिद्धांत सत्य के अंकुर पर बने परंतु उनका सामान्यीकरण विकृति के कगार तक पहुंच गया था। उदाहरण के बतौर संयोगिकवादी कुछ हद तक सही थे कि कुछ निश्चित बातें घटती हैं महज बेतरतीब संयोग या दुर्घटना के। परंतु वे यह समझ पाने में असमर्थ रहते थे कि जो संयोगिक प्रतीत होता वह अपर्याप्त समझ या अपूर्ण या अनुप्युक्त अवलोकन के कारण या और दूसरी क्रियाओं के कारण होती थीं स्पष्ट तौर पर दृष्टिगोचर कारण के। ऐसे सिद्धांतकारों के अतिवादी सामान्यीकरण से निपटने के लिए उन्होंने एक मध्यम मार्ग को अपने नीतिशास्त्रा और ज्ञान मीमांसा में प्रतिपादित किया।

उन्होंने इस प्रकार से इस मत का खंडन किया कि सब अस्तित्वमान है और स्थाई है - परम सास्वतवाद में और उसके विपरीत में जो प्रतिपादित करता था कि कुछ भी अस्तित्वमान नहीं - शून्यवाद अर्थात् मूर्तिमान दुनियां की हर सत्यता को नकारना या कि परम उच्छेदवाद। सास्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों दर्शनों की बौद्ध आलोचना में दोनों का परित्याग था - सुखवाद एवं तपस्या जिसे उन्होंने कष्टप्रद, निष्फल, अलाभदायी और हेय माना।

बौद्ध साहित्य ने विधर्मी आचार्यों के दावों पर भी संदेह व्यक्त किया जो अपने आपको ’’सर्वज्ञानी’’ और ’’सर्वदृष्टा’’ और ’’सभी ज्ञान और दृष्टि’’ का अधिकारी कहते थे। इन दावों का तर्काें के द्वारा खंडन किया जो नीतिशिक्षा की विभिन्न स्थितियों में वास्तविक व्यवहार के संबंध में थे। उदाहरण स्वरूप उन्हांेने आश्चर्य प्रगट किया कि ये ’’सर्वज्ञानी’’ और ’’सर्वदृष्टा’’ आचार्य अनजान जगह में रास्ता क्यों भूलते और खूंखार कुत्ते, हाथी, घोड़ा, बैल के आक्रमण से क्यों नहीं बचते। और, यदि वे वास्तव में सर्वज्ञानी होते तो फिर लोगों के नाम, गण, गांव का नाम, बाजार, बस्ती का नाम क्यों पंूछते या अन्य जानकारियां पाने की कोशिश क्यों करते थे। वे इस प्रकार कार्य करके बतला देते कि उनका ज्ञान स्पष्ट तौर पर सीमित या बिलकुल किसी भी संसारी व्यक्ति के समान था।

पवित्रा ग्रंथों में प्रत्येक शब्द की पवित्राता या प्रगट सत्य पर आधारित धर्मों के विपरीत, बौद्ध मत ने अन्वेषण पर आधारित मीमांसा को निर्णय के साधन की तरह से प्रस्तुत किया। कालामसूत्रा की एक नीति कथा में बौद्ध अनुयायियों को निम्नलिखित दस कारणों से किसी नैतिक मान दण्ड को अस्वीकार करने के लिए कहा हैः 1. वैदिक अधिकार, 2. परंपरा, 3. सुनी सुनाई, 4. गं्रथों के अधिकार, 5. दृष्टिकोण की प्रगट स्वीकारिता, 6. दृष्टिकोण रखने वाले की सत्ता, 7. दृष्टिकोण की प्रगट तार्किकता, 8. स्वीकार हो चुके दृष्टिकोण की सत्यता, 9. कार्य कारण पर अपर्याप्त विचार या 10. सत्य स्व-दृष्टिकोण से मेल खाता हो।

इस ढंग से बौद्धों ने बहुत ही परिष्कृत दार्शनिक पद्धति विकसित की जिसमें सामाजिक नीतिशास्त्रा को मनुष्य के विवेक और खोजी स्वभाव, सामाजिक संगठन और भौतिक दुनिया के साथ समावेशित किया। बौद्ध दर्शन एवं विचार ने भारत के अन्य दार्शनिक एवं आर्थिक मतों की पद्धतियों पर गहरा असर डाला और समय बीतने पर बहुत समानतायें प्रतिस्पद्र्धात्मक मतों के बीच पैदा भी हुईं।

जो भी हो दुनियावीं बौद्ध दृष्टिकोण मेें कुछ समस्यायें भी रहीं जिन्होंने वैज्ञानिक तरीकों के विद्वानों को उसे पूरी तरह से स्वीकार करने से रोका। उदाहरण के लिए, यद्यपि बौद्धों ने भूतकालीन कार्य निर्धारणवाद को अस्वीकार किया था तथापि उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया जो व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् रहती और व्यक्ति की बीती जिंदगी के गुण एवं अवगुण को अपने साथ ले जाती। अनुमानतया यह विचार बौद्धों के लिए आवश्यक था जिससे कि सही आचरण को प्रोत्साहित किया जा सके परंतु यह उनके द्वारा अस्वीकृत किया गया जो आत्मा को शरीर का ही अभिन्न गुण मानते और यह विश्वास नहीं करते थे कि मृत्यु बाद आत्मा जिंदा रहती थी। जो आत्मा के पुनर्जन्म के सिद्धांत को अस्वीकार करते, स्वाभाविक है वे आत्मा के पिछले जन्म के गुण दोषों को मनुष्य के भाग्य पर प्रभाव डालने के विचार को भी अस्वीकार करते थे। उनके मत में सदाचरण और नैतिकता पूरी तौर पर सामाजिक नियमावली थे और उनके प्रति उसी प्रकार पेश होते थे। न्यायवादी जो बौद्ध मत के भागीदार थे, आचरण और नैतिकता के लिए कहतेः आचरण और नैतिकता को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और उन्हें सामाजिक कानून और न्यायिक नियमावली द्वारा लागू किया जा सकता है।

दूसरी समस्या बौद्धों के सामने थी कि अनेक पक्षों से उसके नजरिये अपने समय से ज्यादा ही आगे के थे। समाज अभी तक उस स्तर तक उन्नत नहीं हो पाया था जहां सभी शिक्षित होते और वास्तविक दुनियां का पर्याप्त ज्ञान रखते जिससे अविवेकी धारणा और अंधविश्वास को रोका और आम जनता द्वारा संपूर्ण रूप से त्यागा जा सके। उस समय जब समाज के पास प्रकृति पर सीमित नियंत्राण था, यह अत्यावश्यक था कि समाज देवी देवताओं और सर्वशक्तिमान शक्ति में विश्वास इस आशा से रखे कि उन्हें प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा और उनकी फसलों को बीमारियांे एवं कीट पतंगों के प्रकोप से निजात मिले। यद्यपि बौद्ध बहुत ही महत्वपूर्ण एवं नमस्क्रियात्मक प्रभाव समाज पर रखते थे परंतु सर्वाधिक उन्नत बौद्ध विचार समाज के अल्पसंख्यकों के ही द्वारा समझे और व्यवहार में लाये जाते थे।

समय बीतने पर, ढूंढने और विवेकी अनिवेषणों की तीव्र आकांक्षा जो पहले के बौद्ध विद्वानों को गतिशील सोच और भौतिक समाज की व्याख्या करने के लिए प्रेरित करती थी, को तार्किक और किताबी तंग व्याख्याओं से कुंठित हो जाना पड़ा। उदाहरण के लिए, किसी बात को स्वीकारने के विरूद्ध बिना वैयक्तिक साक्ष्य की ’’तार्किक’’ प्रतीत होने वाली सलाह के मायने था कि उस तर्क को नकारा जा सकता था। और बहुत से बौद्ध विद्वान आध्यात्मिक विमर्शाें से अलग रहने लगे जबकि अन्य दार्शनिक मतांबलंबियों जैसे जैन और वैशेषिकों के द्वारा विमर्श किए जाते रहे। जो उन्होंने नहीं सोचा था वह था कि इनमें से कुछ बहसें गणित के उपयोगी विकास, या मनुष्य की सोच की प्रक्रिया गहरी समझ, मानव स्मृति और मनोविज्ञान की अंतरदृष्टि की ओर जाती थी। इन्होंने भावना और मनोदशा की व्याख्या के विकास में अगुवाई की - इस प्रकार से भारतीय ललितकला, साहित्य और संगीत में अगुवाई संभव हो सकी।

इसके अतिरिक्त परवर्ती बौद्धभिक्षु पहले के भिक्षुओं के द्वारा प्रतिपादित बातों - अनावश्यक जटिल पूजन पाठ हवन, अलौकिक घटनाओं में विश्वास और पुरोहितों द्वारा जनता की नोंच खसोंट - से चूक गए। एक समय बुद्धिमत्ता पाने के साधन के रूप में मनन जैसी क्रियायें प्रोत्साहित की जाती थीं जो अपने आप में उद्देश्य बन गईं और आदर्शवादी वस्तुरति में बदल गईं। यद्यपि बौद्धभिक्षु ईमानदारी से सही काम और सही आचरण का उपदेश देते थे परंतु वे समयोचित और संबंधित सामाजिक समालोचनाओं में संलग्न होने में असफल रहे और शास्त्रोक्त सुझावों को वास्तविक आचरण से नहीं जोड़ सके। छोटे छोटे मतभेदों पर बौद्धों के बीच झगड़े पैदा हो गए। यहां तक कि कुछ सबसे अधिक महत्व के सिद्धांतों जिनने इस दर्शन को मूलरूप से आधार दिया था, को नीचे ढेल दिया गया। परिणामतः बौद्धदर्शन आदर्शवाद और निष्क्रियवादिता से जुड़ गया जबकि परवर्ती बौद्धों ने ईश्वर या उसकी मूर्ति के पूजन पाठ में कोई उपादेयता नहीं मानी थी परंतु परवर्ती बौद्धों ने अन्य भारतीय धर्मों की तरह देवी-देवताओं के लिए मंदिर बनवाये।

इस प्रकार से 5 एवं 6 वीं सदी में लगभग संपूर्ण एशिया में बौद्धदर्शन फैला था परंतु उसने अपना खास पैनापन और मुक्ति दायी प्रभाव भारतीय समाज के अधिकांश में से खो दिया। भारतीय उपमहाद्वीप के भीतर बौद्ध प्रशाखायें श्रीलंका, बंगाल, भूटान, सिक्किम, बिहार और नेपाल के हिस्सों में और सिंध, पंजाब, कश्मीर और अफगानिस्तान के इलाकों में बनी रहीं। उड़ीसा और उसके आसपास के इलाकों - छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में तांत्रिक एवं ंअन्य प्रभावों ने बौद्धदर्शन को पुनः आकार और आचरण दिये। तब भी, भारत के बाहर बौद्धदर्शन ने प्रभाव कायम रखा और पश्चिमी सीरिया में अपने प्रभाव क्षेत्रा विकसित किये। साथ ही साथ सेंट्र्ल एशिया जिसे आज उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, क्रिग्जिया, कज्जाकिस्तान और तिब्बत में भी अपने क्षेत्रा बनाये। वास्तव में, बर्मा, थाईलेंड, मलाया और इन्डोनेशिया और लाओस, कम्बोडिया, वियतनाम, चीन, कोरिया और जापान को मिलाकर पूर्व के सभी देशों में बौद्धदर्शन का प्रभाव फैला।

जैसा कि पहले भी देखा गया विशाल बौद्ध साहित्य - हिंदू या जैन साहित्य के समान - रहस्योदघाटन और अधिकार का साहित्य नहीं था। उसके प्रबंध सामाजिक नैतिकता और सद्ाचरण के उत्तरदायित्वों और उनके शोध प्रबंध दर्शन, विज्ञान, कला और काव्य पर विवेकपूर्ण मार्गदर्शक थे। इसने बौद्ध दर्शन को दोनों, लचीलापन और समन्वयात्मकता दीं। अपने गैर सत्तात्मक और मानवीय चरित्रा के कारण बौद्धदर्शन को बिना किसी दबाव या सत्ता के स्वीकार किया गया। वह दक्षिण पूर्व एशिया के अनेक हिस्सों में हिंदूदर्शन के साथ सफलतापूर्वक घुलमिल सका ठीक उसी तरह जैसे कि उसके अनेक तत्व भारत में हिंदू आचरण के साथ समाहित हुए थे। चीन में लाओवाद और कन्फूसियन सिद्धांतों के साथ और जापान में वह शिंतो विश्वासों के साथ समाहित हुआ। शताब्दियों तक भारत और विदेशों में, कुछ लोग बहुविश्वासों को मानते रहे और उनकी पहिचान बौद्ध तथा हिंदू की तरह होती रही या बौद्ध और तांत्रिक या बौद्ध और तआओ की तरह और इसी तरह अन्य की तरह। गुप्ताकाल में, और अन्य राज्यों में भी, अनेक मतों के दार्शनिकों को राज्याश्रय प्राप्त होता रहा और समान रूप से बौद्ध बिहारों और हिंदू मंदिरों के निर्माण के लिए अनुदान प्राप्त होता रहा था।

ध्यान देनेे के लिए यह महत्वपूर्ण है कि बौद्धदर्शन का स्वरूप जो भी देश उसे स्वीकार करता था, दूसरे देश से बिलकुल अलग रहता था। उदाहरण के लिए पश्चिमी और मध्य एशिया में बौद्धदर्शन के दार्शनिक या बौद्धिक पक्ष प्रसिद्ध नहीं हुए बल्कि वैयक्तिक आचरण की नियमावली के समान प्रसिद्ध हुआ। बौद्धधर्म प्रचारकों ने बुद्ध की कथाओं में अद्भुत रोगहरण और अलौकिक करुणा का समावेश अधिकाधिक अनुयायी पाने के उद्देश्य से किया था।

जब बौद्धदर्शन भारत या विदेशों या बर्मा, श्रीलंका या थाईलेंड में फैला तब ये ही प्रवृतियां दिखलाई पड़ती थीं और उसने एक लचीले सांगठनिक ढांचे का विकास किया। यह महसूस किया गया था कि बौद्धगुण के विकास के नेतृत्व और समुदाय के बीच सतत् संवाद की जरूरत होगी। इन देशों में बौद्धमत रहस्यवाद या एकांतवाद की अतिवादिताओं में नहीं बिखर पाया जबकि भारत में पश्चिमी हिमालय की तराईओं के कई स्थानों में बिखराव हुआ। बर्मा और थाई समुदाय के साथ व्यवहारिक और करुणामय संबंध कायम हुए और इस प्रकार से जनता में उसे आदर प्राप्त होता रहा। यही स्थिति जापान के संबंध में भी रही थी। कोरिया में विवेक प्राप्ति पर ज्यादा जोर दिया गया और बौद्ध भिक्षुओं ने आम शिक्षा प्रसार में अगुआई की थी। इसने कागज, लिखने के उपकरण, स्याहियां, लकड़ी के साज सामान आदि के उत्पादन की तकनीकों को बढ़ावा दिया और भारत के विपरीत, जहां उपनिषदों के प्रभाव के कारण ’’भीतरी’’ विवेक बाह्य विवेक के उपर छाया रहा था, बौद्ध अनुयायियों में बौद्ध ग्रंथों के बिखराव की खास समस्या रही, जिसने लौकिक दबाव का महत्वपूर्ण प्रभाव डाला। कोरिया में और अन्य पूर्वी देशों में भी, बौद्धमत या समाज की स्थापना कोई एक दिन का काम नहीं था और यह सोच सही तौर पर बौद्ध अनुयायियों के भीतर रही। महान ’’बौद्ध बंधुत्व’’ की ओर व्यक्ति और समाज के उत्थान पर जोर दिया जाता था। यही दार्शनिक तत्व संभवतया महत्वकारी था जिससे भारत में घटित दार्शनिक ठहराव को रोका नहीं जा सका और अनुयायी तत्काल मदद पाना चाहते थे। इस प्रकार से, वे सत्य से हट गये थे और दर्शनशास्त्रा की संभावनाओं से भी दूर हो गए थे।

इसके अतिरिक्त, यह ख्याल रखा जाना चाहिए कि बौद्धदर्शन को भारत में सत्ता, अराजक और अति प्रजातंत्रात्मक प्रवृतियों से संघर्ष करना पड़ा था। स्पष्ट रूप से यह वह दार्शनिक ढांचा था जिसने सत्य के सापेक्ष एवं परिवर्तनशील स्वभाव पर जोर दिया, और बौद्ध आवरण की भिन्न भिन्न प्रवृतियों को नेतृत्व के लिए तर्क और विमर्श के द्वारा प्रतियोगिता करना पड़ी। शुरूआती तौर पर इससे संघों के प्रजातंत्रात्मक आचरण में महत्वपूर्ण उन्नति हुई। परंतु समय बीतने पर व्यक्तिगत महत्वकांक्षा के झगड़े, सिरफुटव्वल और रुकावटें पैदा हुईं। जबकि कुछ बौद्धपंथों ने अन्य प्रवृतियों के साथ और यहां तक कि विदेशी प्रवृतियों के साथ समझौते और विलयन किए। दूसरी ओर, अन्य पंथ भयंकर तौर पर अनजान बने रहे। जीवित बने रहने के लिए बौद्धमत को सहयोग और बिखराव की प्रवृति दोनों से सामना करना पड़ा था।

जो भी हो, भारत में बौद्धवाद के भयंकर निधन को इस्लाम की चढ़ाई ने शुरू कर दिया था जिसने मध्य एशिया में बचे हुए बौद्ध दर्शन को और बाद में अफगानिस्तान और भारत में भी मिटाया था। कमोवेश, बौद्धमत केवल उन देशों में ही जीवित रहा जो इस्लामी विजयेताओं के आक्रमण से बचे रहे थे। एक सभ्य विश्वास जिसने अपने अनुयायियों को हिंसा संत्याग के लिए प्रोत्साहित किया हो, संभवतया, अपने आपको मूर्ति भंजकों और धर्म परिवर्तकों, जो एक नई धार्मिक-राजनीतिक पद्धति को लागू करने का इरादा रखते थे, से बचाने में असमर्थ थे। शताब्दियों तक शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के आदी रहे भारतीय बौद्धों ने कभी आत्म सुरक्षा की आवश्यकता महसूस नहीं की जो भारत के हिंसक इस्लामी विजेता से मुकाबला कर सकती और जिसने वास्तव में, बौद्ध मत को अपनी जन्म भूमि से लगभग मिटा ही डाला था।

तब भी यह बड़े पैमाने पर दिखलाई पड़ता है कि परवर्ती बौद्धमत प्राचीन गं्रथों में वर्णित बुद्धि सम्मत सिद्धांतों से काफी दूर चला गया था। मठ मुख्य समाज से प्रायः अलग थलग पड़ गए और भिक्षु जो खासकर ध्यान, आचरण और आत्मिक या गहन दार्शनिक विमर्श पर जोर देते थे अब सामाजिक प्रगति के लिए बहुत ही थोड़ा योगदान दे पा रहे थे। कुछ ने तर्क किया कि मठ पद्धति परजीविता में बिखर चुकी थी और समाज पर भारी बोझ बन गई थी। परिणामतः बौद्धदर्शन के विनाश और भारत में इस्लामी उत्थान पर बहुत ही ध्यानपूर्वक मूल्यांकन किये जाने चाहिए।

तब भी, यह महसूस किया जाना चाहिए कि इस्लाम का उदय बौद्धमत के पतन से जुड़ा हुआ था और चूकि बौद्धमत बड़े पैमाने पर राजतंत्राीय व्यवस्था पर आश्रित रहा था मठों के विनाश या उनका मस्जिदों में तथा कुरानी मदरसाओं में परिवर्तन ने सहजता से इस्लाम में जन परिवर्तन को बढ़ाया था।

लम्बे समय में, यह भारत के भविष्य के बौद्धिक विकास पर कमाल का प्रभाव डाल सकेगा क्योंकि महत्वपूर्ण बौद्ध शिक्षण संस्थानों के विनाश से निरपेक्ष विषयों यथा तर्कशास्त्रा और ज्ञान मीमांसा के अध्ययन के अवसर में अत्याधिक हा्रस आया। ये विषय भागलपुर जैसे बौद्ध विश्वविद्यालयों में पढ़ाये जाते थे।
इसे भी देखा जाना चाहिए कि बौद्ध अध्ययन केंद्रों के विनाश का संयोग बेहद कीमती पुरातन ग्रंथों के विनाश से हुआ जिसे भारत की आने वाली पीढ़ियों के लिए पुनर्जीवित या पुनव्र्यख्यातित या अविष्कृत किया जा सकता था और जिससे ऐसे समाज की संरचना की जा सकती थी जो विचारवान और शिक्षित हो। इस्लामी साहित्य संयोगिगता एवं ज्ञान मीमांसा से संबंधित कुछ भी प्रदान नहीं करता और न वह मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या नैतिक अंतरदृष्टि के लिए ही कुछ दे पाता है जैसा कि बौद्ध दर्शन के प्रभाव में उन्नत किया गया था। न ही कोई तुलनात्मक दबाव ज्ञान प्राप्ति पर था और न ही प्रकृति और मानवीय समाज के संबंध की समझ को निरंतर आधुनिक बनाये रखने पर ही था।

इसलिए कोई भी अनुमान लगा सकता है, इस गंभीर सांस्कृतिक और सामाजिक ठहराव के समूचे परिणामों का।

परंतु पूर्वी भारत में, बौद्धदर्शन जीवित रहा और विदेशों जैसे कोरिया, थाईलेंड और बर्मा में उसने जनसाधारण से भक्तिपूर्ण अनुसरण प्राप्त किया। दार्शनिक खोजें हुईं, जैसे कि पहले पता चला था चीन, कोरिया और जापान में। बौद्ध विद्वानों ने अपने स्वयं की व्याख्यायें और बौद्धमत एवं सिद्धांत की वैयक्तिक व्याख्यायें 5 से 7 वीं सदी के अंतिमकाल में भारतीय ग्रंथों में की गई थी। यद्यपि ढहते हुए शैक्षणिक केंद्र एवं मठ यथा नालंदा और विक्रमशिला ने मौलिक बौद्ध ग्रंथों को हमेशा हमेशा के लिए नष्ट हो जाने दिया तथापि यह अवश्य संभव हो सका कि भारत के बाहर जैसे तिब्बत और थाईलेंड के अनुवादों के द्वारा कुछ को पुनर्जीवित किया जा सका था। भारत में बौद्धवाद के वास्तविक विनाश के बाद भी, पुनर्जीवित ग्रंथों, पुरातात्विक अभिलेखों, बच रह गए स्मारकों और पुरावशेषों से यह आशय निकालना संभव हुआ कि भारतीय भाग्य निर्माण में बौद्धदर्शन का बहुत भारी प्रभाव और सामाजिक एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण की उत्प्रेरणा में हाथ रहा जो भारत और एशियन सभ्यताओं को उच्च स्तरीय सामाजिक, सांस्कृतिक और भौतिक विकास की ओर ले जा सका था।

संदर्भः

बौद्ध ग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद
1.अंगुत्तर निकाय - आर. मारिस, ई. हार्डी, सी.ए.एफ. रयास डेविडस,
2.धम्मपद - के.आर.नारमन, ओ वाॅन हिनूवर,
3.दिग् निकाय - टी. डब्ल्यु रयास डेविडस और जे. इ.कारपेंटर,
4.मज्जिम निकाय - व्ही. ट्र्ेंचनर, आर. कामर. श्रीमती रयास डेविडस,
5.मज्जिम निकाय अथ कथा - जे. डब्ल्यु वुडस्, डी कौशाम्बी, आई.बी.हार्नर,
6.पाली त्रिपिटक - अनुवाद,
7.सामउत्तानी निकाय - एल. फीर, श्रीमती रयास डेविडस,
8.डायलाॅग्स् आॅफ बुद्ध - अनुवाद,
9.ग्रेंडुअल सेईंग्ज् - अनुवाद,
10.किंडर्ड सेईंग्ज् - अनुवाद,
11.मिडिल लेंथ सेईंग्ज - अनुवाद।

अन्य संदर्भः

बुद्धिस्ट् लाॅजिक - स्ट्र्ेचरवस्की,
लोकायतः ए स्टडी इन ऐंसियेंट इंडियन मटेरियलिज्म - देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय,
ए हिस्ट्र्ी आॅफ प्री बुद्धिस्टिक इंडियन फिलोसिफी - बेनी माधव बरूआ,
काॅजल्टीः दी सेंट्र्ल फिलासफी आॅफ बुद्धिज्म - कालु पहना, डेविड जे.,
ए हिस्ट्र्ी आॅफ बुद्धिस्ट फिलोसिफी कंटीन्यूटीज एण्ड डिसकंटीन्यूटीज - कालु पहना, डेविड जे.।

टिप्पणीः
1.कारण के संदर्भ उक्तियों में प्राप्त होते हैं - वह जो कारण जैसा है, परिणाम के तत्वों से युक्त है।

2.’’ज्योतिष और वैदिक कर्मकाण्ड की आलोचना ’’त्रिपिटक’’ में मिलती है - यदि कर्म की बुराईंयां नदी में नहाने मात्रा से साफ हो सकती हैं तब मेडक, मछली और मगर तथा नदी में रहने वाले दूसरे प्राणी निश्चितरूप से स्वर्ग में जन्म लेंगे ..... यदि ये नदियां तुम्हारे बुरे कामों को ले जाने वाली होती तो संभव है कि वे तुम्हारे अच्छे कामों को भी ले जा सकेंगीं।’’

जब मूर्ख नक्षत्रों को गिनता है, लाभ खो जाता है। सही कार्य लाभ का कारक है, तो तारे नक्षत्रों का क्या उपयोग ?

’’जिसके लिए भी सही काम है, वह हितकर समय है, एक पवित्रा समय, एक शुभ सुबह, एक सुखद क्षण, एक शुभ्र अवसर; और उस कार्य में पवित्रा आत्मा का निवास है। शारीरिक कार्य, शाब्दिका कार्य, मानसिक कार्य और ऐसे सब कार्य पवित्रा हैं तथा उनकी कामनायें पवित्रा हैं। शुभ्र कामों को पैदा करके वह व्यक्ति परिणामों में शुभ्रता का ही अनुभव करता है।’’

’’बीते कल के लिए मत बिसूरिये, न ही भविष्य की आकांक्षा करिये। भूत चला गया है, भविष्य को तो अभी आना शेष है। जो वर्तमान को स्पष्टरूप से निर्णयकारी और अकंप देखता है उसे इस समझ को बनाये रखना चाहिए।’’

/जो भी हो कालांतर में बौद्धमत अपने कर्मकाण्डों में डूबा और उसने वेदों की धार्मिक प्रथाओं की आलोचना की अपनी नैतिक जिम्मेवारी खो दी।/

3.त्रिपिटक कुछ अन्य शिक्षायें देता हैः

अ. ’’काम नियमः काम और उसका परिणामः उदाहरण के लिए, ऐच्छिक और अनैच्छिक कर्म अच्छा या बुरा परिणाम देता है।’’
ब. उत्तु नियमः प्राकृतिक घटनायें जैसे आंधी, वर्षा आदि।
स. बीज नियमः कीटाणु या बीज का नियमः चांवल, चांवल के बीज से उत्पन्न होता है, मिठास गन्ने से या मधु से इत्यादि,
ड. चित्त नियमः मन का या मानसिक सिद्धांत जैसे चेतना की प्रक्रिया या मन या चेतना की शक्ति।

4.बुद्ध और जैन विद्वान की वात्र्ता को शक्क के महान आख्यान में बतलाया गया है - मझम निकाय या महाशकसूत्त। इस
सूत्रा में जैन पुत्रा शक्क बौद्धों द्वारा शब्दछली कहे जाने वालों की आलोचना करता है और वह बुद्ध की प्रश्ंासा करता है क्योंकि वह बुद्ध को
गहराई एवं विचार मग्नता से प्रश्नों के उत्तर देते हुए पाता है। संशयवादी शब्दछली विद्वान एक प्रश्न के बाद दूसरा प्रश्न उठाते और
केंद्रबिंदू से हटते जाते और जब उनको घेरा जाता तो गुस्सा और विस्तृणा पैदा करने लगते।

5.सम्मुत्ता निकाय काम के संबंध में बुद्धमत को प्रगट करता हैः ’’अपनी सब संपत्ति, अनाज, संग्रहीत धन, चांदी और सोना और
अपने दास, सेवक, और कुशल कारीगर समेत सबको इसी दुनियां में छोड़ना पड़ेगा। अपनी मृत्यु के पश्चात् कोई अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा सकता परंतु वह अपने कर्म जो उसका छाया की तरह से पीछा करते हैं, को अपने साथ रखता है।’’

6. पूर्व और पश्चिम - एस. राधाकृष्णन वर्णन करते हैं कि बुद्ध की शिक्षाएं सीरिया और पेलेस्टाइन में प्रचलित थीं और बौद्धमत ईसाईयों के विकास में प्रभाव रखते हैं।