"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

ब्रिटिश उपनिवेशिक बपौतीः भ्रान्तियां और जनसामान्य के विश्वास

जबकि कुछ दक्षिण एशियावासी नकार देंगे कि ब्रिटिश उपनिवेश इस प्रायद्वीप की आम जनता के हितों के लिए घातक था, अनेक लोग मन में धारणा रखते हैं कि ब्रिटिश पूरी तौर से बुरे नहीं थे। शायद, क्या उनने हमें शिक्षित नहीं किया, हमारे लिए आधुनिक शहर नहीं बसाये, हमारे लिए सिंचाई की नहरें नहीं बर्नाइं, हमारी प्राचीन धरोहरों को संरक्षित नहीं किया आदि आदि। और कुछेक हैं, जो कह सकते हैं कि उनका कीर्तिमान स्वतंत्रा भारत से सचमुच में बेहतर था। संभवतया, अब समय है कि लेखागार से उपनिवेशिक अभिलेखों को निकाला जाये, जिससे कि हम, वे सब, जो स्वतंत्राता संग्राम में जीवित न थे, वास्तविकताओं और भ्रमों के बीच अंतर देख सकें।

साक्षरता और शिक्षा

अनेक भारतीय, भारत में साक्षरता के अब तक के निम्न स्तर से गंभीरतापूर्वक सरोकार रखते हैं। इसलिए, गत वर्ष, मैंने भारत में अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों से उपनिवेशिक समय में, भारत में साक्षरता के अनुपात का अनुमान करने के लिए कहा। साठवें और सत्तरवें दशकों के ये वे भारतीय थे जो स्कूल गए थे / स्वतंत्राता के केवल दो दशकों बाद /। और मैं उनके विश्वसनीय अनुमान को सुनकर आश्चर्य चकित हुआ था। अधिकांश ने 30 से 40 प्रतिशत के बीच अनुमान किया। जब मैंने बताया कि उनका प्रतिशत अतिशियोक्तिपूर्ण है तब उनने 25 से 35 प्रतिशत बतलाया। कोई इस पर विश्वास करने तैयार न था कि ब्रिटिश भारत में 1911 में साक्षरता सिर्फ 6, 1931 में 8 और 1947 तक 11 प्रतिशत तक ही रेंग पायी ! आजादी के 50 वर्षों ने देश की साक्षरता के प्रतिशत को 5 गुना तक बढाया, जो उनको लगभग अथाह जैसा लगता था। शायद ब्रिटिश ने उच्च शिक्षा पर केन्द्रीकरण किया था ... ? परंतु 1935 में, उच्च शिक्षण संस्थानों या विश्वविद्यालयों में प्रति 10,000 में केवल 4 को ही दखिला मिला करता था। उस वर्ष में, उस समय की 35 करोड़ से उपर की जनता के देश में मात्रा 16,000 किताबें / वितरण के आंकडे़ नहीं हैं / प्रकाशित र्हुइंं अर्थात् प्रति 20,000 पर 1।

शहरी विकास

यह बिना शक सत्य है कि ब्रिटिश ने अपने प्रशासनिक अधिकारियों के लिए आधुनिक शहर मय आधुनिक सुविधाओं के बनाये। परंतु यह ध्यान में लेना चाहिए कि ये विशेष क्षेत्रा थे, ’देशजों’ के उपयोग के उद्देश से नहीं। सोचिए, 1911 में, बंबई की आबादी का 69 प्रतिशत चाल में रहता था / इसके विपरीत उसी वर्ष में लंदन में 6 प्रतिशत की तुलना में /। 1931 की जनगणना बतलाती है कि वह आंकड़ा 74 प्रतिशत तक बढ़ा, एक कमरे में 5 से अधिक रहने वालों के एक तिहाई से। कराची और अहमदाबाद की भी वैसी ही सचाई थी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बंबई की आबादी का 13 प्रतिशत सड़कों पर सोता था। सफाई के संबंध में - 10/15 कोठरियां पानी के एक नल को विचित्रा ढंग से काम में लातीं थीं।

तब भी, 1757 में / प्लासी हार का वर्ष / ईस्ट इंडिया कंपनी के क्लाईव ने बंगाल के मुर्शिदाबाद में देखा -’’ यह शहर लंदन शहर जैसा ही विस्तृत, घनी आबादी वाला और संपन्न है... ’’/ 1916-18 की इंडियन इंडस्ट्र्ीयल कमीशन की रिपोर्ट में जैसा कहा है /। ढाका औद्योगिक-नगर के नाम से अधिक प्रसिद्ध था, उसकी मलमल अनेक किवदंतियों का स्त्रोत् और मध्ययुगीन दुनिया में उसके बुनकर अद्वितीय अंतरराष्ट्र्ीय ख्याति रखते थे। परंतु 1840 में, सर चाल्र्स ट्र्ेवेलियन द्वारा पार्लियामेंटरी इंक्वायरी को बताया गया था कि ढाका की जनसंख्या 150,000 से घटकर 20,000 हो गई थी। ब्रिटिश साम्राज्य के शुरूआती इतिहासकार मांटगोमरी मार्टिन ने देखा कि सूरत और मुर्शिदाबाद ने भी वैसा ही दुर्भाग्य भोगा था। / यह घटना संपूर्ण भारत में खासकर अवध / आज का उत्तर प्रदेश / और अन्य हिस्सों में, जिनने 1857 के विद्रोह के दौरान ब्रिटिश को सर्वाधिक वीरतापूर्ण मुकाबला दिया था, दुहराई गई।

कृषि और पशु धन पर आधारित जनसंख्या का प्रतिशत, वास्तव मे,ं 1891 में 61 से 1921 में 73 प्रतिशत तक बढ़ गया था। /पहले के समयों से संबंधित विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं/।

1854 में सर आर्थर काॅटन ने ’’पब्लिक वक्र्स इन इंडिया’’ में लिखाः ’’समूचे भारत में सार्वजनिक कामों की लगभग संपूर्ण ढंग से उपेक्षा की गई ... इस संबंध में नारा थाः ’’कुछ न करो, कुछ पूरा न करो, किसी को कुछ न करने दो ...’’। यदि जनता दुर्भिक्ष से मरती, या उनके पास पानी और सड़कें नहीं तो इसके लिए कंपनी जिम्मेवार नहीं।

जून 24, 1858 को, जाॅन बा्रईट के हाउस आॅफ काॅमन्स के ब्यान से ज्यादा बखान करने वाला कुछ भी न होगा। ’’मेनचेस्टर के एक ही शहर ने अपने निवासियों को पानी आपूर्ति के एक ही काम पर उस धन राशि से अपेक्षाकृत अधिक खर्च किया था जो ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1834 से 1848 में अपने विशाल उपनिवेशों में हर प्रकार के सार्वजनिक कार्यों पर किया था।’’

सिंचाई और कृषि विकास

ब्रिटिश के बारे में एक अन्य विश्वास हैः ’’ब्रिटिश ने भारतीय कृषि का नहरें बना कर आधुनिकरण किया था’’। परंतु वास्तविक अभिलेख दूसरी ही कथा कहते हैं। 1838 में एक परिवेक्षक ने देखा ’’सड़कें, तालाब और नहरें जिन्हें हिन्दू और मुसलमान सरकारों ने राष्ट्र् की सेवा और देश की भलाई के लिए बनवायीं थीं को जीर्ण शीर्ण अवस्था में पहुंचा दिया गया था और अब सिंचाई साधनों के अभाव दुर्भिक्षों के कारण थे।’’ /जी. थामसन, ’’इंडिया एण्ड दी कालोनीज, 1838’’/। 1858 में, मांटगोमरी मार्टिन ने अपने लेख ’’दी इंडियन एम्पायर’’ में लिखा कि पुरानी ईस्ट इंडिया कंपनी ने ’’न केवल सुधारों के प्रारंभ को बल्कि पुराने कामों के सुधारों को भी त्यागा जिन पर राजस्व आय आधारित है।’’

1930 में, बंगाल इरीगेशन डिपार्टमेंट कमेटी की रिपोर्ट लिखती हैः ’’प्रत्येक जिले में नहरें जो देश के भीतर नाव-परिवाहन करवातीं हैं, समय समय पर तलछट से अट जातीं हैं। पूर्वी बंगाल का मुख्य मार्ग नहरें और नदियां हैं और इनको परिवाहन योग्य ठीक से बनाये रखना प्रांत के इस हिस्से के आर्थिक जीवन के महत्व को, वास्तव में, कम करना असंभव है ... ’’जहां तक छोटे रास्तों के पुनर्जीवन और देख रेख का संबंध है ... वास्तव में कुछ भी नहीं किया गया। फलतः कमोवेश प्रांत के कुछ भाग में नहरें तलछट से उथलीं हो चुकीं हैं कि नहर-परिवाहन वर्ष में कुछ ही महिनों तक सिमिट गया है और उपजों का व्यवसाय तभी हो पाता है जब बरसात में नहरों का जल स्तर उॅचा होकर परिवाहन को संभव बनाता है।’’

सर विलियम विलकाॅक जाने माने द्रव इंजीनियर जिनका का नाम ईजिप्ट और मेसोपोटामिया के सिंचाई उद्यम से जुड़ा है, ने बंगाल में परिस्थितियों का अध्ययन किया। उनने पाया कि डेल्टा प्रदेश में असंख्य छोटी नदियां जो मूलरूप से नहरें थीं, लगातार स्थान परिवर्तन करतीं थीं। उनको अंग्रेजों के राज्य में अपने स्थान से हट जाने दिया और अंधाधुंध बह जाने दिया। पहले ये ही नहरें गंगा के बाढ़ के पानी को बांट दिया करतीं और जमीन के सही निथार को करतीं थीं, निःसंदेह बंगाल की संपन्नता का कारण बन 18 वीं शताब्दी के पूर्वाध में जो लालची ईस्ट इंडिया के व्यापारियों को आकर्षित करतीं ...। उसने लिखा ’’न केवल नहरों की पहले की व्यवस्था को उपयोगी और उन्नत करने के लिए कुछ भी नहीं किया बल्कि, एक के बाद एक, उसे नष्ट करते हुए रेलवे को उंचा किया गया। गंगा जल की आपूर्ति से टूटे कुछ इलाके धीरे धीरे बंजर और अनउपजाउ होते गए, दूसरे बुरी तरह सूख गए, आगामी दूर तक, अनिवार्यतः मलेरिया के साथ पानी के छिड़ाव बनेे। उसके पानी के नीचे रहने की दशा में, गंगा के समुचित बंधान के उपाय नहीं किए गए जिससे प्रति वर्ष सम्मुन्नत खेत और गांव और जमीन के विशाल क्षरण कोे रोका जा सके।’’

सर विलियम विलकाॅक, आधुनिक प्रशासन और अधिकारियों की बुरी तरह से आलोचना करते हैं जन्होंनेे हर मौकों पर तकनीकी विशेषज्ञ सहायता के बुलाने के अवसर के साथ एक युगों
युगों तक, इस विनाशकारी स्थिति के सुधार के लिए, कुछ नहीं किया।’’ इसी प्रकार जी. इमरसन ने 1931 में विलियम विलकाॅक के नजरिये का उल्लेख करते हुए अपने ’’लेक्चर्स आन दी एन्सीयेंट सिस्टिम आॅफ इरीगेशन इन बंगाल एण्ड इट्स एप्लीकेशन टू मार्डन प्राब्लम्स’’ में लिखा / ’’कलकत्ता युनिवर्सिटी रीडरशिप लेक्चरस्’’, युनिवर्सिटी आॅफ कलकत्ता, 1930।

उन्नत दवाईयां और जीवन संभावना

कुछ गंभीर आलोचक अनिच्छापूर्वक उपनिवेशिक शासन को स्वीकारते हैं कि ब्रिटिश भारत में उन्नत दवाईयां लाये। सभी आंकड़ों के संकेत हैं कि उन्नत दवाईयों तक की पहुंच क्रूरतापूर्वक प्रतिबंधित थी। इंटरनेशनल लेबर आफिस /आईएलओ/ की ’इंडस्ट्र्ीयल लेबर इन इंडिया’ पर, 1938 की रिपोर्ट बतलाती है कि 1921 में भारत में जीवन-संभावना मुश्किल से 25 वर्ष /तुलनात्मक 55 वर्ष इंग्लेण्ड में/ थी और 1931 में 23 वर्ष तक नीचे गिर गई थी। माईक डेविस अपने ’’लेट विक्टोरियन होलोकास्टस्’’ के नवीनतम प्रकाशन में रिपोर्ट करते हैं कि जीवन की संभावना 1872 और 1921 के बीच 20 प्रतिशत तक गिर गई थी।

1934 में, ब्रिटिश भारत में प्रति 3800 लोगों के लिए अस्पताल में एक पलंग था /उसी वर्ष सोवियत युनियन में दस गुणा अधिक थे/, 1928 म,ें बंबई में शिशु मृत्यु दर 255 प्रति हजार थी /उसी वर्ष मास्को में दर आधे से भी कम थी/।

गरीबी और जनसंख्या बढ़त

उपनिवेशिक समय के इन आंकड़ों से रूबरू होने पर कुछ भारतीय तर्क करते हैं कि विशेषरूप से भारत की उपनिवेश पूर्व की गरीबी की समस्याओं के लिए जो कि किसी भी हालत में तेज जनसंख्या की बढ़त से उपजीं थीं, ब्रिटिश को निशाना नहीं बनाना चाहिए। ये स्थितियां ब्रिटिश के आने के पहले से ज्वलंत थीं, इनके बारे में कोई भी गंभीर रूप से प्रमाण नहीं दे पा सकता और पहले के समय के तुलनात्मक एवं विश्वसनीय आंकड़ों के अभाव में ऐसे तर्क को नकारना कठिन होगा। परंतु कुछ पाठक वंशानुगत प्रभाव को कपटी पायेंगे। जनसंख्या संबंधी आंकड़े हर हाल में उपलब्ध हैं और जो कुछ उनसे मालूम पड़ता है, बड़ा ही असाधारण है।

1870 से 1910 के बीच भारत की जनसंख्या सामान्य दर पर 19 प्रतिशत से बढ़ी। इंग्लेंड और वेल्स की जनसंख्या तिगुनी तेज गति से बढ़ी, 58 प्रतिशत से। यूरोप में जनसंख्या बढ़त का औसत 45 प्रतिशत था। 1921 से 1940 के बीच भारत की जनसंख्या 21 प्रतिशत की तेज गति से बढ़ी परंतु, तब भी, युनाईटेड स्टेटस् की बढ़त 24 प्रतिशत जनसंख्या की अपेक्षा, कम थी।

भारत में, 1941 में, मोटे तौर पर जनसंख्या का घनत्व 250 प्रति वर्ग मील, इंग्लेंड से लगभग एक तिहाई, 700 प्रति वर्ग मील, बराबर था। यद्यपि बंगाल अधिक घना बसा था, 780 प्रति वर्ग मील जो इंग्लेंड की तुलना में लगभग 10 प्रतिशत अधिक था। तब भी, ब्रिटिश भारत में इंग्लेंड की अपेक्षा अधिक गरीबी थी और ब्रिटिश शासन के दौरान दुर्भिक्ष अभूतपूर्व संख्या में रिकार्ड किए गए।

19 वीं शताब्दी के पूर्वाध में 7 दुर्भिक्ष हुए थे जिसमें 15 लाख लोग मरे। उत्तरार्ध में, 24 दुर्भिक्ष /1876 से 1900 के बीच/ हुए /जैसा कि सरकारी रिकार्ड है/ जिनसे 2 करोड़ मरे। 1901 में, डब्ल्यू. डिग्वी ने ’प्रास्परस ब्रिटिश इंडिया’ में लिखा है कि ’’मोटे तौर पर कहा जाता है, दुर्भिक्ष और दुर्लभताएॅ 19 वीें शताब्दी के बाद के 30 वर्षों में चार गुना अधिक रहीं मुकाबले एक सौ वर्षाें के पूर्व और चार गुना अधिक फैलाव से।’’ माईक डेविस ने ’’लेट विकटोरियन होलोकास्टस्’’ में कि ब्रिटिश शासन के 120 वर्षों में 31 घातक दुर्भिक्ष हुए, मुकाबले ब्रिटिश शासन के पहले के 2000 वर्षों के 17 दुर्भिक्षों केे।

आश्चर्यकारक नहीं कि उस समय के कुछ हीे पहले से खाद्यान्नों का निर्यात चार गुना बढ़ाया गया था। उन्हीं अनुपातों में कृर्षि के दूसरे कच्चे माल का निर्यात बढ़ा था। उत्तरी अमेरिका में, पहले के दास मालिकानों से उस भूमि को जो स्थानीय खपत के लिए खाद्यान्न उत्पन्न करती थी हथिया लिया गया था, उन्हें खालिस निर्यात के लिए नगद लुभाउ फसलों के बागान बनाने की अनुमति दी गई थी। खास कटुता है कि कैसे दुर्भिक्ष के वर्षों में भी ब्रिटिश उपनिवेशिक शासकों ने खाद्यान्नों के निर्यात को जारी रखा।

ब्रिटिश सरकार की सालाना रिपोर्ट ने बार बार आंकड़े प्रकाशित किए जो बतलाते हैं कि 70-80 प्रतिशत भारतीय जिंदा रहने के कगार पर थे, कि दो तिहाई कुपोषित थे और बंगाल में तो पांच में से चार कुपोषित थे।

उपनिवेश के पहले के भारतीय जीवन की जानकारी की तुलनाः

17 वीं शताब्दि में, टावर्नियर ने अपनी ’’ट्र्ेविल्स इन इंडिया’’ में लिखा था ’’... यहां तक कि सबसे छोटे गांव में चांवल, आटा, मक्खन, दूध, सेम और अन्य सब्जियां, शक्कर और मिठाईंयां प्रचुरता से प्राप्त की जा सकतीं हैं ...।’’

/17 वीं शताब्दी में ही/ वेनिस निवासी मनौची, जो औरंगजेब का मुख्य चिकित्सक बना, ने लिखाः ’’फ्रांस में, बंगाल मुगल साम्राज्यों में सर्वोत्तम माना जाता है ... हम निर्भीकता से कह सकते हंै कि ईजिप्त की किसी वस्तु से भी कम नहीं और यह कि वह सिल्क, सूत, शक्कर और नील के उत्पादन में उस साम्राज्य से आगे है। यहां हर वस्तु फल, खाद्यान्न, दलहन, मलमल, जरी के कपड़े और सिल्क विशाल पैमाने पर हैं ...। ’’

फ्रेंच यात्राी बर्नियर ने 17 वीं शताब्दी के बंगाल का उसी ढंग का वर्णन कियाः ’’दो यात्राओं में मुझे बंगाल के बारे में जो जानकारी मिली, वह मुझे यह विश्वास करने के लिए प्रेरित करती है कि बंगाल ईजिप्त से अधिक संपन्न था। वह बड़े परिमाण में कपड़ा और सिल्क, चांवल, शक्कर और मक्खन निर्यात करता है। वह अपने उपभोग के लिए गेंहू, सब्जियां, खाद्यान्न, मुर्गियां, बतखें और गीज कहुतायत से पैदा करता है। बकरों और भेड़ों के रेवड़ और सूअरों के अत्याधिक झुंड उसके पास हैं। बड़ी प्रचुरता में हर प्रकार की मछली है। बीते समय में, राजमहल से समुद्र तक बेहिसाब मेहनत से सिंचाई और जल परिवाहन के लिए असंख्य नहरें काटीं गईं थीं।’’

ब्रिटिश भारत की गरीबी आंखों देखी इन रिपोर्टों के सामने साफ खड़ी थी और उस समय के मजदूरों को दी जाने वाली दयनीय मजदूरी से जोड़ा जाना है। 1927-28 की रिपोर्ट कहती हैः ’’भारत में, सर्वाधिक कुशल कामगार जो मजदूरी पाते हंै वह उन्हें भोजन और कपड़ों के लिए मुश्किल से पर्याप्त हो पाती है। हर जगह धूल और घिनावनी दरिद्रता, भीड़भाड़ दिखाई पड़ेगी ...।’’

1922 में, तथ्य है कि भारत में 11 घंटों के दिन का मानक था /सोवियत युनियन में, 8 घंटों के दिन की तुलना में/। 1934 में, उसे 10 घंटों तक कम किया गया /जबकि सोवियत युनियन में, 1927 तक 7 घंटे के दिन का कानून, बना लिया गया था/। बाल-मजदूरी के उपयोग पर कोई रोक लागू नहीं थी, यह बेहद बुरा था और वेटले रिपोर्ट ने पाया था कि पाॅच वर्ष तक के छोटे बच्चे 12 घंटे काम करते थे।

प्राचीन धरोहरें

संभवतया, भारत के ऐतिहासिक धरोहरों के प्रति ब्रिटिश रवैये और बर्बरता के हुए फैलाव को सबसे कम जाना जाता है। इसके बदले, ब्रिटिशों के बारे में हानिकारक भ्रम है कि वे पक्षपातरहित ’’देश की ऐतिहासिक धरोहरों के रक्षक’’ हैं।

आर. नाथ ने अपनी ’’हिस्ट्र्ी आॅफ डेकोरेटिव आर्ट इन मुगल आर्कीटेक्चर’’ में लिखा कि बीसियों बाग, समाधियां और महल जो एक समय आगरा के सिकंदरा के आसपास की शोभा बढ़ाते थे, को बेच डाला या नीलाम पर चढ़ा दिया गया। ’’मुगलों के गौरवपूर्ण समय के अवशेषों को या तो नष्ट कर दिया या फिर न पहिचाने जाने की हद तक बदल दिया ... ।’’ 1803 में, लेक के द्वारा अधिकार में लेने के पहले आगरा अकेले के 270 संुदर स्मारक में से मुश्किल से 40 ही बच पा सके।’’

उसी समय में डेविड करोत ’’ताज महल’’ में कहते हैंः ’’उन्नीस वीं सदी की शुरूआत में, आगरा और दिल्ली के किले छीन लिए गए और मिलेटरी बैरिकों में बदल दिए गए। संगमरमर की नक्काशियों को तोड़ा गया, बगीचों को कुचला गया और उनके बदले बैरिकों की भद्दी कतारों को, जो आज भी खड़ीं हैं, बनवाया गया। दिल्ली किले के दीवाने आम को शस्त्रागार में बदल दिया गया और बाहरी स्तंभावलियों की महराबों को ईटों से भर दिया या फिर लकड़ी की चैकोर खिड़कियों में बदल दिया गया।’’ इससे ज्यादा दुर्भाग्य इलाहाबाद के मुगल किलेे /अकबर का एक चहेता/ ने भोगा। असलियत में, वास्तुशिल्प के महत्व का कुछ भी, अब, उस किले में बनी बैरिकों में दिखलाई नहीं पड़ता। अहमदनगर के दक्कन के किले को बैरिकों में बदल दिया। पहले वाली भव्यता उसकी बाहरी दिवालें ही कुछ हद तक दिखा पातीं हैं।

यहां तक कि सदमा पहुचाने के तरीके से उनने ताज महल को भी नहीं बख्शा। डेविड करोत कहते हैंः ’’उन्नीस वीं सदी तक, उसकी धरती नौजवान अंग्रेजों और उनकी महिलाओं के लिए पसंदीदा मिलन-स्थल थी। मुख्य द्वार के सामने के संगमरमर के छज्जे पर खुले आकाशीय नृत्य /बाॅल/ किए जाते थे और वहां शाहजहां की कमल-समाधी के नीचे ब्राॅस बेंड हम पम पा करता और लार्ड और महिलायें क्वाड्र्लिी / द्विघाता/ नाचते। मीनारें आत्महत्या-कूंद के लिए आम जगह बन गई और ताज के हर ओर की मस्जिदें सुहागरात मनाने वालों को बंगलों की तरह किराये पर दी जाने लगीं। ताज के बगीचे खुले में कूंद फांद के लिए विशेष तौर पर जाने, जाने लगे।’’

बीसवीं सदी के शुरूआत के एक गवर्नर जनरल लार्ड कुरजन से संबंधित ’’प्रारंभिक दिनों में जब ताज के बगीचों में पिकनिक पार्टियां हुआ करतीं थीं यह असामान्य नहीं था जब छैनी और हथौड़ी लेकर मनचले लोग सारी दोपहर साम्राट और रानी की समाधी से गोमेद और रत्न /कारलेनियन/ के टुकड़ों को निकालने में व्यतीत कर दिया करते थे।’’ ताज वह स्थान बन गया था जहां एकांत में शराब पी जा सकती थी और बहुधा उसके बगीचे मतवाले ब्रिटिश सैनिकों से अटे रहते थे ...।’’

लार्ड वीलियम वेंटिक /1828-33 तक बंगाल के गवर्नर जनरल और बाद में, समूचे भारत के गवर्नर जनरल/ दिल्ली और आगरा के मुगल स्मारकों और उनके संगमरमर के अग्रभागों को तोड़ डालने की योजना को घोषित करने की हद तक चले गए थे। जहाजों से इनको लंदन भेजना था जहां उन्हें तोड़कर ब्रिटिश राज्यशाही के सदस्यों को बेचना था। दिल्ली के लाल किले के शाहजहां के अनेक मंडपों को ईट की शक्ल में बदला और वह संगमरमर जहाजों से इंग्लेंड भेजा /इस माल का एक हिस्सा राजा जार्ज चैथे के खुद के लिए था/। ताज महल को तोड़ने की योजना तैयार थी और बगीचों की जमीन पर तोड़ने वालीं मशीनें भेज दीं गईं थीं। जब तोड़ने का काम शुरू ही होना था तभी लंदन के समाचारों ने बतलाया कि पहली नीलामी ही सफल नहीं हो पा सकी और यह कि आगे के पूरे के पूरे बेचान रद्द कर दिए गए - ताज महल के तोड़े जाने पर आने वाला खर्च, लाभदायक नहीं होगा।

इस प्रकार ताज महल बच गया और इसी तरह ब्रिटिश का ’’भारत के इतिहास की धरोहरों के रक्षक’’ का मान भी बचा रह गया। यह कि अन्य असंख्य दूसरे स्मारक नष्ट कर दिए गए या ढह या नष्ट हो जाने के लिए छोड़ दिए गए ही वह कथा है जो इस विषय के विशेषज्ञों से परे जाने के लिए है।

भारत और औद्योगिक क्राॅति

संभवतया, उपनिवेशक शासन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था - भारत से धन संपदा का ब्रिटेन स्थानांतरण। रजनी पाम दत्त ने अपनी पथ प्रदर्शक पुस्तक ’’इंडिया टुडे’’ में निर्णयक रूप से बतलाया है कि किस प्रकार से यह ब्रिटेन के इंडस्ट्र्ीयल रेग्युलेशन के लिए अत्यावश्यक था। अनेक पेटेंट जो धन के सहयोग के बिना रह गए थे को जैसे ही भारत से करों का आयात शुरू हुआ, अचानक औद्योगिक धन देने वाले मिल गए। भारत के धन के बिना ब्रिटिश बैंक ब्रिटेन के आधुनिकरण, जो कि 18 वीं और 19 वीं शताब्दियों में स्थान ले रहा था, को धन देने में असमर्थ थे।

इसी के साथ, औद्योगिक क्रांति के लिए वैज्ञानिक आधार यूरोप की एकछत्रा भागीदारी नहीं थी। दुनिया की वैज्ञानिक सामग्री में अनेक सभ्यताएं भागीदारी करती आ रहीं थीं - खासकर एशिया की सभ्यताएं /भारतीय उपमहाद्वीप की समाहिति से/। वैज्ञानिक ज्ञान के उस समुच्चय के बिना यूरोप और ब्रिटेन के वैज्ञानिक औद्योगिक क्रांति काल में प्राप्त उॅचाईयों के बनाने में अपने को असमर्थ पाते थे। खासकर उन पेटेंटों में से अनेक, उपमहाद्वीप में औद्योगिक क्रांति पूर्व की दक्षता प्राप्त तकनीक पर आधारित थे, विशेषकर सूती उद्योग से संबंधित। /सचमुच में, ढाका की अनेक कताई और बुनाई की मशीनों की बारीकी और जटिलता तक पहुंचने में ब्रिटेन की अनेक पूर्ववर्ती बुनाई मशीनें, अयोग्य थीं/।

योरप के पक्षधर कुछ लोगों ने इन सूत्रों से इंकार किया कि न सिर्फ औद्योगिक क्रांति ब्रिटिश/यूरोप की ही घटना थी कि उसकी फलीभूतता के लिए उपनिवेशन और धन के चमत्कारिक रूप से स्थानांतरण की घटना मात्रा संयोगिक थी। पर लार्ड कुरजन के शब्द स्पष्ट और जोर से गूंज रहे हैं। 1894 में, ब्रिटिश भारत की वायसरी सुस्पष्ट थी। ’’हमारे साम्राज्य की धुरी भारत है .... यदि अपने उपनिवेश के अन्य कोई हिस्से को राजशाही खो दे हम जीवित रह सकते हैं, परंतु यदि हम भारत को खोयें तो हमारे राजशाही का सूर्य डूब जायेगा।’’

लार्ड कुरजन भारतीय उपनिवेश के मूल्य एवं महत्व को पूरी तरह से जानते थे। भारत के सभी वर्र्गों के अभूतपूर्व स्तरों के करों द्वारा स्थानान्तरित यह वह धन था, वास्तव में जिसने ब्रिटेन में ’’आधुनिकरण’’ की आधार शिला रखी और महान ’’औद्योगिक क्राॅति’’ के लिए पूंजी उपलब्ध कराई। 1812 में ईस्ट इंडिया कंपनी की रिपोर्ट में कहा ’’उस विशाल साम्राज्य का महत्व इस देश के लिए ऐसे मूल्यांकन में है कि वह राजशाही के पूंजी और संपदा में प्रति वर्ष बड़ा योग देता है।’’

गैर ईमानदार व्यापार

कुछेक भारत-ब्रिटिश व्यापार की गैर ईमानदारी पर शंका करेंगे - परंतु यह उल्लेखनीय होगा कि कितना गैर ईमानदार। 18 वीं शताब्दी की शुरूआत में भारतीय सूत और सिल्क की वस्तुओं के ब्रिटेन में आयात पर 70-80 प्रतिशत करों का रोपण था। भारत में ब्रिटिश आयात पर 2-4 प्रतिशत कर था ! परिणामतः ब्रिटिश बने सूती माल का आयात 60 गुणा से बढ़ गया था और भारतीय निर्यात एक बटा चार तक गिर गया था। ऐसा ही रूझान सिल्क, उनी, लोहे, बर्तन, कांच और कागज की वस्तुओं मेें देखा गया। परिणाम स्वरूप, लाखों कलाकार, हस्तकार, बुनकर, सूत कतक, कुम्हार, धातु पिघलाने वाले और लुहार बेकार हो गए और भूमिहीन खेत मजदूर बनने के लिए मजबूर हो गये।

उपनिवेशिक लाभग्राही

जनसामान्य के ध्यान से उपनिवेशिक शासन का एक दूसरा पहलू छुपा ही रहा कि उपनिवेशिक शासन में लाभ पाने वाला अकेला ब्रिटेन ही नहीं था। किस प्रकार से भारतीय व्यापार से भेदभावपूर्ण ब्रिटिश व्यापारिक नियमों ने अन्य साम्राज्यवादी ताकतों के लिए सुयोग्य व्यापारिक वातावरण निर्मित किया। 1939 में, ब्रिटेन से भारत निर्यात 25 प्रतिशत आया। 25 प्रतिशत जापान, युनाईटेड स्टेटस औैर जर्मनी से आया। 1942-43 में, कनाडा और आस्ट्रे्लिया ने 8 प्रतिशत का योगदान दिया। स्वतंत्राता के एकदम पहले काल में, ब्रिटेन अपने साम्राज्यवादी मित्रों के लिए उतना ही शासन कर रहा था जितना वह अपने हित के लिए। ’’विश्वैशीकरण’’ की प्रक्रिया पहले से ही रूप ले रही थी। परंतु बढ़त का कुछ भी भारत की ओर नहीं बहा। 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, भारत की आय 50 प्रतिशत से गिर गई। स्वतंत्राता के 190 वर्षों पूर्व में, यथार्थ में, भारतीय अर्थ व्यवस्था रुक गई थी - उसमें शून्य बढ़त हुई। /माईक डेविस ’’लेट विक्टोरियन होलोकास्टस्’’/।

जो यह इच्छा रखते हैं कि भारत बहुत अच्छा कर सके वे इतिहास को पुनः पढ़ें जिससे राष्ट्र् फिर से रसातल तक न जा पहुंचे /और उपनिवेशिक शासन के जुयें से मुक्त के होने के इतने शीघ्र/। जबकि कुछ भारतीय अपने पहले के भगवानों के लौटने के लिए विरही बन सकते हैं और कुछ उपनिवेशिक शासन के द्वैधवादी होंगे, हममें से अधिकांश स्वतंत्राता का आनंद लेते हैं और उसे परिपूर्ण करने की कामना करते हैं - उसे पुनः उपहार में देने की नहीं।