"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

ब्रिटिश शासन में राजभक्ति पर दबाव - भाग एक

भाग एकः भारतीय कुलीन वर्ग एवं प्रारंभिक कांग्रेस में राजभक्त दलाल

ब्रिटिश शासित भारत के अनेक इतिहासकारों ने लिखा है कि उपनिवेशित भारत में अंग्रेजों की संख्या बहुत महत्वपूर्ण नहीं थी तब भी, भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग दो शताब्दियों तक ब्रिटिश विशाल और स्थिर राज्य को बनाये रखने में समर्थ रहे। वे भारत के प्राकृतिक स्त्रोत्ों का शोषण करते रहे और उसके नागरिकों की संपदा को अत्याधिक और अविवेकी करों द्वारा ढीठतापूर्वक खींचते रहे। ब्रिटिश को अधिकांशतः अपने शासन के दौरान कठिन चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ा।

इसमें कोई शक नहीं कि मार पीट सहित शारीरिक हिंसा भारत में, ब्रिटिश साम्राज्य का खास तरीका था। उतने ही महत्व की उनकी राजनैतिक कूटनीतियां थीं। उनने देशज राजाओं की आपसी प्रतिस्पद्र्धा और जाति, धर्म, वर्ण तथा अन्य विभाजक राजभक्ति से उत्पन्न विखंडों का बुरी तरह से फायदा उठाया। ब्रिटिश ने न केवल भारत के महाराजाओं और दूसरे सामंतकालीन पतित कुलीनवर्ग के लोगों की राजभक्ति और मौन सहमति इक्ट्ठी की वरन् ब्रिटिश शिक्षित शहरी नए प्रभावशाली बौद्धिकवर्ग का भी समर्थन प्राप्त किया। उनकी राजभक्ति औपनिवेशिक साम्राज्य के प्रति सुनिश्चित थी खासकर तब जबकि राष्ट्र्ीय भावना और राष्ट्र्ीय धारायें 1858 की हार के बाद कमोवेश हिलोरें लेने लगीं थीं। साहूकार और जमीनदार विशेष तौर पर ब्रिटिश के सहयोगी थे और नया औद्योगिक वर्ग, यद्यपि ब्रिटिश नीतियों के विराधी थे, भी निश्चितरूप से अपनी पुराणपंथता के कारण उनका विरोध नहीं करते थे।

इस प्रकार से, भारत में ब्रिटिश राजभक्ति एक राजनैतिक फैशन बना जो या तो राष्ट्र्ीय ताकतों का सीधे तौर पर प्रतिरोध करता या फिर उनके प्रभाव और क्षमता को राजनैतिक संयम, अहिंसा और रणनीतिक रुकावट के नारों से छिन्नभिन्न करता। राजभक्त ताकतंे भारतीय जनता से धैर्य धारण करने, धीमी गति के राजनैतिक सुधारों के प्रति संतुष्ट रहने और स्वशासन से संबंधित छोटी छोटी रियायतों के लिए ब्रिटिश के प्रति कृतज्ञ होने के लिए बारंबार और जोशीले निवेदन करते थे। तिलक समान जो ब्रिटिश के विरूद्ध अधिक मूलभूत और संघर्षकारी तरीकों की मांग करते थे उन्हें ’’उग्रवादी’’ घोषित किया जाता और अवास्तविक तथा काल्पनिक विप्लववादी कहकर खारिज किया जाता।

भारतीय बुद्धिजीवी वर्गों जो बेचैन जनता की शक्ति से डरते थे, के बीच गहरी जड़ें जमा चुकी राजभक्ति, ब्रिटिश द्वारा शासित न केवल भारतीय सीमाओं में मजबूत राजनैतिक ताकत थी वरन् भारतीय राजाशाही पर भी गहरा दबाव रखती थी। उनके महत्व को भांपकर, ब्रिटिश प्रशासकों ने राजभक्त घटकों को शासन के स्थायित्व के लिए उनके योगदान के अनुसार पुरूष्कृत करते हुए, एकत्रित किया। 1857 के विद्रोह के बाद के दशकों में, राजभक्ति अनेक रूपों में उभरकर सामने आई - नरम और गरम, और राजभक्ति की सबसे अधिक राष्ट्र् विरोधी प्रवृतियों ने ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने अथवा कम करने के प्रयासों के विरोध में परकोटे की तरह से काम किया। इन तत्वों ने न केवल भारत से इंग्लेंड भेजे जाने वाले धन में ईमानदारी से सहयोग किया वरन् अपनी राजभक्ति के आक्रमणकारी प्रचार में, राष्ट्र्ीय धाराओं पर औपनिवेशिक हमलों के जोड़ीदार बने और आगे बढ़कर उन्हें हराया। राजभक्त तत्वों ने उनके प्रति भी कुप्रचार किया जो नरम थे और आवश्यक तौर पर विदेशी शासन से मेल खाते थे।
ऐसे राजभक्तों के ऐजेंट के आदर्शरूप सर सालार जंग, जन्म 1829, हैदराबाद की रियासत के 1853 में प्रधानमंत्राी थे, जिनने 1857 के सैन्य विद्रोह के बारे में बड़ी घृणापूर्वक लिखा और बोला और सफलतापूर्वक अरब के भाड़े के सैनिकों को ब्रिटिश रेसीडेंट, कर्नल डेविडसन, की ओर से दक्षिण राज्य में सैन्यद्रोह को रोकने के उद्देश से नौकरी में रखा। सैन्यद्रोह के नेताओं को गोली मार दी गई अथवा सार्वजनिक रूप से फांसी दी गई। स्थानीय निवासियों जिन्हांेने सैन्यद्रोही सिपाहियों को बचाने का प्रयास किया उन्हें तोप के मुंह पर बांधकर उड़ा दिया।

देश के अन्य स्थानों की तरह, 1857 के विद्रोह ने निजाम की रियासत, हैदराबाद में, आम जनता का अच्छा समर्थन पाया। वहां ब्रिटिश के विरूद्ध युद्ध का कोलाहल था। सालार जंग ने ब्रिटिश जनरल थार्नहिल की प्रशंसा में स्वीकार किया कि हैदराबाद ब्रिटिश के प्रति असंतोष से उद्वेलित था। उसने ब्रिटिश उपस्थिति और औपनिवेशिक शासन के विरूद्ध पैदा हो गए गंभीर खतरे को भांपकर शीघ्रता से कार्यवाही की और उन चुनौतियांे से बचाव किया। विद्रोहियों के दबाने के उसके समयोचित एवं बर्बर कार्य खास महत्व के थे और सर रिचर्ड टेम्पिल के द्वारा प्रशंसित हुए। उन कार्यों को ब्रिटिश सरकार के लिए ’’अमूल्यवान’’ कहा गया था।

1857 के स्वतंत्राता संग्राम के विरूद्ध सालार जंग अकेला ही नहीं था। ब्रिटिश के विरूद्ध जब इंदौर और मउ के सैन्यदल 1857 के संग्राम से जुड़े और विद्रोह किया तब होल्कर राजा ने ब्रिटिश से सैन्यदलों के व्यवहार के लिए क्षमा मांगी और ब्रिटिश राजभक्ति की पुनः पुष्टि की। टोंक, कोटा, ग्वालियर, भोपाल और भरतपुर के सैन्यदलों ने भी विद्रोह किये परंतु वहां के शासक ब्रिटिश के पक्के राजभक्त बने रहे।

नागपुर की पूर्व रानी बकाबाई ने अपनी राज्य सीमा के संभाव्य विद्रोहियों को कठोर कार्यवाहियां करने की चेतावनी दी जबकि भोंसले राजाओं को ब्रिटिश ने प्रताड़ित किया था। नागपुर को अधिकार में लेने के बाद, ब्रिटिश ने लगभग समूचे राज्यकोष को अपने अधिकार में ले लिया था। बहुमूल्य धातुओं और रत्न जवाहरातों और सांस्कृतिक महत्व की वस्तुओं से भरे 136 बोरे ब्रिटिश तिजोड़ी में भेज दिए गए थे। महल के पशुओं की नीलामी कर दी गई थी। भोंसले रानियों के व्यक्तिगत आभूषणों को कलकत्ता में नीलाम किया गया। जो भी हो, रानी बकाबाई और दूसरे वरिष्ठ कुलीनों को पेंशन दी गई और इस तरह उनकी राजभक्ति को खरीदा गया था।

मेरठ, दिल्ली, लखनउ, कानपुर, सागर और झांसी जैसे दूसरे शहरों के विद्रोहियों से प्रेरणा पाकर नागपुर के पास तकली की अस्थाई टुकड़ी ने विद्रोह किया परंतु अन्य टुकड़ियां निष्क्रिय रहीं जिससे ब्रिटिश ने विद्रोहियों को कुचलने का आसान मौका पाया। अस्थाई टुकड़ी के दिलदारखान, इनायतउल्ला खान, विलायत खान और नवाब कादिर खान को फांसी दी गई।

यद्यपि सामान्यतः नागपुर की जनता विद्रोहियों की पक्षधर रही परंतु ब्रिटिश के राजभक्त कुलीनों का भारी प्रभाव रहा और उपनिवेशन के प्रति भारत के अनेक राजाओं के इस लगाव ने ब्रिटिश को मौका दिया कि अपने विश्वास को पुनः प्राप्त करें और सुसंगठित हों और अंततः उनने 1857 में खोईं हुईं सीमाएं प्राप्त कर लीं।

यहां तक कि भारत का प्रथम स्वतंत्राता संग्राम जब दुखद और कटु अंत तक पहुंच गया, कुलीन राज्यों जिनने ब्रिटिश का पक्ष लिया था तटस्थ बने रहे थे, को पता चला कि उनकी जड़ें काटने में भी ब्रिटिश कम नहीं थे। नए और ज्यादा उग्र राजभक्त ऐजेंटों को कुलीन राज्यों की स्वतंत्राता और आर्थिक क्षमता को कमजोर करने के लिए नियुक्त किया गया।

उदाहरण के लिए, बड़ौदा राज्य के ब्रिटिश प्रशासक, सर टी. माधव राव, ने राज्य को हथियार निर्माण अथवा खरीदने के अधिकार से च्युत करने का कानून लागू किया। उसने नमक जैसी जनउपयोगी वस्तुओं पर निरंतर बढ़ने वाले करों को लागू किया और ब्रिटिश उद्यमियों को वितरण के एकाधिकार प्रदान किए। साथ ही साथ, माधव राव ने ब्रिटिश की सेवाओं, जिनकी राज्य को कोई जरूरत नहीं थी, के लिए बड़े बड़े भुगतानों के करार पर हस्ताक्षर किए। माधव राव के प्रशासन में भाईभतीजावाद और घूसखोरी खूब पनपी। राज्य के इन अहितकारी आर्थिक कानूनों या करारों का जिन्हांेने विरोध किया उन्हें राज्य से बाहर कर दिया गया। माधव राव जैसे राजभक्त इस प्रकार से राज्य की प्रजा की असहायता और भीषण दरिद्रता के कारण बने।

दूसरे राजभक्त इतने उधमी नहीं थे और ब्रिटिश से अपने सहयोग को सुधारक दृष्टिकोण बताने का यत्न करते थे। 1817 में जन्मे सर सईद अहमद जिनको लार्ड डफरिन के द्वारा पब्लिक सर्विस कमीशन का सदस्य नियुक्त किया गया था, ने भारत में ब्रिटिश की उपस्थिति को ’’देश के वैज्ञानिक आधुनिकीकरण के लिए लाभदाई’’ माना और इस उपमहाद्वीप में ब्रिटिश उपस्थिति को ’’उदारीकरण’’ का कारक माना।

/अनेकों ने इसी दृष्टिकोण को इस बात की संभावना को नकारते हुए प्रतिध्वनित किया कि ये प्रगतियां तो भारतवासी स्वयं अपनी मनपसंद राजनीतिक व्यवस्था में कर सकते थे। और, विशाल आर्थिक हानि को जो औपनिवेशिक शासन ने निचोड़ी थी, रोका जा सकता था। यह ध्यान देने योग्य है कि थाईलेंड, दक्षिण कोरिया और जापान जो एशिया में यूरोपियन उपनिवेशन से बच गये थे, भारत के मुकाबले आधुनिक शिक्षा पद्धति एवं आधुनिक तकनीक को ज्यादा तेज गति से अपना सके।/

’’1857 के भारतीय विद्रोह के कारणों’’ के बारे में लिखते हुए सईद अहमद ने कहा कि भारत की जनता ने ब्रिटिश इरादों को ’’गलत समझा’’ और ब्रिटिश शासकों के ’’अच्छे नुक्तों’’ को भी समझने में वे असफल रहे। जब इंडियन नेशनल कांग्रेस औपनिवेशिक प्रशासन में ही भारतीयों के लिए ज्यादा प्रतिनिधित्व और साम्राज्यशाही के अंदर ही स्वशासन के क्रमिक विकास के उद्देश्यों को लेकर प्रारंभ हुई, सईद अहमद ने स्वतंत्राता संग्राम का विरोध किया। और, 1887 में मुस्लिम शैक्षणिक सम्मेलन के अपने भाषण में मुसलमानों को कांग्रेस में शामिल होने से रोका। यद्यपि उसने अपने आप को उदारवादी और धर्मनिरपेक्षवादी प्रगट करने की कोशिश की परंतु सभी भारतवासियों के लिए सामान्य एवं एक समान चुनाव का विरोध किया और मुसलमानों तथा अन्य अहिंदूओं के लिए अलहदे और उपखंडीय चुनाव की वकालत की। उसके भाषणों से से प्रगट नहीं होता कि वह विभाजनकारी भावनाओं और साम्प्रदायिक इरादों से प्रेरित था परंतु उसके प्रचार ने दो देश नीति के पैदा होकर बढ़ने तथा अंतिम तौर पर, भारतीय उपमहाद्वीप में खून रंजित विभाजन के बीज बोये। बहुत देर के बाद, उसने महसूस किया कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासक भारतवासियों से समानता का व्यवहार नहीं करते। और तब, उसे कांग्रेस जैसे संगठन की कीमत समझ में आई। उसने भारत में ब्रिटिश की उपस्थिति के बारे में भारी शंका और पूर्वधारणाएं प्रगट करना शुरू किया। परंतु तब तक बहुत नुकसान हो चुका था। अपने सार्वजनिक जीवन में सईद अहमद ने, दूसरों की तरह ही, ब्रिटिश हितों की बहुत सेवा की।

सर अहमद के समान सर अली इमाम, पटना के एक कुलीन घराने में 1869 में जन्मे, सर मोहम्मद सफी, समूचे पंजाब में फैली जमींदारी के अत्यंत धनाढ्य घराने में 1869 में जन्मे और रहमत उल्ला सयानी 1847 में जन्मे, प्रमुख राजभक्त थे जिन्हांेने साम्राज्यशाही के बचाव में महत्वपूर्ण भूमिकायें अदा कीं थीं। ’’राज’’ के लिए महान सेवाओं के लिए लार्ड हर्डिंग द्वारा प्रशंसित अली इमाम, जो पटना हाई कोर्ट के जज भी बनाये गए थे, ने भारतीय जनता और औपनिवेशिक प्रशासन के बीच के मतभेदों को धंुधला करने की कोशिश की। उनने यह बताने की कोशिश की कि भारतीय राष्ट्र्प्रेम और ब्रिटिश संप्रभुता की राजभक्ति दोनों समपूरक हैं और ब्रिटिश साम्राज्य में गर्व की बात हैं।

मोहम्मद सफी ने तर्क करने की कोशिश की कि ब्रिटिश और भारतीय हित ’’समान’’ हैं। भारत में ब्रिटिश प्रशासन में सुधार के सफी समर्थक थे। उनने ’’ब्रिटिश के प्रति भारत की ईमानदारी’’ पर जोर दिया और साम्राज्य को ’’हमारी सामूहिक धरोहर’’ कहा था। ’’मैं अपने देशवासियों से यह मान लेने की गंभीर अपील करता हूं कि भारत में हमारे ब्रिटिश निवासी भी हमारे सदृश्य ही अपने भविष्य की सेहत की फ्रिक करते हैं जितने कि हम खुद। और, उन्हें अपनी संवैधानिक उन्नति में भूमिका अदा करने का अधिकार है। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि भारत की पुनर्जागृति की सुनिश्चित सफलता संवैधानिक उन्नति के पथ के साथ उनके सहयोग और सद्इच्छा में सन्निहित है। हमें सभी अविश्वासों को त्याग देना चाहिए और पारस्परिक विश्वास की भावना से गुथना चाहिए, ब्रिटिशों का स्वागत इस देश में दो पग आगे बढ़कर करना चाहिए। संयुक्तता में शक्ति है और भारत-ब्रिटिश संयुक्तता में ऐसी कोई उंचाई नहीं है जहां भारत न पहंुच सके।’’ सिविल एंड मिलेटरी गजट, लखनउ पृष्ट 222, एमिनेंट मुसलमान से उद्धृत।

राजभक्ति के झुकाव की हद ही हो गई आगा खान, करांची में 1675 में जन्मे सर सुलतान मोहम्मद शाह में। उसने ब्रिटिश के यूरोप, दक्षिण अफ्रीका या अन्य कहीं के युद्ध संबंधी कार्यकलापों के प्रति राजभक्ति का प्रदर्शन यह कहते हुए किया ’’यदि वे मुझे अवसर दें तो मैं ब्रिटिश साम्राज्य के लिए अपने खून की आखिरी बूंद भी बहा दूंगा।’’

सर सईद अहमद की प्रवृति में ही आगा खान ने मुस्लिम जातिवाद और अलगाववाद के विचार को आगे बढ़ाया। उसने आॅल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना कांग्रेस के मुकाबले और उसे हराने के लिए की। एक विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए वकालत की जो खासकर देश के मुसलमानों के लिए होगा। ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा इससे ज्यादा अच्छी और क्या हो सकती थी कि आगा खान ने इस तरह भारतीय हिंदू और मुसलमानों के बीच विभाजन को गहरा कर दिया। ब्रिटिश अखबारों और साम्राजी वर्गों में उसे इस काम के लिए बड़े बड़े पुरूष्कारों से सम्मानित किया गया।

इतने पर भी, सभी प्रमुख मुस्लिमों ने इस विभाजनकारी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। बद्दरूदीन तैयबजी, जन्म 1844, जो 1887 में कांग्रेस के अध्यक्ष थे, ने 1879 में सूती वस्त्रों पर से आयात कर को हटाये जाने के विरोध करने पर भारतीय उद्योगपतियों का सहयोग पाया था। उनने भारत के मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा और मुस्लिम महिलाओं पर से पर्दा उठाने के लिए प्रोत्साहित किया जबकि वे बंबई में 1880 में, अंजुमन ए इस्लाम के सचिव और बाद में अघ्यक्ष, बने थे। 1883 में, उनने ब्रिटिश संचालित भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में भारतीयों को समानतां के लिए भी अभियान चलाया था।

तैयबजी के उत्तराधिकारी सर फिरोजशाह मेहता, जन्म 1845, थे जो 1889 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने। तैयबजी की तरह फिरोजशाह मेहता भी औपनिवेशिक प्रशासन में भारतीयों के लिए समानता की लड़ाई लड़े। उनने भारतीय विश्वविद्यालय पद्धति में यूरोपियन प्रभुत्व का प्रतिरोध लार्ड कर्जन को हड़काते हुए किया था। लार्ड कर्जन को उसके भारतीय विश्वविद्यालय पद्धति में यूरोपियन प्रभुत्व को विस्तृत करने के प्रयासों के लिए औपनिवेशिकता के पक्षधर टाईम्स आॅफ इंडिया का संपादकीय समर्थन प्राप्त था। इस पर भी, फीरोजशाह मेहता ने विप्लववादी राष्ट्र्ीयता का विरोध बारंबार प्रगट किया और कांग्रेस को राजभक्ति के मार्ग पर बने रहने के लिए बड़ी मेहनत की। मोहम्मद सियानी, जो पूर्व में कांग्रेस से दूर ही रहे थे, का 1896 में कांग्रेस का अध्यक्ष चुना जाना कांग्रेस पर राजभक्ति की पकड़ का ही अनुमोदन था।

सयानी ब्रिटिश का प्रबल प्रशंसक था और ब्रिटिश के अभिप्रायों का अविश्वास करने एवं उनकी उपस्थिति को नहीं चाहने वालों की आलोचना करते थे। भारत में ब्रिटिश की उपस्थिति का बचाव करते हुए भावपूर्ण भाषण में कहा कि ’’सूर्य के नीचे ब्रिटिश देश से अधिक स्थाई और ईमानदार कोई अन्य देश नहीं है।’’ ब्रिटिश नीतियों के फलस्वरूप जब भारत दुर्भिक्ष से ग्रासित था उसने ’’कानून और दया’’ पर आधारित और भारत में ’’शांति’’ देने वाला कहकर ब्रिटिश शासन का बचाव किया। सयानी ने भ्रम पाला कि अंग्रेजी धन भारत का आधुनिकीकरण एवं औद्योगीकरण करेगा और भारत को समृद्ध बनायेगा परंतु वास्तव में, भारत ने 20 वीं सदी के पूर्वाध में, भारतीय अर्थव्यवस्था में शून्य बढ़ोत्तरी पाई गई और इंग्लेंड से भारत आने वाला धन एक बूंद से ज्यादा नहीं था। उद्धण 1898-99 के फाइनेंसियल स्टेटमेंट के दौरान हुए भाषण से लिए हैं।

इस समय के दौरान कांग्रेस में राजभक्ति के मुख्य पिरोधा फिरोजशाह मेहता थे। मेहता ने गैरसमझौतावादी राष्ट्र्ीय धाराओं का अपमान किया और उनको अलग थलग करने वाले लांछनों के लगाने में अगुआई की। उनका उग्र भाषण युवा देशभक्त बाल गंगाधर तिलक के विरूद्ध था और उन्हें खतरनाक ’’अतिवादी’’ कहा था। तिलक के विरूद्ध अपने आक्रमणों में मेहता को टाईम्स आॅफ इंडिया का समर्थन प्राप्त था। टाईम्स आॅफ इंडिया ने तिलक में राजभक्ति के लिए गंभीर चुनौती देखी और कांग्रेस राजभक्ति के मार्ग पर बनी रहे इसके लिए प्रचार किया। 1910 में, कांग्रेस संगठन पर भाषण करते हुए मेहता ने कांग्रेस की ब्रिटिश के प्रति राजभक्ति की पुष्टि की थी। स्वाभाविक था ब्रिटिश मेहता की नीतियों के प्रशंसक थे और उन्हें ’’नाईटहुड’’ की उपाधि से नवाजा था। यद्यपि मेहता का तिलक और विपिनचंद्र पाल के प्रति भारी विरोध समूची कांग्रेस का विरोध नहीं था परंतु कांग्रेस आम तौर पर राजभक्ति से घनिष्ठ बनी रही और गोखले जैसे नरमपंथी ही प्रभावी आवाज उठाने में समर्थ थे।

गोखले ने 1895 और 1920 के बीच के कांग्रेस के नेतृत्व को आधारभूतता दी। औपनिवेशिक शासन द्वारा लाये गये देश के आर्थिक सर्वनाश को अच्छी तरह से जानते हुए भी वे ब्रिटिश और साम्राज्य के तहत ही ज्यादा राजनैतिक सुधारों और स्वशासन के लिए संघर्षों में अपनी कर्तव्यपरायणता को बारंबार दुहराते रहे।

1905 से 1908 के बीच इंडियन नेशनल कांग्रेस की आत्मा के लिए तिलक और अजितसिंह तथा चिदम्बरम पिल्ले जैसे दूसरे नेताओं ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरूद्ध लड़ाई को तेज करते हुए, गंभीर लड़ाई जारी रखी।

भाग दोः ’’स्वराज’’ और ’’स्वदेशी’’ के संघर्ष में ’’नरमपंथी’’ के विरूद्ध ’’उग्रवादी’’।