"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

ब्रिटिश शासन में राजभक्ति पर दबाव - भाग दो

’’स्वराज’’ और ’’स्वदेशी’’ के संघर्ष में ’’नरमपंथी’’ के विरुद्ध ’’उग्रवादी’’

19 वीं शताब्दी के अंत के भारतीय विद्वानों को प्रभावित करने वाली राजनैतिक धाराओं पर राजभक्तों ने गहरी छाया डाली; तब भी, तेजी से खराब हो रही आर्थिक परिस्थितियों ने नए भारतीय बौद्धिक वर्ग ने उग्रसुधारवाद को प्रेरित किया था। अजितसिंह पंजाब में, बाल गंगाधर तिलक महाराष्ट्र् में, चिदम्बरम पिल्ले तामिलनाडू में, और विपिनचंद्र पाल बंगाल में ने नए राष्ट्र्वादी आंदोलन के कंेद्र स्थापित किए। और उन्हांेने भारतीय नेशनल कांग्रेस के पुराने नेतृत्व को उग्रसुधारवादी दिशा में मोड़ने के साहसिक परंतु अधिकतर असफल प्रयास किए। नए नेताओं में सबसे अधिक चहेते बाल गंगाधर तिलक थे, जन्म 1856-मृत्यु 1920।

मुस्लिम लीग द्वारा मुस्लिम विरोधी की तरह चित्रित, भारत में औपनिवेशिक शासकों एवं ब्रिटिश राजभक्तों द्वारा ’’उग्रवादी’’ की तरह कलंकित और कुछ इतिहासकारों द्वारा हिंदू पुनरूत्थानी जातिवादी कहे जाने वाले तिलक, वास्तव में, भारतीय स्वतंत्राता आंदोलन की अगुवाई करने वाले ज्योति पुंजों में से एक थे। ’’स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है’’ के अपने नारे के लिए प्रसिद्ध वे ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वतंत्राता के आहावकों में से भी एक थे। उनने ’’नरमपंथी’’ ताकतें जो इंडियन नेशनल कांग्रेस पर पिछली शताब्दी की शुरूआत से छायी रहीं थीं, के खिलाफ लम्बा और कभी कभी अकेले ही राजनैतिक संघर्ष किया।

1858 की पराजय के पश्चात् वासुदेव बलवंत फड़के के 1879 के विद्रोह के रूप में भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति के लिए सबसे बड़ी चुनौती प्रगट हुई और पूना में उनके समर्थक तथा शिक्षार्थी में, युवा तिलक थे। चिपलूंकर, आगरकर और नामजोशी के साथ तिलक ने प्रारंभिक रूप से एक राष्ट्र्ीय साप्ताहिक - केशरी /1881/ को शुरू किया। किताबखाना प्रकाशक और भारतीय शिक्षण संस्था जैसे कि ’’दक्खिन एजूकेशन सोसायटी’’ /1884/ को स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित किया। राष्ट्र्ीय पुनरूत्थान के लिए सही प्रकार की शिक्षा को एक अतिआवश्यक तत्व की तरह तिलक और उनके साथियों ने देखा। इसी संलग्नता में दोनों, ज्योतिराव फुले /1827-1890/ और गोपालराव देशमुख में /1823-1892/ जो अपने ’’लोक हितवादी’’ के उपनाम से अधिक जाने गए थे, उक्त परंपरा आगे बढ़ी थी।

महाराष्ट्र् के 19 वीं शताब्दी के समाजवादी क्रांतिकारियों के अग्रणी पंक्ति में फुले और उनकी पत्नि सावित्राी बाई ने हिंदू समाज में जाति, लिंग और धर्म की समानता के आधार पर मूलभूत पुनर्गठन की वकालत की थी। फुले माली जाति के थे। वे ब्राहम्णवादी समाज की जो शूद्र जाति को हेय दृष्टि से देखते थे, अछूत जाति को स्कूल जाने से रोकते थे और जवान विधवाओं /खासकर ब्राहम्ण विधवाओं/ से जाति बहिष्कृतों जैसा व्यवहार करते थे, आलोचना में तीखे थे। लड़कियों के लिए स्कूल शुरू करने वालों में से एक थे फुले /1848/। फुले ने अछूतों के लिए पहली स्कूल की स्थापना 1851 में की थी, 1863 में जवान विधवाओं के लिए घर और अछूत महिलाओं के लिए कौटुम्बिक कुआं 1868 में शुरू करने में भी वे पहले थे। महाराष्ट्र् में उच्च जातियों से समाज सुधारक आये जैसे कि गोपालराव देशमुख जो यद्यपि चितपावन ब्राहम्ण थे पर ब्राहम्ण समाज के घोर आलोचक थे। वे शुरूआत में मध्यमवर्ग के सुधारवादी संगठनों एवं उनके कार्यकलापों के माध्यम से काम करते रहे जैसे प्रस्थान समाज एवं आर्य समाज के जातिवादी असमानता विरोधी संघर्ष में।

लेकिन तिलक के कुछ सहयोगी फुले और देशमुख /लोक हितवादी/ की तरफ अच्छा दृष्टिकोण नहीं रखते थे। फुले की आलोचना में खासकर चिपलूंकर तीखे थे। दूसरी ओर, तिलक सामाजिक परिवर्तनों की आवश्यकता के लिए असहमत नहीं थे और वे बाल विवाह, जातिवाद और छुआछूत जैसी बुराईयों के विरोधी थे। बहुत वषों बाद /1918 में बंबई के एक सम्मेलन में/ उनने घोषणा की ’’यदि भगवान छुआछूत को स्वीकार करता होता तो मैं उसे भगवान स्वीकार नहीं करता।’’ तब भी, वे सामाजिक सुधारों को राजनैतिक संघर्ष के उपर रखने के विरोधी थे। वे यह विश्वास करते थे कि सामाजिक सुधार शनैः शनैः जनगण की चेतन विचारों के विकास के द्वारा आते रहना चाहिए बजाय विदेशी सरकार के वैधानिक अधिकार के। वे इस बात में दृढ़ विश्वास रखते थे कि देश जब तक राजनैतिक तौर पर स्वतंत्रा नहीं है, उसमें गुणात्मक सुधार संभव नहीं। वह नरमपंथी ’’सुधारकों’’ या राजभक्तों के खास आलोचक थे जो अपनी ही बातों पर अमल नहीं करते थे परंतु बारंबार समाज सुधारों का विरोधी कहकर उनको पीड़ा पहुंचाते थे।

चिपलूंकर के संकीर्ण धार्मिक पुनरूत्थानवादी ढांचे में और आगरकर जैसे मूलगामी सामाजिक सुधारों में वे अपने को संलग्न नहीं कर सके। अंततः 1888 में तिलक ने सहयोगियों सहित अपना रास्ता अलग कर लिया। केशरी के माध्यम से काम करते हुए /और बाद में ’’मराठा’’ भी/ उनने धीरे धीरे राष्ट्र्ीय शिक्षा के स्तंभों पर आधारित ज्यादा प्रखर राष्ट्र्ीय दृष्टिकोण पैदा कियाः ’’स्वराज’’ और ’’स्वदेशी’’ की। भारतीय जनगण में राष्ट्र्ीय संदेश ले जाने वालों में से एक, उनने 1897 के दुर्भिक्ष के दौरान पश्चिमी महाराष्ट्र् के किसान और दस्तकार समुदायों के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका ’’सार्वजनिक सभा’’ के अंतर्गत अदा की। 1905 तक, महाराष्ट्र् एवं बंगाल में आम प्रतिरोधक आंदोलन इस आहावन के साथ उठ खड़े हुए थे कि ब्रिटिश सामानों का उपयोग न किया जाये और भूमिकर एवं अन्य करों का भुगतान भी न किया जाये। 1905 और 1908 के बीच राष्ट्र्ीय आंदोलन गहन हुआ। कामगारों ने काम रोको और हड़तालों में हिस्सेदारी की, महिलाओं और विद्यार्थियों बहिष्कार आंदोलन से जुड़े और आयातित माल बेचने वाली दुकानों पर धरने दिए। आम आदमियों ने भारी मात्रा में सभाओं और जुलूसों से जुड़ना प्रारंभ कर दिया।

देश पर ब्रिटिश शासन द्वारा लाये गये आर्थिक विनाश को जानते हुए भारत की विशाल जनता राष्ट्र्ीय आहवानों में उत्सुकतापूर्वक सहयोग कर रही थी। परंतु राष्ट्र्ीय आंदोलन दो मूलभूत विभिन्न धाराओं एवं प्रवृतियों का प्रतिनिधित्व करते हुए तेजी से विभक्त हो रहा था। जबकि एक हिस्सा विदेशी शासन के अनेक नकारात्मक पहलुओं को जानते हुए, नाभी नाड़ी की तरह जुड़ा हुआ था और राजनैतिक परिवर्तनों के संघर्ष को रोकने का प्रयत्न करता था और दूसरा पक्ष ने सही रूप से ब्रिटिश शासन को भारतीयों के विनाश की तरह देखा और औपनिवेशिक शासन से पूरी तरह से स्वतंत्रा होने का नारा दिया।

नए और लगातार बढ़ते हुए लड़ाकू राष्ट्र्ीय आंदोलन की भावनाओं के सार को तिलक सारगर्भित ढंग से प्रस्तुत करते रहे। वे कहते रहे कि ब्रिटिश शासन ने व्यापार को नष्ट किया, उद्योगों को ध्वस्त किया और जनता की योग्यतों एवं साहस को नष्ट कर दिया। तिलक ने मूल्यांकन किया कि ब्रिटिश शासन ने न जनता की राय का आदर किया, न उन्हें शिक्षा दी गई, न ही अधिकार। समृद्धि और संतोष के बिना भारतीय जनता तीन ’’द’’ सहती रही - दरिद्रता, दुर्भिक्ष और दोहन। उनने भारतीय जनता के लिए अपने हाथ में राजनैतिक सत्ता को लेने का एक मात्रा उपाय देखा जिसके बिना भारतीय उद्योग पनप नहीं सकते थे, देश के नवजवान शिक्षित नहीं हो सकते थे और जिसके बिना देश अपनी जनता के लिए न तो समाज सुधार और न ही भौतिक सुख प्राप्त कर सकता था। तिलक ने औपनिवेशिक शासन को भारत की उन्नति में भारी रोड़ा पाया एवं भारतीय जनता और ब्रिटिश आतातायियों के बीच के विरोधों को गैर समन्वयात्मक पाया।

1905 में कांग्रेस के अध्यक्ष गोखले जैसे ’’नरमपंथी,’’ भारत में ब्रिटिश उपनिवेशन कैसे ’’दुखद’’ था और ब्रिटेन को भारत का आर्थिक बहाव कैसे ’’भारतीय खून का रिसाव’’ था को जानते हुए भी ब्रिटिश शिक्षा पद्धति की प्रशंसा कर रहे थे। ब्रिटिश के उदारपंथी ’’सामाजिक सुधार’’, शासकीय ’’शांति और कानून’’ और आधुनिक सुविधायें जैसे रेलवे, डाक एवं तार और नए औद्योगिक उपकरण का वे बखान करते। इन सबने एक छोटे से भारतीय उच्च वर्ग को ही लाभ पहुंचाया। साम्राज्य इन प्रशंसकों की कतई परवाह नहीं करते दिखलाई पड़ते थे। उन्हें यह ध्यान ही नहीं आया कि स्वराज के अंतर्गत इस सब से कई गुना अधिक हम बड़े आसानी से प्राप्त कर सकते थे।

भारतीय सत्यता को तिलक और गोखले स्पष्ट तौर पर अलग अलग दो नजरियांे से देख रहे थे। सामान्य जनसमूह के नजरिये से ब्रिटिश शासन ने देश को कंगाल बना दिया, उसके लिए असहनीय दरिद्रता दी और भविष्य की कोई आशा शेष नहीं रह गई थी। तिलक के मूल्यांकन में कठोर सत्य झलकता था जैसा कि न केवल उत्पीड़ित और पददलित भारतीय जनगण ने अनुभव किया था बल्कि भारतीयों के अधिकांश ने भी अनुभव किया था। परंतु गोखले के उभयमुखी एवं चिंतनीय सरोकारों ने साम्राज्य की लूटों के हिस्सेदारों की स्थिति की झलक बतलाई। चिंताओं से उनकी स्थिति झलकती है परंतु कुछ घबराहट के साथ देखा था कि कैसे देश की बढ़ती हुई दरिद्रता ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ देगी। गोखले जैसे जनता के हितों के अनिच्छुक ’’नरमपंथी’’ ने अपनी शक्ति भर बढ़ते हुए राष्ट्र्ीय आंदोलन को रोका, यहां तक कि तिलक और उनके सहयोगियों को ’’अतिवादी’’ शब्द से कलंकित किया।

ब्रिटिश ने पूरे तौर से इस फूट का फायदा उठाया और नए राष्ट्र्ीय आंदोलन को कुचलने में अपने पूरे प्रशासनिक दबाव और सैन्यशक्ति को लगाना शुरू किया। मूलभूत परिवर्तनवादी झुकावों को खत्म करने की लड़ाई में मुस्लिम लीग जैसी सामप्रदायिक ताकतों को भी लगा दिया गया था। /नीचे देखिए/ भारतीय राष्ट्र्ीय आंदोलन की दिशा निर्धारण के लिए 1905-1908 के वर्ष अत्यंत कठिन थे। भारतीय जनगण तिलक और उनके समर्थक की ओर दिशा निर्देशन के लिए ताक रहे थे। परंतु देश के चहुं ओर विद्यार्थी, कामगार और भारतीय किसान वर्ग के सीधे विरोध में उच्च वर्ग अपनी ब्रिटिश राजभक्ति को दुहराता रहा था।

पंजाब में ध्रुवीकरण खासकर तेज था। किसान वर्ग में बहिष्कार आंदोलन गहरे तक पैठ चुका था और ब्रिटिश सैन्य टुकड़ियों को कुलियों और गरीब किसानों से संभार तंत्राीय मदद मिलना कठिन हो गया। ब्रिटिश भूमिकर नीति के विरोध में उठ खड़े सिख और जाट किसान मजदूरों का मजबूती से राजनीतिकरण होने लगा। पंजाब में तिलक के करीबी सहयोगी अजितसिंह ने पंजाब की जनता से धर्मनिरपेक्ष अपील ब्रिटिश के विरूद्ध उठ खड़े होने के लिए की थीः ’’हिंदू भाई, मुस्लिम भाई, सिपाही भाई - हम सब एक हैं। सरकार तो हमारे सामने धूल भी नहीं है ... तुम्हारे पास डरने के लिए क्या है ? ... हमारी संख्या विशाल है। सच है उनके पास बंदूकें हैं परंतु हमारे पास मुट्ठियां हैं ... प्लेग से और अन्य बीमारियों से मर रहे हो तब ज्यादा अच्छा होगा मातृभूमि के लिए तुम अपने आप को बलिदान कर दो। हमारी ताकत एकता में है ...’’। रावलपिंडी अप्रेल 21, 1907 के एक भाषण से उद्धृत।

मई 1, 1907 को रावलपिंडी में ब्रिटिश शासन को एक जन असंतोष की स्वस्फूर्त लहर ने हिला दिया जब खौलते हुए हड़ताली मजदूरों से लैस भीड़ सड़कों पर निकल आई, गुजरते हुए ब्रिटिशों पर कीचड़ और पत्थर फेंकते हुए, सरकारी दफतरों, क्रिस्चियन मिशीनरियों के घरों, ब्रिटिश उद्यमों और व्यापारिक संस्थानों पर आक्रमण करते हुए। यद्यपि ब्रिटिश सेनाओं के बड़े समूह ने इस विद्रोह को प्रभावी ढंग से कुचल दिया था, पर उसने औपनिवेशिक प्रशासन को इतना हिला दिया कि पंजाब से औपनिवेशिक और सैनिक अधिकारियों के परिवार को शीघ्रता से हटाने और लार्ड किचनर, ब्रिटिश सेना के कमांडर इन चीफ के कार्यकाल को बढ़ाने के लिए वह पर्याप्त कारण था। अमृतसर और लाहौर में ऐसे ही विद्राहों को निर्दयता से औपनिवेशिक पुलिस और सैन्य टुकड़ियों ने कुचल दिया। अजितसिंह और लाला लाजपत राय को सरसरे तौर पर बिना किसी संज्ञान या अपील के बर्मा भेज दिया गया। दूसरे देशभक्तों की गिरफ्तारी हुई और उत्पीड़न हुआ और पंजाब में आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दी गई थी।

1908 में इसी पैमाने के विद्रोह दक्षिण में त्रिवेंद्रम, युनेलवेली और तुनिकोरिन में उठ खड़े हुए। त्रिवेंद्रम में पुलिस चैकियों पर आक्रमण हुए, जेल से कैदी निकाल दिए गए और दमनकारी औपनिवेशिक राज्य के दफ्तरांे में आग लगा दी गई। तिलक के महत्वपूर्ण साथी चिदम्बरम पिल्ले पर मुकदमा चला। उनने राष्ट्र्ीय उद्देशों को त्यागने से मना कर दिया और उन्हें आजीवन कैद की सजा दी गई।

रूसी वाणिज्यक अधिकारी चिरकिन ने मई 28,1907 की अपनी रिपोर्ट में भविष्यवक्ता सदृश्य लिखाः ’’बंगाल की अशांति की अपेक्षा पंजाब का विद्रोह अपने चरित्रा में ज्यादा खतरनाक है ... इस विद्रोह ने समूचे भारत को उकसा दिया है।’’ परंतु अन्य शक्तिशाली ताकतें इस मूलभूत ब्यार जो औपनिवेशिक शासन को उलटने की संभावनाओं से पूर्ण थी को पीछे ठेलने और रोकने का काम कर रहीं थीं। बंगाल के जमीनदार जिनने बंगाल भंग के विरूद्ध आंदोलन किया था ने सरकार के प्रति अपनी राजभक्ति की घोषणा की। महाराजाओं ने ब्रिटिश की मदद के लिए अपने सशस्त्रा कर्मचारी अर्पित किए और कुछ ने, जैसे जम्मू और कश्मीर के महाराजा, अपनी ओर से कथित ’’उग्रवादियों’’ के विरूद्ध दमनकारी कदम उठाने शुरू कर दिये।

दादा भाई नेरोजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1906 में तिलक समूह के द्वारा स्वदेशी और राष्ट्र्ीय शिक्षा के लिए रखीं गईं मांगों को स्वीकार किया परंतु अपनी पहले की स्थिति में लौट आयी और सूरत के 1907 के अधिवेेशन में संघर्ष को ’’संवैधानिक ढंग’’ में सीमित करने का निर्णय लिया। ’’स्वराज’’ और ’’स्वशासन’’ की पुनव्र्याख्या उपनिवेशन के अर्थ में की गई और औपनिवेशिक शक्ति से लड़ने की अपेक्षा प्रभावशाली ’’सुधारों’’ में सहयोग का कांग्रेस ने निर्णय लिया। राष्ट्र्ीय स्वतंत्राता आंदोलन के सबसे अधिक विख्यात नेता तिलक के चुनाव का प्रस्ताव लाला लाजपत राय के चुनाव के रूप में एक समझौतापूर्ण प्रस्ताव के रूप में गिर गया। ’’नरमपंथी’’ धड़े की जीत पूर्ण रूपेण हुई। गोखले का ’’नरमपंथी राष्ट्र्वाद’’ जो राजभक्ति का दूसरा चेहरा था, तिलक से जुड़ी सभी जन शक्तियों के निकाले जाने के लिए सफल हुआ और कांग्रेस को राजभक्ति के रास्ते पर वापिस ला दिया।

तिलक और उनके समर्थक इस तरह से कांग्रेस के जकड़न भरे पिंजड़े से बाहर एकत्रित होने के लिए फिर से मजबूर किये गए और उन्हांेने ब्रिटिश के विरुद्ध जोरदार संघर्ष करना जारी रखा। परंतु 1908 जुलाई के राष्ट्र्ीय परिदृष्य से तिलक के गंभीर साथियों के अधिकांश को हराने के बाद, तिलक को खुदबखुद सजा के लिए लाया गया। सजा सुनाने के लिए अंग्रेज बहुमत ने भारतीय जूरियों को आॅउट वोट किया और तिलक को छै वर्ष के लिए देश निष्कासन की सजा सुनाई गई। इससे आम जनता का प्रतिशोध भड़क गया जो भारतीय शहरों को घेरे में लेते हुए 1,00,000 कामगारों की विशाल हड़ताल और बंबई में आम हड़ताल में परिणित हुआ। तिलक की सजा को साधारण कैद की सजा में बदलना पड़ा। परंतु भारतीय स्वतंत्राता आंदोलन के लिए यह गहरा धक्का साबित हुआ था।

1914 तक कांग्रेस इतनी विकृत हो गई कि उसके सदस्यों का बहुमत युवा मोहनदास करमचंद गांधी को चेतावनी देने में विफल रहा जब प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश युद्ध संबंधी क्रियाकलापों के लिए स्वयंसेवक की खोज का वे कार्यक्रम चला रहे थे। जो भारतीय जनगणों को ’’अपर्याप्त रूप से अहिंसक’’ होने के लिए बारंबार ताड़ना देता रहा था, 1914 में, उसे कोई खेद न था एक ऐसे युद्ध में बलिदानी मेमनों को लगा देने में जिसमें भारत का हित औपनिवेशिक स्वामियों की हार ही में होना चाहिए था। परंतु राजकोट काठियाबार राज्य के प्रधानमंत्राी के पुत्रा गांधी भारतीय महाराजाओं के नेतृत्व का अनुसरण कर रहे थे जैसे कि बीकानेर के महाराजा अपनी सेना को युद्ध में भेजने के लिए तत्पर थे। ऐसे कदमों से एक ओर शक्तिशाली यूरोपियन साम्राज्यवादी ताकतों को मदद मिलती थी और दूसरी ओर उनके विरूद्ध संघर्षशील ताकतें कमजोर होतीं थीं।

वास्तव में ये गोखले थे जिनसे युवा गांधी प्रेरणा पाते थे, न कि तिलक से। परंतु अन्य दूसरों ने भारत के स्वतंत्राता आंदोलन केे नेतृत्व एवं निदेशन देने की उनकी योग्यता को देख लिया था। नेहरू ने कहा थाः ’’बाल गंगाधर तिलक नए युग के सही प्रतीक थे।’’ और माना कि ’’भारत में राजनैतिक जागरूक लोगों का विशाल बहुमत तिलक और उनके समर्थकों का अनुसरण करता था।’’ इसको सर वालेन्टाइन चिरोल, दी टाइम्स के विदेशी संपादक का भी वैसा ही मत था। उनने रेखांकित किया कि तिलक की सजा ने भारत को सबसे योग्य एवं दृढ़ नेता से महरूम किया। अपने विरोधाभासी और भिन्न धाराओं के बाबजूद संभवतया तिलक ही केवल समर्थ थे भारतीय राष्ट्र्ीय आंदोलन को संगठन, एकता और नेतृत्व देने में। एन.सी.केलकर, जीवनी लेखक एवं तिलक के अनुयायी ने ऐसी भावनाओं को गुंजायमान किया।

भाग एक: भारतीय कुलीन वर्ग एवं प्रारंभिक कांग्रेस में राजभक्त दलाल।

नोटस्ः

राष्ट्र्ीय आंदोलन के लिए मुस्लिम लीग जैसे सामप्रदायिक संगठनों की उग्रता का विशेष विवरण और अंग्रेजी भाषी प्रेस के लिए आॅल इंडिया मुस्लिम लीग की दक्खिन प्राविंशियल आरग्नाईजेशन का निम्नलिखित प्रस्ताव टाईम्स आॅफ इंडिया में छपा थाः

’’यह बैठक अपने दृढ़ विश्वास को लेखबद्ध करती है कि ’’ ब्रिटिश शासन के रख रखाव के साथ न केवल नामधारी सर्वोच्चता वरन् प्रशासन की हर शाखा में फैलने वाली ताकत भारत में एक नितांत और सर्वोपरि आवश्यकता है। वह, इसलिए अपनी ताकतवर निंदा और नफरत, प्राविंस में हुए हाल के कुछ राजनैतिक सिरफिरों के प्रयासों जो लेखों और भाषणों में उस सर्वोच्चता को कमजोर बनाते तथा इस देश में यूरोपियन और भारतीयों के बीच जातीय बैरभाव फैलाते हंै के लिए खेद व्यक्त करती है। आगे वह अपने सामथ्र्य के साधनों के द्वारा राजद्रोह की भावना के उठान और बढत़ को और दक्खिन में हिज मेजिस्टी की प्रजा के सभी वर्गों के बीच अवज्ञा खासकर इस्लाम के अनुनायियों के बीच रोकने का निर्णय करती है। ’’ टाईम्स आॅफ इंडिया में प्रकाशित, अगस्त 15, 1908।

1893 के पहले तक तिलक ने हिंदू और मुस्लिमों के बीच तनाव भड़काने की औपनिवेशिक प्रशासन के अधिकारियों की प्रवृति को महसूस किया था। उनके अनुसार इन सब बदमाशियों के तल में लार्ड डफरिन की ’’बांटो और राज करो’’ की नीति थी।

1906 में लार्ड कर्जन ने बंगाल को मनमाने ढंग से बांट दिया था और हिंदू और मुस्लिमों के बीच खूनी झगड़ों के लिए मुस्लिम लीग पर विश्वास किया था। पूर्वी बंगाल में स्वदेशी आंदोलन से निबटने के लिए विशेष ’’स्वजाति’’ संगठनों को मुस्लिम लीग की आधीनस्थता में बनाया गया था। पुलिस के संरक्षण में उनके सदस्य स्वदेशी कार्यकत्र्ताओं को पीटा करते थे। कांग्रेसी नरमपंथी जैसे सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने भी पूर्वी बंगाल के हिंदू और मुसलमानों के बीच औपनिवेशिक प्रशासन के भ्रात-हत्यात्मक कलह को उकसाने वाली भूमिका को चिंहित किया था।