"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के लिए आदिवासी योगदान

भारतीय संस्कृति और सभ्यता के सब ओर आदिवासी परंपरायें और प्रथायें छाईं हुईं हैं फिर भी, इस तथ्य की जानकारी आम लोगों में नहीं है। भारतीय दर्शनशास्त्रा, भाषा, एवं रीतिरिवाज में आदिवासियों के योगदान के फैलाव और महत्व को अक्सर इतिहासकार और समाजशास्त्रिायों के द्वारा कम करके आंका और भुला दिया जाता है।

यद्यपि बौद्धधर्म संबंधी सामान्य भ्रांतियों ने उसके मानवीय पक्ष की प्रेरणा एवं मौलिक स्त्रोत् को ढांप लिया है। भारत के प्राचीन आदिवासी समुदायों को गौतमबुद्ध बतौर नमूने समाज के सामने पेश करते हुए, उनकी पक्षधरता रखते थे। निजी संपत्ति की लालसा, गरीबी, सामाजिक शोषण और अंतहीन युद्धों के कारणों से दुखी हो, गौतम बुद्ध ने आदिवासी गणतंत्रों में समाज के लिए आशा देखी जो अभी तक जाति-भेदभाव और बलशाली कानून के प्रभाव में नहीं आये थे। प्रारंभ के बौद्ध संघ भी, आदिवासी सामाजिक पारस्परिकता के नमूने थे। वे लेंगिक समानता और सभी के लिए आदर पर जोर देते थे। बौद्ध संघ के लोग भी अपने समानता के दृष्टिकोण और प्रजातंत्रात्मक कार्य प्रणाली के लिए प्रचार-प्रसार करते थे।

उस समय आदिवासी गणतंत्रों ने सामाजिक समता के अनेक स्वरूपों को बचा रखा था जो शोषण और व्यवसायिक गिरावट के बुरे प्रभावों से मुक्त थे। आदिवासी समाज का गठन जीव के सभी रूपों, पौधों तथा वृक्षों के लिए आदर और समानता के आधार पर होता था। उनमें मानव समाज एवं प्रकृति की पारस्परिकता की गहरी समझ थी। विशेष कार्यक्रमों में सामाजिक जरूरतों के योगदान के अनुसार लोगों को सम्मान और पद दिया जाता था। धार्मिक अनुष्ठान में गुरू या वैद्यराज को बहुत आदर दिया जाता था परंतु जैसे ही यह कार्य संपन्न हुआ कि वह धर्मगुरू या वैद्य हर एक के लिए सामान्य हो जाता था। उच्च कोैशल या ज्ञान, उंचे पद को प्राप्त नहीं कर पाता था। इसका अर्थ है कि कोई व्यक्ति या छोटा-समूह किसी प्रकार की प्रभुसत्ता या वंशानुगत स्वामित्व को हासिल नहीं कर पाता था।

यह मूल्य-पद्धति उस समय तक बनी रही जब तक कि आदिवासी समुदाय धन-अलोलुपी रहा और समुदाय के समस्त उत्पादनों का आपस में हिस्सा-बांट होता रहा। श्रम विभाजन था। सामाजिक कार्य बिना किसी भेदभाव या पक्षपात के सहकारिता और सहसमानता के आधार पर किया जाता था।

गौतमबुद्ध को सहजता, प्रकृति-प्रेम और वस्तुओं या धन के प्रति अलोलुपता तथा सामुदायिक जाति समन्वय ने आकर्षित किया ओैर इन्हीं सबने उनकी शिक्षाओं पर बड़ा प्रभाव डाला।

तब भी, ज्यों ज्यों आर्थिक संपदा बढ़ी जनजाति समुदाय लगातार दवाब में बने रहे और वस्तु-विनिमय को अधिकाधिक आसान बनाते रहे। व्यापार के मामले में, आदिवासियों ने उच्चकोटि के सम्मान का तरीका अपनाया। सभी समझौतों का वे सम्मान करते थे। जाति के एक व्यक्ति के द्वारा भी किए गए अनुबंध का सम्मान संपूर्ण जाति के लोग करते थे। बेईमान या धोखेबाज व्यक्ति को जनजाति द्वारा गंभीर सजा दी जाती थी। जनजाति के सम्मान के उल्लंघन की दशा में व्यक्ति को निर्वासन भुगतना पड़ता और उसके परिवार के सदस्यों को सजा के दौरान सामुदायिक कार्यकलापों में भाग लेने के अधिकार से वंचित होना पड़ता था। परंतु प्रायः जनजाति की सत्यनिष्ठा को क्षति पहुंचाई जाती थी। आदिवासियों से व्यापार करने वाले गैर-आदिवासी उनके वादों से विश्वासघात करते और जनजाति के अधिकांश लोगों की ईमानदारी एवं सच्चाई का अनुचित लाभ उठाते थे।

जनजाति समुदाय अनेक कारणों के दवाब में आये। वाणिज्य के फैलाव, उनकी भूमि पर सेनाओं के आने जाने और उनके बीच ब्राहम्णों के पुनर्वास ने दवाब डाला। जनजाति के प्रमुख सदस्यों को हिंदू समाज की ’’मुख्य धारा’’ में लाने में सैद्धांतिक मानमनौअल एवं धमकी का सहारा लिया जाता था। इसने अनेक जनजाति समुदायों को ’’जाति’’ के नाम पर हिंदुओं में समाहित किया और जिन समुदायों ने विरोध किया उन्हें निर्जन स्थानों, पहाड़ों या जंगलों में खदेड़ दिया। सबसे खराब दशा तब हुई जब हारे हुए आदिवासियों को समाज के किनारों पर धकिया दिया और वे इस तरह से अपने ही समुदाय से बाहर होकर ’’अछूत’’ बने।

समय बीतते बीतते जनजाति समुदायों के भीतर स्वेच्छिक भेदभाव पैदा हुए जिसने उनको एकीकृत हिंदू समाज में बिना किसी हिंसा या बल प्रयोग के असमान जाति बना दिया। मध्य भारत में, जनजाति समुदायों में से शासक राजकुल भी पैदा हुए।

पूरे देश में अंतिम परिणाम यह था कि जनजाति समुदाय के देवीदेवता और रीतिरिवाज, भ्रांतियों के प्रादुर्भाव, धार्मिक संस्कार और अनुष्ठान ’’हिंदू’’ समाज की वृहत धारा में प्रवेश पा गए। आदिवासी परंपराओं में पुरखों की पूजा, प्रजनन शक्ति के देवी देवताआंे, यहां तक कि नरनारी प्रजनन अंग प्रतीकों की आराधना, गृहदेवता की पूजा आदि सब ने प्रभाव जमाया। जिस प्रथा को आज हिंदूवाद या हिंदूधर्म कहते हैं उसमें उन सब ने अपना रास्ता बना लिया। ’’व्रत’’ रखने की बड़े पैमाने पर फैली हुई भारतीय प्रथा अर्थात् मनोकामना प्राप्ति या नैतिक शुचिता के लिए रखा गया उपवास, भी आदिवासी मूल से ही है।

महादेवी श्वेतादेवी ने बतलाया है कि शिव और काली जनजाति के मूल से हैं जैसे कि कृष्ण और गणेश। 8 वीं शताब्दी में जनजाति की वनदेवी या कटाई की देवी को शिव की पत्नि के तौर पर माना गया था। हाथियोें को प्रशिक्षित करने वालों की जनजाति से ही गणेश का उद्गम है जिनका हिंदू समाज में /हाथी-चिन्ह/ देवतुल्य प्रवेश हुआ था। महाराष्ट्र् के ब्राहम्ण-वशों के अध्ययन में कौशाम्बी ने बतलाया कि अनेक ब्राहम्णों के गोत्रा जैसे ’कश्यप’ जनजाति ’कच्छप’ /कछुआ/ प्रतीक से बना है। राजस्थान में राजपूत शासकों ने आदिवासी भील मुखियों को मित्रावत् स्वीकार किया। कुछ राजपूतों के राज्याभिषेक में उन्हंे मुख्य भूमिका का अधिकार भी प्राप्त है।

संस्कृत और पाली के साथ आदिवासी भाषाओं के घुलन-मिलन के परिणाम स्वरूप भारत की क्षेत्राीय भाषाएं पैदा हुईं जैसे उड़िया, मराठी या बंगाली और भारत की सभी भाषाओं ने आदिवासी भाषाओं के शब्दों को स्वीकार किया।

आदिवासियों ने विभिन्न पौधों और उनके औषधिक उपयोगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था और आयुर्वेदिक दवाईंयों की उत्पत्ति में बहुमूल्य योगदान दिया। हाल ही के अध्ययनों में, आॅल इंडिया कोआरडिनेटेड रिसर्च प्रोजेक्ट ने पशुओं के स्वास्थ्य एवं मानवीय घाव-भरण के उपयोग में आने वाली 7,500 प्रजातियां आदिवासियों के 9,000 पौधों की प्रजातियों के संचित ज्ञान में से हैं मानकर, सम्मान किया है। दांतों की सुरक्षा के लिए दातुन, जड़ें एवं मसाले, हल्दी का रसोई में उपयोग, और मलहमों की खोजें आदिवासियों की ही हैं जैसे कि अनेक फल और लतायें हैं। जोड़ों की बीमारी और रतौंधी के उपचार का मूल आदिवासी ज्ञान में है।

कृषि उन्नति के लिए आदिवासियों ने महत्वपूर्ण काम किये हैं यथा अदल-बदल फसलें उगाना, उर्वरकता बनाये रखने के लिए वैकल्पिक फसलें और जमीन परती छोड़ना या उसका चारागाही उपयोग के द्वारा। उड़ीसा के आदिवासी चांवल के अभिरंजक पैदा करने में सहायक रहे।

आदिवासी वाद्ययंत्रा जैसे बांसुरी और ढोल, जनकथायें, नाच और ऋतु समारोहों ने भारतीय रिवाजों में, धातुविज्ञान की कुशलताओं एवं ललित कलाओं की ही तरह से ही जगह बनाई है।

भारत के मध्य भाग में आदिवासी समुदाय महत्वपूर्ण उंचाईयों तक उठे और खुद के शासक कुलों को पैदा किया। शुरूआती गांेड़ राज्य 10 वीं शताब्दी से प्रगट हुए और गोंड़ राजे 18 वीं शताब्दी तक अपना स्वतंत्रा अस्तित्व बनाये रख सके यद्यपि उन्हें मुगल साम्राज्य के प्रति निष्ठा के लिए मजबूर किया जाता था। गढ़ मंडला राज्य ने उत्तर में उपरी नर्मदा घाटी के अधिकांश तथा आसपास के जंगली भूभागों पर नियंत्राण फैला लिया था। जहां उपरी बैनगंगा घाटी के अधिकांश पर देवगढ़-नागपुर राज्य प्रभुत्व जमाये था वहीं पर दक्षिण में वर्धा की सीमा के चारों ओर एवं बैनगंगा तथा पेनगंगा के संगम पर, चांदा-सिरपुर।

गढ़ मंडला राज्य के बड़े कंेद्रों में से जबलपुर एक था और वहां बड़ी और राजकुलीन राजधानियों की तरह ही एक बड़ा किला और महल था। गोंड़ राजशाहियों के दौरान बहुत ही बारीक नक्काशी तथा मिथुन मूर्तियों के साथ मंदिर और महलों का निर्माण हुआ। चंदेल राजाओं के साथ गोंड़ शासक कुलों का घनिष्ठ संबंध रहा और दोनों चतुराईपूर्ण समझौतों के माध्यम से मुगल राज्य से अपनी स्वतंत्राता बचाये रखने में प्रयासरत रहा करते थे। जबलपुर की रानी दुर्गावती, चंदेल-गोंड़ कुल परंपरा, ने पौराणिक कथाओं में सम्माननीय स्थान प्राप्त किया। उसने मुगल आक्रमणों के विरूद्ध लड़ाई में रक्षा करते हुए वीरगति पाई थी। 18 वीं शताब्दी की शुरूआत में नागपुर शहर गोंड़ राजा के द्वारा बनाया गया था।

स्वतंत्राता संग्राम और आदिवासी

पूर्वी भारत को ज्योंहि ब्रिटिश शासकों ने लिया, विदेशी शासन को चुनौति देते हुए जनजाति-विद्रोह भड़क उठे थे। उपनिवेशन के शुरूआती दिनों में, भारत के अन्य किसी भी समुदाय ने ब्रिटिश शासन को वीरतापूर्वक यदि अवरोध दिया था तो वे आदिवासी समुदाय ही थे और उसके बदले में दुखद परिणामों को, अब के झारखंड़, छत्तीसगढ़ एवं उड़ीसा और बंगाल के आदिवासियों ने ही भुगता। 1772 में, पहाड़िया विद्रोह भड़क उठा था। उसके बाद पांच वर्षीय उपद्रव तिलक मांझी के नेतृत्व में जिसे 1785 में भागलपुर में फांसी पर लटका दिया था, भड़का था। बाद में तमार और मुण्डा विद्रोह हुए। आगे के 20 वषों में सिंगभूम, गुमला, बिरभूम, बांकुरा, मानभूम और पालामउ में विद्रोह हुए। 1832 में कोल विद्रोह, खेबार एवं भूमिंग विद्रोह 1832-1855 में हुए। 1855 में कार्नवालिस की स्थाई बस्तियों के खिलाफ संथालों ने युद्ध किया और एक वर्ष बाद असंख्य आदिवासियों ने 1857 के स्वतंत्राता संग्राम में मुख्य भूमिका निभाई।

परंतु 1858 की पराजय ने देश की संपदा और स्त्रोत्ों के ब्रिटिश शोषण को और भी गहरा बना दिया। 1865 में वन कानून पारित किया जो ब्रिटिश सरकार को वृक्षों या झाड़ियों वाली किसी भी भूमि को सरकारी जमीन घोषित करने और उसके व्यवस्थापन के कानून बनाने का अधिकार देता था। वन और भूमि के उपयोग करने वाले आदिवासियों के अधिकारों के संबंध में कोई उपबंध उस कानून में नहीं था। 1878 में उससे बड़ा ’इंडिया फारेस्ट एक्ट’ पारित किया जो संरक्षित एवं सुरक्षित जंगल तथा उसके उत्पादों पर आदिवासियों के अधिकार पर कठोर रूकावटें थोपता था। उस कानून ने आदिवासी समुदायों की परंपरागत संपत्ति के स्वरूप को मूलभूतरूप से बदल दिया और उसे राज्य की संपत्ति बना दिया।

ब्रिटिश शासन के आदिवासी प्रतिरोध के लिए सजास्वरूप ’’दी क्रमिनल ट्र्ाईब एक्ट’’ 1871 में आदिवासी समूहों को कलंकित करते हुए एक तरफा पारित किया और आदिवासियों को जन्मजात अपराधी घोषित किया गया। ब्रिटिश हित में आदिवासियों को बड़ा दुश्मन माना गया था।

झारखंड पट्टे में, आदिवासी विद्रोहों को सैनिक टुकड़ियों की बड़ी कार्यवाही के द्वारा दबाया। ब्रिटिश शासन और उसके स्थानीय प्रतिनिधियों के खिलाफ 18 वीं शताब्दी के अंत के संघर्षों में खेरबार विद्रोह और बिरसा मुण्डा के आंदोलन बड़े महत्व के थे। बिरसा मुण्डा का लम्बा संघर्ष ब्रिटिश नीतियों की ओर उन्मुख था। ये नीतियां जमीनदारों और सूदखोरों को आदिवासियों का शोषण करने की अनुमति देतीं थीं। 1914 में, जात्रा उरांव ने ताना आंदोलन शुरू किया जिसमें 25,500 से अधिक आदिवासियों ने भागीदारी की थी। 1920 में ताना उरांव आंदोलन ने देशव्यापी सत्याग्रह आंदोलन को अपनाया और औपनिवेशिक सरकार को लगान देना बंद कर दिया था।

ब्रिटिश राज्य के दौरान उड़ीसा में कई विद्रोह हुए जिसमें स्वाभाविकरूप से आदिवासियों की मुख्य भागीदारी थी। 1817 का पैक विद्रोह: 1838 से 1856 का घुमसर विद्रोह और 1857-1864 का संबलपुर विद्रोह विशेष विद्रोहों में से थे।

आंध्र प्रदेश के पहाड़ी आदिवासी क्षेत्रों में अगस्त 1922 में विद्रोह हुआ था। अल्लुरी रामचंद्रा राजू /सीताराम राजू/ के नेतृत्व में आंध्र पहाड़ियांे के आदिवासियों ने ब्रिटिश को बड़े पैमाने पर गौरिल्ला युद्ध मे घसीट लिया था। असफल होने पर, ब्रिटिश उनको कुचलने के लिए मलाबार स्पेशियल फोर्स ले आये और वे तब ही सफल हो सके जब अल्लुरी राजू वीरगति को प्राप्त हुआ था।

जैसे जैसे स्वतंत्राता संग्राम फैला, संघर्ष के हर क्षेत्रा में, संग्राम ने आदिवासियों को अपने में खींचा। अनेक खेतहर मजदूर और बहुत दबाये गए आदिवासी उच्च जाति के स्वतंत्राता संग्रामियों से जुड़ते गए इस भरोसे के साथ कि ब्रिटिश की हार के बाद नया और प्रजातंत्रात्मक युग पैदा होगा।

स्वतंत्राता के 50 वर्षों बाद, दुर्भाग्य है कि देश की स्वतंत्राता से दलित और आदिवासी सबसे कम लाभांवित हो पा सके। यद्यपि स्वराज्य से भारतीय जनता के बड़े भाग के लिए विस्तृत लाभ मिले हैं पर दलित और आदिवासी इनसे बाहर ही छूटे रहे और देश की आदिवासी जनता के लिए नई नई समस्यायें उत्पन्न हो गईं। 1947 की आबादी की तुलना में जनसंख्या के तिगुने होने से जमीन के स्त्रोत्ों पर बड़ा हुआ दबाव, जंगली क्षेत्रों से विशेष मांगें, खदानंे और जल स्त्रोत्ों ने आदिवासी जीवन में लूट मार मचा दी। अपनी परंपरागत भूमि से आदिवासियों को गैरसामंजस्यपूर्ण संख्या में हटा दिया गया जबकि अनेकों ने देखा है कि उनके पारंपरिक स्त्रोत्ों को जंगल माफिया और घूसखोर अधिकारियों ने हड़प लिया। माफिया और अधिकारियों ने गैरकानूनी व्यापारिक लीजों पर हस्ताक्षर किए जोकि संविधान द्वारा स्वीकृत आदिवासी अधिकारों के विरूद्ध हंै।

यह देखना बचा है कि झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य बनने से भारत के आदिवासियों की दशा में क्या बदलाव आता है। जो भी हो, यह बहुत जरूरी है कि आदिवासी समुदायों की शानदार धरोहरों का संरक्षण एवं लेखन के अवसर, प्रदूषणरहित उपयोग, सहभागितावाली वन-व्यवस्थापनायें और संरक्षण योजनायें, अनिवेषण संस्थान और पाठशालाओं में निवेश के संबंध में केन्द्रीय सरकार के द्वारा विशेष ध्यान दिया जाना अत्यावश्यक है। शैक्षणिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अवसरों में आदिवासियों को विशेष प्राथमिकता मिलना चाहिए जिससे आदिवासियों द्वारा सहे गये पहले के अन्याय और उपनिवेशन के प्रभावों का प्रतिकार किया जा सके।

आदिवासी सामुदायिक व्यवहारों की सुंदरता, उनकी मिल-बांटने एवं सब के लिए आदर की संस्कृति, गूढ विनम्रता, प्रकृति प्रेम और सबसे उपर उनकी समानता तथा नागरिक समन्वय की गहन अनुरक्ति से देश बहुत कुछ सीख सकता है।