"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

भारतीय लोक चित्रकला

आलेखः जगदीश मिततल

भारतीय पारंपरिक लोक चित्राकला की प्रदर्शनी की योजना पर 50 वर्षों पूर्व विचार करना असंभव लगता था। उस समय देश के अनेक प्रदेशों के लोकचित्रा अनजान थे और जो थोड़े बहुत ज्ञात भी थे उन्हें संग्रहालयों और विथियों तक पहुंचने का रास्ता उपलब्ध न था। भारत के विभिन्न प्रदेशों के मानव विज्ञान एवं लोक साहित्य के विद्यार्थियों ने दूरदराज के क्षेत्रों की चित्राकला या अन्य कला अभिव्यक्तियों तथा हस्तकौशलों की समीक्षा अथवा उन पर प्रकाश डालने के मूल्य को नहीं आंका था। धर्म यात्राओं के केद्रों और गांवों में बनाये गए चित्रों को ’’आदिम’’ कहा गया था।

वास्तव में, 20 वीं शताब्दी की शुरूआत से भारतीय दृष्टिकोण से लोक चित्राकला की प्रशंसा की जाने लगी। इसके पूर्व ब्रिटिश कला प्रेमियों और मर्मज्ञों की स्पर्धा में भारत में पारखियों ने केवल मुगल चित्राकला की प्रशंसा की। और यह 1916 का समय था, जब आनंदकुमार स्वामी ने राजस्थानी और पहाड़ी चित्रों को सम्मान दिया। यद्यपि मुगलकाल के परिष्कृत काम की तुलना में ये चित्रा सामान्य एवं लोक कलात्मक ही थे परंतु उनकी सौम्यता ज्यादा युक्तियुक्त थी और आनंदकुमार स्वामी द्वारा उत्साहपूर्वक व्याख्यिातित की गई थी। उनके लेखन कार्य ने भारत के सभी लालित्यरूपों के मूल्यांकन में महत्व पैदा किया और पश्चिम में भारतीय चित्राकला के महत्व को दृढ़ता से जमाया जा। इसके पश्चात् अन्य कारकों ने कला प्रेमियों को ग्रामीण चित्राकारों की अभिव्यक्तियों की ओर दृष्टिपात करने के लिए प्रेरित किया।

शुरूआत में, लोक चित्राकला की खोज बंगाल तक ही सीमित थी। यह इस प्रकार कि 1900 वीं सदी में यूरोप की ’’आधुनिक कला’’ के परिदृश्य के महत्वपूर्ण परिवर्तनों को बंगालियों ने सबसे पहले महसूस किया था। फ्रांस और जर्मनी में तत्कालीन यूरोपियन चित्राकारों के कार्य ने यूरोपियन कला क्षेत्रा में क्रांति का सृजन किया। आधुनिक चित्राकारों ने परिदृश्य का त्याग कर दिया था, रंगों का उपयोग उनके या सांकेतिक उद्देश्य के लिए ही किया और मनुष्य आकार को स्वतंत्रातापूर्वक परिष्कृत किया या तोड़ा मरोड़ा। उन्होंने सघन सरलीकरण को उद्देश्य बनाया और स्वाभाविकता का परित्याग किया अमूर्त या ज्योमिति के पक्ष में। ये परिवर्तन एक ओर अफ्रीकन मूर्तिकला की खोजी गई प्रतिक्रियास्वरूप थे और दूसरी ओर जापानी लकड़ी के छापे थे। जैसा श्रीमती आर्चर ने बतलायाः बंगाल की ख्यात् चित्राकला, इस संबंध में, नीग्रो मूर्तिशिल्प से भिन्न प्रतीत नहीं होती और यह तीव्र देशभक्ति की मनोदशा में सुनिश्चित बंगाली लेखकों, आलोचकों और चित्राकारों ने कालीघाट की चित्राकला के उत्थान में शुरू किया और उसी समय ग्रामीण चित्राकला के विशेष रूपांकन को ढ़ूंढ़ निकाला और संग्रहीत किया-ग्रामीण बंगाल में पातुआ द्वारा बनाये गए कुंडली चित्रों की श्रृंखला में।

भारत के अग्रगामी संग्रहकत्र्ता एवं कला समालोचक अजित घोष और चित्राकार मुकुल डे लंदन से कलकत्ता 1920 की शुरू में वापिस आये थे। दोनों ने कालीघाट के चित्रों को एकत्रित किया जो तब भी कलकत्ता के काली मंदिर के पास बनाये जा रहे थे। अजित घोष ने कालीघाट चित्रों के लिए अपनी रूचि इन शब्दों में रखी /रूपम 1926/: ’’इन तूलिका चित्रों में भाव और प्रयास की तत्क्षणता और ताजगी है। ’’अजित घोष और बंगाल की ग्रामीण चित्राकला में यूरोप की आधुनिक कला के समान प्रभाव देखा गया है और उसी आलेख में जोर दिया ’’आदिम सादगी,’’ ’’शैलीगत विशालता,’’ ’’आश्चर्यजनक साहसीपन’’ और नाटकीय प्रभाव जो संक्षिप्त सहजता से उत्पन्न हुए थे। गुरू सवे दत्त, बंगाल की इंडियन सिविल सर्विस के एक वरिष्ठ अधिकारी, ने 1930 के दशक में बंगाल के गांवों का भ्रमण किया था। उन्होंने लोककला का भारी संग्रह किया और कला प्रेमियों को बंगाल की ग्रामीण मनोहारी चित्राकला से परिचित कराया।

जैसे जैसे ’’लोक’’ और ’’जन सामान्य’’ की चित्राकला ने सम्मान की नई स्थिति पाई अनेक ऐसे केंद्रों को धीरे धीरे ढ़ूंढ़ निकाला गया और विशाल स्तर पर चित्राकला की उर्जा का भान होने लगा और उनकी प्रादेशिक विभिन्नताओं को कला इतिहास के क्रम में रखा गया। इस उत्साह में इजाफा हुआ था 1950 के दशक में स्वतंत्राता पश्चात् भारतीय राज्यों के विलीनीकरण के बाद भारतीय महलों के गोदामों से लघुचित्रा बाजार में आ गए। लाभदायी कला के बाजार के व्यापारी ने उनके खोजने और विक्रय करने का काम शुरू किया उन चित्रों की अपेक्षा जो राजदरबारों के लिए बनाये गए थे।

’’लोककला’’ शब्द उन चित्रों को समाहित करता है जो भारत के गांवों में, पुरुष और नारी के द्वारा अपने घर की सजावट, अपने आराध्य और अपने रीतिरिवाजों के लिए और स्थानीय पेशेवर चित्राकारों या कारीगरों के द्वारा स्थानीय लोगों के उपयोग के लिए बनाये जाते थे। यह शब्द पारंपरिक चित्राकारों के द्वारा ग्रामीण जनता के लिए बाजार में बनाये गये चित्रों को भी समाहित करता है और उनको भी जो तीर्थ स्थानों पर पारंपरिक पेशेवर चित्राकार परिवारों के द्वारा बनाये जाते थे। ये सब चित्रा विभिन्न विषयों और शैलियों में बनाये जाते थे। इतिहास, समाजशास्त्रा और भूगोल ने हर प्रदेश के चित्रों में स्थानीय प्रभाव को बढ़ावा दिया। एक दूरी तक उनकी शैली और गुणवत्ता स्थानीय तौर पर मिलने वाली सामग्री पर आश्रित होती थी। इन सब गुणों से हमें उनको प्रदेशबार पहचानने में मदद मिलती है। और तब भी सभी प्रगट विभिन्नताओं की तह में एक सदृश्यता की गति है जो उनके ’’भारतीय’’ होने को बनाये रखती है।

यद्यपि भारतीय चित्राकला को बहुदा राजदरबार, मंदिर और लोककला की श्रेणी में वर्गीकृत किया जाता है परंतु इस प्रकार का विभागीकरण अनुचित है। 16 वीं सदी में मुगल शासन की स्थापना तक भारत के पूर्ववर्ती राजदरबार अलग थलग समाज नहीं थे और शासक और धनाढ्य लोग जैसे साहूकार, व्यापारी और जमीनदार ये सभी चित्राकार के लिए एक समान थे। चित्रों की गुणवत्ता का फर्क उपयोग में लाई गई सामग्री का और दिए गए समय का होता था। और इन दोनों पर कलाकार को दिए जाने वाले पारिश्रमिक का भी होता था जो स्वच्छंद होता था। राजदरबार में चित्राकार रखने का विचार मुगलों के समय से प्रारंभ हुआ और उनके जागीरदार शासकों के द्वारा मुगलों के तरीकों को अपनाया जाता रहा। यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि उर्जा, मौलिकता और गतिशीलता अकबरी चित्राकला के मूल गुण मुगल शिल्पशालाओं एवं अन्य छोटे राजदरबारों में गुजरात एवं भारत के अन्य हिस्सों के पेशेवर घरानांे के चित्राकारों की नियुक्ति करके लाये गए थे जिन्हें प्रारंभिक तौर पर लोक शैली में काम करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था।

पश्चिमी भारत की चित्राकारी खासकर गुजरात और दक्षिणी राजस्थान में 12 वीं सदी से मुख्यतया, जैन सिद्धांतों की ख्याति प्राप्त लघुचित्रा शैलियां शुरू हुईं और ये हमारे नजरिये को पर्याप्त तौर पर पुष्ट करतीं हैं। 15 वीं सदी में गुजरात सल्तनत की और 16 वीं सदी के अंत में मुगल शासन की स्थापना के बाद पश्चिमी भारत में किए गए कामों में कोणीय गुण, चमकीले और भरावपूर्ण काल्पनिक रंग क्षेत्रा एवं पूरी रेखायें बनीं रहीं। उनको तो बिलकुल ही लोककला कहा जा सकता है। इस प्रदेश की दो पांडूलिपि चित्रा देवी और महात्मा इस प्रदर्शनी में हैं। ये दोनों 1485 सदी के हैं और पांडूलिपि शैली में पीपलनेर मालवा, गुजरात के पास बनायं गए थे।

गुजरात के चित्रों के विभिन्न समूहों में भागवत पुराण के अंकन 16 वीं सदी की शुरूआत और दूसरे, /14-15/, लगभग 1625-50 के हैं, दोनों को ’’लोक’’ कहा जा सकता है। दोनों में, यद्यपि, उन पांडूलिपियों की कुछ आकृतियों में मुगल वस्त्रों का अंकन है परंतु उनको गांव में ही या फिर शहरी केंद्रों में पेशेवर चित्राकारों ने बनाया था तब भी उनकी शैली और आकृति की उर्जा मुगलों के संपर्क के बावजूद बहुत ही कम बदल पाई थी। वे बड़ी संख्या के वर्णनों के अंकन में सक्ष्म रहे होंगे। यही कारण है कि दोनों चित्रों की शैली और चित्राण में आकृति और स्थान की काल्पनिक संवेदना है। यही तरीका कड़कलपतरू में दिखलाई पड़ता है। इसे 1625 ई. में उत्तर पश्चिम में कहीं बनाया गया होगा। उन सब में रंग और बनावट की अद्वितीय समझ जीवांत है, संभवतया गुजरात के रंग और सजावट के प्रेम के कारण।

मध्य भारत केंद्र शैलीगतरूप से वैयक्तिक हैं। रामायण, कृष्णलीला और स्थानीय लोक परंपरायें ग्रामीण स्तर पर भारी प्रेरणा के स्त्रोत् रहे, दोनों प्राश्रयदाता और चित्राकारों के लिए। संयोजन साधारण है, निरूपण परिष्कृितरहित परंतु एकदम सीधे और चमकीले रंग सांकेतिक रूप से काम में लाये गए। मुगल चित्राकारिता में मुगल पहनावे तथा राजदरबारी व्यवहार का स्पष्ट प्रभाव है यद्यपि शासक आत्मिकरूप से हिंदू थे और लोक स्तर पर चित्रा में स्थानीय पहनावों एवं रंगों का चुनाव बचा रहा था।

पहाड़ी या राजपूत दरबारों के चित्रा और उनके पंजाबी पहाड़ी आधीनस्थों के चित्रा भारतीय चित्राकला के गौरवशाली पक्ष हैं। लोककला से उत्पन्न हुई उनकी जीवांत गुणवत्ता पर सकारण विश्वास किया जा सकता है। लगभग 1600 से बसोली उर्जायुक्त शैली और कुल्लू और मंडी के लोक रचना कार्य लगभग 1675 से ने अन्य पहाड़ी चित्राकला केंद्रों के लिए मानक बनाये। राजदरबारी चित्राकला से थोड़ी ही प्रभावित हो ’’बुक आॅफ ओमेंस्’’ के पृष्टों में अंकित 1800 ई. की शुरूआत के दिनों से उस प्रदेश के लोकचित्रों की सुस्पष्ट आदिम विशेषतायें बचीं हुईं हैं। आकृति की सरलता, रंगों का शांत उपयोग, चित्रा विस्तार एवं सहज सृजनशीलता के कल्पनाशील उपयोग, भारतीय लोकचित्राकला के विशेष संयोजनों की तरह देखे जा सकते हैं, सच्ची भावना की अतिसूक्ष्म दुनिया को विनोदशीलता के पुट के साथ प्रगट करते हुए।

भारत में चित्रात्मक अभिव्यक्ति के तरीकों में से सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण पारंपरिक तरीका धार्मिक, सदाचरण शिक्षण एवं मनोरंजन के लिए उपयोग में लाया जाता था। गुजरात, राजस्थान, बंगाल, उड़ीसा, महाराष्ट्र् और आंध्र प्रदेश में स्थानीय जनश्रुतियों के वर्णन की लम्बी परंपरा रही थी, साथ ही साथ, वर्णनात्मक चित्रों की भी परंपरा रही थी। हमने आंध्र प्रदेश और बंगाल के चित्रों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं और कागज के 15 चित्रों को भी प्रदर्शित किया है जिसका उपयोग तस्वीर दिखलाने वालों के द्वारा किया गया था। उदाहरण के लिए आंध्र के फड़ या कंुडली चित्रा हाथ करघे के कपड़े पर बने हुए, बंगाल के रेखांकन कागज पर किए हुए और महाराष्ट्र् के चित्रा मिलों में बने हुए कागज पर बनाये गए थे।

आंध्र प्रदेश के फड़ चित्रा 1625 से जाने गए जो काफी परिष्कृत शैली के हैं और उन्हें मुश्किल से ’’लोक’’ कहा जा सकेगा। इसका कारण है कि वे ही कलाकार प्रदेश के हिंदू रजवाड़ों के द्वारा नियुक्त किए गए थे। प्रत्येक फड़ या कुंड़ली चित्रा एक खास जाति के पूर्वजों के शोषण के प्रचार की कथा का बखान करते और वे चित्रा केवल उसी जाति के लोगों को दिखलाये जाते थे। अनेक कथायें 8 से 10 मीटर लम्बी और 1 मीटर चैड़ीं होतीं। फड़ चित्रों पर दोनों किनारों पर बांस का दण्डनुमा आधार होता जिस पर इनको लपेटकर रखा जा सके। वे अधिकतर खड़ीं होतीं और आड़े फलकों में बनीं होतीं थीं। उनके कुल प्रभाव में एक व्यापक लयात्मकता होती और एक चमकदार रंग की सुदृढ़ गहरी रेखा लाल रंग के पृष्ठ भाग की घेराबंदी करती। पहनावा, आभूषण और अन्य विवरण दक्षिण भारतीय तर्ज पर होते।

बंगाल और बिहार के फड़ चित्रा अपेक्षाकृत छोटे होते। उनके बनाने के अनेक केंद्र होते थे और उनकी शैली एक जिले से दूसरे जिले में भिन्न होती थी। इसके बाद भी उनमें लयात्मक भाव, ताजगी, सीधापन, रंगों की चमक की परिष्कृत समझ और तार समान रेखाओं का उपयोग होना कायम होता। वे या तो स्थानीय कथा कहते या फिर बंगाल की कृष्ण गौरव की गाथा कहते। दूसरे प्रकार के कुंडली चित्रा बंगाल और बिहार के संथालों के लिए बनाये जाते, उनकी गौरव गाथाओं लिए। चक्षुदान करने वाले लोगों की तस्वीरें भी बनाईं जातीं थीं।

दक्षिणी महाराष्ट्र् के सांवतवाड़ी राज्य के पिंगुली गांव के चित्राकथी बाहरी प्रभावों से कम ही प्रभावित थे /40-50/। यहां के चित्रों की बड़ी श्रेणियों की मुख्य विशेषता थी लड़ाईंयों के दृश्य का अंकन और वे अतिमानवीय शक्तियों से ओतप्रोत होते थे। 19 वीं सदी के दौरान बने इन चित्रों की शैली मौलिक है, इनमें नाटकीय गुणवत्ता और सुदृढ़, गहरे और सपाट रंग के क्षेत्रों को एक सामान्य रेखा से बांधा जाता था। एक ढंग से वे चमड़े की कठपुतलियों का अनुसरण करते थे जिन्हें उसी घर के लोग ही बनाते थे। उन चित्रों की विषय वस्तु का चयन और विभिन्न ब्यौरे मराठा दर्शकों की रुचियों को सुयोग्यरूप से प्रदर्शित करते थे। विषयों का चुनाव अधिकतर हिंदू धार्मिक कथाओं में से किया जाता था।

तीर्थ स्थानों एवं मंदिरों में बहुदा चित्राकारों की दुकानें होतीं जहां से तीर्थयात्राी यादगार स्वरूप चित्रों को खरीदते। कलकत्ता के कालीघाट मंदिर में, 19 वीं सदी में एक आकर्षक शैली का प्रादुर्भाव हुआ जहां प्रमुख हिंदू देवी देवताओं के साथ प्रसांगिक घटनाओं को साधारण कागज पर चित्रित किया जाता था। फुरती और अनियत ढंग से बनाने में वे विशेष तौर पर मौलिक और गहरा प्रभाव, उर्जा और स्मरणीयता पैदा करते। पानी के यूरोपीय रंगों का उपयोग करते हुए आकृतियां और अन्य रूपांकन में बलाघात् गोलाईंयां परिरेखाओं के भीतर आदर्श भाव के कारण होतीं और उन्हें काली मोटी बाह्य रेखाओं से परिपूर्ण किया जाता था।

पुरी के मंदिर के आसपास और पड़ौसी गांवों में चित्राकार तीर्थ यात्रियों के लिए चित्रा बनाते थे। यद्यपि सबसे ज्यादा सामान्य विषय तीन पंथों की मूर्तियों को कपड़े पर चित्रित करना होता था। कभी कभी चित्राकार ग्राहकों से काम प्राप्त करने के लिए रेखांकन पुस्तिका भी साथ रखते। उड़ीसा के लगभग सभी मौलिक चित्रा ताड़पत्रा पर बनाये और चित्रित किए जाते, तब भी अनेक वैकल्पिक दशाओं में कागज पर भी चित्राकारी होती थी। जो भी हो कागज के चित्रों में सामग्री की भिन्नता के कारण उनकी शैली थोड़ी बदल जाती।

दक्खिन के विशाल भू भाग में विभिन्न आश्रयदाताओं और परिणामतः चित्राण की भी विभिन्न शैलियां रहीं थीं। उपर चर्चित कुंडली या फड़ चित्रों से अलग परंपरागत चित्राकारी की महान् मौलिकता, उर्जा और विशिष्ट शैली में दक्खिनी राजदरबारों में बनाईं जातीं थीं। दक्षिणी दक्खिन में वानपर्ती हिंदू राज्यों में से एक ऐसा ही केंद्र था। रागमाला श्रृखंला में से इसी स्थान के तीन पृष्ठ जो बहुत ही मौलिक शैली और रंगों की गैर परंपरागतता के हैं, उपयोग में लाये गए हैं। उनके बारे में ध्यान देने योग्य बात यह है कि वे दक्षिण भारतीय कर्नाटक संगीत की भावभंगिमा को चित्रित करते हैं; अन्य रागमाला श्रृखंला उत्तर भारतीय संगीत पर आधारित है।

इस छोटे आलेख के अंत में हम पाठकों को बतलाना चाहते हैं कि इस प्रदर्शनी में भारत के अनेक लोकचित्रा प्रदर्शित नहीं किए जा सके हैं। प्रथम, उड़ीसा और गुजरात के अनेक घरों में की गईं भित्तिचित्राकारी और बिहार में मधुबनी, महाराष्ट्र् में वरली और मध्य भारत में बस्तर के वधु कक्ष की दीवालों की भित्तीचित्राकारी को, यद्यपि हमें ज्ञात है, स्वाभाविक तौर पर उनको यहां लाकर प्रदर्शित करना असंभव है। दूसरे, 1900 ई. के पूर्व तक संग्रह करने के काम की परिसीमा है। हाल के मधुबनी एवं वरली के कागज पर किये गए काम हमारे परिक्षेत्रा के बाहर हैं। और ऐसा ही है कि दक्षिण भारत की लोक चित्राकारिता के अच्छे उदाहरण म्युजियम के पास नहीं हैं। उसको वहां पर कांच चित्राकारी तक सीमित किया हुआ है। अन्यथा यह प्रदर्शनी भारत की लोक चित्राकारिता का पूरा प्रतिनिधित्व करती और यह एक अभिवादन होता उन अनजान गुणी चित्राकारों का जिनके कार्य को म्युजियम गौरवांवित करना चाहता है।

भारतीय लोक चित्रा प्रदर्शनी, सी एम सी आर्ट गैलरी, नई दिल्ली, मार्च-अप्रेल 1990 के लिए। जगदीश और कमला मित्तल म्युजियम आॅफ इंडियन आर्ट, हैदराबाद के संग्रह से साभार।

संपर्कः जगदीश मिततल, द्वारा नाडजर चिनाय, ट्र्स्टी मंत्राी, जगदीश और कमला मित्तल म्युजियम आॅफ इंडियन आर्ट, 1/2/214/6 गगन महल रोड, हैदराबाद 500059। दूरभाषः 040 763 1561