"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

भारतीय चित्राकला ( 16वीं से 19वीं सदी तक )

आलेख: जगदीश मित्तल

गत चालीस वर्ष से अधिक से ’’भारतीय लघुचित्रा’’ भारत और पश्चिम में कला विद्वानों, संग्रहकों, कलाकारों और अन्य लोगों में निरंतर ख्याति पा रहे हैं। उनकी बारीक कारीगरी, भावपूर्ण और दोलायमान रंगों की संयोजना, विभिन्न शैलियां एवं विषय प्रसिद्ध हैं। ये गुण रंग की परत के नीचे के आकर्षण को मंद कर देते हैं। भारतीय ’’लघुचित्रा’’ से उनके ही कलाकारों के अन्य अंकनों को निस्तेजित को होते देखा जाता है और ’’लघुचित्रों’’ की यह एक विशेषता है। सच यह है कि भारतीय लघुचित्रा के कद्रदानों की पहुंच अच्छी रचनाओं तक रही जो अब कुछ सनक सी बन गई है। यद्यपि कुमारस्वामी के लगभग अनजानी कला के दो ’’इंडियन ड्र्ाईग’’ बिनिबंधों - 1910 और 1912 - को प्रदर्शित करने में प्रशंसा तो मिलेगी ही परंतु फिर भी उस कला के महत्व को निरूपित करने के लिए पर्याप्त उदाहरणों का अभाव है। यहां तक कि 1950 के दशक के दौरान, महलों के भंडारगृह और देश के अंग्रेज घरों से लघुचित्रों से बाजार पट गया परंतु उनमें कोई चित्राकारिता नहीं थी क्योंकि वे सब शिल्पशाला के हिस्से थे और उनका संबंध किसी कला पारखी या आश्रयकत्र्ता से नहीं था।

सौभाग्य से 1950 के आखिर में दो कुशाग्र कला व्यापारी - रामगोपाल विजयवर्गीय, जयपुर के और दिल्ली के पी. आर. कपूर ने कलाकार घरानों से हजारों कलाकृतियां प्राप्त कीं जिनमें कुछेक तो बेहद खूबसूरत थीं। विजयवर्गीय ने राजस्थान, गुलेर, कांगड़ा और बसोली से कलाकृतियां खरीदीं थीं। 1949-57 के बीच चांबा, हिमांचल प्रदेश के मुख्य कलाकार घरानों के लोगों से लगभग समूचे जखीरे को प्राप्त करने में मैं भाग्यशाली रहा था। चांबा के इस हिस्से से अलग, यहां प्रदर्शित चित्रा विजयवर्गीय और कपूर द्वारा हासिल किए गए में से ही हैं। न्यूयार्क में एशिया हाउस गैलरी में स्टुअॅट कैरी वाॅल्श द्वारा 1976 में ’’इंडियन ड्र्ाईग एण्ड पेंटेड स्केचेज्’’ की प्रथम प्रदर्शनी में मित्तल संग्रहालय से 16 कृतियां प्रदर्शित कीं और उनमें से 10 यहां इस अभिलेख में प्रदर्शित हैं।

किसी भी चित्रा के लिए आकृति खींचना आवश्यक है। आकृति या रेखांकन चित्राकार से करीबी रिस्ता कायम करता है और कलाकार के मस्तिष्क की कल्पनाओं के साथ भागीदारी होने लगती है। उर्जा, अभिव्यक्ति और निर्णय जो हम रेखांकन में देखते हैं, वह बहुदा उसी चित्राकार के उसी विषय के अन्य चित्रा में नहीं देख पाते। भारतीय चित्राकारिता पश्चिम के चित्राकारों की रचनाओं से इस मायने में भिन्न होती है कि भावों को चेहरे के माध्यम के बजाय भारतीय चित्राकार मुद्रा और भंगिमा के माध्यम से प्रगट करते हैं।

सीस पेंसिल अथवा चित्रांकनी का रेखांकन में उपयोग भारतीय चित्राकारों को ज्ञात नहीं था। निब का उपयोग मुश्किल से होता था परंतु लोक स्तर पर बांस की कलम का उपयोग कभी कभी किया जाता था। अपने चीनी और जापानी प्रतिपक्षों के समान भारतीय कलाकारों ने सीखने की शुरूआत से ही तूलिका के उपयोग में दक्षता प्राप्त कर ली थी। गिलहरी की पूंछ के बाल से तूलिका बनाई जाती थी। भारतीय कलाकार प्रायः कोयले का उपयोग करते थे और कभी कभी किरमिच या लाल गेरू का भी उपयोग मूल कल्पना के रेखांकन में किया जाता था। ऐसे रेखांकन बाद में विकसित किए जाते या तो उसी पर पुनः रेखांकन द्वारा या फिर सफैदी की पतली परत के लेपन से और उसके बाद आकृति का अंतिम अंकन तूलिका के द्वारा काली स्याही से किया जाता। हाथ से बने कागज के एक ताव अथवा अनेक तावों को एक साथ चिपकाकर, फिर उस पर सफैदी की एक परत तथा गोमेद को घोंटकर चमकाया जाता और तब आकृति अंकन को किया जाता और कभी कभी तो कागज के दोनों ओर भी अंकन किया जाता।

बहुत ही कम कलाकार सीधे रेखांकन का उपयोग करते क्योंकि उनका प्रशिक्षण स्मृति अंकन द्वारा रेखांकन या चित्राण का होता था फिर चाहे वह मानव, पशु, पक्षी, वृक्ष, प्रतीक चिन्ह या अन्य तत्व हो। सभी की आकृति को स्मृति से ही उतारना होता था। कलाकार जीव अथवा अजीव का अवलोकन कर उनके मूलभूत गुण, विशेषतायंे और मनोभाव या मनोदशा स्मृति में रख लेता और जब आवश्यकता होती, अपनी स्मृति के भंडार से निकालकर अंकन कर लेता था। इस प्रकार चित्रा की एक ही विषय वस्तु में उतार चढ़ाव या अलगाव हो जाता था और यह इस बात पर आधारित होता था कि कलाकार किस क्षेत्रा, किस काल में और किस शिल्पशाला से प्रशिक्षण के दौरान क्या और कितना सीखा था। वह हिंदू, मुस्लिम, अथवा ब्रिटिश आश्रयदाताओं के लिए कार्य करता और अपने तीक्ष्ण अवलोकन एवं संवेदना की पारिवारिक धरोहर को बनाये रखने के लिए प्रयासरत रहता था। अधिकांश देशों की तरह, कलाकार आम तौर पर उच्च वर्ग से नहीं हुआ करते थे। भारत में राजमिस्त्राी और अन्य कारीगरों के काम के समान ही चित्राकारों के सृजन भी लगभग नाम रहित हैं।

सभी समय और पद्धति के चित्राकार सबसे पहले रेखांकन करते और तब उसे एक चित्रा का स्वरूप देने के लिए उनमें रंग भरते। जो भी हो, मुगल, दक्खिनी राजस्थान और पंजाब की पहाड़ी पद्धतियों के चित्राकार 16 वीं और 19 वीं सदी में चित्राण के उद्देश्य के ही खास प्रेमी होते थे। शासकों, मुखियों और सामान्यजनों के लिए हाथी, घोड़े, शेर और अन्य पशुओं और पक्षियों के चित्रा, जुलूस, लड़ाई एवं राजदरबार के दृश्यों का अंकन, पौराणिक, रोमानी और साहित्यिक विवरण, रागमाला पर आधारित संयोजनायें, बारामाशा और कामोत्जिक दृश्य अंकित किए जाते और उनका उपयोग व्यक्तिगत चित्राकला प्रेम ही था। चित्रों की श्रृखंला बनवाने वालों के लिए भी कार्य किया जाता था। वे सजावटी सामान के लिए आकृतियां गढ़ते। अपने कार्य की प्रौढ़ता के लिए लगातार रेखांकन का अभ्यास करते खासकर लोगों, पशुओं और वस्तुओं के अध्ययन एवं अवलोकन के लिए। लगभग दैवभक्ति के समान ही परिश्रम करते रहते क्योंकि वे गहरे तक जीवन एवं प्रकृति की सभी अभिव्यक्तियों से प्रेम करते थे। कुछ चित्रा, मात्रा चित्राकार के निजी सुख के लिए भी बनाये जाते थे।

मुगल चित्राकार खास घटनाओं एवं खास व्यक्तियों के चित्रा के लिए नियुक्त किए गए थे। वे लगातार नई नई संयोजनायें खोजते और तात्कालिक अवलोकनों को भविष्य में काम आने के लिए अंकन कर लेते थे। जो उन्होंने देखा उसे बारीकी से अंकित करने के लिए साधनों के विकास में भी वे प्रयत्नशीन रहा करते थे। दक्खिन में इसके विपरीत, चित्राकार रंग एवं रेखाओं की सुंदरता को व्यक्त करने के लिए सचेष्ट प्रयासरत रहा करते थे। मुगल और दक्खिन पद्धतियों के कलाकारों के चित्रा और रचनायें उनके प्रभाव में बीकानेर और जयपुर के कलाकारों ने बनाईं जो अद्भुत बारीक जानकारियां, अत्यंत कुशलता और उच्च तकनीक प्रगट करते थे।

राजस्थान पद्धति के चित्राकारों की विशेषतायें उनकी बारीकियां, सुस्पष्टता और मितव्ययता हैं। रेखा के द्वारा और कभी कभी केवल रंग से चित्राकार भाव की अत्यंत सूक्ष्मतायें प्रगट करते हैं। खासकर कोटा और बूंदी कलाकार 17 वीं सदी के बाद से अपने अन्य राजस्थानी सहयोगियों के मुकाबले अधिक उन्मुक्त रेखांकन करने लगे थे। वे अधिकांश में अवलोकित आकृतियों के अंकन में ज्यादा उन्मुक्त, ज्यादा सूक्ष्म और ज्यादा आनंददाई हैं। कोटा-बंूदी चित्राकार सुस्पष्ट और गहरे तूलिका स्पर्श का उपयोग करते हैं। कभी कभी एक सुनियोजित रेखांकन करने के बजाय वे सहज स्वच्छंद रेखांकन करते और यहां तक कि कागज के एक छोटे टुकड़े पर बेतरतीबी से खींचीं गईं रेखाएं उनकी कल्पनाशीलता को आकार एवं लय की विभिन्नताओं के आनंद को प्रगट करतीं। 17 वीं सदी के बाद से इन कलाकारों ने बड़े फलक पर काम करना शुरू किया क्योंकि उनको राजप्रसादों और मंदिरों में भित्तीचित्रों को अंकन करने के लिए नियुक्त किया जाने लगा था। कोटा चित्राकारों ने जीवन के सभी पक्षों के उन्मुक्त, चुटीले एवं साहसी रेखांकन किए। वे अपने संरक्षकों के साथ शिकार पर भी जाते और उनके द्वारा शिकार स्थल पर ही बनाये गए चित्रा उपलब्ध हैं। संभवतया, आखेट या शेर या हाथी की भिड़ंत के दृश्य जिनमें प्राश्रयदाता की अपेक्षा पशु एवं जंगल के परिदृश्य ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठते थे के महान चित्रा इन भ्रमणों के ही परिणाम से उत्पन्न हुए थे। भगत और चोखा 18 वीं सदी के उत्तरार्ध और 19 वीं सदी की शुरूआत में क्रियाशील रहे थे। ये दो विभिन्न शैलियों के चित्राकार थे। मेवाड़ के शालीन देवगढ़ ठिकाने की तुलना में बेहद संवेदनशील रूप से इनके तरल चित्रा मिलते हैं।

पहाड़ी चित्राकारिता जो 17 वीं और 19 वीं सदी में की जाती रही चित्राकारिता की अपेक्षा सौम्य, परिष्कृत, बारीकीमय एवं गीतात्मक हंै। गुलेर और चांबा घरानों की रचनायें मुख्यतया 18 वीं सदी की हैं। ये रचनायें उल्लेखनीय हैं और पहाड़ी चित्राकला की सर्वोत्तम हैं। यद्यपि इन दोनों घरानों की शैलियां बाद की मुगल चित्राकला से निकलीं हुईं हैं परंतु इन शैलियों के मनोभाव अल्हदा ही हैं और वे सुसंस्कृत, समयोचित और गीतात्मक हैं। गुलेर और उससे निकले कांगड़ा के रचनाधर्म का झुकाव मृदुल आदर्शवाद की ओर है। पहाड़ी चित्राकला के उदाहरण भी हैं जिनमें कलाकार की आकांक्षा अपने प्रदेश के लोगों, साधु संतों, और संगीतज्ञों के जमघटों को चित्रित करने की होती थी। ये उदाहरण यद्यपि कम ही हैं परंतु अभिन्नरूप से तीक्ष्ण परंतु संवेदनामय अवलोकन से हैं। 19 वीं सदी से हम ’’अपनी पद्धति’’ के भारतीय चित्रा देखते हैं जो भारत मेें बसे ब्रिटिश निवासियों और पश्चिम के पर्यटक प्रशंसकों के लिए बनाये गए थे। उनमें से अधिकतर रेखा चित्रा हैं। उड़ीसा में ताड़ पत्रा पर चित्राण की बहुसंख्यक पाण्डूलिपियों का उल्लेख करना आवश्यक है। इन्हें नुकीली कलम से गहराई तक रेखायें खींच एवं उनमें काली स्याही रगड़कर बनाया जाता और कभी कभी कुछेक हिस्सों में चित्राण भी किया जाता था। उनकी गुणवत्ता बेहद अच्छी है और किसी भी चित्रा की भांति परिपूर्ण है।

मेरे मत में भारतीय चित्राकला की स्वयं की एक परिपूर्ण भाषा है। उसके आनंद को कोई अन्य भाषा प्रगट नहीं कर सकती। एक कलाकार के नाते मैंने उन्हें 1949 में पहली बार ही महान् रचनाओं की तरह पाया। मेरी प्रशंसा उन चित्रों को सहज मन देखने के कारण है बजाय उनके कलाकारों नाम या घरानों, रचना तिथियों अथवा पद्धतियों की जानकारी के। पहले यह योग्यता मुझमें नहीं थी। यह बाद में पैदा हुई थी। इसलिए अब मैं विराम लेता हूं , चुप होता हूं जिससे प्रदर्शित चित्रा आपसे बिना किसी परदे के सीधे सीधे बात कर सकें।

/भारतीय चित्राकला प्रदर्शनी के लिए लिखा गया एक निबंध। जगदीश और कमला मित्तल म्युजियम आॅफ इंडियन आर्ट, हैदराबाद के संग्रहण से साभार।/

संपर्कः जगदीश मिततल, द्वारा नाडजर चिनाय, ट्र्स्टी मंत्राी, जगदीश और कमला मित्तल म्युजियम आॅफ इंडियन आर्ट, 1/2/214/6 गगन महल रोड, हैदराबाद 500059। दूरभाषः 040 763 1561।