"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

भारतीय कला और वास्तुशिल्प में प्रगति

भारतीय धरोहरों से संबंधित पश्चिमी व्याख्याओं और धारणाओं के लिए चुनौतियां

भारतीय कला और वास्तुशिल्प के मूल्यांकनों को पश्चिमी दुनियां में उन्हीं पूर्वाग्रहों और पक्षपातों को सहना पड़ा जिन्होंने भारतीय दर्शन एवं संस्कृति के विश्लेषकों को विषाक्त किया है। औपनिवेशिक धारणा के नमूने ने भारत को ऐसा वर्गीकृत किया गया जो रहस्यवाद के अज्ञान में डूबा हुआ था और जहां सामाजिक जीवन के चहुंओर धर्म का प्रभाव और नियंत्राण फैला होता था। पश्चिम की ’’भव्य’’ पवित्राता के विपरीत, भारत के धार्मिक कार्यकलापों को प्रायः बेतुका और विकृत ठहराया गया था।

यद्यपि पूरे उपमहाद्वीप ने वास्तव में, कला और वास्तुशिल्प की दुनिया में प्रगति के बेमिसाल और निर्बाध्य इतिहास को देखा, तथापि भारत या तो ’’विश्व’’ कला के संकलनों में सप्रयास उपेक्षित रहा या फिर उसका प्रतिनिधित्व बहुत ही सीमित और बहुत ही छोटे उदाहरणों से किया गया। जब भारतीय कला और वास्तुशिल्प के चित्राग्रंथों को प्रकाशित किया गया तो उनकी यह कहकर ’’भारत का समस्त वास्तुशिल्प धार्मिक रहा है’’ जैसे फिकरों के साथ आलोचना शुरू की गई और आगे के विवरण में आम तौर पर यह कथन होता था कि भारतीय कला एवं वास्तुशिल्प पश्चिम की कला और वास्तुशिल्प की उंचाईयों तक कभी भी नहीं पहुंच पाया।

यह कहना कि भारतीय वास्तुशिल्प ’’धार्मिक’’ रहा न केवल प्राचीन भारतीय दर्शन के संबंध में भ्रामक जानकारी को प्रगट करता है वरन् भारत में वास्तुशिल्प संबंधी खोजों के साथ साथ पश्चिम के भी वास्तुशिल्प संबंधी परिदृश्य की अज्ञानता को प्रगट करता है। भारतीय धरोहरों के ये विवरण भ्रामक हैं क्योंकि हरप्पा सभ्यता का शहरी स्वरूप और मौर्यकाल का विश्वव्यापी और धर्मनिरपेक्ष रूप सभी पश्चिमी विद्वानों को जानना चाहिए।

यदि कोई पक्षपाती बनने की कामना करता और पश्चिमी वास्तुशिल्प के अभिलेखों का व्यक्तिपरक समीकरण करता तो वह आसानी से कह उठेगा कि पश्चिम का समस्त वास्तुशिल्प ’’धार्मिक’’ रहा है। वह अपने कथन के समर्थन में ग्रीस और रोमन मंदिरों, मकबरों की मूर्तियों, अनेक भवनों, बैजंटाईन और गाॅथिक चर्चों, पूर्वी मठों और ईसा मसीह के हजारों चित्रों एवं क्रास की ओर इंगित करेगा।

परंतु ऐसा कथन रोमन काल के साथ न्याय नहीं करेगा क्योंकि कृत्रिम जलसेतू, अखाड़े, महल और निजी निवास भी बनाये गए थे परंतु पुनर्जागरण काल के पूर्व के चर्च और उपलब्ध धार्मिक चित्राकारी क्रिस्चियन काल के ऐतिहासिक आलेख पर भारी पड़ती है।

सामान्य तौर पर विश्व भर में धर्मप्रेरित वास्तुशिल्प पृथ्वी के पुरातात्विक आलेख पर भारी पड़ता है क्योंकि धार्मिक स्मारक बहुधा अधिक स्थाई सामग्री से बनाये जाते थे।

भारत का धर्मनिरपेक्ष वास्तुशिल्प

प्राचीन भारत के धर्मनिरपेक्ष वास्तुशिल्प का अधिकांश बच नहीं पाया क्योंकि वह लकड़ी से बनाया गया था। पत्थर भारी और समय साध्य था, वह गरमाता था और खासकर बंद निर्माण के लिए अनुपयोगी था। इसलिए पत्थर का उपयोग उन भवनों को बनाने में किया जाता था जहां खुले में कार्यकलाप आयोजित होते थे। ग्रीक और चीनी यात्रियों की आत्मकथाएं, साहित्य और राज्य दरबारों के इतिहास, प्राचीन मूर्ति अवशेष और गुफा चित्राकारी - सभी इंगित करते हैं कि भारत में धर्मनिरपेक्ष भवनों की कमी नहीं थी, उनमें से अनेक अलंकारों से सज्जित एवं प्राकृतिक रंगों की चित्राकारी से चित्रित थे।

उदाहरण के लिए पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हैं कि आम प्रवेश दरवाजे जिन्हंे तोरण कहा जाता था अनेक राजाओं के द्वारा संपूर्ण भारत में बनवाये गए थे। उनमें से कुछ इस्लामिक आक्रमणों के दौरान नष्ट कर दिए गए और कुछ को नया रूप देकर शासकों के महल में लगवा दिया गया था। इस पर भी, जैसे तैसे कुछ बचे रह गए और वे ही इस बात के प्रमाण हैं कि भारत में इनके निर्माण की उच्चकोटि की दक्षता उपलब्ध थी। इन तोरणों ने ही प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत की बड़ी राजधानियों में प्रवेश करने वालों का स्वागत किया था।

दिल्ली में, 5 वीं और 6 वीं शताब्दी के गुप्तकालीन अवशेष खास प्रभावी हैं बिलकुल गुजरात के वाडनगर के तोरणों के सदृश्य, जिनमें से एक ही बचा हुआ है। उसका निर्माण काल 9 से 10 वीं शताब्दी के करीब है। 12 से 13 वीं सदी के सोलंकियों की राजधानी में चार ऐसे द्वार हैं जिनमें से प्रत्येक पर आकर्षक नक्काशी की गई है। इसी प्रकार चार सुन्दर तोरण 13 वीं सदी के काकथियों की राजधानी वारंगल में आज भी खड़े हैं। 14 वीं शताब्दी में वारंगल का अधिकांश ढहा दिया गया था परंतु भग्नावशेष वास्तुशिल्प के विशाल सम्मुच्चय होने के संकेत देते हैं। उस सम्मुच्चय में प्रार्थनागृह, राजशाही मंडप और संभवतया आम सभागृह का समावेश है।

/बंगाल के सुलतान के समय तोरण की प्रथा जारी रही। शेरशाह सूरी और मुगलों ने आयातकार आकार को अर्ध गोलाकार या स्तूपाकार या महराबों में बदला था परंतु श्रीरंगम, तामिलनाडू में तोरणों के भव्य एवं विशाल स्वरूप आज भी स्थित हैं। /

पत्थर और, कभी कभी ईटें, मोहनजोदड़ों की तर्ज पर सीढ़ीदार कुआं एवं धरातल से नीचे स्नानागार अथवा तैरने के तालाब के निर्माण में उपयोग की जातीं थीं। 9 वीं सदी के बाद तो उनका उपयोग ज्यादा ही होने लगा था। मोदेहरा, गुजरात के समान ऐसे कुयें कभी तो मंदिर के समीप बनवाये जाते और कभी कुछ राजसी महलों के समुच्चय में। पटना की रानी के सीढ़ी कुयें के सदृश्य चिताकर्षक प्रतिमाओं की कतार और अदलज के साथ अलंकृत आले तथा सुन्दर झरोखे सहित अनेक कुयें उपलब्ध हैं। राजस्थान में बंूदी शहर में थोड़े कम परंतु कलात्मक और मनभावन उदाहरण उपलब्ध हैं। चैहानों से संबंधित अनेक रूचिपूर्ण निर्माण अजमेर-दिल्ली के इलाकों में पाये गए हैं।

/अलबरूनी ने इतिहास के अभिलेखों में खासकर सीढ़ीदार कुएं अथवा बावली का वर्णन किया है। बावलियां राजसी एवं जनता, दोनों, के उपयोग के लिए बनवाईं जातीं थीं। उत्तर पश्चिमी भारत में और हरियाणा के फरूखनगर में ऐसे ही कुछ निर्माण जल-व्यवस्थापन योजना के अंग के समान प्रतीत होते हैं।/

प्राचीन भारत के विश्वविद्यालयों के भग्नावशेष पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है यथा तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला या सारनाथ। इन विश्वविद्यालयों में गणित, ज्ञानशास्त्रा, तर्कशास्त्रा, प्रकृति विज्ञान और औषधिज्ञान के साथ विभिन्न विषयों पर अध्यापन उपलब्ध होता था। नालंदा तो ’’कालेज कैम्पस’’ की याद ताजा करता है। नालंदा में निवास के साथ साथ अध्यापन के भवन के अवशेष प्राप्त हैं। इस प्रकार से इन ऐतिहासिक स्थलों को ’’धार्मिक’’ बतलाना, स्पष्ट है, भ्रामक होगा।

यद्यपि बड़े तौर पर, भारत के किलों को इस्लामी योगदान का माननेे की प्रथा सी रही है परंतु राजपूत किलों को इस सामान्य रिवाज से अलग ही देखा जाता है। भारत में पहाड़ों पर शताब्दियों पूर्व से बने हुए किलों को चिन्हित किया जा सकता है जिन्हें इस्लामिक राजाओं ने फतह किया था। /इस प्रकार के किलों के उदाहरण मध्य भारत में कलिंजर तथा अजयगढ़ में अभी भी उपलब्ध हैं, उनमें से अनेक किलों को पहले से ही त्याग दिया गया था।/ बाद के काल में राजपूतों ने किलों में विशाल राज महलों को बनवाना सीखा जिनमें गर्मी से बचाव के तरीके और अधिकतम प्रकाश और वायु की सुनिश्चितता की तकनीक खोजीं गईं। अधिकांश महलों में खूब सजावट की जाती थी। कला एवं सजावट की अंतरदृष्टि का पता इनसे चलता है जिन्हें राजशाही का संरक्षण प्राप्त रहता था।

इसलिए बहुत ही बेतुका है कि पश्चिमी कला मर्मज्ञों ने कैसे भारतीय धरोहरों को धर्म की परिधि में रखने की चेष्टा की थी ? यहां तक कि जब पश्चिमी कला इतिहासकारों ने अपना ध्यान केवल मंदिरों और स्तूपों पर खासकर केंद्रित किया परंतु भयंकर भूल तब की जब अन्य स्मारक और उनके निर्माण की प्रेरणा दोनों को अपने विश्लेषणों से बाहर रखा।

भारतीय कला के दार्शनिक पहलू

पश्चिमी धर्माें जिनमें दार्शनिक विषयवस्तु कम और ’’एक ईश्वर’’ का बाध्यकारी विश्वास अधिक है, के विपरीत, भारत के अनेक प्राचीन धर्म एक मायने में धर्म नहीं थे जैसा कि धर्म को आज माना जाने लगा है। भारत में पहले के बौद्ध अनुयायी विशेषकर निरीश्वरवादी थे, पहले के जैन अज्ञेयवादी थे और हिंदूवाद के बडे़ आसमान तले दार्शनिक विभिन्नताओं के लिए खुला स्थान था। उपनिष्दों में ईश्वर को अमूर्त और आत्मिक बताया है। दार्शनिक वर्णन धर्मनिरपेक्ष है और मंथन एवं मनन से आत्मिक परिकल्पनायें उत्सर्ज होतीं हैं न कि उस रहस्योद्घाटन से जिसे न तो चुनौति दी जा सकती है और न ही उनमें समयानुकूल परिवर्तन संभव है। न्यायसूत्रा में बुद्धिवादी और वैज्ञानिक मतों, व्याख्याओं, प्राकृतिक घटनाओं और प्रकृति में घटने वालीं भौतिक प्रविधियों पर अत्याधिक ध्यान दिया गया है।

दर्शन की इस समृद्ध परंपरा ने - बौद्धिक और आत्मिक, दोनों - भारतीय कला और स्थापत्यशिल्प में समुचित स्थान पाया है। स्तूप और मंदिरों में सभी प्रमुख दार्शनिक विचारधाराओं के दृष्टिगोचर चिन्हों पर आधारित गंभीर सांकेतिक भाषा को समाविष्ट किया। यथाः चक्र - समय का घूमने वाला पहिया, और ब्रह्माण्ड में गतिशील लयों का प्रतीक; पद्म - या कमल विश्व सृजन शक्ति का प्रतीक जो पृथ्वी की छाती से प्रगट होता है; अनंत - सर्प की तरह, जीवन के सबसे महत्वपूर्ण तत्व पानी, शक्ति और असीम समुद्र का प्रतीक जिससे समस्त जीव उत्पन्न हुए, उनका विशिष्टीकरण हुआ, विलीन और पुनः समाहित हुए; स्वास्तिक - सृजन एवं गति के चारों पक्ष का प्रतीक; कलश - या भरा हुआ गुलदान, सृजन एवं समृद्धि का प्रतीक; कल्पलता और कल्पवृक्ष - कामना पूरी करने वाली बेला या वृक्ष जो कल्पना और मौलिकता को प्रगट करे; गवाक्ष - तीसरा नेत्रा; मृग - या हिरण सौंदर्य या कामेच्छा का प्रतीक और लिंगम और योनि - नर और नारी की प्रजनन शक्ति का चिन्ह।

इसी तरह गढ़े गए देवी देवताओं की हस्त मुद्राओं के द्वारा मानवीय भावों को व्यक्त करने के नियम बनाये गए थे। कभी कभी देवी देवताओं के अनेक हाथ बनाये जाते, उर्जा, शक्ति अथवा गति के साथ साथ दिव्य नृत्य को प्रगट करने के लिए। हाथ की विभिन्न मुद्राओं से अनेक भाव एवं गुणों यथा विवेक, शक्ति, उदारता, दयालुता एवं अवधानता को दर्शाने के लिए किया जाता था। बहुबाहु, बहुगुण बोधक माने जाते रहे हैं।

पश्चिमी कला मर्मज्ञ जटिल सांस्कृतिक और दार्शनिक पद्धतियों को जिन्होंने भारत की कलात्मक प्रविधियों को जन्म दिया, अकसर समझ नहीं पाते थे। अनेक विद्वानों के लिए मूर्तियों के चित्राण आदिकाल के आस्थाओं और अंधविश्वासों के मनमाने बेतरतीब प्रतिफलन थे। यह नहीं कहा जा रहा है कि भारतीय आध्यात्मवाद मनमानी बातों और अंधविश्वासों से सदैव मुक्त रहा परंतु मूर्तिशिल्प की सर्वोत्तमता और उसके द्वारा शक्तिशाली दार्शनिक भाव प्रगट करने के लिए चैतन्य एवं सुविज्ञ प्रयास सतत् होते रहे थे।

धर्मनिरपेक्ष और आध्यात्मिक विलय

जिस प्रकार दार्शनिक सिद्धांतों के भौतिक स्वरूपों ने आत्मा को संसार से जोड़ा उसी प्रकार भारत के स्तूप और मंदिर मात्रा धार्मिक भवन या स्मारक नहीं थे वरन् सांस्कृतिक कंेद्र भी थे जो आत्मिक एवं संसारी दोनों महत्व के लिए थे। इसलिए स्तूप या मंदिर की मठ या चर्च से तुलना पूरी तरह से नहीं की जा सकती। और, यह वह कारण है कि उनके निर्माण में लौकिक जीवन के अनेक चित्राणों को समावेश किया गया था।

उदाहरण के लिए 1 ली सदी ई. पू. के अमरावती के, 1 ली सदी के सांची या फिर 2 री या 3 री शताब्दी के नगरजूनाकोण्डा के स्तूप को लें । प्रत्येक स्तूप में नक्काशी की अमूल्य संपदा निहित है और ’’बुद्ध’’ के जीवन के दृश्यों को मुख्य चित्रा वीथियों में उकेरा गया है। तब भी, अमरावती के स्तूप में स्पष्ट विषयासिक्ता, फूल और लताओं के कमनीय और लुभावने रूप को कुशलता से चित्रित किया गया है। सांची के तोरण में घुड़सवार सैनिकों का चित्राण, राजशाही जुलूसों, वाणिज्यिकों के कारवां, झरोखे सहित बहु मंजिले महलों, व्यापारियों के परिवार, उपज सहित किसान, पशु और पौधों के साथ अन्य प्राणियों के दुर्लभ और मनोहर चित्राण हैं।

मठों, चर्चों या मस्जिदों की तुलना में, 8 वीं शताब्दी से ही, भारतीय मंदिरों में संगीतज्ञों, नर्तकों, कलाबाजों और प्रेमी युग्लों की प्रतिमाओं के साथ साथ देवी देवताओं के भी चित्राण हैं। 10 वीं सदी के बाद से काम विषयक मतोें के चित्राण की श्ुारूआत हुई। भूवनेश्वर, कोणार्क और खजुराहो एवं पालमपेठ के काकतिया के मंदिरों में कामुकता और यौन समागम को बिना झिझक प्रस्तुत किया जाने लगा। जबलपुर, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के मंदिरों में भी काम विषयक चित्राण उपलब्ध हैं। अतिनैतिकतावादी विचार के पश्चिमी कला समीक्षकों को ये चित्राण अचंभित करने वाले और विकृतिमय दिखलाई पड़ सकते हैं। परंतु, भारत के इतिहास के उस काल में मानवीय कामभावना और आत्मा की परिपूर्णता के तांत्रिक मतावलंबियों का जीवन की मुख्य धारा में आना और परिष्कृत होना सिद्ध करता है। काम की इच्छायें आत्मा के कल्याण के मार्ग में रोड़े नहीं ’’मानी गईं’’ वरन् दूसरी ओर, उन्हें आत्म निवृति में एक आवश्यक अंग की तरह से स्वीकार किया गया था। दरअसल, एक अल्हदा ही नैतिक दृष्टिकोण क्रियाशील था। धर्म कामवासना की भूख या फिर कामवासना की तृप्ति पर आधारित नहीं था। मानव समाज के उत्थान और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी सभी कार्यों और क्रियाओं की भागीदारी के सहित धर्म दोनों की स्वस्थ और समतावादी स्वीकारोक्ति पर आधारित था।

बहुत मायनों में कोणार्क और खजुराहो के मदिर में अंकित काम संबंधी प्रतिमायें इस प्रकार के सामान्य मतों की ही तार्किक परिणतियां एवं उत्कर्ष थे। बांसुरी और ढोलक वादकों के लयात्मक चित्राण, नर्तकों और कलाबाजों की गतिमय आकृतियां और प्रेमी युगलों के जीवांत और प्रभावशाली विभिन्न अंकन ने भारतीय वास्तुशिल्पीय अंतिम वर्जना को बिखरा दिया। पर्दे के पीछे एकांत के सामान्य मानवीय वैक्तिक एवं सबसे निजी क्रियाओं को जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। अतिआत्मिक शुद्धता के नजरिये से कुछ के लिए यह पराड़मुखी अथवा निम्नस्तरीय चित्राण है और कुछ के लिए उल्लेखनीय प्रगति का संकेत कि समाज कम से कम पाखंडी निर्लज्यता की बेड़ियों से मुक्त हुआ।

उस काल में इसको किस दृष्टि कोण से देखा गया यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि बहुत ही प्रभावशाली तरीके से स्पष्ट किया गया कि भारतीय धर्म और उसकी चिरस्थाई अभिव्यक्तियां संसार त्याग पर आधारित नहीं वरन् मानव की अति आवश्यक अदम्य प्रवृतियों की स्वीकारोक्ति पर आधारित है।

जो भी हो, इस्लामी आक्रमणों ने इस संसारी /खासकर काम संबंधी/ और आत्मिक विलयन को बड़ी चुनौतियां पैदा कर दीं। न पहिचाने जाने तक स्मारकों, शिक्षा कंेद्रों और बिहारों को खास निशाना बनाते हुए ध्वस्त किया गया। हस्तलिखित ग्रंथों को जलाया गया। कुछ स्तूपों और मंदिरों को मस्जिदों और मदरसों में परिवर्तित कर दिया गया। इस तरह गंगा के मैदानों में कुछ भी ऐसा नहीं छोड़ा गया कि जो भविष्य को प्रकाशित कर सके। इस्लामी शासनकाल में ध्वंस के डर ने मंदिरों में शिल्पकारी एवं अलंकरण को बड़े पैमाने पर विमुख किया। यद्यपि बनारस जैसे स्थानों में वनस्पातिक सजावट ने इस विमुखता को थोड़ा सा कम किया और महाराष्ट्र् के मंदिरों में रंगों और वास्तुशिल्पी अलंकरणों के साहसपूर्ण और सफल उपयोग के प्रयास किए गये। उत्तरी और मध्य भारत के अधिकांश में, भारत के मंदिर निर्माण के शास्त्राीय वास्तुशिल्प का रिवाज क्रमशः खत्म हो गया था।

जब यूरोपियन दुनियां ने कला एवं वास्तुशिल्प के संसार में नवजागरण का अनुभव करना शुरू किया, भारत में ठीक उसके विपरीत कार्य चल रहा था। नवजागरण के बाद, शहरी क्षेत्रा से यूरोपियन मूर्तिकला को नये नये प्राश्रय प्राप्त मिले यह वह कारण था जिससे यूरोपियन शिल्पकारों की रचना में परिष्कृतियों का समावेश हुआ था। भारत में, इस प्रकार की प्रगति को इस्लामी काली छाया ने रोक दिया था। यूरोपियन क्रिस्चियनकाल के दौरान भारतीय मूर्तिकला की महान संपदा पैदा हुई और खासकर ऐसे समाज में जहां अभी शहरी और ग्रामीण विभाजन पर्याप्तरूप से तेज नहीं हुआ था। यही वजह है कि भारतीय मूर्तिशिल्प प्रकृति के साथ इतना गुथा हुआ है और वह शहरी या विश्वरूपी कम दिखलाई पड़ता है। इसलिए, पश्चिमी आंकलन में भारतीय मूर्तिशिल्प कम प्रशंसनीय रहा था।

भारत की परंपरागत ललित एवं मूर्तिकला में वैयक्तिक अभिव्यक्तियों का अभाव पश्चिमी समालोचकों को चकरा देता है जो कि भारतीय परंपरा का एक अन्य पहलु है। भारत में व्यक्तिगत अभिव्यंजना के बहुत ही थोड़े से मूर्तिकार हैं। इसलिए शासकों अथवा धनवानों की प्रतिमायें उपलब्ध नहीं हैं। परंतु इसे भारत की कलात्मक विशेषता की तरह से माना जाना चाहिए - अर्थात् खास के बजाय सार्वभौम के लिए प्रयत्न करना, व्यक्ति से समिष्टि की ओर उन्मुख होना। भारत के शासक इतने पागल नहीं थे कि उनकी मृत्यु के बाद, वे खुद की मूर्ति या चित्रा के लिए ही सोचते रहते। इस संबंध में भारत की पसंदगी ग्रीक या मेडीटरेरियन पसंदगी से मेल खाती है जहां अधिकांश प्रतिमायें देव-देवियों के आदर्श स्वरूप होतीं हैं, रोमन बुद्धिमानों के विपरीत जो ज्यादा खोखले थे और केवल अपने ही चित्राण को अधिक महत्व दिया करते थे।

अंत में यह ध्यान देने योग्य है कि भारतीय मूर्तिकला को जानने अथवा उसकी प्रशंसा करने के लिए भारतीय दर्शन का ज्ञान होना सदैव आवश्यक नहीं है क्योंकि भारत की सर्वोत्तम मूर्तिकला अभिव्यंजक दृश्यव्य यथार्थवाद की उंचाईयों से ओतप्रोत है अपेक्षाकृत क्रिस्चियन पूर्व मेडीटरेरियन सभ्यताओं की मूर्तिकला के। यह सोचा जा सकता है कि इस प्रकार से पश्चिम के अपूर्वाग्रही दर्शक को समान आधार पर मूल्यांकन करना आसान होगा। परंतु बहुसंख्यक पश्चिमी कला मर्मज्ञ इन दो परंपराओं के मध्य समानताओं को देखने से परहेज करते हैं। और, जब उन्होंने इस पक्ष पर ध्यान दिया तब उन्होंने एक बहुत ही कमजोर दावा करने की कोशिश की कि भारतीय मूर्तिशिल्प में यथार्थवाद को पश्चिम से ही आयात किया गया होगा। वे इस बात को भूल जाते हैं कि हरप्पा काल से ही भारतीय मूर्तिशिल्प यथार्थवादी रहा है, भारतीय दर्शन के यथार्थवाद ने ही सहजरूप से कलाओं में सौंदर्यशास्त्रा को जन्म दिया और उसी ने मूर्तिशिल्प में यथार्थवादी प्रतिदान का स्थानीय विचार, व्यंजना और सौंदर्य की समाहिति द्वारा परिष्कृत करके अनुमोदन किया।

भारतीय लघुचित्र

भारत में चित्राकारी की परंपरा ऐसे प्राचीन ग्रंथों के साथ बहुत पुरानी है जिनमें रंगों एवं सौंदर्य के सिद्धांतों का विवेचन है। जनजीवन की झलकियां प्रगट करतीं हैं कि घर के सामने के भाग, दरवाजे और ऐसे कमरे जहां अतिथि को ठहराया जाता था की रंगाई करना परिवारजनांे का सामान्य काम था। अजंता, बाघ और सीतनवसल की गुफा चित्राकारी और मंदिरों की चित्राकारी, मानवीय आकृतियों एवं प्रकृति चित्राण से प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम का प्रमाण प्रगट होता है।

परंतु अजंता में, अनेक शताब्दियों बाद भी बारंबार प्रगट होने वाली शैली विशेष का आविर्भाव देखने मिलता हैः प्रकृति से अमूर्ततायें जो सौंदर्य बोध के साथ रमणीय और सजावटी अतिरंजना में प्रभावकारी हों को लेने की प्रवृति।

बाद के काल की सचित्रा पांडुलिपियों में, यही शैली ही थी जो महत्वपूर्ण हुई और भारतीय लघुचित्राकारी की आधारशिला बनी। इस शैली में मानव आकृति तक का शैलीगतरूप से अंकन किया जाता था।

जब भारतीय लघुचित्रा का विश्लेषण किया जाता है, कला समीक्षक बहुधा अपना ध्यान अनुद्श्य /पर्सपेक्टिव/ के अभाव पर कंेद्रित करते हैं, जिसका उपयोग यूरोपियन कलाकारों ने किया था। यूरोपियन पुनर्जागरण काल के बाद से पश्चिमी चित्राकार इसे अपनाये हुए थे। और, इस दृष्टिकोण से यूरोप के बड़े फलकों के मुकाबले जिनमें छविचित्राकारी /कैमरे/ के समान ही बारीकियांे के साथ अनुदृश्य होते थे, कला इतिहासकार भारतीय लघुचित्रा को अनगढ़, अपरिष्कृत और तुक्ष्य मानते थे। इस एक ही लुप्तप्रायः नुक्ते /अनुदृश्य/ पर भारतीय कला समालोचक विचलित हुए और उन्होंने इसे भारतीय चित्राकारिता की कमजोरी समान स्वीकार करना शुरू किया। साथ ही, कुछ कलामर्मज्ञों ने मुगल चित्राकारिता को श्रेष्ठ माना क्योंकि उनको पश्चिमी प्रभाव के कुछेक तत्व मुगल लघुचित्रों में प्राप्त हुए थे।

कला समीक्षक और कला इतिहासकार जो न समझ सके थे वह यह था कि हर कलाकार का सामना इस दुराहे से होता है कि वह सत्य के बहुआयामों में से किन किन पक्षों को दो आयामों के लिए चुने ? जब हम सत्य का अवलोकन करते हैं तो हमारी आंखें एक दृश्य पर एक ही कोण से देखते हुए बमुश्किल ठहर पातीं हंै। हमारी आंखें पास और दूर दोनों पर कंेद्रित होतीं हैं और वे विशाल परिदृश्य के इधर उधर गतिवान रहतीं हैं। कैमरे के द्वारा कुशलतापूर्वक ली गयी छवि कितनी ही परिशुद्ध यथार्थ हो, स्पष्ट है कि वह छवि सत्य के केवल एक ही दृश्य को संपे्रषित करती है। जब भारतीय चित्राकारों ने बहु आयाम को अपनाया, यदि वे यूरोपियन विधि की नकल भी करते तो भी वे उससे अधिक को अभिव्यक्ति दे रहे थे, बहुधा, भारतीय चित्राकार दिवाल, दरवाजा एवं पहाड़ या वृक्ष के पार के सत्य को चित्रित करने में रूचि लेते थे। ये प्रयत्न अनगढ़ अथवा साधारण नहीं थे, ये बड़े ध्येय को प्रतिबिंबित करते थे। उनकी यह बतलाने की कोशिश थी कि सत्य एक ही कंेद्रबिंदू से कहीं ज्यादा अस्तित्व में होता है - कि संपूर्ण सत्य जो अस्तित्व में है एक ही अनुकूल केंद्रबिंदू से अनदेखा हो सकता है और तब, व्यक्त किए जाने के लिए शेष रह जाता है। चूंकि चित्रित पुस्तकांे से भारतीय लघुचित्रों की उत्पत्ति हुई, चित्राकारिता में इस उपयोग को बहुत ही आसानी से समझा जा सकता है।

भारतीय लघुचित्रा की सपाटता की भी आलोचना की जाती है - अर्थात् काया और छायाकरण का इनमें अभाव। परंतु यहां पुनः हमें महसूस करना चाहिए कि उनमें एक भिन्न ही पद्धति काम कर रही थी। उदाहरण के लिए, यथार्थता कभी स्थिर नहीं होती। वृक्ष हवा से झुकते हैं, पक्षी इधर उधर उड़ते हैं, आदमी अपना सिर और अन्य अंग हिलाते हैं इनमें से किसी को भी अनुदृश्य के सुनिश्चित नियमों के माध्यम से चित्रित नहीं किया जा सकता। कभी कभी तो एक चित्रा जो त्रियामिता से रहित है गति के आभास को, वास्तव में, बेहतर ढंग से प्रगट कर सकता है अपेक्षाकृत त्रियामी के। लघुचित्रा सपाट पृष्ठ भूमि पर खीचीं गई घुमावदार रेखाओं के माध्यम से नृत्य की लयात्मकता या गति या वेग और दृश्य के आनंद को ज्यादा उभार सकते हैं। बड़े समुदाय जैसे कि नर्तक समूह, संगीतज्ञों का समुदाय या किसी त्यौहार की भीड़ पर संकेंद्रियता को लाने में चित्राकार को सपाट पृष्ठ भूमि से विशेष सहायता मिलती है।

भारतीय सर्वोत्तम लघुचित्रों में से अनेक रागमाला पर आधारित होते हैं - संगीत की भिन्न भिन्न रागों से मानवीय मनोदशा जुड़ी होती है। यहां जोर खासकर भाव, वातावरण या संवेग प्रगट करनेे पर है। यद्यपि रंगों का भारी उपयोग, अमूर्त स्पर्श, त्रियामी संरचना के धंुधले सपाटीकरण से ऐसी सूक्ष्मताओं को, जो सामान्यतया संभव नहीं, सफलतापूर्वक उद्भाषित या चित्रित किया सकता है। चित्राकारिता कल्पनाओं के प्रगट करने का दृष्टिगोचर माध्यम भी है। पक्षी और फूल, वृक्ष और लताओं का भारतीय चित्राकारों एवं मूर्तिकारों ने समानरूप से चित्राण किया। मेवाड़ या कांगड़ा घाटी के लघुचित्रों में प्रकृति के काव्यात्मक दृश्य आनंद और अद्भुत्तता या अछूते प्रेम की मनोदशा और कामुकता को प्रगट करने के लिए बनाये गए थे।

हाल ही के वर्षों में कुछ भारतीय लघुचित्रों के चमकीले रंगों और प्रभावशाली अलंकरण मात्रा ने पश्चिमी समालोचकों और संग्रहकों दोनों, को जीत लिया है। उन्होंने स्वीकार किया है कि इन चित्रों में भिन्न प्रकार के सौंदर्य नियमों का प्रभाव है। शाहनामा की प्रभावी सजावट, जिसे मुगल साम्राट शाहजहां ने शुरू किया था और जहांगीर के समय में पक्षियों एवं जानवरों के शुरू किये गये चित्राण ने दुनिया भर की प्रशंसा अर्जित की है। परंतु भारतीय लघुचित्रों को केवल मुगलकाल की चित्राकारी तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता।

एक बार भारतीय चित्राकारी विदेशी मान्यदण्डों के आरोप से मुक्त हुई तो ही, भारतीय कलाकारों के उद्देश को बेहतर ढंग से समझा जा सकेगा और एक संपूर्ण नई और आनंदमयी दृष्टिगोचर दुनिया मुखर हो उठती है - गुजरात के, 15 वीं शताब्दी के स्वप्नदृष्टा जैन ग्रंथों के चित्राण से, मालवा के गहरे प्रभावी लघुचित्रा, 16 वीं सदी के मेवाड़ के कृष्णागढ़ शैली के रंगारंग अनोखे और आकर्षक चित्राण और बाद की कांगड़ा शैली की बारीक सुन्दरता तक। उड़ीसा के ताड़ पत्राीय लघुचित्रा की गंभीर प्रगीतिका, बुन्देलखंड के कुलीनों की सुरुचिपूर्ण भित्ती चित्राकारी, लेपाक्षी के गाढ़े और गूढ़ रंग और मदुरई, तंजावूर और रामनाथपुरम के महलों और मंदिरों के जीवांत अंकन। इन सब में भारतीय चित्राकारी की विभिन्न विधाओं में एक महत्वपूर्ण तत्व जिसने भारतीय चित्राकला में आनंद और जीवांतता का समिश्रण किया, वह था लोक मुहावरा। मुगल रूचि के संक्रमण से बचे राज्यों की ललित कलाओं में लोक मुुहावरों ने अपनी छाप का स्थान बनाया।

इस्लामिक राज दरबारों का वास्तुशिल्प

उत्तर के मैदान में 12 वीं से 13 वीं शताब्दी में और दक्षिण के पठारों में 14 वीं सदी में इस्लामी विजयों के पश्चात् भारतीय स्मारकों के वास्तुशिल्प को प्रायः मध्यकालीन भारत के इस्लामी शासकों की रुचि के रूप में ही कलामर्मज्ञ परिभाषित करते रहे थे। कुलीनजनों के मांगों के अनुरूप निर्माण कार्य तेजी से किया गया परंतु जनता की स्वेच्छिक भागीदारी इन स्मारकों के निर्माण में बेहद कम हो गयी थी या कि लगभल समाप्त प्रायः हो गई थी।

सांची में यह ध्यान देना उपयोगी होगा कि तोरणों के निर्माण में स्वेच्छिक कामगारों की संलग्नता और नागरिकों की भागीदारी थी। दक्षिण भारत में मंदिरों के निर्माण एवं देखरेख में स्वेच्छिक भागीदारी और दक्खिन प्रदेश ने भी ऐसा ही जाना और ये भागीदारियां संपूर्ण भारत में सामान्य थीं।

तब भी यह सोचना एक भूल होगी कि भारतीय स्थापित्यकला पर जनता या लोकप्रभाव पूरी तौर पर समाप्त हो चुका था। गंगा के दुआब में ग्रामीण घरों एवं हवेलियों की सजावट में लोकप्रभाव की बड़ी भूमिका रही थीः रंगोली की प्रथा कायम ही रही आयी। प्रादेशिक राजदरबारों में न केवल ललित कलाओं में लोकप्रभाव रहा वरन् राजसी उपस्कारों और वास्तुशिल्प की सज्जा में भी रहा। लोकप्रभाव छोटी मस्जिदों एवं सूफी प्रार्थनागृहों में जगह बना पाया जिनमें फूलों के चिंहों में लोककला के तरीके पर चित्राण किया गया था।

लोकाचार के अधिकतर बदलाव शहरी प्रतीकों मंे परिलक्षित हुए, नगर के प्रवेश द्वारों और कुलीनों की सरायों के स्थापित्यशिल्प में और राजशाही मस्जिदों तथा कब्रों की रूपरेखाओं में। परंतु यह सोचना गलत होगा कि भारत का इस्लामी वास्तुशिल्प पूरी तौर पर विदेशी अनुकरण था जैसा कि भारत और पश्चिम, दोनों के, कुछ कलाइतिहासकार इस प्रकार के अनुकरण के पक्षधर रहे हैं। हम देखते हैं कि इस्लामी शासकों द्वारा निर्मित अतिचिताकर्षक स्मारकों के रूपांकन में भारतीय जायके और प्रभाव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कलामर्मज्ञों में से कुछ इस्लामी काल की भारतीय कला और वास्तुशिल्प को परशियन कला एवं वास्तुशिल्प का स्थानीय प्रतिरूप मानते हैं, महान परशियन इस्लामिक कला का लगभग चचेरा भाई। पश्चिमी पूर्वाग्रहों तथा भारत के उर्दू भाषी बुद्धिजीवियों, दोनों ने मिलकर कला की महानताओं का उद्भव परशिया को मानने का भ्रमजाल फैलाया था। वे भारत के इस्लामी शासकों के द्वारा प्रायोजित ललितकलाओं और स्थापित्यशिल्प का मूल्यांकन परशियन कला मानदण्डों के आधार पर करते थे। भारत के इस्लामी राजाओं ने परशियन कलाकारों को अपनी शिल्पशालाओं की सेवाओं में रखा। परशियन कवि और लेखकों को राजदरबारों में कृपादृष्टि प्राप्त थी। इनको झुठलाया नहीं जा सकता। भारत की सभी इस्लामिक चीजों को परशिया से जोड़े जाने की कुण्ठा ने भारत में इस्लामी धरोहरों के विश्लेषण को एकपक्षीय एवं विकृत बनाया था। वह इस्लामिक धरोहरों का छिछोरा परीक्षण था। न केवल कलाइतिहासकार इस बात को समझने में असमर्थ रहे कि परशिया से और अन्य स्थानों से क्या आया जैसे कि अफगानिस्तान, इराक या मध्य एशिया से। इसने भारत में इस्लामी धरोहर के उन पक्षों की घोर उपेक्षा की जबकि उनके प्रमुख प्रभाव लगभग पूरे तौर पर उपमहाद्वीप के भीतर से ही थे। /कलाइतिहासकार भारतीय प्रभावों की संभावनाओं की खोजबीन में भी असफल रहे कि उनने परशियन जायकों एवं संवेदनशीलताओं पर प्रभाव की संभावना जहांगीर और शाहजहां के शासन के दौरान थी।/

बहुत से कलाइतिहासज्ञ भारत में ’’इस्लामिक’’ कला के विश्लेषण के प्रयास में यह भूल जाते प्रतीत होते हैं कि ललित कलाओं के लिए इस्लामी विश्वास बंजर भूमि में बिना ऐतिहासिक या पारंपरिक अवलंबन के पैदा हुआ था। /यद्यपि कुछ का तर्क है कि अरबी प्रायद्वीप में मृण्मूर्ति की समृद्ध परंपरा थी जो इस्लाम के मूर्तिभंजक उद्दीपन से समाप्त हो चुकी थी।/ किसी भी स्थिति में वास्तुशिल्प के संबंध में, मध्य एशिया में इस्लामी प्रभुत्व के पूर्व कोई भी ईजिप्शियन, परशियन और बेबीलोनियन स्थापत्यशिल्प के संबंध में कह सकता था परंतु मक्का के वास्तुशिल्प के संबंध में नहीं। जैसे जैसे इस्लाम फैला उसे उन जीते हुए प्रदेशों में अस्तित्वमान पुरानी परंपराओं से ग्रहण करना पड़ा। उदाहरण के लिए सीरिया और पैलेस्टाईन के स्मारकों में बैजंटाईन की प्राचीन काल की वास्तुशिल्प में ध्यान देने योग्य समानतायें पाईं जातीं हैं, सभी मुख्य चित्राकला को छोड़कर। यद्यपि वनस्पति चिन्हों का 7 वीं से 8 वीं सदी में सीरिया और पैलिस्टाईन के उम्मेद वास्तुशिल्प में बहुतायत से उपयोग किया जाता था और बाद में इस्लामी वास्तुशिल्प में भी; खासकर मध्य एशिया अमूर्तकारी गढन पर आधारित रहा था। चूकि इस्लाम पूर्व के भारत में वास्तुशिल्प के अलंकरण और पशुओं के चित्राण, प्रकृति ने इतनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की कि इस्लाम के आगमन की शुरूआत में इस्लाम ने मध्य एशिया से सीखे हुए रूपों का अनुसरण किया था। 9 से 10 वीं सदी में समानद के शासन के दौरान बुखारा की मौलिकता और ताजगी जिसे भारत की भूमि में रोपा गया था, मंद, श्रमसाध्य और स्थानच्युत हो गईं। कुछ स्मारकों को छोेड़कर जिनमें पहले के जैन स्थापनाओं के अलंकृत खंबों और चिंहों का उपयोग किया गया था /जैसा कि अजमेर और दिल्ली के कुतुब क्षेत्रा में/ पहले के भारत में इस्लामिक स्थापत्यशिल्प प्रथक तौर पर व्यंगात्मक और अरुचिकर है। उसका अधिकांश साफ तौर पर आडम्बरहीन है और इस उपमहाद्वीप की जीवांत परंपराओं से रूखा और विलग है। 13 वीं सदी के बाद ही अनोखी और अलंकारिक कल्पनाओं ने भारत के कुछ इस्लामी स्मारकों को जीवांत बनाया /जैसा कि चंदेरी में/ परंतु यह प्रभाव टर्की से आया था न कि परशिया से। भारत से बाहर इस्लामी दरबारों में वास्तुशिल्प ने प्रगति जारी रखी और महान तिमूरिद हेरात, समरकंद और बुखारा में 14 वीं और 15 वीं शताब्दी में अत्याधिक जबरजस्त स्मारक बनाकर सर्वोच्च शिखर तक पहुंचे थे। यद्यपि तिमूरिद ने अपने पड़ौसियों पर कहर बरपा और पश्चिम में, पूर्वी यूरोप तक के भूभागों तक चढ़ाईंयां की और लूटमार मचाई। तिमूरिद इस्लामी पुराणपंथता के पक्षधर नहीं थे और समनिद परंपराओं का उपयोग कला और शिक्षा को प्रोत्साहन देने में करते रहे थे। मध्यकालीन दुनियां के केंद्रों में समरकंद और बुखारा शहरी क्षेत्रा के अत्यंत महत्वपूर्ण केंद्रों की तरह उभरे जहां खगोलविज्ञान और गणित को प्रोत्साहन मिला और काव्य तथा कलाओं को साम्राज्यशाही का समर्थन प्राप्त हुआ। परंतु सबके उपर स्मारकीय वास्तुशिल्प के लिए उनकी प्रायोजितता थी जिसमें तिमूरिद शासक श्रेष्ठ थे। अति प्रेरक स्मारक चमकीले हरे, नीले और फिरोजा रंग की पच्चीकारी के थे जो अफगान और एशिया के मरुस्थलों में उठ खड़े हुए। ये स्मारक मध्य पूर्व के सभी धनी शहरों के नमूने बन गए थे। अफगानिस्थान, परशिया और ईराक में चहुंओर स्थानीय चमकीले रूपांतरण उत्पन्न हो आये। जो भी हो, भारत में इस नई एवं प्रभावशाली स्थापत्यशिल्प के प्रवेश के रास्ते में अनेक गंभीर रोड़े थे। संकोचशील विदेशी और गैर इस्लामिक भूमि पर विरल सत्ता के साथ भारत के इस्लामी आक्रमणकारियों के लिए स्मारकों का निर्माण करना संभवतया कठिन था, पहले से ही बने प्रभावशील, आकर्षक और गौरवपूर्ण स्मारकों की तुलना में। यह स्थिति कुछ समय तक तब भी थी जब इस्लाम पूरी तौर पर विजयी हो चुका था और पर्याप्त तौर स्थाई हो चुका था। लोधी और पूर्व के मुगल भारत में मध्य एशिया के साधारण और सीमित नमूने ही ला पाये थे।

मुलतान में, उक्क शरीफ और डेरा गजनी खान में /सभी पश्चिमी पंजाब में/ जहां की जनता का अधिकांश इस्लाम में परिवर्तित कर दिया गया था, सूफी मौलवियों के लिए बनीं मजारों में स्पष्ट प्रभावी मौलिकता थी। यद्यपि उन्होंने मध्य एशिया के प्रभावों को ग्रहण कर लिया था परंतु पंजाब के बाद यह प्रभाव बहुत सीमित हुआ और उपमहाद्वीप के कुछ महान इस्लामी स्मारक थोड़ा सा ही विदेशी प्रभाव प्रगट करते थे।

बंगाल और गुजरात के सुलतान शारकी राजा और शेरशाह सूरी सभी ने स्मारक बनवाये जो वास्तव में, शायद ही इस उपमहाद्वीप के बाहर देखे गए हों। 14 वीं शताब्दी में, बंगाल की राजधानियों में से एक पांडुआ की एक जामा मस्जिद में उकेरे गए उभार 13 वीं सदी के वारंगल के काकतियों के स्मारकों में उकेरे हुए उभारों से मेल खाते थे। पांडुआ अथवा गौर प्रदेश की दूसरी मस्जिदें हिंदू या बौद्ध मंदिर की सामग्री को कुशलतापूर्वक फिर से उपयोग में लाते हुए बनवाईं गई थीं जिनमें इस्लामी प्रभाव के साथ बंगाली लयात्मकता का समावेश है। बुखारा के स्मारकों के समान इनमें से कुछ मस्जिदें एवं महराबें रंगीन टाईलों से सजाईं गईं थीं। परंतु निर्माण तकनीक एवं रंग बिलकुल मौलिक थे। अनेक टाईलें बहुरंगी और भारतीय परंपरागत शुभ और महत्वपूर्ण चिन्हों के सहित होतीं थीं।

अहमदाबाद और चम्पानेर में, सांकेतिक आकृतियां जो शताब्दियों से जैन एवं हिंदू स्मारकों में उपयोग की जातीं रहंीं, बहुलता से सजावटी मस्जिदों या कब्रों के बाहरी या भीतरी दोनों भागों में जड़ी जातीं रहीं और आकर्षण का केंद्रबिंदू बनीं रहीं। चक्र, पद्म, पूर्ण कलश, कल्पवृक्ष, कल्पलता और जैन ’’ज्ञान दीप’’ गुजरात सल्तनत के स्मारकों के मुख्य और अनिवार्य अंग बने।

यद्यपि, सभी इस्लामी वास्तुशिल्प की मान्य विशेषता ज्यामितिक सजावट है, भारतीय ’’जाली’’ ने मौलिक रचनायें बनाईं भारतीय परंपरा के शुभ चिंहों के साथ ज्यामितिक और अरबक्सों के मेल से। शेरशाह सूरी द्वारा बनवाये गए चुनार एवं जौनपुर के शरीक स्मारकों में फीते के समान ’’जाली’’ अद्वितीय है।

दक्षिण में वास्तुशिल्पी आकृतियां कभी कभी प्रकृति से प्रेरणा प्राप्त करतीं थीं। हैदराबाद के स्मारक अपनी अन्नास समान गुम्मद और मीनारों के लिए प्रसिद्ध है और खंबे ताड़ वृक्ष के आकार के हैं। बहुत मायने में ये स्मारक मुगल स्मारकों की तुलना में ज्यादा ही रुचिकर हैं। जबकि मुगलों के सर्वोत्तम स्मारक अपने आकार की सामंजस्यता के लिए अद्वितीय हैं तकनीकी कला मर्मज्ञता और प्रचुर मात्रा में संगमरमर, मंहगे पत्थर और कांसे के उपयोग के लिए। कला समीक्षक मुगल वास्तुशिल्प को अधिक दिखाउ और ज्यादा ही वास्तुशिल्पी विष्टोक्तिक बतलाते हैं।

कुछ मायने में, पंजाब के मुगल स्मारक श्रेष्ठ हैं। जांलधर के पास नकोडर में बहुरंगे, चमकीले और अलंकृत दो मकबरे हैं, वे न केवल अपनी टाईल कला के लिए जाने जाते हैं वरन् इसके विपरीत वे एक विद्वान और एक संगीतज्ञ के लिए बनवाए गए थे, न कि किसी शाही व्यक्ति के लिए। एक जो बगदादी के नाम से जाना जाता है क्योंकि उसकी शैली बगदाद में प्रचलित है। एक पीले, नीले और हरे टाइल के ज्योमितिक अरबक्सों से ईट के आधार पर बनाया गया है और जबकि दूसरे में पूर्णकलश का खूब उपयोग किया गया है। पूर्ण कलश एक खास खूबी के साथ रंगीन टाइलों के इंद्रधनुष के मध्य में है। गैरजानमकारों को यह परशियन उत्पत्ति प्रतीत होगा क्योंकि फूलों की आकृतियों का उपयोग परशियन वास्तुशिल्प में भी किया जाता है। परंतु, पूर्ण कलश का उपयोग अकबर के काल में प्रारंभ हुआ था /परशियन कब्रों में फूल के उपयोग के पूर्व/ और नकोदर कब्र संभवतया मुगल नमूने की स्वाभाविक उत्पत्ति थी जिसे अकबर ने प्रचलित किया था। बाद के काल की लाहौर में बनीं कब्रें इस नमूने की प्रतिकृति जैसी लगतीं हैं।

जो भी हो मुगल स्थापत्यकला ने औरंगजेब के शासनकाल में एक निश्चित पुराणपंथी तरीका अपनाया था। कुतुब शहीस जिसने 17 वीं सदी में हैदराबाद को महान और प्रसिद्ध शहर में बदल दिया था और अवध नबाव ने 13 वीं से 19 वीं शताब्दी में लखनउ को प्रसिद्ध किया के सिवाय भारत में इस्लामी अध्याय क्रमशः गुमनामी में विलीन हो गया।

यह परशियन की धारा के विपरीत था कि जहां शफाविद, 16 वीं सदी के और 17 वीं से 18 वीं शताब्दी जब शफाविद की राजधानी इस्कान को बनाने में संलग्न रहे थे भारतीय उपमहाद्वीप औरंगजेब के शासन में सामाजिक उथल पुथल और राजनैतिक षड़यंत्रों से पटा पड़ा था। शफाविद ईरान में शांति और समृद्धि से ओतप्रोत थे और भारत के परशियन या उर्दूभाषी विद्वान एवं सांस्कृतिक कुलीनजन परशिया की ओर सांस्कृतिक पुष्टिकरण और प्रेरणा प्राप्त करने के लिए उन्मुख थे।

अलंकृत कला और हस्तकौशल

परंतु सजावट की कलाओं एवं हस्तकौशल की दुनियां में भारत की धरोहरों को कुछ मुकाबले करने पड़े थे। मुगल सजावटी कला के महान संरक्षक थे और यद्यपि यह प्रगट होता है कि उन्होंने परशिया एवं चीन से आयात का पक्ष लिया था, भारतीय निर्माताओं ने आयातित नमूनों एवं तकनीकांे को शीघ्रता से परिपूर्ण और परिमार्जित किया। भारतीय वस्त्रा उद्योग हमेशा अपने गहरे रंगों एवं विभिन्न आकृतियों के लिए प्रसिद्ध रहा था और भारतीय इस्पाती उत्पाद दुनियां भर से आदर प्राप्त करते रहे थे। शीघ्रता से भारत ललितकलाओं एवं हस्तकौशल के प्रमुख केंद्र की तरह उभरा, राजशाही की जरूरतों को पूरा करने वालीं वस्तुओं के विभिन्न प्रकार के निर्माण में उच्चकोटि को प्राप्त करते हुए। ये वस्तुएं थीं राजाशाही गलीचे, नक्काशी पूर्ण धातु के बर्तन, सुंदर आभूषण, कांच और संगयशब के भांड। यद्यपि शुरू में इनमें से कुछ हस्तशिल्पियों की प्रेरणा चीन, मध्य एशिया या 16 से 17 वीं सदी में परशिया से प्राप्त हुई हो, चीन और परशिया के शासक भारत के कीमती सामानों के लालची थे और मुगल निर्माताओं की नकल अपनी शिल्पशालाओं में करवाया करते थे।

परंतु कलाओं और हस्तकौशल की उन्नति में मुगल अकेले नहीं थे। राजपूत दरबार मुगलों के मुकाबले अधिक उन्नत थे और अपनी साजसज्जा के सामान, आभूषण, और अन्य सजावटी सामग्री के लिए पारंपरिक और लोक कारीगरों को सेवा में रखते थे। उन्होंने गाढ़े और गहरे रंगों में अपनी रुचि प्रगट की जबकि मुगल, जैसे शाहजहां, ने पूर्ववर्ती लालित्य के प्रति ज्यादा पसंदगी दर्शायी। जब मुगल साम्राज्य बिखर गया तब राजपूत थे जो स्थानीय सिख राज्यों, पर्वतीय राज्यों, बुंदेली राज्यों और बनारस के लिए उदाहरण बने और साथ ही साथ बंगाल और अवध के नबावों के लिए भी। दक्षिण के दरबारों ने भी सजावटी कलाओं और हस्तकृतियों के लिए प्रोत्साहित करने में अहम भूमिका अदा की और उन कृतियों ने कटक और लखनउ के दरबारों पर अमिट छाप छोड़ी। /अधिक जानकारी भारतीय हस्तकलाओं पर दूसरे लेख में उपलब्ध है।/

प्रादेशिक राज्यों की ललितकलायें और स्थापत्यशिल्प

जबकि मुगल स्थापत्यशिल्प तेजी से पतनोमुखी था और औरंगजेब के उपर से उत्तर के राज्यों में एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण जैसा दक्ख्नि और दक्षिण के मराठा राज्यों में घटित हुआ। परंतु इस्लामी राज्य के दौरान भी, राजपूत, बुंदेलखंड, त्रिपुरा, मनीपुर और आसाम के शासक और विजयनगर तथा मलाबार राजाओं ने अपनी स्वतंत्राता बचा रखी थी। भारत के इन प्रदेशों में वास्तुशिल्पी शैलियां, जो आंशिक तौर पर इस्लामी दरबारों के संपर्क से प्रभावित और उत्पन्न हुईं परंतु भारत की पुरानी परंपराओं के साथ निरंतरता एवं स्वाधीनता बड़े पैमाने पर कायम रख पाईं। त्रिपुरा, मनीपुर, आसाम और हिमांचल प्रदेश में मंदिरों और महलों का वास्तुशिल्प देशी परंपराओं से बहुत प्रभावित रहा।

15 वीं सदी में निर्मित ग्वालियर का मानमंदिर महल, पुराने काल की याद ताजी कराता है। उसके झरोखों में से एक झरोखा तो बहुत ही निकटता से अजंता के भित्तीचित्रों के महल से समानता प्रगट करता है। उसमें अजंता की गुफाओं की कुछ वास्तुशिल्पी समानतायें भी हैं। आंतरिक आकृतियों में, भारतीय मंदिर या स्तूप के त्रियामी स्थापत्यकला चिंहों की जगह सजावट के द्वियामी मौलिक रूपांतरण उपलब्ध हैं। दैदीप्तमान बाहरी झरोखा बहुकांसे की टाइल्स में है, सजावटी आकृतियों से और ताड़ वृक्षों से इतने लुभावने कि आंखें ठहर जायें। कुल मिलाकर वह भारत का वास्तुशिल्पी रत्न है और कुछ थोड़े से उसके समान नमूने और भी हैं। भोपाल के पास लगभग नष्ट हो चुका रायसेन किला कुछ वैसी ही झलक दिखलाता है, जैसा कि बहुत बाद के मदुरई में नायक महल दिखलाता है। विजयनगर में, दक्षिण के राजकुलों से प्राप्त नमूनों के साथ विलयन की विभिन्नदर्शनग्राहिता थी। एक खास प्रगति श्रीसाइलम के मंदिर, मध्य आंध्र मे, 14 वीं से 15 वीं सदी की थी जिसकी सभी लुभावनी नक्काशियां लोकयुक्तियों में से थीं। उकेरी गईं मूर्ति वीथियों के विभिन्न विषय लोकप्रिय महाकाव्यों में से लिए गए हैं; खासकर योगियों, कलाबाजों, लोक नर्तकों, संगीतज्ञों और अपनी दासियों सहित रानियों के प्रीतिकर चित्राण के।

राजपूत किलों का विशेष लक्षण उनके भड़कीले रंग, कांच का काम, मुक्ता सीप और गिलट की सजावट का किलेरूपी महलों में उपयोग किया गया था। यद्यपि वास्तुशिल्प के नियमों में कोई उल्लेखनीयता नहीं है परंतु झरोखे, आंगन और बहुत ही सजे प्रवेश द्वार इन्हें अद्वितीय बनाते हैं और मनमोहक भी। बीकानेर में सोने के पानी का काम बहुत विशेष है और संभवतया अमृतसर के स्वर्ण मंदिर एवं पटियाला के शीश महल के निर्माण में इसने असर डाला था।

वास्तव में, सभी राजपूत महलों की चित्राशालायें यानि चित्रावीथियां झालवाड़, बूंदी, नागौर, करौली, जयपुर और किसनगढ़ में उल्लेखनीय रहीं हैं। चित्रावीथियां बुंदेलखंडी दतिया के महलों, ओरछा और झांसी में हैं। हिमांचल के महलों में भी उच्च चित्राशालायें यथा सुलतानपुर महल, कुल्लू में और रंग महल चांम्बा में हैं। दक्षिण में रामनाथपुरम महल ध्यान देने योग्य है उसके भित्तीचित्रों सहित। और, आसाम माजुली भित्तीचित्रों के लिए प्रसिद्ध है।

भारतीय परंपरा में लोक कला की भूमिका

जैसा कि पहले कहा गया है कि उपनिवेशन के पूर्व, भारतीय कला और स्थापत्यशिल्प का सबसे अच्छा पक्ष लोक कथाओं और लोक कलाओं का भारी दबाव राजदरबारी कला पर रहा था। यद्यपि लोक कला को बहुत थोड़ा सा ही प्रोत्साहन उपनिवेशन काल में मिला था, स्वतंत्राता ने लोक चित्राकारिता की रुचि को फिर से नया रूप दे दिया। ऐतिहासिक रूप से, लोक कलाकारी ने न केवल ग्रामीण एवं शहरी समुदायों के लिए महत्वपूर्ण मनोरंजक सेवायें दीं वरन् अपनी लोक कथाओं, महाकाव्यों, और जनगीत गाथाओं, प्रेम कहानियों के विवरणों के द्वारा सांस्कृतिक परंपराओं के संरक्षण में भी महत्वपूर्ण सहायता की। नाट्य लेखकों और कवियों के साथ वे जनोन्यमुखी सामाजिक मूल्यों एवं नैतिक और धार्मिक तथा दार्शनिक मतों के प्रसार में कारक बने।

पहले जनता से करीबी संबंधों के कारण चित्राकारिता उच्च और आकर्षक सरलता से उत्प्रेरित रहती थी जो औपचारिक कृपा या तकनीकी शान की कमी के लिए मोहताज नहीं होती थी।