"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

भारत में हस्तकौशल और व्यापार के ऐतिहासिक स्वरूप

भारतीय उपमहाद्वीप के मुगल शासकों की राजदरबारी संस्कृति बहुत प्रसिद्ध है। भारत में विश्वैशिक दृष्टिकोण नया नहीं है। अनेक स्त्रोत् उसके उन्नत अंतरराष्ट्र्ीय व्यापार पद्धति की ओर इशारा करते हैं जो दक्षिण भारतीय बंदरगाहों को प्राचीन रोम के बंदरगाहों से जोड़ती थी। ग्रीक पैरीपस के इतिहासकार बतलाते हैं कि भारतीय निर्यात् में मसालों की किस्में और मुरब्बे, इत्रा, उच्च कोटि की मलमल और सूती वस्त्रा, चांदी और अच्छा लोहा शामिल होते थे। उन दिनों इन वस्तुओं को विलासता की वस्तुयें माना जाता था और वहां इनकी भारी मांग हुआ करती थी। भारत और रोम के व्यापार का एक भाग पारस्परिक वस्तु विनिमय का भी हुआ करता था। बदले में रोम विदेशी वस्तुयें जैसे तराशे हुए रत्न, मंूगा, शराब, इत्रा, पपीरस, तांबा, टिन और सीसे के पिंड आदि की आपूर्ति करता था। व्यापार संतुलन यथेष्ट रूप से भारत के पक्ष में हुआ करता था। व्यापारिक भुगतान सोने या चांदी के सिक्कों अथवा भारत की प्राचीन मुद्रा - बहुमूल्य लाल मूंगे से होता था। भारत हांथी दांत की कारीगरी और मलमल के लिए प्रसिद्ध था जिसे रोम के साहित्य में ’’बुनी हुई हवा’’ कहा जाता था। ये वस्तुएं काफी मंहगी होना चाहिए क्योंकि रोमन लेखक पिल्नी, 23 - 79 ईस्वी ने भारत से आयातित इन और अन्य वस्तुओं के दामों की शिकायत की थी। पिल्नी ने लिखाः ’’ऐसा एक भी वर्ष नहीं जाता जब भारत 50 मीलियन सेस्टरसीज् रोम से न ले जाता हो।’’ निर्यात् व्यापार के लाभ ने शहरी केंद्र समृद्ध हुए और वे आंतरिक व्यापार के फैलाव से जुड़े हुए थे। उस काल के अभिलेख भारत में प्रचुरता और वैभव की तसवीर प्रस्तुत करते हैं। 2 री सदी का शिलापथिकारम दक्षिण के महानगरों की प्रचुर सपंदा की एक झलक दिखलाता है। कावेरीपट्टनम बंदरगाह का समृद्ध शहर पुहर की एक कथा में एक जहाज मालिक की रहीसियत का वर्णन है जिसे ’’विदेशी राजाओं की ईर्षा’’ कहा जाता था। पुहर को उद्यमशील वाणिज्यिकों और व्यापारियों के शहर की तरह से चित्रित किया जहां का व्यापार व्यवस्थित और नियमित हुआ करता थाः ’’पुहर शहर में वाणिज्यिक गांठें रखने के लिए प्रचुर स्थान मालिक के नाम, गांठ का वजन एवं संख्या के अंकन की सुविधा के साथ थे। प्राचीन भारत में, शिलापथिकारम के बाजार में विभिन्न प्रकार की कीमती वस्तुयें उपलब्ध रहतीं थीं। शहर में मंूगा, चंदन की लकड़ी के सामान, निर्दोष मोती, आभूषण, शुद्ध सोना और कीमती रत्नों आदि के लिए अलग अलग गलियां निर्धारित थीं। कुशल कारीगर महीन रेशम, बुने हुए वस्त्रा विलासमयी हांथी दांत की नक्काशीपूर्ण वस्तुयें लेकर वहां पहंुचते थे। दक्षिण भारत के दफन किए गए प्राचीन काल के गहने इस बात की पुष्टि करते हैं। उत्तरी भारत में भी उन्नत होते हुए व्यापार के शहरी केंद्र थे। तक्षशिला के प्राचीन विवरणों से यह बात सिद्ध होती है। ब्लादिमीर जवाॅफ् ने ’’ज्वेलरी, 7000 ईयरस्’’ में लिखा हैः ’’स्थल से आकर्षक और अच्छे तरह के स्वर्ण आभूषण मिले खासकर हार, कान के झुमके और अंगूठियां। ये सब जड़ाव और कणिकायन की दक्षता सिद्ध करते हैं।’’ जबकि उस काल के अधिकांश आभूषण बचे नहीं रह सके। अनेक जगहों से प्राप्त मूर्तियों पर विभिन्न और भारी आभूषणों की सज्जा अंकित है। यात्रियों द्वारा वर्णित मौर्यकाल में पाटिलीपुत्रा /पटना/ भव्यतम शहरों में से एक था।

वस्त्रोद्योग

भारतीय वस्त्रोद्योग के निर्यात् की प्राचीनता ग्रीक भूगोलविज्ञानी स्ट्र्ावो, 63 ई.पू. से 20 ई. और पहली सदी के पैरीपस ग्रीक ग्रंथ से प्रमाणित की जाती है जो वस्त्रों के अनेक किस्मों को निर्यात् करने वाले गुजरात के बरयागजा /भढ़ौच/ का वर्णन करता है। कम से कम दो शताब्दी ईसा पूर्व से इस उपमहाद्वीप में रंग बंधकों की जटिल तकनीक की जानकारी मोहन- जुदाड़ों के पुरावशेषों के साक्ष्य से प्रमाणित होती है। 3000 वर्ष ई. पू. से भारत में ठप्पों की छपाई का उपयोग किया जाता था और कुछ इतिहासकारों का मत है कि भारत वस्त्रों की छपाई का मूलरूप से जन्म स्थान ही था। ’’हिस्ट्र्ी आॅफ प्रिंटेड टेक्सटाइल्स’’ में स्टाॅट राबिंसन ने लिखा हैः ’’चीन को छपे हुए वस्त्रा के निर्यात् का पता ई. पू. 4 थी सदी से चलने लगता है जहां उन्हें बहुत पसंद किया जाता और पहिना जाता था और बाद में वहां उन वस्त्रों की नकल भी शुरू हुई थी।’’ 13 वीं सदी के चीनी यात्राी चाउ जुकाॅ गुजरात को हर रंग के सूती वस्त्रा का स्त्रोत् मानता है और कहता है कि हर वर्ष अरब देशों को जहाज से सूती वस्त्रा भेजा जाता था। 14 वीं सदी में भढ़ौच में हुईं खोजों और ईजिप्त तथा सीरिया के गुम्लुक राज्य से संबंधित सोने चांदी के सिक्कों से पता चलता है कि रोमनकाल से लाभदायी व्यापारिक व्यवस्था थी और भारतीय वस्त्रा एवं अन्य चीजों का व्यापार कीमती धातु के लिए किया जाता था।’’ - जाॅन रो ’’आर्ट आॅफ इंडिया, 1500-1900’’। 13 वीं शताब्दी में भी मार्को पोलो ने लिखा कि भारतीय वस्त्रों का चीन और दक्षिण पूर्व एशिया को मछलीपट्टनम, आंध्र एवं कोरोमंडल से उस समय के ’’सबसे बड़े जहाजों’’ से निर्यात् किया जाता था। यह अनुमान लगाया गया कि इस व्यवसाय की उन्नति के साथ साथ भारतीय संस्कृति का विस्तार भी दक्षिण पूर्व एशिया में हुआ था। ’’आर्टस् आॅफ इंडिया, 1500-1900’’ में जाॅन गे ने ध्यान दिलाया है कि ’’मध्य जावा की एवं अन्य भारतीय देवीदेवताओं की मूर्तियों पर वस्त्रा प्रतिकृति से संभवतया, पहली शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रतिष्ठित वस्त्रों के चलन का पता चलता था। चीनी यात्राी चाउ ताकुआन ने अंकोर की राजधानी में, 13 वीं शताब्दी में लिखा थाः ’’भारतीय बुनाई की कुशलता एवं कमनीयता को वरीयता दी जाती थी।’’ राबिन मैक्सवैल ने ’’टेक्सटाइल्स् आॅफ साउथ ईस्ट एशिया’’ में बताया कि जटिल रूप से अलंकृत भारतीय वस्त्रा सबसे कीमती होते थे और वह आगे लिखता हैः ’’दो या तीन सौ वर्ष पुराने शानदार भारतीय कपड़ों को दक्षिण पूर्व एशिया में 20 वीं सदी में भी सम्हाला सहेजा जाता और खास अवसरों पर ही उनको निकाला जाता है।’’ अहमदाबाद के पाटण के पटोला जैसे बहुमूल्य रेशमी वस्त्रा और गुजरात एवं कोरोमंडल के चमकीले पक्के रंगों के सजावटी सूती वस्त्रा फिलीपींस के धनाढ्य व्यापारियों एवं मलेशिया के रहीसों की पहली पसंद हुआ करते थे। गुजरात का बंदरगाह शहर सूरत, दक्षिण पूर्व एशिया के लिए निर्यात् करने वाला एक बड़ा शहर बना और डच ईस्ट इंडिया कंपनी के जहाज बराबर वहां लंगर डाले रहते थे। ’’इंडोएशियन भद्र वर्ग को पटोला पहिनने का अधिकारिक आदेश था जिसे पटोला वितरित करने वाली डच ईस्ट इंडिया कंपनी ने स्थानीय शासकों को पहिनने के लिए उत्साहित किया था। ऐसा करके वे पोर्तगीज व्यापार के लिए छूटें और सहयोग प्राप्त कर लेते थे।’’ - जाॅन रो आर्ट आॅफ इंडिया। भारत के साथ पोर्तगीज व्यापार महत्वपूर्ण था। कशीदाकारी की चादरें और दिवालों पर टांगने की सजावटी कृतियां कलकत्ता के पास बंगाल की राजधानी, सतगांव में बनाईं जातीं थीं। सूत या जूट पर भारतीय या यूरोपियन आकृतियों सहित रेशम की कढ़ाईदार रजाईंयों की आढ़त पोर्तगीज करते थे और वे ईसवी की शुरूआत से ही बंगाल की ओर आकर्षित रहे तथा वहां की गुणवत्ता के प्रशंसक रहे। 1580 के दशक में गोआ के महाधर्माध्यक्ष के मंत्राी जे. एच. वाॅन लिंसकोटिन ने पाया कि काम्बे भी कढ़ाईदार रजाईंयां बनाता था। गोलकुण्डा और दूर दक्षिणी इलाके के वस्त्रा यूरोप और दक्षिण पूर्वी एशिया में प्रसिद्ध थे। 1600 ई. के दशक में डच और अंग्रेजों की बस्तियां गोलकुण्डा में स्थापित थीं। गोलकुण्डा के भीतरी भागों में निर्मित ’’कलमकारी’’- सुंदर ढ़ंग से चित्रित सूती कपड़े - की खरीदी और आढ़त मछलीपट्टनम बंदरगाह शहर में होती थी। मूल स्थान पर खरीदी करने से डच और इंग्लिश व्यापारियों को यह कपड़ा 30 प्रतिशत कम कीमत पर मिल जाता था। ’’पालमपोरस’’ और ’’जीवन वृक्ष’’ पर चित्रित कपड़ा मुगल और दक्षिण के दरबारों में बहुत आदर पाता था। सूती कपड़े पर बहुरंगी भारतीय चित्राण - छींट - के आकर्षण ने यूरोप में 1600 ई. में लंदन ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना को डच और फ्रंेच प्रतिपक्षियों के साथ साथ उत्प्रेरित किया था। 1600 ई. के अंत तक चिटगांव, बंगाल या पटना या सूरत से इन छीटों की बहुत ही ज्यादा मांग होने लगी। परिणामस्वरूप रेशम और उन के फ्रांसीसी और अंग्रेज व्यापारियों ने अपनी अपनी सरकारों पर भारत से आयात होने वाले सूती वस्त्रों पर रोक लगाने के लिए दबाव डाला। फ्रांस में 1686 ई. में और इंग्लेंड में 1701 ई. में रोक लगा दी गई। भारत के सभी वस्त्रा उत्पादक केंद्र बंदरगाहों से नहीं जुड़े थे। विश्व व्यापार के अनेक केंद्र मध्य एवं उत्तर भारत में मुगल और राजपूत साम्राज्यों में स्थित थे और वे देश की आंतरिक मांगों की आपूर्ति भी करते थे। हर कंेद्र की अपनी अनौखी विशेषता हुआ करती थी। कश्मीर उनी बुनाई और कशीदाकारी के लिए और बनारस, उज्जैन, इंदौर और औरंगाबाद के पास का पैठन रेशम एवं जरी के काम के लिए ख्याति प्राप्त थे। राजस्थान ने सभी प्रकार की वस्त्रा छपाई और रंगाई के लिए विशेषता हासिल कर ली थी। अहमदाबाद के कैलिको म्युजियम एवं दिल्ली के क्राफ्टस् म्युजियम में वस्त्रा उद्योग का सुंदर संग्रह देखने योग्य है।

गलीचे

बुद्ध कालीन गं्रथों के अनुसार भारत में उनी दरियां 500 ई. पू. से जानी जातीं रहीं हैं। प्राचीन एवं मध्यकालीन साहित्य में बुनी हुईं चिटाईयों एवं फर्श पर बिछायतों के अनेक संदर्भ हैं। 16 वीं सदी तक दरी बुनाई केंद्र इस उपमहाद्वीप के सभी बड़े बड़े राज्यों में स्थापित हो चुके थे। जो भी हो, तब तो यह मुगलकाल का ही उत्पादन था जो विश्व बाजार को आकर्षित कर रहा था। इन्हें परशियन गलीचों की नकल मानने वालों को इतिहासकारों द्वारा नकारा जा चुका है। अब मुगलकाल के गलीचों को सब समय के प्राचीन गलीचों में सबसे ज्यादा तकनीकी तौर की श्रेणी में धीरे धीरे रखा जाने लगा है।

न्युयार्क के मैट्र्ोपालिटन म्युजियम आॅफ आर्ट के संग्रहाध्यक्ष, डेनियल वाॅकर ने मुगलकाल के गलीचों को ’’ अब तक की कला के सर्वोत्तम नमूने’’ माना है। उसने यह भी बताया था कि अकबर साम्राज्य के बड़े पैमाने के उत्पादन ने ’’गलीचों की बुनाई की एक शैली प्रस्तुत की और परिणामतः ऐसे गलीचे उत्पन्न हुए कि जिनकी रत्न समान सुंदरता बेजोड़ है।’’ - संदर्भ फ्लावर्स अंडरफूट, इंडियन कारपेटस् आॅफ दी मुगल इरा।

सजावटी कारीगरी

भारत के विभिन्न राजवंशियों खासकर मुगल, राजपूत और दक्षिण के नबावों के प्राश्रय में सजावटी कलाओं एवं कारीगरी ने अपूर्व उंचाईंयां पाईं। ये परंपरायें न केवल जारी रहीं वरन् उन्हें बंगाल, मैसूर, मध्य भारत, पंजाब, अवध और कश्मीर के नबावों के द्वारा विस्तार दिया गया। यूरोपियन व्यापारियों ने भारतीय कारीगरी की उच्च गुणवत्ता को पहिचाना और उन्होंने अपने खुद के ’’कारखाने’’ अर्थात् फेक्ट्र्रियां स्थापित कीं जिनने मुगल और दक्खिनी संस्थानों से प्रतिद्वंदिता भी की थी। पोर्तगीज प्राश्रय का बड़ा उत्पादन लकड़ी का साज सामान था जो आम तौर पर अन्य लकड़ी और हांथी दांत के टुकड़ों की नक्काशी से सजाये जाते थे। यूरोप के बाजारों की मांग को देखते हुए सामान्य आकार प्रकार को तो कायम रखा गया परंतु खासकर मुगल नमूनों से प्रेरित होकर भारतीय साज समान पर कीमती जड़ाउ और नक्काशी का काम और अधिक संवारा गया। गोआ आधारित इस कारोबार को प्रधान तौर पर सिंध, गुजरात और दक्खिन के अनेक कंेद्रों ने संवारा था। छोटे छोटे संदूकों समेत अन्य सामानों पर अलंकरण में सीपियों का प्रायः उपयोग किया जाता था। गुजरात एवं काम्बे और बाद में सूरत में भी इन वस्तुओं को बनाया गया। 16 वीं सदी के पूर्वार्ध में बाबरनामे में सीपियों से खचित गुजराती सामानों का उल्लेख मिलता है। 17 वीं सदी की शुरूआत में अहमदाबाद और काम्बे में काली लाख में सीपियों की नक्काशी की सजावट से बने कब्रों के ढक्कनों का उपयोग शुरू हुआ और जहां से इन सामानों को तुर्की के बाजारों में भी भेजा जाता था। यह बात इस्ताम्बूल के तोपकापी स राये म्युजियम मेें रखे नमूनों से प्रगट होती है। कुट्टी - पैपसे माश्य - की कारीगरी को मुगल और राजपूतों ने बढ़े पैमाने पर बढ़ावा दिया था। इस कारीगरी को 17 वीं सदी के यूरोपियन व्यापारियों में ख्याति प्राप्त हुई उन्होंने यूरोप के बाजारों के लिए उत्पादन करने के काम में कश्मीरी कारीगरों को नियुक्त किया था।

आभूषण

भारतीय उपमहाद्वीप विश्व व्यापार से कीमती रत्न, सोना या चांदी मुनाफे के बतौर पाता रहता था जिससे आंतरिक आपूर्तियांे और उत्पादन को प्रोत्साहन मिलता रहता था। अनेक विदेशी यात्रियों को कुछ प्रसिद्ध साम्राज्यों ने भारत की आकूत संपदा को निहारने के लिए मजबूर किया। यात्रियों ने राजकोषों के कीमती रत्नों और सोने चांदी से अटे होने का वर्णन किया था। बाजारों में कीमती धातुओं का बोलबाला था और हीरे जवाहरातों का चलन था। जैसा पहले कहा जा चुका है 2 री शताब्दी के तामिल लेखों में उनका उल्लेख है वैसा ही टयुनिशिया के यात्राी इब्नबतूता और अन्य यूरोपियन इतिहासकारों ने 14 वीं सदी में विजयनगर और गोलकुण्डा की यात्रा की थी, ने भी बतलाया था। ब्लादिमिर ज्वाॅफ् ने ’’ज्वेलरी, 7000 ईयरस्’’ में बतलायाः ’’सभी यात्रियों द्वारा कथित मुगल दरबार के जवाहरातों के आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन उस समय के लघुचित्रों एवं वर्तमान के बहुत से चित्रांे द्वारा सिद्ध होते हैं। मर्द और औरत दोनों, आभूषण धारण करते थे और हाथों और हथियारों तथा लकड़ी के सामानों और गुलदानों की सजावट में इनका उपयोग किया जाता था। मुगल आभूषणों में मणि के उपयोग का प्रभुत्व था। कीमती पत्थरों का स्त्रोत् और व्यापार का केंद्र भारत था। शाहजहां रत्नों का पारखी था और कुछ ’’कारखानों’’ की देखरेख वह खुद करता था। मुगल एवं राजपूतों के दरबार के और अन्य स्थानीय नबावों के आभूषणों के नमूने नेशनल म्युजियम में देखे जा सकते हैं। साथ ही, बंगाल, बनारस और दक्षिण भारत के आभूषणों का अच्छा संग्रह भी इस म्युजियम में उपलब्ध है।

धातु विज्ञान

आधुनिक औद्योगीकरण पूर्व की धातु विज्ञान संबंधी भारतीय कुशलता के दो ही उदाहरण पर्याप्त हैं। 1908 में सर थाॅमस हाॅलेंड, इंडियन इंडस्ट्र्ीयल कमीशन 1916-18 के अध्यक्ष ने लिखा थाः ’’देश में बने उच्चकोटि के लोहे, उंची गुणवत्ता के इस्पात निर्माण की प्रविधि का प्राश्यान जो अब यूरोप मेें उपयोग हो रहा है ने और तांबे और कांसे के कलात्मक उत्पादों ने भारत को धातु विज्ञान की दुनियां में प्रमुख स्थान दिलाया है।’’ डी. एच. बुचानिन ने डेवेलपमेंट आॅफ केपीटलिस्ट एंटरप्राइसेस इन इंडिया, 1934 में लिखा हैः ’’भारत में इस्पात का उपयोग हथियारों, औजारों और सजावटी उद्देश्यों के लिए होता था और उल्लेखनीय उच्चकोटि के सामान बनाये जाते थे। पुराने हथियार अग्रणी हैं और यह कहा जाता है कि प्रसिद्ध बलाॅकस तलवारें भारत के हैदराबाद से आयातित पिटवा इस्पात से बनाईं जातीं थीं। दिल्ली के 6 टन से अधिक वजनी लोहे के अशोक स्तंभ, पर एक लेख 415 ई. का है। यह कोई भी अभी तक नहीं जान पाया कि इतनी बड़ी ढलाई कैसे बनाई गई थी ?’’ दक्षिण में बिदरी में पैदा हुई बिदारी कारीगरी उत्तर में फैलकर मध्य लखनउ तक पहुंची और धातु विज्ञान की इस कुशलता की उपेक्षा नहीं की जा सकती। नाजुक जड़ाउ कारीगरी के लिए उद्यमशीलता और अभ्यास की आवश्यकता होती है। जड़ाउ काम के लिए जस्ते की आवश्यकता तथा बिदारी मिश्र धातु का एक संगठक तत्व होने के कारण जस्ते को प्राप्त करने के विज्ञान में प्रगति हुई। तांबे और लोहे की तरह से जस्ते को आयस्क से प्राप्त करना आसान काम नहीं है। परिणामतः यूरोप में जस्ता का औद्योगिक पैमाने पर उपयोग तब तक नहीं किया जा सका जब तक कि एक अंग्रेज ने 1738 में जस्ते को प्राप्त करने की प्रविधि का एकस्व अधिकारित नहीं करा लिया। जो भी हो, भारत ने तो जस्ता 1 ली सदी ई. पू. में पैदा करना शुरू कर लिया था। ’’रसवनकार’’ राजस्थान के जबार में जस्ते के आसवन एवं खुदाई का वर्णन है और जस्ते के आसवन में उपयोगी भट्ठों के होने का एम. एम. युनिवर्सिटी द्वारा साक्ष्य दिया जा चुका है। राजस्थान में जस्ते का पीतल बनाने में भी उपयोग होता था। 17 वीं सदी तक जस्ते की बहुत बड़ी मात्रा की खपत बिदारी बर्तन बनाने में होने लगी जिसने बड़े विस्तार से प्राश्रय पाया था।

जयपुर के पास जयगढ़ में एशिया में सबसे बड़ी तोप बनाने के कारखानों में से एक कारखाना था। जयगढ़ किले में बनी तोपों - अब जयगढ़ किले में प्रदर्शन के लिए भी रखी हंै - ने भारत में मुगल शासन की सुद्रढ़ता में भारी योगदान दिया था।

प्रादेशिक राज्य

मुगलों के संबंध में बहुत जाना गया जबकि प्रादेशिक राज्यों के बारे में बहुत कम परंतु वे भी समानरूप से सुसंस्कृत थे और उत्पादन तथा व्यापार में उंचाईंयां रखते थे। दी सल्तनतस् आॅफ दक्खिन, आर्ट आॅफ इंडिया, 1500-1900 में सुसन स्ट्र्ाॅज ने लिखाः ’’वास्तुशिल्प को छोड़कर सल्तनतों के कलात्मक रचना संसार की सामग्री बहुत कम ही जीवित रह पायी है परंतु जो कुछ उसमें है वह लिखित और वर्णित है। बच रहे शिल्पतथ्य राजदरबारी उच्च गुणवत्ता और सांस्कृतिक परिष्कृति की शान की तरसाने वाली झलक पैदा करती है और दूसरी कम उभरी परंपरायें जीवांत और आकर्षक हैं।’’ मुगल शासन के प्रतिपक्षी दक्खिन के नबाव कला और संगीत के महान प्राश्रयदाता रहे हैं और उनके छविचित्रों में प्रायः सुंदर आभूषण एवं महीन रेशम का अंकन है। आज के लिए जो कुछ रुचि का है वह है इन सल्तनतों का धर्मनिरपेक्ष प्रशासन। रागमाला चित्राकारी के प्राश्रय में दक्षिण के नबावों ने राजपूतों की रुचियों को सम्मिलित किया और बाद में पंजाब के पहाड़ी और मैदानी शासकों ने भी वैसा ही किया। जनसाधारण के रिवाजों के प्रणय लोक साहित्य पर आधारित रागमाला चित्राकारी ललित कला का परिष्कृत रूप बनी - उसकी लय और वर्णनात्मक शैली हिंदू, मुस्लिम और सिख को समानरूप से अच्छी लगी। बीजापुर के इब्राहीम आदिलशाह 2, 1586-1627, के इतिहासकार ने लिखा है कि वह मराठी भी बोलता था और उसकी ’’किताबे नौरस’’ दक्खिनी उर्दू में संग्रहीत गीत विभिन्न रागों पर बनाये गए थे। ये गीत मुस्लिम साधुओं के प्रति श्रृद्धांजलि अर्पित करते और हिंदू देवीदेवताओं - सरस्वती और गनेश - की प्रार्थना करते थे। इतिहासकार असदबेग के अनुसार इब्राहीम शाह के आधीन राजनैतिक महत्व और आर्थिक शक्ति तक पहुंचने का समान अवसर हिंदुओं को भी उपलब्ध था। अकबर के समान उसका सबसे विश्वसनीय पदाधिकारी अंतू पंडित था। दूसरा हिंदू रामजी, बीजापुरी जौहरियों के संघ का अध्यक्ष और राजदरबार में आभूषण चुनाव और खरीद का सलाहकार था। अकबर के ’’कारखानों’’ में हिंदू कारीगर मुस्लिम कारीगरों की तरह ही नौकरी पाते थे। राजदरबार उनकी परिपूर्णता के लिए प्रयत्नशील हुआ करते थे। वे धार्मिक भेदभाव नहीं रख सकते थे।

जहाजरानी और नौसेना

भारतीय समुद्र में व्यापार करने वाले अनेक देश अपने व्यापारिक जहाज रखते थे परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि भारत ही वह पहला देश था जिसके पास सचमुच ही नौसेना होती थी। अगस्ते ट्र्ासेंट ’’हिस्ट्र्ी आॅफ इंडियन ओसन’’ में लिखता है कि ’’सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य 321-297 ई.पू. के पास उस समय नौसेना विभाग था और रणपोतों का एक अधीक्षक हुआ करता था।’’ कौटल्य के अर्थशास्त्रा में ये संदर्भ हैं। व्यापार और विजय की जलयात्राओं से हम समझ सकते हैं कि दक्षिण भारत के पल्लव, पांडया और चोल के पास सक्षम नाविक संस्थान रहे होंगे। औपनिवेशिक शासन के पूर्व भारतीय समुद्र में महत्वपूर्ण नौसेना मुगलों की ही हुआ करती थी। अकबर के उत्कर्ष काल में उसके पास 3000 से अधिक जलयान थे और उनका केंद्रीयकरण बंगाल की खाड़ी में था। रणपोतों का एक बड़ा भाग गुजरात में कायम था। ’’आइने अकबरी’’ में कहा गया है कि नौसेना ही जहाज निर्माण, नौकायन रास्तों की खोजें, तटकर की वसूली और आवश्यक नाविकों तथा कर्मियों की नियुक्ति जैसे सभी काम करती थी। औरंगजेब के शासनकाल में मुगल नौसेना का बेड़ा केवल बंगाल की खाड़ी में ही कार्यरत रह गया और उसका उपयोग यूरोपियन व्यापारियों खासकर, पोर्तगीजों के खिलाफ किया जाता था जो मुगल शासन को चुनौति देते या तटकर नहीं देते थे। बंगाल की खाड़ी में आसाम राज्य का अपना नौसैनिक बेड़ा था जबकि पश्चिमी तटों पर मराठों के अपने बेड़े होते थे। उस समय एशिया के भीतर बड़े पैमाने पर एशियावासियों द्वारा ही व्यापार संचालित हुआ करता था। सूरत के व्यापारी बंबई के वाडिया द्वारा बनाये गए जहाजों पर बड़ा भरोसा रखते थे। वाडिया ने यूरोपियन जहाजों के आकार प्रकार को अपना लेने में कतई देरी नहीं की और वे विशेषतया रहीस थे - उनमें से एक ब्रिजवोरा भी थे जो 18 वीं सदी में मरे। उनने 22 मीलियन फ्रेंक की विशाल सम्पत्ति छोड़ी।’’ कुछ यात्रियों के अनुसार सूरत शहर भारत का सबसे सुंदर शहर था। एक छोटे से उदाहरण से वहां की रहीसी का अंदाजा लगाया जा सकता हैः शहर की कुछ गलियां चीनी मिटटी से बनाईं गईं थीं। फ्रेंकोज मार्टिन अपने ’’मेमोरीज’’ मेें लिखता हैः ’’सचमुच का बेबीलोन’’ - अगस्ते ताउसेंट की ’’हिस्ट्र्ी आॅफ दी इंडियन ओसन’’।

राजस्व में कमी

यह समृद्धि लम्बे समय तक नहीं रहने वाली थी। उसी काल में मुगलों के विदेशी व्यापार का राजस्व ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रतिद्वंदिता के कारण कम हुआ था। यह कमी टर्की के ओटमन द्वारा भारतीय निर्यात पर कम मूल्य देने के कारण भी हुई थी। औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य बिखर गया और भारतीय नौसेना परिणामस्वरूप कम हो गई। यद्यपि अफ्रीका अंतरीप होकर समुद्र का रास्ता स्थल रास्ते से लम्बा पड़ता था तब भी ईस्ट इंडिया कंपनी को उस लम्बे रास्ते से अफ्रीकन दास व्यापार से जो लाभ मिलता था उससे ओटोमन को व्यापारिक प्रतिद्वंदिता से बाहर करने में मदद मिली। और, इस तरह से मुगल खजाने से राजस्व को ब्रिटिश ने अपनी ओर खींच लिया। अवध और बंगाल के राज्य कुछ समय के लिए पनपे थे। 1721 में यूरोप में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारतीय वस्त्रा के आयात करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। संपूर्ण उपमहाद्वीप के लिए यह एक बड़ा आघात था, खासकर बंगाल के नबावों पर जो नौसेना को बनाये रखने पर पर्याप्त धन का निवेश करने में समर्थ नहीं थे। उसी समय ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना ध्यान चीन के साथ अफीम के निषिद्ध व्यापार की ओर लगाया। इस व्यापार में सैन्य आवरण की आवश्यकता होती थी और ब्रिटिश राॅयल नेवी की टुकड़ियों को भारत के एवं दक्षिण चीन के समुद्रों में तैनात किया गया था। बंगाल की खाड़ी में भी ब्रिटिश नौसेना को बढ़ा दिया गया। मुगल राजकोष के तेज रिक्तीकरण से अनेक घटनायें आरंभ हो गईं और विशाल भूभागों के शासन की देख रेख की अक्षमता के कारण मुगल साम्राज्य बिखर गया। मुगल ’’कारखानों’’ के कारीगर प्रादेशिक राज्यों अवध और बंगाल या राजपूताना और पंजाब या मध्य भारत के मराठों का प्राश्रय ढंूढ़ने लगे। उन सभी कारीगरों ने लघुजीवन परंतु सांस्कृतिक पुनर्जागरण का अनुभव किया। प्रदेशों में अब, मुगल या हिंदू /सिख/ के नमूनों का एक दूसरे में विलय होने लगा। अनेक बेमिसाल और समन्वयवादी रिवाजों को जन्म मिला। यूरोप में वस्त्रा व्यापार पर प्रतिबंध, तटकर वसूली की असमर्थता और भारत के छोटे छोटे राज्य आर्थिक और सैन्य साधनों के अभाव के कारण अब, पहले से ज्यादा धनी एवं शक्तिशाली ईस्ट इंडिया कंपनी के आघातों का मुकाबला नहीं कर सके। 1757 में पलासी की हार इतिहास में एक स्मरणनीय मोड़ साबित हुई। एक देश जो लम्बे काल तक अपने उत्पादों पर लाभ कमाता रहा, जल्दी ही दरिद्रता के हालात में पहुंच गया। आर. मुखर्जी ने इस प्रक्रिया की व्याख्या की है ’’दी राईज एंड फाल आॅफ दी ईस्ट इंडिया कंपनी’’ में। उनने बतलाया कि मुगलांे की पराजय और ईस्ट इंडिया कंपनी का राजनैतिक उत्थान भारत की व्यापारिक बुर्जुआजी के पतन के साथ साथ हुआ। भारत के महान व्यापारी जिन्हें पहले मुगल साम्राज्य का रक्षा कवच प्राप्त था और अकबर तथा औरंगजेब की नौसेना से लाभ मिलता रहा था, 19 वीं सदी के अंत तक, बंगाल और अन्य स्थानों से विलुप्त हो चुके थे। यद्यपि एक सदी ब्रिटिश को और भी लगी भारत को जीतने के लिए। फिर भी, भारत का एक तिहाई भाग प्रत्यक्ष औपनिवेेशिक शासन से बचा ही रहा था। एक लम्बे युग का अंत हुआ। उस काल में कारीगरों को या तो नष्ट किया जाना था या फिर दुरावस्था में जिंदा रहना था। जो सम्मान उन्हें पहले मिलता था वह बेहद कम पारिश्रमिक पर मिलना असंभव था। ब्रिटिश औपनिवेेेशिकों और पहले के विजेताओं के बीच के इस अंतर को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। किसने भारत को अपना घर बनाया ? पहले के विजेताओं ने भारत की निर्माणकारी कुशलता और क्षमता का पूरा फायदा उठाया और या तो उन्हें विभिन्न दिशाओं में मोड़ा या उनको आगे या ज्यादा कुशलता की ओर बढ़ाया परंतु ब्रिटिश के लिए तो भारत की निर्माणकारी शक्तियां व्यर्थ का प्रतिद्वन्द थीं और उनकी नजर में सर्वोत्तम था उन शक्तियों को नष्ट कर देना या सुखाकर छोड़ देना। जो विद्वान भारत के इस्लामी शासकों और ब्रिटिशों के बीच किसी प्रकार का भेद नहीं कर पाते वे इस अमिट सत्यता के साथ बहुत बड़ा अन्याय करते हैं। भारत के पूर्व शासकों में से अनेक विदेशियों की तरह आये थे, आक्रमणकारियों एवं विजेताओं के समान परंतु वे भारत में ही बसे और मरे। परिणामतः जो स्मारक उन्होंने बनाये, जो उन्होंने छोड़े, संस्कृति जिसे बढ़ावा दिया वे सब कुछ इस उपमहाद्वीप की जनता की धरोहरें हैं। धन संपदा जो प्राप्त की थी उस सबको उन्हांेने इसी भूमि में पुनरूपयोग के लिए खर्च किया परंतु ब्रिटिश ने जो कुछ हमसे लिया उसको कभी किसी प्रकार से वापिस नहीं किया। यहां तक की अपने धूमिल गौरव में भी, भारत की इस्लामी धरोहरों की ज्यादा प्रामाणिकता है अपेक्षाकृत औपनिवेशिक शासन के। जब भी भारतवासी भविष्य की ओर देखेंगे वे भारत के कारीगर जनसमुदाय की गुणवत्ता के समर्पित प्रयास के इतिहास से न्यायपूर्ण गौरव प्राप्त करेंगे। वे तकनीकी अन्वेषणों और उनके उपयोगों को ध्यान से देख सकते हैं जो पुराने काल में हो चुके थे और प्रेरणा पा सकते हैं इस देश की बेहतरी में योगदान देने के लिए, फिर चाहे वह छोटा सा ही क्यों न हो परंतु जो दुनियां में अपना उचित स्थान प्राप्त करने की राह देख रहा है।