"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

भारतीय सामुद्रिक व्यापार पर यूरोपियन प्रभुत्व

1498 में पोर्तगीज के आने से पहले, भारतीय समुद्र में, पश्चिम में पूर्वी अफी्रका और मध्य पूर्व के बंदरगाहों और पूर्व में चीन एवं दक्षिण पूर्व एशिया के बंदरगाहों को भारतीय उपमहाद्वीप के बंदरगाहों से जोड़ने वाले सामुद्रिक रास्ते थे। इन पर किसी भी शक्ति ने एकाधिकार पाने का प्रयास नहीं किया था। मेडीटरेरियन जहां रोमन साम्राज्य के समय और उससे पहले भी, विरोधी शक्तियों ने सैन्य कार्यकलापों से सामुद्रिक व्यापार को नियंत्रित करने की कोशिश की थी; वहीं भारतीय समुद्र में शांतिपूर्ण व्यापार चलता रहा। उस समय दक्षिणी भारत और मलाबार तट के राजा वहां से गुजरने वाले जहाजों से मार्ग कर वसूल सकते थे। जबकि अरब शासकों ने लाल समुद्र से गुजरने वाले जहाजी रास्तों को नियंत्राण में लेने की कोशिश की थी। किसी एक भी राजनैतिक शक्ति ने कोई योजनाबद्ध कोशिश नहीं की कि सामुद्रिक व्यापार जो भारतीय उपमहाद्वीप को छूता था से, सभी दूसरों को हटाया जाये।

आने वाले जहाजों से जो उंचे कर भारतीय बंदरगाह मांग सकते थे वे हमेशा के लिए ’’फ्री पोर्ट’’ को सौंप दिए गए - अर्थात् जहाजों से बहुत ही कम कर मांगने वाले बंदरगाहों को। वास्तव में, भारतीय समुद्र के अनेक बंदरगाहों में तटस्थ सत्ताएं थीं जो विविध देशों और भिन्न धर्म संबंधों के जहाजों को कर मुक्त और समुचित मार्ग मुहैया करतीं थीं।

15 वीं शताब्दी के पहले, अरब और चीनी भौगोलिक अभिलेख जहाजरानी की लम्बी यात्राओं और प्राकृतिक विपदाओं को बतलाते हैं; परंतु किसी प्रकार की राजनैतिक या सैनिक आपदा का वे उल्लेख नहीं करते, सिवाय जल-दस्सुओं की जोखिम के। इस प्रकार से मार्को पोलो, इब्नबतूता, परशियन राजदूत अब्दुर रजाक, वेनेशियन कोन्टी और जेनोआन संतो स्टेफानो जैसे सभी इतिहासकार बताते हैं कि 14 वीं और 15 वीं शताब्दियों में भारतीय समुद्र व्यापार के फलने फूलने का परिदृश्य था।

परंतु एकबार जब पोर्तगीजों ने भारत का नया रास्ता खोज लिया और तब उन्होंने पूर्वी अफी्रका, परशियन गल्फ, भारत में सौराष्ट्र्, कोंकण तथा मलाबार प्रदेश के लाभदाई बंदरगाहों ंको हड़पने में बहुत उत्कंठा दिखलायी। 16 वीं शताब्दी के मघ्य तक, मसाले के धंधे में अर्धइजारेदारी थोप दी और नौसेना रक्षित किलेबंद बस्तियों की श्रृंखला से पोर्तगीज अपने विरोधियों को धीरे-धीरे समाप्त कर सके। पोर्तगीज ने स्थानीय व्यापारियों को सुरक्षा-पास खरीदने और तटकर देने के लिए मजबूर किया। जो भी हो, इजारेदारी के इस प्रयास को गुजराती व्यापारियों, ओमनीज ने और इक में स्थित उत्तरी सुमात्रा की समुद्री ताकतों ने ललकारा। जैसे-जैसे दक्षिण पूर्वी एशिया, चीन और जापान में पोर्तगीज ने बस्तियों का विस्तार किया, स्वयं पश्चिमी इजारेदारी को बचाये रखना कठिन होता गया।

पोर्तगीज को प्रारंभ में सफलताएं मिलीं क्योंकि वे ’’बांटो और जीतो’’ की युद्ध नीति बनाने में चतुर थे। पहले, मुस्लिम व्यापारियों को कालीकट के हिन्दू राजाओं से अलग किया। उस समय, भारतीय समुद्र का मसाले का सबसे बड़ा बाजार भारत था। तटीय महत्व के शहरों पर दो दिन बमबारी करके अपनी अग्नेय शक्ति का प्रदर्शन किया। इन भयावह तरीकों ने पोर्तगीज के पक्ष में काम किया। इस रणनीति को अन्य प्रमुख व्यापारिक केंद्रों पर भी दुहराया गया था। 1510 में, बीजापुर के आडिलशाही राजा ने गोआ का नियंत्राण पोर्तगीज को सौंप दिया। इस बात को जानकर कि भारत से बाहर जाने वाले माल का बड़ा भाग भारतीय समुद्र के तीन बंदरगाहों में उतारा जाता है-परशियन खाड़ी में हारमान, लाल सागर में अदन, और मलय प्रायदीप में मलाका, गोआ के भारतीय गवर्नर अलफेनसो अलबुकर्क ने अपना ध्यान इनमें से प्रत्येक बंदरगाह को कब्जे में लेने पर लगाया। मलाका 1511 में, हारमाज 1515 में जीत लिए गए और मात्रा अदन बच पाया था।

1505 में, पोर्तगीज ने एशिया से यूरोप के मसाला व्यापार को ’’राजशाही इजारेदारी’’ घोषित किया। उसने इसमें सैन्य साधनों के द्वारा खसोटी गई भेंट की संभावनाएं देखीं। पोर्तगीज के राजनैतिक और सैन्य नियंत्राण एकबार हारमज और मलाका पर आये, तब उसने अपनी इजारेदारी को एशिया के अंदरूनी व्यापार तक फैलाने का प्रयत्न किया। इसके लिए उन्हें गुजरातीे व्यापारियों तक की सीधी पहुंच को रोकना आवश्यक था जो यद्यपि मलाका से कट जाते और लाल सागर से व्यापार जारी रखे रह सकते थे। 1509 की सैन्य विजय के बाद भी 20 वर्षों तक, पोर्तगीज गुजरात के बंदरगाहों पर आक्रमण करते रहे, ड्यू और ईजिप्त की जलसेना जो ड्यू के अमीर हसन की सहायता के लिए भेजी गई थी, के मिलेजुले बचाव के विरूद्ध पहले की हार के बाद। परंतु तब भी ड्यू हारा नहीं और मलिक आयाज, ड्यू का दूसरा गवर्नर, को हराने के प्रयास 1520-1521 में भी विफल हुए। 1530 में पोर्तगीज उपनिवेशकों ने काम्बे, सूरत और रनवेर के बंदरगाहों को लूटा और जलाया। गुजरात के सुलतान बहादुर ने कमजोरी के एक क्षण में बेसिन के छोटे बंदरगाह के नियंत्राण को 1534 में, त्याग दिया था। ड्यू जो दो दशकों से झगड़े में पड़ा था, अचानक असुरक्षित हो गया। मुगल साम्राट हुमांयू ने सुलतान बहादुर को हराने के लिए पोर्तगीज से सौदा कर उसे अलग कर दिया। पोेर्तगीज को उस द्वीप पर किला बनाने की अनुमति प्रदान कर दी गई जिससे 1555 तक उस क्षेत्रा पर पोर्तगीज ने पूरी तौर पर राजनैतिक नियंत्राण पा लिया। काम्बे की खाड़ी पर पोर्तगीज का नाविक नियंत्राण पूरा हुआ। उन्होंने 1559 में दमन के बंदरगाह पर भी कब्जा कर लिया। उस समय अपने विकासमय उद्योग और व्यापार के कारण भारत के सबसे धनाढय् प्रदेशों में से एक था। इस प्रकार गुजरात के व्यापारी पोर्तगीज के नियंत्राण में लाये गए और गुजरात ने अपने भाग्य को लगातार गिरते देखा।

गुजरात में इन विजयों के साथ पोर्तगीज ने कोलम्बो को अधिकार में लिया और श्रीलंका तक कोरोमंडल तट पर मलियापुर /साओ टोम/ में बस्ती बनाकर नियंत्राण को बढ़ाया। गोआ से बंगाल तक का व्यापार कोरोमंडल की अपेक्षा अधिक लाभदायिक देखकर, उन्होंने, बंगाल की ओर अपनी लड़ाकू शक्तियों को मोड़ा। प्रारंभिक विरोध के बाद, उन्हें चिटगांव और सत्गांव /कलकत्ता के पास/ बसने दिया गया और बाद में वे हुगली नदी तक बढ़ आये। इसने उन्हें 16 वीं शताब्दी के अंत तक जब तक कि 1632 में मुगल सेनाओं ने उनको बाहर नहीं खदेड़ दिया पश्चिमी बंगाल के बाहय् व्यापार पर इजारेदारी करने में सहायता पहुंचाई। दी जिब्रा दास सीडाडस, इ फोर्टलेजास ने पोर्तगीज का भारतीय समुद्र के बहुसंख्यक बंदरगाहों /उनके अतिरिक्त जिनका पीछे उल्लेख हो चुका है/ जैसे अफ्रीका से सोने की आपूर्ति करने वाला एक बड़ा बंदरगाह मोजाम्बिक में सफाला, और उष्णकटिबंधी उत्पादों एवं मसालों के लिए महत्वपूर्ण स्त्रोत् मेंगलोर, कैम्बूर, क्रेगानूर, कोचीन और क्वालिन, के नियंत्राण का विवरण विस्तार से दिया।

ये सफलताएं प्राप्त र्हुइं क्योंकि मुख्यतया उनके पूर्ववर्ती एशियन व्यापारिक जहाजों के मुकाबले में पोर्तगीज जहाज बेहतरीन तौर पर अस्त्रा-शस्त्रा सज्जित थे। सबसे बड़ी बात, वे लोग भाग्यशाली थे कि भारतीय उपमहाद्वीप में वे उस समय आये जब स्थानीय राजाओं के नियंत्राण से बहुत से बंदरगाह बाहर थे। यद्यपि वे राजा पोर्तगीज की बेहतर अग्निय शक्ति और बेहिचक उपयोग के विरूद्ध मुकाबला कर सकते थे। यह इस कारण भी था कि उस समय की महान एशियन अर्थव्यवस्थायें वस्तुतः भूमि आश्रित एवं स्वाबलंबी थीं। बाहय् व्यापार, अर्थव्यवस्था का मुख्य भाग नहीं था और समुद्र-भयातुर व्यापारी वर्ग के हितों की रक्षा करना राजाआंे का क्षेम न था। जहां व्यापारी वर्ग किसी स्थानीय महत्व का था, जैसा कि गुजरात में, पोर्तगीज को बड़े अवरोधों का सामना करना पड़ा और ऐसा सुमात्रा में भी हुआ। परंतु दो दुश्मनों के बीच, उत्तर में मुगल और दक्षिण में पोर्तगीज, गुजरात के पास समर्पण के सिवाय अन्य विकल्प न था।

दक्षिणी और पूर्वी भारतीय तट के छोटे और कमजोर व्यापारी मध्य एशिया के व्यापार से पूरी तरह नष्ट कर दिए गए और फिर वे कभी भी पुनर्जीवित होने के लायक नहीं रह गए। दूसरे, जो जिंदा रह पाये वे पोर्तगीज की शर्तों और सुरक्षित रास्तों के लिए मांगी गईं सौगातों के बल पर रहे। तब भी, भारत क दूसरे और कुछ गुजराती व्यापारियों /और उनके दूसरे पक्ष-पूर्वी अफ्रीका, मध्य पूर्व और इंडोनेशिया/ ने पोर्तगीज इजारेदारी को बड़ी कोशिशों से, ऐसे छोटे बंदरगाहों का उपयोग करके जो पोर्तगीज उपनिवेशन से स्वतंत्रा थे, दरकिनार किया। इसके साथ गुजराती व्यापारियों ने जहाजी बेड़ों को अस्त्राशस्त्रा सज्जित करने की पोर्तगीज प्रथा का अनुकरण उनके आक्रमणों का प्रतिकार करने के लिए किया ।

जो भी हो, लाभ का बड़ा भाग पोर्तगीज को जाता था। वे इंडोनेशिया को भारतीय वस्त्रा उंचे दाम पर जहाज से भेजते और वापसी में, योरप के लिए, बहुमूल्य मसाले ले आते थे। इस धंधे का लाभ अन्य प्रतिद्वंदियों को खींच ले आया। फ्रेंच के जल्दी ही बाद पहले डच फिर ब्रिटिश आये। 1656 में, कोलंबो डच को मिला, 1663 में, पोर्तगीज ने डच के हाथों कोचीन खोया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ की प्रतिद्वंदिता ने हरमिज को खो जाने पर मजबूर कर दिया।

बहुत शीघ्र डच, और बाद में अंग्रेजों ने पोर्तगीज की इजारेदारी को अपनी इजारेदारी में बदलने का प्रयत्न किया। मुख्य व्यापारिक मार्ग पर पहले के पोर्तगीज व्यापारिक बुर्ज के स्थान पर अपने प्रतिद्वन्दियों को किले बंद बस्तियां बनाने में अगुआई की थी। शुरूआत में ब्रिटिश और फ्रंेच प्रतिद्वन्दियों के मुकाबले डच ज्यादा सफल हुए दिखे। इंडोनेशिया में डच अपनी अग्रता की स्थापना में सफल हुए और एकबार जब पोर्तगीज को पछाड़ चुके तो सिंध और गुजरात के बाहर जहाजरानी में वे प्रबल हो गये। अब, अधिकांश भारतीय जहाजों पर डच अपनी इच्छा लादते और कर वसूलते जो पहले पोर्तगीज द्वारा लगाये गए थे।

सूरत 1612, मद्रास 1639, बंबई 1668, पांडेचेरी 1674 और कलकत्ता 1698 ने धीरे धीरे गोआ को नीचे दिखलाया और भारत-यूरोपियन व्यापार के मुख्य केंद्र बन गये। तो भी, भारत में /और दूसरे यूरोपियन/ जहाज बनाने का उद्योग फलता फूलता रहा क्योंकि भारत में बने जहाज प्रायः यूरोप में बने जहाजों की गुणवत्ता और कारीगरी में समान और कभी कभी उनसे भी आगे होते थे।

भारतीय निर्माताओं से प्रभावित /खासकर वस्त्रा उद्योग/ और अपने व्यापार से उसे वदल लेने के लिए डच और ब्रिटिश व्यापारियों ने, न केवल, अपनी तटीय नई बस्तियों में वरन् देश के भीतरी भाग में भी, कारखाने स्थापित किए। गुजरात में अहमदाबाद और भरूच जैसे बुनाई के कंेद्रों में ही नहीं बल्कि भीतरी भाग जैसे लाहौर, आगरा और बुरहानपुर में कारखाने लगाए। बाद में पटना की तरह ढाका, बालासोर, पिपली और मछलीपटट्म ने उनका ध्यान खींचा। इस प्रकार से डच और ब्रिटिश व्यापारियों ने लाभ का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रखा जो अन्यथा भारतीय दलालों को मिलता। इंडोनेशिया में डच द्वारा निर्माण और व्यापार के वाणिज्यिक केंद्र स्थापित किए गए।

औपनिवेशिक शासन की ओर अग्रेशित काल में, यद्यपि यूरोपियनों के उद्योग नाटकीय ढंग से बढ़े और यूरोप में उत्पन्न राजस्व का लगातार कम होता कुछ हिस्सा भारतीय या इंडोयेशियन कुशल और औद्योगिक कामगारों तक भी पहुंचा।

फिर भी डच और ब्रिटिश व्यापारी भारत में सीमित राजनैतिक नियंत्राण से कुशल कारीगरों के दाम पूरे तौर पर नियंत्रित नहीं कर पा रहे थे और कर अधिकारियों और व्यापारियों को स्थानीय कारखानों के मालिकों से कुछ कुछ आदरपूर्ण व्यवहार करना पड़ता था। यूरोपियन व्यापार के साथ भारत प्रभावशाली संतुलन बनाये रहा और यूरोपियन व्यापारी मूल्यवान धातु /मुद्रा/ की सतत् आपूर्ति से इस व्यापारिक अंतर को पूरा करने के लिए मजबूर होते रहे। जहां तक भारतीय उपमहाद्वीप को यूरोपियन व्यापारी सोना और चांदी पहुंचाते रहे, भारतीय राजे महराजे यूरोपियन व्यापारियों को सहते रहे। यूरोपियन व्यापारी अपनी उपस्थिति का विस्तार करते रहे और भारत में अपनी गतिविधियों पर राज्य के नियंत्राण को कुशलतापूर्वक रोकते रहे।

कुछ समय तक संतुलन बना रहा परंतु यूरोपियन व्यापारिक कंपनियां अपनी लगातार बढ़ते सैन्य बल के प्रदर्शन द्वारा मोल भाव करने की शक्ति को बढ़ाते रहे। भारतीय शासकांे के हिस्से की कोई भी कमजोरी की जांच-पड़ताल करते हुए वे अपनी शक्ति का निरंतर परीक्षण करते रहे। 1691 में, यहां तक कि मुगल सल्तनत को ईस्ट इंडिया कंपनी ने ललकारने की कोशिश की परंतु औरंगजेब की सैनाओं से हार गए और यूरोपियन व्यापारियों को जो कुछ भी प्राप्त हो चुका था उससे अधिक छूट देने के पक्ष में वह नहीं था।

परंतु एकबार मुगल साम्राज्य विघटित होना शुरू हुआ और अब वह समय आ गया था जब भारतीय समुद्र व्यापार पर छाईं र्हुइं यूरोपियन शक्तियों में से कोई एक विस्तार का रास्ता पायेे। भारत पर शासन करने की लड़ाई को अपने यूरोपियन प्रतिद्वन्दियों को दरकिनार करते हुए विजयी ब्रिटिश ही थे जिनने एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशन के लिए और प्रदेश पा लिए थे।

भारत के उपनिवेशन के बाद बर्मा, इंडोचायना, मध्य पूर्व और संपूर्ण अफ्रीका का उपनिवेशन हुआ। यूरोपियन उपनिवेशन के नीचे चीन का सामुद्रिक क्षेत्रा आया। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में संयुक्त राज्य औपनिवेशक शक्ति के रूप में उदित हुआ जब उसने फिलीपींस और कैरेबियन में स्पेनिश कालोनियों को अपने अधिकार में ले लिया।

इस प्रकार समुद्र के अस्त्राशस्त्रा विहीन स्वतंत्रा व्यापार के विरूद्ध शुरू हुए युद्ध ने अंत में, पश्चिमी यूरोपियन और अमेरिकन शक्ति ने पृथ्वी का अधिकांश भाग अपने आधीन कर लिया। संपदा का विशाल और अभूतपूर्व बहाव यूरोप और उत्तरी अमेरिका को उपनिवेशनों से प्राप्त हुआ। एक शताब्दी तक भारतीय समुद्र में क्रियाशील अधिकांश स्थानीय व्यापारियों से पोर्तगीज सौगातें बटोरते रहे। इसके बाद एक काल डच उपनिवेश का आया, यद्यपि कुछ समयकाल प्रतिस्पद्र्धात्मक व्यापार का था जब अन्य यूरोपियन प्रतिद्वदियों ने पोर्तगीज /बाद में डच/ को निकाल बाहर करने का यत्न किया। परंतु अंत में, ब्रिटेन ही था जिसने सबसे बड़ा उपहार जीता। भारत के दो तिहाई पर प्रत्यक्ष औपनिवेशिक शासन और शेष एक तिहाई पर अप्रत्यक्ष शासन, बड़े पैमाने पर डच और पोर्तगीज की विशाल सौगातें खींचते हुए, कायम किया ।

परंतु, अभूतपूर्व दरिद्रता और गरीबी की ओर एशिया और अफ्रीका को ठेल दिए जाने के साथ उत्तरी अमेरिका और यूरोप ने संस्कृति, तकनीक और विज्ञान की आश्चर्यजनक उन्नतियों को देखा। पश्चिम की विस्मयकारी जीत उपनिवेशित जनता के लिए अपार दुख और अग्निपरीक्षा दोनों की कारक बनी। इतिहास की इस दुखद द्वन्दात्मकता की उपेक्षा न करना ही महत्वपूर्ण है कि ’’पश्चिमी सभ्यता’’ के आधार और जिंदा रहने के साधन पूर्व और दक्षिण एशिया से आया हुआ बेशुमार धन ही था।

पश्चिम के ’’स्वतंत्रा व्यापार’’ के विजेता को स्मरण रखना चाहिए कि भारतीय समुद्र के स्वतंत्रा व्यापार को खत्म करने वाले शस्त्रों से सज्जित और दृढ़ इच्छा शक्ति वाले ’’यूरोपियन इजारेदार व्यापारी’’ ही थे। दूसरे अन्य कोई नहीं। तोप के गोले से संरक्षित व्यापार ’’फ्री’’ या ’’फेयर’’ व्यापार नहीं था। शुरूआत से ही पश्चिम के दक्षिण और पूर्व के साथ संबंध थे और आज तक पश्चिम अपने व्यापार के प्रतिबंधों को नीचा नहीं करना चाहता जबकि वह ’’फ्री ट्र्ेड’’ की शिक्षा शेष दुनिया को देता रहता है।