"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

भारत में तकनीकी खोजें और उनके उपयोग

भारतीय उपमहाद्वीप में, तकनीकी प्रगति का सबसे पहला प्रमाण हरप्पा सभ्यता, 4000 से 3000 ई.पू., के पुरावशेषों में पाया जाता है। पुरावशेषीय खंडहर योजनाबद्ध शहरी केंद्रों के होने के संकेत देते हैं जहां विधिवत् तौर की सड़कें औैर जलमल -निकास की प्रशंसनीय व्यवस्था के साथ निजी एवं सार्वजनिक इमारतें बनी हुईं थीं। उस समय के लिए निकास व्यवस्था खासकर उल्लेखनीय है क्योंकि उन्हें जमीन के नीचे बनाया गया और उनका निर्माण इस ढंग का था कि उनकी नियमित सफाई हो सके। निजी घरों के छोटे निकासों को सार्वजनिक बड़े निकासों से जोड़ा गया था।

बड़े बहुमंजिले निजी मकान और सभी इमारतंे मानकीकृत पकीं हुईं ईटों से बनाईं गईं थीं और उनमें रसोई और शौचालय के लिए अलग अलग स्थान थे। अनाज और व्यापारिक वस्तुओं के रखने के लिए भंडारण सुविधायें, सार्वजनिक स्नानगृह और नागरिकों के विभिन्न कार्यक्रमों के लिए पृथक इमारतें बनाईं गईं थीं।

शहरी कंेद्र प्रायः नदियों की घाटी या बंदरगाहों के पास होते थे। परिशुद्ध बांट एवं पैमाने उपयोग में लाये जाते थे। लोथल जैसे बंदरगाह ढलवां कांसे और तांबे की वस्तुओं के निर्यात केंद्र के रूप में विकसित किए गए थे। तांबा गलाने के भट्ठे और ढलाई के उपकरण, धातु के औजार, आधी और पूरी गोल आरियां, छिदी हुईं सुइयां और सबसे महत्वपूर्ण घुमावटी नालीदार कांसे के बरमा भी अस्तित्व में थे। उस काल में, बरमा ने अतुलनीय बारीकी के साथ वस्तुओं का उत्पादन करना संभव किया और उसे आज के यांत्रिक औजारों का प्राचीन अग्रदूत माना जा सकता है।

वहां योजनाबद्ध सिंचाई व्यवस्था के प्रमाण मिले हैं और ऐसा लगता है कि खेतों तथा गांवों को आग एवं बाढ़ से बचाने के तरीके भी मौजूद थे। कारीगर चाक का उपयोग करते थे और मिट्टी के बर्तन की सजावट विभिन्न रंगों एवं आकृतियों से की जाती थी। कपास उगाया और वस्त्रा उद्योग के काम में लाया जाता था।

हरप्पा क्षेत्रा के शहरी कंेद्र आपस में और साथ ही बेवीलोन, फारस की खाड़ी, मिस्त्रा और संभवतया भूमध्यसागर के शहरी केंद्र से भी व्यापार करते थे। हरप्पन सभ्यता का फैलाव काफी बड़ा था और आज के सिंध, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को समाहित करता था।

परंतु उसके विलुप्त होने के पूर्व उसके काफी सामाजिक क्षय और विघटन के भी प्रमाण मिलते हैं। हरप्पन सभ्यता के परवर्ती काल की खुदाइयों से पता लगता है कि जनसंख्या के दबाव ने इमारतों के निर्माण में अस्त-व्यस्तता पैदा की। शहरी घर छोटे होते गए और बसाहटें अधिक उटपटांग होती गईं जो सामाजिक संरचना और परंपरा में आई गिरावट के द्योतक थे। फलतः शहरी नियमावली को बढ़ावा मिला तथा निर्माण संबंधी कायदों को लागू किया गया।

सामाजिक दशाएं और तकनीकी प्रगति

यह बिलकुल संभव है कि शहरी समाज की गिरावट कृषि योजना और सिंचाई व्यवस्था के रखरखाव जैसे दूसरे क्षेत्रों में भी फैली जिसने सूखा, बाढ़, आग और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं को बुलावा दिया। इस प्रकार, वह गिरावट इस उन्नत सभ्यता के आकस्मिक अंत का कारण बनी। इससे स्पष्ट होता है कि तकनीकी प्रगति को उन सामाजिक अवस्थाओं से अलग नहीं किया जा सकता जो या तो तकनीकी प्रगति को उत्साहित करतीं हैं या फिर भरपूर उन्नत सभ्यताओं के पतन का कारण बनतीं हैं।

उदाहरण के लिए, हरप्पा से 3000 वर्षों बाद हमें मौर्य काल में बनायीं गईं प्रभावशाली शहरी बस्तियांे के अस्तित्व संबंधी प्रमाण मिलते हैं। ग्रीस के यात्रियों ने मौर्य राजधानी पाटलीपुत्रा के प्रशंसनीय विवरण छोडे़ हैं। परंतु सामाजिक झगड़े उस महान प्रतापी सभ्यता का अंत ले आये। समाज के परजीवी, शोषणकारी और दमनकारी वर्ग ने घोर सामाजिक उथल पुथल को जन्म दिया। गृह युद्धों के दौरान आग और लूटमार ने, लगभग लकड़ी के समस्त घरों, सार्वजनिक इमारतों और विशाल राजमहलों सहित मौर्य राजधानी को नष्ट कर दिया।

इस तरह लकड़ी पर आधारित शहरी निर्माण की संपूर्ण परंपरा, जिसे विकसित होने में कई शताब्दियां लगीं होंगी, समाप्त हो गई। और, स्थाई निर्माण सामग्री के उपयोग पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा। जिन सामाजिक परिस्थितियों ने एक ओर, एक तकनीकी प्रगति को नष्ट किया, उन्हीं ने दूसरी ओर, एक नई तकनीक को जन्म दिया। मौर्यकाल के मूर्तिशिल्प के अवशेष बताते हैं कि मौर्य शिल्पियों ने पत्थर के काम करने में उच्च दर्जे की दक्षता प्राप्त कर ली थी। उनके पास ऐसे औजार और उपकरण अवश्य रहे होंगे जो पशु एवं मानव प्रतिमा को चमकदार और चिकना बनाने में सक्षमता प्रदान करते थे। भारत में बाद की सभ्यताओं ने इन क्षमताओं का उपयोग न केवल मूर्तिकला में किया वरन् विभिन्न मजबूत इमारतों को बनाने में भी किया। उदाहरण के लिए, सीमेंट बनाने के लिए विभिन्न विधियां विकसित की गईं जो आज तक कायम हंै और 7 वीं शताब्दी तक उच्च स्तर की टिकाउ सीमेंट महत्वपूर्ण स्मारकों के निर्माण में उपयोग की जाने लगी थी।

धातु विज्ञान के लिए प्रेरणा

स्मारकीय वास्तुशिल्प के लिए निर्माण सामग्री के परिवहन, उठाने और चढ़ाने, निर्माण के ठीये और ढ़ांचे बनाने तथा संबंधित औजार एवं उपकरण निर्माण संबंधी तकनीकी प्रगति की बहुत आवश्यकता थी। प्राचीन ईजिप्ट या बेवीलोन की तरह भारत में उपयुक्त तकनीकों को पैदा करना और उपयोग में लाया जाना था। खासकर पत्थर आधारित निर्माण में उसे काटने और आकार देने के लिए कठोर धातु के औजारों और उपकरणों की जरूरत थी। भारत में, अति विशाल वास्तुशिल्प की उन्नति के लिए लोहे की खोज ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और धातुविज्ञान कला को विकास की ओर प्रेरित किया।

4 थी शताब्दी ई.पू. में रचित कौटिल्य के अर्थशास्त्रा में भी अयस्क से धातु प्राप्त करने और मिश्रधातु बनाने की विधि पर एक अध्याय था। संस्कृत ग्रंथों में धातु शुद्धता आंकलन संबंधी चर्चा है और धातु को परिशुद्ध करने की तकनीकांेे का विवरण है। मिश्र धातु बनाने की कई तकनीकें प्रचिलित थीं और उनमें से कुछ की शुरूआत संभवतः हरप्पा या वैदिक काल में हुई होगी। उदाहरण के लिए वैदिक साहित्य के ऐसे संदर्भ हैं जो बतलाते है कि दूध न फटे इसके लिए तांबे के बर्तनों को रांगे से लेपा जाता था।

व्यावहारिक तकनीकों के बड़े पैमाने पर प्रचार और शोधार्थियों की खोज ने मिलकर धातुविज्ञान संबंधी उन्नति को आगे बढ़ाया। दिल्ली का 5 वीं शताब्दी का लौह स्तंभ इस कौशल का उल्लेखनीय उदाहरण है। यह लोहे के एक ही टुकड़े से बना लगभग 23 फुट उंचा बिना जंग के निशान केे 1500 बरसातों को सहता हुआ खड़ा है। पिंटवा लोहे के इस स्तंभ में लौह धातु 99.72 प्रतिशत है। लगता है जंग से बचाने के लिए इस पर मैग्नीज डाॅयोआक्साईड का पतला लेप लगाया गया था।

12 वीं शताब्दी तक, निर्माण इंजीनियर लोहे के गर्डर और बीम का बड़े पैमाने पर उपयोग कर रहे थे जो दुनिया के किसी अन्य हिस्से में ज्ञात न था। पुरी और कोणार्क के मंदिरों में लोहे की बीम का सबसे ज्यादा उपयोग किया गया। पुरी मंदिर में 239 लोहे की बीमें हैं और कोणार्क की बीमों में से एक बीम 35 फुट लम्बी है। सभी 99.64 प्रतिशत लोहे की हैं और दिल्ली के लोहे स्तंभ के समान ही बनाईं गईं थीं।

मध्यकाल में, भारत ने उंचे दर्जे की स्टील बनाने के लिए ख्याति प्राप्त की और 14 वीं शताब्दी तक जिंक को अयस्क से निकाल लेने की क्षमता प्राप्त कर ली थी। बिदारी रांगा, सीसा और तांबे की एक मिश्रधातु बीदारी का बहुतायत से उपयोग होता था।

आश्चर्य नहीं कि धातु कर्म के विकास ने तोपखाने के उत्पादन पर भी अपना असर डाला। ए. रहमान के अनुसार, ’’साइंस इन मेडिवल इंडिया’’, 16 वीं शताब्दी तक, दुनिया की सबसे भारी तोपें भारत में ढालीं गईं और इस उपमहाद्वीप में विभिन्न शस्त्रों का निर्माण होने लगा। जयगढ़ का तोप कारखाना भारत के सर्वोत्तमों में से एक था। 1857 की लड़ाई के पहले जयपुर के राजपूत एशिया की सबसे बड़ी तोप होने का दावा करते रहे। पर राजपूत तोपों में से किसी एक का भी उपयोग अंगरेजों का मुकाबला करने में नहीं हुआ। देश की सबसे सज्जित सेनाओं के विरुद्ध बिना लड़े ही ब्रिटिश ने इस उपमहाद्वीप को जीत लिया और इस प्रकार से यह सिद्ध हुआ कि तकनीकी उन्नति अपने आप में कोई मंजिल नहीं होती।

सामाजिक आवश्यकतायंे और तकनीकी उपयोग

अधिकांशतः सामाजिक आवश्यकतायें भौगोलिक, जलवायु और जीवन की परिस्थितियों से पैदा होकर, तकनीकी उन्नति का मूलभूत प्रेरक होतीं हैं। भारत के बहुत से प्रदेशों के लम्बे सूखे महीनों ने जल प्रबंधन तकनीक में अनेक नवीनताएं पैदा कीं। सिंचाई की नहरें, विभिन्न प्रकार के कुएं, जल संग्रहण के तालाब और पानी संरक्षण तकनीकें संपूर्ण उपमहाद्वीप में स्थापित हुईं। जल प्रबंधन समाधानों के निर्माण में हरप्पन अकेले न थे। समय समय पर बड़े पैमाने पर सिंचाई के लिए कार्य किए गए। काठियावाड़ में गिरनार के पास, 3 री शताब्दी ईसा पूर्व में निर्मित बांधों की चैड़ाई आधार में 100 फुट थी। भोपाल के पास भोजपुर में राजा भोज के द्वारा 11 वीं शताब्दी में 250 वर्ग मील को घेरते हुए एक कृत्रिम झील बनवाई गई थी। उसी शताब्दी में, दक्षिण में, काबेरी नदी द्वारा आपूरित एक कृत्रिम झील पत्थर के जल द्वार, सिंचाई की नहरें तथा 16 मील लंबे बांध के साथ बनाई गयी थी। राजस्थान के आर पार, राजपूत राजाओं ने कृत्रिम झीलें बनवाईं। मगर कृषि की उन्नति के लिए कश्मीर, बंगाल और दक्षिण की नदियों के मुहानों के क्षेत्रों में भी सिंचाई योजनायें आवश्यक थीं।

वर्षाऋतु की सही भविष्यवाणी की आवश्यकता ने खगोलविज्ञान में विकास को बढ़ावा दिया जबकि ग्रीष्मऋतु की गर्मी ने भवन निर्माणशास्त्रा में नवीनताओं का मार्ग प्रशस्त किया। राजस्थान और गुजरात में, जमीन की गहराई में कहीं कहीं तो सौ फुट गहरे सीढ़ीनुमा कुएं बनाये गए। उज्जैन, मथुरा और बनारस में बड़े पैमाने पर वेधशालायें खगोलशास्त्रा में प्रगति के लिए बनाईं गईं। बंगाल, उच्च कोटि की मलमल जो राज्य की गर्म और सीलन भरी जलवायु के लिए उपयुक्त थी और पहिनने में हलकी और हवादार थी, के लिए प्रसिद्ध हुआ। आचार बनाने, फल, सब्जियों, मछली और मांस के संरक्षण करने एवं सड़न को रोकने के लिए तकनीकें पूरे देश में विकसित हुईं। हाथ से चलाये जाने वाले शीतलन के उपकरण खोजे गए। अर्थशास्त्रा में वारियंत्रा का वर्णन है। जो शायद, हवा को ठंडा करने के लिए गोलाई में घूमने वाला उपकरण था। इस प्रकार भौतिक आवश्यकताओं को प्रत्युत्तर में, पूरा करने के लिए तकनीकी का आविर्भाव हुआ।

वैज्ञानिक बुद्धिवाद और तकनीकी क्षमता

अनुकूल सामाजिक वातावरण तकनीकी विकास के लिए एक आवश्यकता है। वैज्ञानिक ज्ञान, तर्कशील सोच और व्यवहारिक प्रयोग, तकनीकी खोजों की प्रक्रिया के लिए आवश्यक बुनियाद हैं। पहले से ज्ञात तकनीक के उपयोग अधिक आसान होतेे हैं; जैसा कि ’’डेवलपमेंट आॅफ फिलोसिफिकल थाट एंड साइंटिफिक मैथडस् इंन एनसियेंट इंडिया’’ नामक लेख में बताया गया है, प्राकृतिक विज्ञान और गणितशास्त्रा में उन्नति और तर्कवादी दर्शनशास्त्रा की प्रगति के साथ अनेक तकनीकी खोजें साथ साथ हुईं।

यह नहीं कहा जा रहा है कि भारतीय समाज संपूर्ण तौर से बुद्धिवादी था। सभी प्राचीन समाजों में, और यहां तक कि आधुनिकों में भी, अंधविश्वास, धार्मिक मान्यताएं, फलित ज्योतिष, अंकशास्त्रा या ’’ऋषि’’ की सलाह, हस्तरेखा और भविष्यवक्ताओं पर निर्भरता ने वैज्ञानिक प्रगति को अवरुद्ध किया और फलतः तकनीकी प्रगति को बाधा पहुंचाई। भारत, बेबीलोन और ईजिप्त की प्राचीन सभ्यताओं से ज्ञात होता है कि बहुत से वैज्ञानिक कथन और व्यवहारिक सत्य धार्मिक भ्रांतियों एवं सामान्य अंधविश्वासों के साथ मिले हुए थे। औषधिविज्ञान के बारे में यह बात विशेष तौर पर सत्य थी। बिना भेदभाव के अवैज्ञानिक व्यवहारों के साथ असली निदान सूचीबद्ध थे। परंतु भारत में बुद्धिवादीकाल में वैज्ञानिक तरीकों के जोर ने विभिन्न दवाओं और चिकित्सा विधियों की क्षमता के प्रति विश्वसनीयता को बढ़ाया।

भारतीय चिकित्सक वास्तविकता को जितना सही देख सका, शारीरिक क्रियाओं को समझ सका और प्रचलित डाक्टरी तकनीकों की क्षमताओं का परीक्षण कर सका, उपचार उतने अधिक सफल हुए। शवविच्छेदन और विभिन्न व्याधियों का उपचार औषधिविज्ञान के अध्ययन एवं उपयोग के महत्वपूर्ण अंग थे। उपचार की अधिकाधिक सफलता के साथ आत्मविश्वास बढ़ता गया और डाक्टर आपरेशन में शल्य औजारों के उपयोग करने प्रोत्साहित हुए, हालाकि आज की तुलना में उनके उपकरण अविकसित थे।

बेहोश करने और शल्य क्रिया के लिए शरीर के अंगों को चेतनशून्य करने की आवश्यकता थी और उनकी अनेक विधियां विकसित हुईं। उच्छेदन, छेदन, चीरा, परीक्षण, अंग या अंगों को निकालने के लिए, तरल निकास, रक्त मोक्षण, टांका, और प्रदाहन के लिए सुयोग्य औजार बनाये गए। विभिन्न प्रकार की पट्टियों और मलहमों का उपयोग संक्रमण को रोकने के लिए प्रयुक्त हुआ और सफाई सुनिश्चित करने के लिए आधारभूत विधियां का उपयोग आवश्यकता अनुसार होने लगा।

उस समय तक सर्जरी की विधि ज्ञात हो गई थी, विस्थापित अस्थियों को बैठाने की क्रिया में उच्च स्तर की कुशलता प्राप्त कर ली गई थी तथा प्लास्टिक सर्जरी में हुए विकास की तुलना तो उस समय ज्ञात अन्यत्रा किसी वस्तु से तो हो ही नहीं सकती थी। भारतीय सर्जन कटे या क्षतिग्रस्त नाक, कान या औठ की क्षतिपूर्ति में हद दर्जे का कौशल प्राप्त कर चुके थे चाहे यह क्षति युद्ध मेें या न्यायिक दण्ड स्वरूप हुई हो। पहली सदी तक, इस चिकित्सा प्रणाली की बुनियाद रखी जा चुकी थी और 4 थी सदी के इस ज्ञान के अधिकांश का मानकीकरण हो चुका था और चरक और सुश्रुत की शास्त्राीय पाठ्य पुस्तकों में उपलब्ध था।

सभी प्राचीन समाजों ने चिकित्सक के हुनर को संरक्षण और सम्मान दिया। वैज्ञानिक दृष्टिकोण की अधिक दृढ़ स्वीकृति ने भारतीय औषधिशास्त्रा को उस समय की पुरानी पद्धति पर उंची छलांग लगाने में समर्थ बनाया।

चिकित्सा में हुए विकास ने समाजशास्त्रा और रसायनिक तकनीकी को भी विकसित किया। क्षारीय पदार्थों, औषधि चूर्ण, मरहम और तरल पदार्थ इन सबका निर्माण और शीशे के निर्माण से संबंधित रसायनिक प्रक्रियाओं को प्रणालीबद्ध किया गया। चीनी और खाद्य तेलों के उत्पादन जैसे खाद्य प्रसंस्करण उसी प्रकार विकसित हुए जिस प्रकार व्यक्तिगत स्वास्थ्य से संबंधित उत्पादन और श्रृंगार सामग्रियां जैसे शेम्पू, दुर्गन्ध नाशक इत्रा और अन्य श्रृंगार उत्पाद विकसित हुए।

सांस्कृतिक रीतिरिवाज और तकनीकी नवीनतायें

सांस्कृतिक अभिरुचियों ने भी तकनीकी नवीनताओं को आगे बढ़ाया। बुद्धिवादीकाल के दौरान मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं पर बहुत ध्यान दिया गया। संवेदनाओं और मनोदशाओं के विश्लेषण ने मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य के प्रभाव पर आकृतियों और रंगों के सटीक सिद्धांतों को आगे बढ़ाया। कला और निर्माण पर शोधप्रबंधों ने रंग के महत्व पर जोर दिया। फलतः घरेलू सजावटी वस्तुओं, वस्त्रों, फरनीचरों और निजी एवं सार्वजनिक भवनों की सजावट में रंगों का उपयोग बहु प्रचलित हुआ और रंग सचेत चुनाव के विषय बने।

शीघ्र ही, प्राकृितक और कृत्रिम रंगों के उपयोग और निर्माण संबंधी खोजें आ पहुंचीं। ठप्पों से छपाई, ’’बांधो और रंगो’’ और दूसरी रंगाई विधियां लोकप्रिय र्हुइंं। कपड़ों की पक्की रंगाई में रंग-बंधकों का उपयोग जाना गया, ठीक ऐसा ही जैसे चमड़े और लकड़ी के रोगनों के ज्ञान ने किया। विभिन्न इमारती सामानों पर लगाये जा सकने वाले रंगलेप बनाये गए और भारी बरसात में रंगों के धुलने एवं फीके पड़ने से बचाने के लिए उन्नत विधियां उपयोग में लायीं गईं। यह ध्यान देने योग्य है कि अजंता की गुफाओं के रंगीन भित्ति चित्रा 1500 वर्षों बाद भी कायम हैं। मगर इससे भी अधिक मार्के की बात है कि एलोरा मंदिरों के बाहरी भागों के रंग 1200 वर्षों बाद भी कायम हैं। भलीभांति संरक्षित भारतीय लघुचित्रों के रंगों का सौंदर्य आज भी हमें चकित कर देता है। ध्यातव्य है कि कई सदियों तक पक्के रंग भारतीय निर्यात के महत्वपूर्ण अंग बने रहे और रोमन अभिलेखों में इनके प्रचीन रोम में निर्यात किए जाने का उल्लेख है।

तकनीक को राजकीय सहायता

भारत में तकनीकी प्रगति का विशेष पक्ष था उसका राज्य की सहायता पर आश्रित होना। कुलीनों की तकनीक उन्मुखता और राजकोष के अनुदान के बिना जल व्यवस्थापन, भवन निर्माण और धातुविज्ञान के क्षेत्रा में हुईं अनेक तकनीकी उन्नतियां बिलकुल ही नहीं हो पातीं। राज्य की सक्रिय सहायता से ज्योतिषशास्त्रा की उन्नति हुई।

मालवा-धार के राजा भोज, 1018-60, खुद एक बड़ा इंजीनियर और इंजीनियरिंग योजनाओं का संरक्षक था। वह एक अच्छे विद्वान के रूप में ख्यात था। भोजसागर कृत्रिम झील मध्यकालीन भारत की सबसे बड़ी सिंचाई झीलों में से एक थी। वह उस झील का वास्तुशिल्पी था। धार में विश्वविद्यालय, भोजशाला, और मालवा क्षेत्रा में विशाल मंदिरों के निर्माण का वह निदेशक था। इसमें भोजपुर के मंदिर में ढलवां लोहे का एक बड़ा शिवलिंग भी शामिल है। वह विज्ञान और कला का अच्छा ज्ञाता था। विशद नगर योजना को प्रशासन का एक महत्वपूर्ण अंग मानते हुए उसने अपनी महान कृति सोमरांगन सूत्राधारा में गांवों और नगरों को जोड़ने वाली सड़कों के जाल का विशद वर्णन किया है।

नगर योजना पर एक अध्याय के साथ सोमरांगन सूत्राधारा में यांत्रिक इंजीनियरिंग, भूमिपरीक्षण, इमारत दिशा निर्धारण, भवन निर्माण सामग्री चयन, वास्तु का तरीेका और इमारतों के आड़े और खड़े खंडों पर अध्यायों का समावेश है।

सोमरांगन सूत्राधारा में मशीनों और मशीनी उपकरणों यथा आवाज देने वाली घड़ी, पुत्रिका नाड़ीप्रबोधन, का विवरण है और अपने युक्तिकल्पतरू में राजा भोज ने जहाज बनाने वालों को जहाज तल में लोहे के उपयोग के संबंध में चेतावनी दी थी क्योंकि समुद्र की चुम्बकीय चट्टानें ऐसे जहाजों के लिए खतरनाक हो सकतीं थीं।

परंतु, तकनीकी नवीनताओं के लिए राजाश्रय सदैव नहीं मिल पाता था और यह राजा के निजी रवैये पर विशेषरूप से निर्भर करता था। कमोवेश, विलासता की वस्तुओं और हथियार निर्माण को शासकों का सर्वाधिक सहयोग मिलता रहता था। मुगल शासक अकबर और औरंगजेब ने तोपों और दूसरे हथियारों के उत्पादन पर बड़ी मात्रा में निवेश किया था। और, दक्षिण के राजाओं और राजपूतों में से कुछ ने भी वैसा ही किया था। राजदरबारों में प्राश्रय प्राप्त उंची गुणवत्ता की वस्तु के निर्माण में भी निवेश किए गए यथा वस्त्रा, दरियां, लेम्पस्, कांच के सामान, संगमरमर और पत्थर उत्खनन, आभूषण, धातु की सजावटी वस्तुएं इत्यादि। लगभग पूरे देश में विशिष्ट उत्पादन करने वाले नगरों को प्रोत्साहन मिला।

औद्योगिक पूर्व के निर्माण की सीमाएं

औद्योगिक क्रांति के पूर्व, भारतीय निर्माण की सीमाओं में से एक थी कि यद्यपि भारतीय कारीगर अतुलनीय गुणवत्ता की वस्तुएं बनाते थे तथापि अधिकांश भारतीय उत्पादन विश्व के अधिकांश भागों की तरह ही अत्याधिक श्रम पर आधारित था। यद्यपि कारीगर अपने शिल्प के लिए विभिन्न औजारों और उपकरणों का उपयोग करते थे परंतु श्रम बचाने वाले औजारों की उपलब्धता और विस्तार में बहुत कम निवेश किया जाता था।

फिर भी मध्यकाल में, भारतीय निर्माण में अन्य देशों की अपेक्षा, विशिष्ट प्रकार का श्रम बहुत लगता था। भारत के पास विशेष कामों के लिए प्रशिक्षित और विशिष्ट सस्ते श्रम का बड़ा समुदाय था। और, इन उच्च प्रशिक्षित लोगों का पूरा लाभ उठाने के लिए उत्पादन प्रक्रियाओं को समन्वित किया गया था। चूकि अधिकांश निर्मित वस्तुएं प्रायः श्रेष्ठजनों की जरूरत पूरा करतीं थीं। अतः उपलब्ध श्रम उनकी आवश्यकता की पूर्ति के लिए पर्याप्त से अधिक था। इसलिए उन दिनों आत्मसंतोष था। इस तरह भारत की बड़ी निर्माणकारी शक्ति ही, आधुनिक औद्योगिक युग में उसके प्रवेश करने में रूकावट बनी।

फिर भी जिन क्षेत्रों में पर्याप्त मांग में वृद्धि थी, वहां निर्माणकारी तकनीकों मंे सुधार के सफल प्रयत्न हुए। वस्त्रा उद्योग इस प्रकार के निर्माणकारी उद्योगों में से एक था, जहां निर्माण तकनीक में सतत् सुधार हुआ। उपनिवेशन पूर्व, दुनिया के बाजार में भारतीय वस्त्रा उद्योग ने विश्व मंे धाक जमा रखी थी और उपनिवेश बनने के पूर्व भारत के वस्त्रा उद्योग की हस्तचलित मशीनें दुनिया में सर्वोत्तम थीं और नए औद्योगिक ब्रिटेन एवं जर्मनी में निर्मित मशीनें इन्हीं के प्रादर्श पर गढ़ी गईं थीं।

भारत के निर्यात की विशाल मांग ने जहाज निर्माण और पैकिंग उद्योग को प्रोत्साहन दिया और 18 वीं शताब्दी में, दुनिया के किसी भी जहाज के मुकाबले के जहाज बंबई के वाडिया बनाते थे।

भारत और औद्योगिक क्रांति

फिर भी, कुछ बड़े कारण थे जिन्होंने भारत में विज्ञान और तकनीकशास्त्रा की बढ़त और भारतीय निर्माण को औद्योगिक युग में अपने रूप में प्रवेश करने से रोका था।

संभवतः इनमें से सबसे बड़ा कारण भारत की सापेक्ष समृद्धि थी बाकी दुनिया की तुलना में। मृदु जलवायु का मतलब था कृषक और मजदूर वर्ग बहुत सस्ते में गुजारा करते और देश के विशाल व्यापार ने मध्यम और उच्च वर्ग को आराम और रईसी से जीवनयापन योग्य बना दिया था। क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए बहुत ही थोड़ा प्रोत्साहन था और रूढ़िगतता एवं परजीवी ताकतें उग्रता पर आसानी से हावी हो जातीं थीं। हैरी वारेस्ट /सीनियर आफीसर, ईस्ट इंडिया कंपनी/ ने पलासी के पूर्व के बंगाल का संक्षेप विवरण दियाः ’’किसान सरल था, कारीगर उत्साहित थे, व्यापारी धनी और राजा संतुष्ट’’।

परंतु यूरोप में, वास्तव में, सभी वर्ग क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में रुचि रखते थे क्योंकि वह उनके जीवन को बेहतर बना सकता था। लम्बे और कठोर शीतकाल का मतलब था कि किसान और मजदूर वर्ग के लिए आराम से रहना तो दूर, जिंदा रहने के लिए ही निजी उपभोग की चीजों की अधिक आवश्यकता थी। जनसमुदाय के उपयोग के लिए सस्ते निर्मित सामान की मांग, प्रारंभ में, दुनिया के गर्म प्रदेशों की तुलना में यूरोप में ज्यादा थी। छोटे दिन और लम्बे कठोर शीतकाल ने रोशनी का बल्व, बिजली का हीटर, गर्म पानी की टय्बें या घर के अंदर पाखाने जैसे नए नए अविष्कार करने की आवश्यकता को जन्म दिया।

परंतु अकेली आवश्यकता तकनीकी विकास के लिए अपर्याप्त थी। यूरोप में वैज्ञानिक अध्ययन और तकनीकी नई खोजों के पनप सकने योग्य उपयुक्त वातावरण की सृष्टि हेतु सामाजिक परिवर्तन भी एक महत्वपूर्ण जरूरत थी। शताब्दियों तक यूरोप में कैथोलिक चर्च दुनियावी त्याग का सिद्धांत पढ़ाता रहा और दूसरी दुनिया में पुनः प्राप्ति के वादे के बदले में सांसारिक तकलीफें सह लेने की शिक्षा अनुयायियों को देता रहा। वह विवेकी और वैज्ञानिक चिन्तन को धर्मविरोधी और अपवित्रा मानकर रोजाना कोसता रहता था। अतः यह आश्चर्य की बात नहीं कि तब यूरोप गंभीर पतन की हालत में था और एशिया के उन्नत देशों के निर्यातों पर अत्यधिक आश्रित था।

मगर वास्तव में यही पिछड़ापन और आंतरिक दबाव थे जो जनसाधारण को विवेकवाद की ओर ले गए और उनमें क्रांति या सुधार का आहवान किया। जनहित के लिए सामाजिक परिस्थितियों में सुधारवादी प्रगति और प्रजातंत्रा के आंदोलनों की श्रृंखला में प्रोटेस्टेंटों के आंदोलन सबसे पहले हुए। उसी समय यूरोप का प्रबुद्धवर्ग मृत्यु बाद पुनः प्राप्ति के लिए और अधिक इच्छुक नहीं रहा। वह पृथ्वी पर जिंदा रहते हुए ही अच्छे जीवन को भोगना चाहता था। ईसाई रूढ़िवादिता के विरोध में सांसारिकता और बौद्धिक चुनौतियां बढ़ीं और दर्शन और विज्ञान धीरे धीरे चर्च के दमघोंटू प्रभाव से स्वतंत्रा हुए। पूर्वी ज्ञान यूरोपियन भाषाओं में अनूदित हुआ और उसने विश्वविद्यालयों के पाठय्क्रमों में अपना स्थान बनाया। वैज्ञानिक खोज और अन्वेषण फलने-फूलने लगे और तकनीकी नवीनताएं आईं। औद्योगिक क्रांति के लिए सभी सामाजिक घटकों का एक स्थान पर इकट्ठा होना शुरू हो गया था।

परंतु शुरुआत में, औद्योगिक क्रांति के आरंभ और सफल होने के लिए एक महत्वपूर्ण घटक की यूरोप में कमी थी और वह घटक था पूंजी। शताब्दियों तक यूरोप को एशिया के मुकाबले, अपने व्यापार घाटे को सोना, चांदी और अन्य बहुमूल्य धातुओं के निर्यात से भरना पड़ता था। यूरोपीय आयात का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भारत का निर्यात था जिसकी कीमत मध्य पूर्व के और बाद में, वेनिस के बिचैलियों द्वारा बहुत अधिक बढ़ा दी जाती थी। इससे स्थिति और भी बदतर हो जाती थी। 15 वीं शताब्दी तक, पश्चिमी यूरोप के राजघरानों के लिए इस बोझ को सहना असंभव होने लगा। इस संकट के उत्तर में भारत के लिए नये रास्तों की खोज हेतु समुद्री यात्राओं के लिए धन उपलब्ध कराया गया और परिणामतः ईस्ट इंडिया कंपनियों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ। /दी प्लेज एंड प्लंडर आॅफ दी अमेरिकन /एंड लेटर अफ्रीका एजवेल/ प्लेड ए सिग्नीफिकेंट रोल इन फईनंेसिंग दीज् वायेजेज्/।

अमेरिकी देशों की लूट खसोट और बाद में अफ्रीका की भी, इन सामुद्रिक यात्राओं के लिए धन मुहैय्या कराने में काफी मददगार बनीं।

यद्यपि इसने भारत से आयातों को अधिक आसान बना दिया परंतु उससे व्यापारिक घाटे का संतुलन खत्म नहीं हुआ। प्रारंभिक तौर से यूरोपियन बैंक नए अविष्कारों में, जो औद्योगिक समर्थकों की प्रतीक्षा में थे, धन लगाने की स्थिति में नहीं थे, उपनिवेशन ने इसे हल किया। यूरोप इस तरह एक जटिल संक्रमण पर बढ़ चला जहां अपनी सरहदों के भीतर वह बुनियादी परिवर्तन और प्रगति के रास्ते पर चला परंतु अपनी सरहदों के बाहर उसने बिना किसी दया के बलात्कार किया और लूट मचाई।

यह उस समय हुआ जब शेष दुनिया ऐसे गूढ़ और धूर्त दुश्मन का मुकाबला करने में एकदम असज्जित थी। दुनिया के अधिकांश भागों में, समाज के बड़े हिस्से विरूद्ध दिशा में जा रहे थे, खासकर इस्लामिक दुनिया में। पाठ्यक्रम में बौद्धिक या वैज्ञानिक झलक वाली बात को समाहित करने के प्रयत्नों का मदरसे विरोध करते थे। भारत में भी यह सत्य था। देश के मदरसों में धर्मनिरपेक्ष पाठय्क्रम को शुरू करने की अकबर की कोशिशों के बाद भी रूढ़िवादी मौलवी परिवर्तन के प्रयासों का विरोध करते थे। बहुत से बौद्ध संघों और हिंदू गुरुकुलों में वही प्रक्रिया काम कर रही थी। वे रूढ़िवादी वेदांतवाद के प्रभाव के समक्ष नतमस्तक थे। दुनिया के संबंध में वेदांतिक दृष्टिकोण की अतिवादी व्याख्याओं में, वास्तविक दुनिया एक छलवा थी। इसलिए उसे बदलने या परिवर्तित करने के सारे प्रयत्न महत्वहीन माने जाते थे।

उन स्कूलों में भी धार्मिक नीतियों को वरीयता प्राप्त थी जो वेदांती प्रभाव से बचे हुए थे और जहां विज्ञान और तर्कशास्त्रा पाठय्क्रम का हिस्सा थे। इसके साथ ही, ब्राहमणों की शुद्धता की धारणाओं ने मानसिक और भौतिक के बीच अनावश्यक भेद पैदा किया जिसने नए प्रयोगों और सैद्धांतिक ज्ञान के व्यवहारिक उपयोगों का रास्ता अवरुद्ध किया। फलित ज्योतिष और अन्य अंधविश्वासों के प्रति दुराग्रह ने भी विद्वत् वर्ग को वैज्ञानिक मार्ग पर चलने से हतोत्साहित किया।

इसलिए, जहां एक ओर यूरोप औद्योगिक क्रांति की चुनौतियों का मुकाबला करने की तैयारियां कर रहा था, एशिया और अफ्रीका में समाज के महत्वपूर्ण अंग ही वैज्ञानिक अध्ययन में अवरोधक बन रहे थे। इसने उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को आसान बना दिया क्यांेकि जो उपनिवेशीकरण का विरोध कर रहे थे वे तकनीकी तौर पर कमजोर और कम होशियार थे।

एक बार उपनिवेशीकरण ने देश की अर्थव्यवस्था को अपनी पकड़ में ले लिया कि शैक्षणिक विकल्प और भी सीमित हो गए। बहुधा, वे जो विज्ञान को अपना पेशा बनाना चाहते थे, औपनिवेशिक स्वामियों के अनुग्रह पर ही ऐसा कर सकते थे। परंतु औपनिवेशिक शक्तियों के लिए, उपनिवेशितों को विज्ञान और तकनीकशास्त्रा का पढ़ाना एक अनावश्यक कार्य था। पश्चिमोन्मुख शिक्षित व्यक्ति उपनिवेशन प्रक्रिया में महत्वपूर्ण योगदान देते रहे। वे ऐसी कंपनी जहां मालिक देश को निर्यात किया जाने वाला कच्चा माल या औद्योगिक वस्तुयें बनाईं जातीं हों में मैनेजर या इंजीनियर बनकर अथवा किसी आयात ऐजंेसीे जो मंहगीं वस्तुओं या मशीनों का आयात करतीं थीं उसमें प्रतिनिधि बनकर सहयोग देते थे।

कुछ देशों में यह विरोधाभास इतना बड़ा था कि विज्ञान और तकनीक लगभग पूरी तौर से छल कपट के साथ एकाकार हो गई और धर्मांधता देशभक्ति का पर्याय बन गई। फलतः आम जनता को मौका ही नहीं मिला कि वह औद्योगीकृत हो रहे यूरोप के साथ कम से कम, बराबरी के स्तर पर लेन देन कर सकें।

अन्य उपनिवेशित देशों की तरह भारत को उन शर्तों पर जो उसके हित की न थीं पर औद्योगिक युग में खींच लिया गया और भारत में हो चुकीं अनेक तकनीकी उन्नतियों को निर्यात बाजार में लगा दिया गया बनिस्पत इसके कि वे भारतीय जनजीवन में चैमुखी प्रगति लातीं।

इसी कारण अब भी नहीं कहा जा सकता कि भारत आधुनिक औद्योगिक युग में पूरी तरह से प्रवेश कर चुका है। जब भारत तकनीकी शक्ति और आधुनिक उद्योगों की शक्ति को जनजीवन की उन्नति की ओर उन्मुख करने में समर्थ होगा तभी यह कहा जा सकेगा। इसके लिए न केवल भारतीय शिक्षा पद्धति में बड़े परिवर्तन वरन् समाज में मूलभूत परिवर्तन योजनाबद्ध तरीके से करने की जरूरत है। सबसे पहले, धार्मिक रूढ़िवाद, धर्मान्धता और सामाजिक पिछड़ेपन की शक्तियों को पीछे ठेला और हराया जाना है। यही औद्योगिक क्रांति की वास्तविक शिक्षा है जिसे भारत में पूरी तौर पर, अब भी, उतारा जाना है।