"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

सिंध की अरब विजय एवं इस्लामीकरण

पाकिस्तान में, सरकारी इतिहास मुहम्मद बिन कासिम के सिंध पर आक्रमण एवं विजय, 711 से 13 ई; को एक ऐसी घटना की तरह बताता है कि जिसने सिंध की जनता को ब्राहमणों की निरंकुश, अत्याचारी और जातिवादी शासन से समतावादी समाज की ओर प्रेरित करते हुए, स्वतंत्रा किया था। वह समतावादी समाज इस्लाम के आगमन के द्वारा ही संभव हो सका था। इस्लामी विश्वास अपनी समतावादिता, पक्षपातरहितता और न्यायप्रियता के लिए एक अद्वितीय विचारधारा है। इस बात को भी रेखांकित किया जाता है कि अरबी शासकों ने साक्षरता और शिक्षा को प्रोत्साहित किया और सिंध ने सांस्कृतिक नवजागरण को महसूस किया था। सांस्कृतिक नवजागरण ने सिंधु नदी की भूमि के पूर्ववर्तीकाल की समस्त उपलब्धियों को मात दी थी।

चूंकि पाकिस्तान अपने को इस्लामिक तौर पर संरक्षक माने जाने का मूलभूत आधार था, यह सोचना कठिन है कि पाकिस्तान की पाठ्य पुस्तकों में बिन कासिम के आक्रमणों को किसी अन्य ढंग से बतलाया जा सके। ऐसे देश में जहां ईश निंदक कानूनों के तोड़ने पर मृत्यु दण्ड दिया जाता है, क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि कुछ पाकिस्तानी विद्वानों एवं इतिहासकारों ने गंभीररूप से अनिवेषण का जोखिम उठाया, ऐसे दावों को चुनौती देने में। इस विषय पर चंूकि बहुत ही कम काम उपलब्ध है इस काल को समझने का कार्य किसी भी ढंग से आसान नहीं है। तब भी कुछ प्रश्न पूंछना संभव है और बिन कासिम की विजय एवं सिंध की जनता पर उसके प्रभाव के पर्याप्त परिस्थितिगत साक्ष्य पाकिस्तान के शासकीय दावों को झुठलाते हैं।

बहुधा, यह दावा कि 7 वीं सदी में सिंध ब्राहमण प्रधानता के शासन से लड़खड़ा रहा था, स्वीकार कर लिया जाता है क्योंकि उसे विभिन्न औपनिवेशिक और उपनिवेशन पश्चात् के इतिहासकारों और समाजविज्ञों के द्वारा इस कदर बारंबार दुहराया जाता रहा कि कुछ विद्वानों ने इस दावे के पक्ष में वास्तविक प्रमाणों की मांग की है। परंतु जैसा कि भारत में सामाजिक संबंधों के इतिहास में वर्णित है कि 5 से 7 वीं सदी के गुप्तकालीन भू-आदेश प्रगट करते हैं कि जाति तुलनात्मक रूप से लचीली थी और ब्राहमणों को उस काल में सामाजिक प्रधानता प्राप्त नहीं थी। उनकी यह प्रधानता अग्रहारा गांवों के प्रचुर मात्रा में फैलने तक नहीं बन पायी थी। गुप्तकाल के अंत में अग्रहारा गांव की पद्धति बिहार में शुरू हुई और धीरे-धीरे शेष भारत में फैली। उसे मजबूत होने में कुछ शताब्दियों से भी ज्यादा समय लगा था। पंजाब, कच्छ, गुजरात और राजस्थान के समीपवर्ती प्रदेशों में अग्रहारा ग्रामों के संबंध में बहुत ही कम साक्ष्य उपलब्ध हैं और इन प्रदेशों के इतिहास को राजपूत, जाट, जैनों और बौद्धों ने संवारा ठीक वैसा ही जैसा कि ब्राहमणों ने संवारा था। वास्तव में, सिंध के सभी इतिहासकारों ने माना कि बिन कासिम के आक्रमण के समय सिंध की जनसंख्या का पर्याप्त भाग राजपूत और जाटों का था। बौद्धों की उपस्थिति भी दर्ज की गई और उसका अनुमोदन राज्य में बौद्ध स्तूपों और अन्य पुरावशेषों की खोज द्वारा भी हुआ।

यद्यपि बिन कासिम के आक्रमण केे समय सिंध पर ब्राहमण राजा का शासन था लेकिन एक ही पीढ़ी पहले सिंध राजपूत राजाओं के द्वारा शासित था जो, ऐसा माना जाता है, बौद्धमत का समर्थन करते थे। यह संभव है कि राजा दाहिर जनप्रिय न रहा हो यह बताने के लिए कि ब्राहमणों की प्रधानता कुछ शताब्दियों में कायम हो गयी हो। क्योंकि खास राजपूत कुलीन एवं समाज के अन्य हिस्सों के समर्थन द्वारा एक ब्राहमण राजा का राज्य प्रमुख बनना एक घटना रही हो। कोई ज्यादा से ज्यादा यही कह सकता है कि उच्च कुलों में दलगत विरोधों ने सिंध के पतन में योगदान दिया था।

/सिंध के इतिहासकार जी.एम.सईद को 1964 में सिंध संबंधी विरोधी मत के कारण जेल की सजा दी गई थी, ने एक अलग व्याख्या दी थी इस बात का दावा करते हुए कि आक्रमणों के समय राजा दाहिर का शासन धार्मिक सहष्णिुता और उदार विचारों वाला था जिसके कारण विभिन्न धर्म शांतिपूर्वक रहते थे; जहां हिंदुओं के मंदिर, पारसियों के अग्नि मंदिर, बौद्ध स्तूप और अरब मुसलमानों की मस्जिदें थीं। अरब मुसलमानों को समुद्र के किनारे पर बसने की अनुमति दी गई थी। उनके अनुसार सिंध के आक्रमण का मूल उद्देश्य राजा दाहिर से इस बात का बदला लेना था कि उसने परशिया में हारने के बाद ससानियन कुलीनों और सेनापतियों को राज्याश्रय दिया था। यह अविचारणीय नहीं होगा कि उम्मेदों को इस बात का डर था कि ससानियन भारत की भूमि से पुनः उन पर आक्रमण न कर दें और वे सिंध-परशियन सहयोग जो अरब विस्तार के लिए खतरा बन सकता था उसे खत्म करने की वास्तविक या काल्पनिक कामना रखते थे। बाद में पारसियों का गुजरात जाना और उन्हें राज्याश्रय दिया जाना इस बात की पुष्टि करते प्रतीत होते हैं।/

जबकि जातिविभेदों ने हिंदू समाज के संयुक्त प्रतिरोध इस्लामी आक्रमणकारियों को न देने दिये हों, यह प्रगट नहीं होता कि इस्लामी आगमन ने सबसे दलित जातियों को, स्वतंत्राता दिलाई हो। अलबरूनी, खिवा में 973 ई. में जन्मे, के अनुसार हिंदू समाज में घृणित काम करने वाले लोगों के साथ भेदभाव बरता जाता था परंतु यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सिंध और भारत के अन्य जगहों में, स्पष्ट तौर से ऐसे उत्पीड़ित समुदाय थे जो कभी इस्लाम में नहीं बदले गए और उन्हें हिंदू और मुसलमानों दोनों, के हाथों भेदभाव सहना पड़ता रहा।

/यह भी ध्यान में रखना चाहिए, 11 से 12 वीं ई. के सुमरा शासक इस्लाम के परिवर्तित राजपूत थे, 13 से 14 वीं सदी के ही सुमराओं के समान। उपनिवेशन के बाद जातियां व्यापार और वाणिज्य जैसे हिंदू बनिया और लोहना या उनके मुसलमान प्रतिपक्ष जैसे मेमोन ने कारीगरों और किसानों एवं नगद कर्जदारों पर मजबूत पकड़ बनाई और उनसे से जुड़े। कमोबेश इस्लाम परिवर्तन ने पूर्ववर्ती जातिगत प्रतिबद्धताओं और सामाजिक श्रेणियों को समाप्त नहीं किया। जरीना भट्टी कीः ’’सोशियल स्ट्र्ेटिफिकेशन अमंग मुस्लिम इन इंडिया’’ और एम.एन.श्रीनिवास कीः ’’काॅस्टः इट्स टुवंटीयथ सेंचुरी अवतार,’’ वाईकिंग न्यू दिल्ली, 1996, पृ. सं. 249-253 देखिए।/

अलबरूनी ने भारत और प्राचीन परशिया में जातिप्रथा की समानतायें देखते हुए पड़ौसी पंजाब के विवरण दिये और शहर या गांवों में चार प्रमुख जातियों या वणों के आपसी संबंधों एवं सहयोग, यहां तक कि साथ-साथ रहने, के बारे में लिखा और यह पाया कि अछूतों ने अपने आठ समुदाय बनाये हुए थे और वे शहर या गांव के बाहर पास में ही रहते थे। उसके उल्लेख से कोई भी यह अर्थ निकाल सकता है कि अछूतों का दर्जा नीचे का दर्जा था परंतु 4 जातियों के बीच ब्राहमण या क्षत्रिय और उसी तरह वैश्य और शूद्र के बीच दूरी उस तरह से नहीं थी जैसे कही या बतलाई जाती है।

अनबरूनी ने इस बात पर बहुत ही कम लिखा कि समाज में ब्राहमणों की सत्ता या स्तर विशेष था परंतु ईश्वरी मामलों पर वे शब्दों से युद्ध करते थे /हिंदुओं के बारे में जिनका उसने अध्ययन और जिनसे व्यवहार किया/ परंतु वे उनकी आत्मा या शरीर या संपदा धार्मिक विरोध के कारण नहीं लेते थे। उसने यह भी पाया कि हिंदुओं ने विज्ञान की अनेक शाखायें बना ली थीं और असीम साहित्य उनके पास था .....। सीढ़ीदार कुओं से वह खासकर प्रभावित हुआ और लिखा थाः उन्हांेने कला की उंचाई प्राप्त की है। हमारे लोग /मुस्लिम/ जब उन्हें देखते तो आश्चर्यचकित होते और उनके विवरण देने में असक्षम हैं और उनके समान कुछ भी बनाने में तो और भी असमर्थ हैं।

हिंदू समाज के सरकारी विवरणों से अलबरूनी के पंजाब संबंधी ब्यौरे अलग-थलग हैं। बल्कि वे पाकिस्तान के अधिकारिक इतिहासकारों के लिए कष्टदाई उक्तियां पैदा कर देते हैं। यदि इस्लाम सचमुच में हिंदू समाज को ब्राहमणवाद की बुराईयों से मुक्त करने के लिए एक कारक थे /जैसा कि बार-बार घोषित किया जाता है/ तब सिंध में इस्लाम की विजय की तीन सदियांे बाद एकदम पास पंजाब में हिंदू समाज जिंदा बना रहा और इस्लामीमत ने हिंदुओं के बीच कुछ ही परिवर्तितों का विश्वास जीता परंतु भेदभाववादी जाति समुदायों में नहीं ? और बिन कासिम के बाद सिंध शिक्षा और संस्कृति का बड़ा केंद्र बना था तो फिर अलबरूनी ने /समर्पित मुसलमान/ पंजाब में हिंदू वैज्ञानिक किताबें पढ़ीं परंतु इस्लामी वैज्ञानिक किताबें सिंध में नहीं पढ़ीं !

यह निश्चित तौर पर अजीब है कि उसकाल का एक भी पुरातनकालीन साक्ष्य या स्मारक उपलब्ध नहीं है जो सिंध में अरब संस्कृति के दावे को पुष्ट कर सके ? एक ब्रिटिश इतिहासकार ने टिप्पणी की थीः ’’इसके बाबजूद कि उनका आधिपत्य आंशिक और अस्थाई रहा, हमारे देश /ब्रिटेन/ की मिट्टी उनकी /रोमन/ इमारतों, केम्पों, सड़कों, सिक्कों, बर्तनों से भरी है यह प्रगट करने के लिए कि वे ब्रिटेन के मालिक रहे। परंतु सिंध में अरब प्रभुत्व के संदर्भ में किसी भी यात्राी के लिए यह असंभव है कि उस भूमि की यात्रा में उनके अधिपत्य के अभिलेख की अनुपस्थिति से चमत्कृत न हो।’’
यह सब और भी चकराने वाला है जब कोई पड़ौसी राज्यों, राजस्थान और गुजरात में, 8 वीं और 13 वीं सदी के बीच बने प्रभावशाली और समुद्ध मंदिरों, सीढ़ीदार कुओं, स्वागत द्वारों, विद्यालयों और मठों को देखता है जिन्होंने सफलतापूर्वक अरब आक्रमणों से अपना बचाव किया था।

सिंध के इतिहासकार जी.एम.सईद के अनुसार 11 वीं सदी के सुमरा राजपूत थे और नाममात्रा के मुसलमानों ने सिंध में राज्य सत्ता हासिल की और तीन सदियों तक राज्य किया। तब तक सिंध अरब खलीकत को कर चुकाने से मुक्त हो चुका था और सुमराओं और बाद के सुमाओं के द्वारा बनाये गए स्मारक बचे हैं यद्यपि वास्तुशिल्प के महान निर्माण कार्य सिंध में 16 वीं सदी से ही शुरू हुए थे।

यद्यपि 9 वीं और 10 वीं सदी के अरब अभिलेखों में विजय पूर्व के सिंध में व्यापार और कृषि उत्पादकता के संदर्भ उपलब्ध हैं परंतु ध्यान देने योग्य नहीं हैं, क्योंकि अरब की भूमि कृषि क्षेत्रा में सदैव पिछड़ी रही थी और सिंध के सकारात्मक संदर्भ ग्रीक इतिहासकारों के लेखन में उपलब्ध हैं /जिन्होंने वर्णन किया कि ग्रीकों की नजर से वह सबसे समृद्ध था/ और कुछ ही शताब्दियों बाद सिंध को रोमन इतिहासकारों के द्वारा धनाढ्य देश माना गया था /निचले सिंध के पटाला को विशेष संदर्भ में व्यापार का केंद्र कहा था। जो आश्चर्यजनक है वह यह है कि अरब विजय के बाद, सिंध सदृश्य ही विशाल पैमाने पर गुजरात एवं अरब के बंदरगाहों के बीच, व्यापार होता था।

इस रहस्यमयता का समाधान सिंध की विजय के परशियन अनुवाद चाचनामा या तारीख़ ए हिंद वा सिंध, मोहम्मद अली बिन हमीद बिन अबु बकर /कुफी, 13 वीं सदी/ है जो एक बिलकुल दूसरी ही कहानी बयां करती है। भारतीय उपमहाद्वीप में एक महान सामाजिक क्रांति के भांति इस्लाम के आगमन की कहानी का विरोध करते हुए चाचनामा में उसे एक डकैत समान विजय बताया उम्मद शासकों के लिए लूटी हुई भारी संपदा, सोना-चांदी और आभूषण और दास स्थानांतरण करते हुए जिसने जनता पर कहर बरपा। बिन कासिम और उसके सैनिक सहयोगी विजय से बड़े तौर पर लाभांवित हुए और स्थानीय जनता की कीमत पर वे स्वयं रहीस बने। उसकाल के अन्य इतिहासकारों ने - कुतुहू ए बुल्दान, अहमद बिन यहाया, बिन जबीर /892 से 893 सदी/ ने वर्णन किया कि किस प्रकार की जल व्यवस्था के विनाश से विजयें हासिल की गईं जिससे जनता पीने के पानी के अभाव में आत्मसमर्पण करने के लिए विवश हुई थी। दोनों प्रमाण सैनिकों और नगरवासियों की हत्या एवं स्त्रिायों और बच्चों को बड़ी संख्या में दास बनाकर ले जाने का वर्णन करते हैं।

संचित सोना-चांदी और अन्य संपत्तियों को लूट और अनुमानतः एक मिलीयन दिरहम प्रतिवर्ष सालाना भेंट देने की मांग से सिंध अपने पूर्वी पड़ौसी राज्यों - राजस्थान और गुजरात जो इन विपदाओं से मुक्त रह गए थे, के मुकाबले में सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से ग्रहण ग्रस्त हो गया था। यह बतलाना रुचिकर होगा कि इस्लाम के संदर्भ सैन्य विजयों के बाद के विचार हैं जब धन संपदा को लूटना और दासों को ले जाना भगवान, इस्लाम या पवित्रा पैगम्बर के नाम पर न्याय सम्मत था। मंदिरों को मस्जिदों में बदलना सैन्य एवं राजनैतिक आक्रमण की सफलता के संकेत हैं बजाय कोई धर्म विजय के।

इन दो प्रमाणों में से जो उल्लेखनीय है वह है जनता का आम धर्मपरिवर्तन। इस्लाम-परिवर्तन हारी हुई जनता का एक मात्रा विकल्प था और ऐसा अनुमान है कि इस्लाम में परिवर्तन, समर्पण, नई सरकार को नजराना देते रहना और विजेताओं की सत्ता को चुनौती न देने का प्रमाण था। यद्यपि हर किसी को धर्मपरिवर्तन नहीं करना पड़ता था परंतु सबसे खतरनाक और सबल प्रतिरोधियों पर धर्मपरिवर्तन का दबाव रहता ही था - राजपूत और जाट और स्त्रिायों की अपेक्षा पुरुषों पर। दूसरों का परिवर्तन तो साधारणतया बाद की बात थी।

अरब प्रसार के काल में यह एकदम असाधारण बात थी, और बड़े रूप से इस मत को पुष्ट करती थी कि ’’शासक का धर्म ही जनता का धर्म’’ होता है और इसे अरब इतिहासकार इब्न खल्दून, जन्म टयुनिशिया 1332, द्वारा बारंबार और जोर देकर कहा जाता था, ’’मुक्वादिमाह - इतिहास का एक परिचय’’ में। इब्न खल्दून की रचनायें रुचिकर हैं क्योंकि एक समर्पित मुस्लिम और पैगम्बर तथा कुरान की कथाओं के समर्थक की तरह उसके अरब साम्राट घरानों एवं उनके मूल अरब प्रायद्वीप के इस्लामीकृत बेनुइन कबीलों से होने के वर्णन को जो विश्वसनीयता और स्वीकारिता मिली वैसी अन्य इतिहासकार प्राप्त नहीं कर सके। परंतु अरबी दुनिया के सर्वोत्तम इतिहासकारों में से एक स्तर की जिम्मेवारी है अतिश्यिोक्तिपूर्ण, अनर्गल और असंभव दावों पर प्रश्न चिह्न लगाने की जो अल मसौदी और अल वाकुदी जैसे इतिहासकारों द्वारा किये गए। इब्न खल्दून सचेत था कि राजाशाही की शक्ति एवं गौरव को किसने बढ़ाया और अरब दुनिया में राजकुल कैसे उदय हुए और कैसे उनका पतन हुआ। उसकी कुछ रचनाओं में सराबोर करने वाला बौद्धिक तत्व महत्वपूर्ण है। दो राष्ट्र् नीति और आज पाकिस्तान में इस्लामी जिहाद के ईषालु वकालत करने वालों के विपरीत इब्न खल्दून विशाल और स्थाई साम्राज्यों के बनने एवं सुरक्षित रहने में राजशक्ति की भूमिका के वर्णन ज्यादा खुलासा करने वाले हैं।

यद्यपि इब्न खल्दुन कुरान से बार-बार उदाहरण देते हैं और ऐसी ही भगवान की इच्छा है या ऐसे ही भगवान के रास्ते हैं , वह समानता या सामाजिक न्याय से नैतिक सरोकार व्यक्त करता है, जब वह कुलीन विजयों या कुलीन सत्ता की अतिशयता के बारे में लिखता है। कैसे के बारे में बोलते हुए साधारण जनता शासक के धर्म को मानती है उसने लिखा थाः शासक अपने मातहतों को दबा के रखता है। उसकी प्रजा उसकी नकल करती है क्योंकि वे उसमें संपूर्णता मानते हैं बिलकुल वैसे ही जैसे बच्चे अपने पालकों की या विद्यार्थी अपने शिक्षकों की नकल करते हैं। ईश्वर बुद्धिमान और सब कुछ का ज्ञाता है। यद्यपि कोई भी इस कथन कि क्यों जनता इस्लाम को स्वीकार करती है के सही वर्णन पर प्रश्न कर सकता है कि अरब दुनिया में इस्लामी शासकवर्ग जनता को अपना धर्म चुनने या पालने के लिए कोई भी स्वतंत्राता नहीं ंदेता था।

इब्न खल्दुन के नजरिये में राजकुल दल भावना से पैदा होते हैं, उसका विश्वास था, दल-भावना रक्त बंधन या उस प्रकार के संबंधों से उत्पन्न होती थी। कठिन परिस्थितियों के कारण बेदुउन रेगिस्तान से परिचित थे, उसने उनमें दलीय भावना के पैदा और विकसित होने की सबसे अधिक योग्यता महसूस की। उसने यह भी पाया कि वे लड़ने में और एक दूसरे को दबा कर रखने में निडर थे। उनकी बर्बरता में राजशाही के बीज देखे। उन्हें अराजक और जंगली भी माना क्योंकि वे दूसरों पर धावा बोलने एवं लूट के लिए समर्थ थे और जिन्हें वे जीत लेते उनकी संस्कृतियों को नष्ट कर देते थे। वह बेदूउन विजयों के बाद सूडान, ईराक, सीरिया और यमन के विनाश का उदाहरण देता है। वह तर्क देता कि राजाशाही नेतृत्व के विकास के लिए इस्लाम जैसे शक्तिशाली धर्म की आवश्यकता थी, जैसा कि उसने अरब की विजय की शुरूआती सफलताओं में देखा था। यह इस्लाम के संग-साथ रहने की शक्ति थी जिसने अरबों को राजनैतिक नेतृत्व के साथ दल भावना से युक्त किया जो जीतने और राजाशाही वंशावलियों के जीवित एवं स्थाईत्व के लिए आवश्यक था। उसने पश्चात्वर्ती पतन का कारण धर्म की उपेक्षा एवं दल भावना तथा नेतृत्वकारी क्षमता का परित्याग, संपदा का लालच और नागरी ऐश्वर्य को माना था।

इन सिद्धांतों के उन्नत होने में राजवंशी शासनों के उत्थान और पतन की, अरब विजयों के बाद परशिया का उदाहरण देते हुए उसने माना कि एक हार गया देश दूसरे के शासन के आधीन जल्दी ही नष्ट हो जाता है, उसने एक देश के द्वारा दूसरे देश के विनाश को नैतिक भूल नहीं माना। उदाहरण के लिए उसने उप-सहारा अफ्रीका के देशों की विजयों से उपजी दुरावस्थाओं के विरोध में किसी भी नैतिक प्रतिवाद को नकार दिया था, यह कहते हुए कि वह उनकी कमजोरी और अयोग्यता के कारण अरबों की जीत का परिणाम था।

इब्न खल्दून अरब विजयों में जनता के इस्लामीकरण से विजेताओं या दमितों को कोई लाभ मिले ऐसा नहीं मानता और न ही इसमें इस्लामी नीतिशास्त्रा में कोई विरोधाभास मानता था। उसकी रचनाओं में विशेष यह था कि इस्लाम कबीलाई नेतृत्व के निकास का कारक था और इस्लामी शासककुलीनों की दलीय भावना में जो राजनैतिक नियंत्राण के योगदान में जोड़क का साधन था। इस्लाम शासक बौद्धिक वर्ग की दलीय भावना में जो आवश्यकरूप से भागीदारी नहीं करते थे उनके नियंत्राण का साधन था। पक्षपात रहित या न्यायोचित संबंधी कथन अरबों की विजय के इस्लाम के लिए कृतज्ञकारी विवेचन समान थे।

इस प्रकार से यद्यपि इब्न खल्दून ने कोई खास कथन सिंध की विजय संबंधी नहीं दिये परंतु दूसरी सीमाओं की सभ्यताओं का बेदुउन आक्रमण या अरब नियंत्राण से क्या हुआ था का उसका बेबाक मूल्यांकन सुयोग्य था जैसा कि चाचनामा या फुतुहू बुल्दान में था। इससे उसकी रचनाओं से यह अर्थ लगाना संभव है कि अरब आक्रमण और सिंध विजय ऐतिहासिक नमूने का एक राजनैतिक तरीका था जो सीरिया से सिंध तक फैला था। अरब साम्राज्य ने तेजी से अपनी पहुंच और नियंत्राण को प्रत्येक पुरानी सभ्यता को धराशायी करते हुए बढ़ाया था। इतिहास का यह नजरिया विचार के लिए एक नया आयाम लायेगा कि किसने अरब सफलता के लिए योगदान दिया था - दलगत भावना और सैन्य साहस जो भौतिक तौर पर ज्यादा उन्नत था, परंतु सुस्थापित नागरी सभ्यतायें उनका प्रतिरोध नहीं कर सकीं।

सभी हारी सभ्यताओं के लिए एक समान यह था कि जनता के मध्य कोई जातीय भक्ति के बंधन नहीं थे। सामाजिक तौर पर छितरे होने से धार्मिक सहष्णिुता और विभिन्नता या जात विभाजन के कारण /जो श्रम के अंतर और विशेषताओं से या दोनों से बढ़कर/ संभव है कि ये सभ्यतायें छितरा गईं और आगे बढ़ उनकी सुरक्षा कमजोर हो गई। क्योंकि इन आक्रमणों ने हिंदू, बौद्ध, मैनिशियन और पारसी समाजों को समान रूप से एक ओर ढकेल दिया। इतिहास का यह साधारण नजरिया इस प्रकार जातिवाद की ब्राहमणवादी प्रधानता, कठोरता या सर्वोपरिता के मूलभूत कारक की धारणा पर ही प्रश्न करेगा।

/जो विचाराधीन है और इस विषय पर आगे खोज होना चाहिए - नीचे संदर्भ देखिए, वह है बौद्धों के बुद्धिवाद का पतन, समाज के महत्वपूर्ण अंग ब्राहमणों की भविष्यवाणियों को स्वीकार करने लगे थे और व्यक्तिगत और जनसाधारण के धर्म-रिवाजों यथा हवन, सामूहिक आरती और जागरण थे जिन्होंने समाज को आध्यात्मवाद और अव्यवहारिक दिशा की ओर मोड़ दिया होगा। परंतु यह ध्यान में रखने योग्य है कि इस्लाम के आगमन ने समाज को बौद्धिक और वैज्ञानिक दिशाओं की ओर नहीं मोड़ा। अरबों ने भारतीय ज्योतिषविज्ञान के सिद्धांतों में रुचि ली थी और इस्लाम ने आत्मा को हराने वाले कलापों का गठन कर लिया था जो लम्बे समय में ज्यादा असरकारक अपेक्षाकृत सामाजिक रिवाजों के हो गए थे। और उस समय हिंदू समाज में तो सामान्य बात बन गये होगें।/

यद्यपि अरब सफलताओं में इब्न खल्दून की रचनायें इस्लाम की भूमिका पर जोर देती थीं उन से यह निर्णय करना संभव नहीं है /और जैसा कि अन्य इस्लामी विद्वानों ने प्रयास किया/ कि इस्लाम की सार्वभौमिकता एवं सर्वोपरिता का दावा किया जाये कि वह उन समाजों के जो उनके मत को स्वीकार कर लेते थे, सांस्कृतिक स्तर को उन्नत करने का स्वाभाविक रुख रखता था। यह कि इस्लाम एक राजनैतिक औजार ज्यादा था /बजाय अपने आप में उन्नत, वैज्ञानिक, दार्शनिक या सांस्कृतिक पद्धति के/ यह बताने के लिए कि कैसे खास सभ्यताओं से उम्मेद सांस्कृतिक प्रेरणा प्राप्त करते थे जिन्हें वे हटाना और बदल देना चाहा करते थे। यह अब्बासिदों के साथ ज्यादा था कि जो उम्मेदों के उत्तराधिकारी थे। दोनों ने विद्वानों को बुलाया /खासकर उन्हें जिनको वे दास बंदियों की तरह लाये थे/ उन्हें वैज्ञानिक एवं दार्शनिक किताबों के अनुवाद करने के लिए उत्साहित किया या उक्साया मय ईजिप्त, ग्रीक, सीरिया, बेबीलोनिया और भारत के प्राचीन एवं तात्कालिक स्त्रोतों से।

यह ध्यान देने के लिए विशेषकर महत्वपूर्ण है कि अब्बासिदों के राज्य में कुछ हद तक राज्य एवं चर्च का अलगाव था जो कला एवं विज्ञान के जाने माने आश्रयदाता थे। राज्य और चर्च के इस अलगाव ने बगदाद और बसरा में विज्ञान की खोजों के होने में सहायता दी और विभिन्न स्त्रोतों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए राजदरबारी विद्वानों को मौका दिया।

अरब ओ हिंद के ताल्लुकात के लेखक सईद सुलेमान नद्वी और अन्य अनेक इतिहासकारों के अनुसार अरब में ज्ञान प्राप्ति के लिए सिंध के गणितज्ञों और दार्शनिकों ने अद्वितीय योगदान दिये थे। खलीफाओं और मालिकों के उपचार के लिए अनेक वैद्य सिंध से बुलवाये गए थे जिनमें गंगा और मनका भी थे जिन्होंने हारून अल रशीद का भी इलाज किया था। नया-नया परिवर्तित मुस्लिम सिंधी डाक्टर था सालेम बिन मायला /भल्ला/ जिसने उल्लेखनीय काम किया था। अबुल अता सिंधी, हारून बिन अब्दुल्ला मुलतानी, अबु मुहम्मद मनसूरी, मंसूर हिंदी, मौसा बिन याकूब, सफी, अबू जिला सिंधी और कश्आजम बिन सिंधी बिन शाहक ने अरबी कवियों एवं लेखकों की तरह नाम कमाये थे। सिंधी विद्वान और विकित्सकों ने बगदाद में गणित, ज्योतिषशास्त्रा, औषधिशास्त्रा, साहित्य और नीतिशास्त्रा विषयों के संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद अरबी भाषा में किया।

कुरान की एकांतिकता और सूफियों की उदारता के बीच अंतर को समझना चाहिए क्योंकि ये तो सूफी ही थे जिन्होंने इस्लाम को स्वीकार कर लेने वाले देशों में कला और संस्कृति के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिए। जब तक सूफियों को मान्यता दी जाती रही तब तक उन्नति का रास्ता कायम रहा और दूसरी सभ्यताओं से सकारात्मक तत्वों को अरब समाज अपने में समाहित करता रहा।
अनेक अरब विद्वान भारतीय वैज्ञानिक पुस्तकों के अनुवाद एवं अभिग्रहण पर विश्वास करते थे। प्रसिद्ध विद्वान अल फजरी, 8 वीं सदी और उसके पुत्रा मोहम्म्द और याकूब बिन तारिक संस्कृत की खगोलविज्ञान संबंधी पुस्तकों केे अनुवाद से संलग्न रहे थे। बसरा में जन्मे 9 वीं सदी के अलकिंदी ने भारतीय अंकों के उपयोग का वर्णन करते हुए गणित संबंधी 4 पुस्तकें लिखीं। अल ख्वारिज्मी, खिबा में जन्में, मृत्यु 850 में, कालिफ अल मामुन, 813-833, राज्यकाल में ग्रीक और भारत के गणित, खगोलविज्ञान और भूगोल संबंधी ज्ञान की समाहिती के लिए ख्यात् थे। दूसरों ने वैज्ञानिक पद्धति की भारतीय रचनाओं के अनुवाद किये और चाणक्य के अर्थशास्त्रा, महाभारत और पंचतंत्रा कहलीसा और दिमना के नाम से प्रसिद्ध हुईं। परशियन और अरबी दोनों में बड़े पैमाने पर अनुदित पुस्तकों कोे अब्बासिदों के शासनकाल में सचित्रा करके पुनः रचा गया था।

सिंधी बही खाते भी प्रचलित थे। जहेज, मृत्यु 874 ई. के अनुसार ईराक में सभी सराफ सिंधी थे। सिंध कृषि उत्पाद और नगद फसलों का और साथ ही, मुलायम और रंगीन चमड़े सहित चमड़े की विभिन्न वस्तुओं का बड़ा निर्यातक था। मंसूरा के चमड़े के जूते खास तौर पर प्रसिद्ध थे। इमाम हनोई की मूरूग उज जहाब से उद्धत। इस प्रकार सिंध के विज्ञान, संस्कृति और आर्थिक जीवन का अरब पर गहरा प्रभाव था।

परंतु जबरिया इस्लामीकरण के बाद सिंध में विज्ञान का विकास धीमा हो गया और अरब, परशिया एवं मध्य एशिया का ध्यान पंजाब, गुजरात और भारत के अन्य बौद्धिक केंद्रों की ओर गया। इसलिए यह दावा कि बिन कासिम जैसे अरब आक्रमणकारियों के संरक्षण में इस्लाम के आगमन की घटना सिंध की जनता की समृद्धि और सांस्कृतिक उत्थान के लिए नये प्रगतिशील युग की द्योतक है, एक निराधार दावा है और वास्तव में, यदि विरोधी साक्ष्यों को परखें तो लगभग असंगत है। उस घटना ने ’’सिंध को अकथनीय और भयंकर स्थितियों से मुक्ति दिलाई’’ यह राजनैतिक जरूरतों से उत्पादित और इस्लामी शौर्यवानता से प्रेरित एक दूसरी कल्पना है। इसके लिए साफ या तर्क सम्मत ऐतिहासिक तथ्यों और साक्ष्यों का नितांत अभाव है।

अधिकांश भाग सिंध के सरकारी इतिहास कथानकों और भ्रमों की तरह जीवित रह सकते हैं। इस प्रकार की वाकपटुता के पीछे गहरा कष्टदाई और अकथित उलझाव यह है कि सिंध की जनता खुद ब खुद स्थानीय तानाशाहों से संघर्ष करने में नपुंसक थी और उसे स्वतंत्रा कराने के लिए बाहरी लोगों की आवश्यकता थी। इसके अतिरिक्त एक यह भी अनुमान था कि सिंध के लोग अपने बल पर सांस्कृतिक मूल्य का कुछ भी पैदा करने के योग्य नहीं थे और उनके भीतर जो भी सांस्कृतिक व दार्शनिक पद्धति उत्पन्न हुई थी वह अपर्याप्त थी और बाहरियों द्वारा उनको बदले जाने की आवश्यकता थी। इस प्रकार के दावे न केवल एक राष्ट्र् के सम्मान के लिए घातक हो सकते हैं वरन् ये वे ही ख्यालात् हैं जो स्पष्ट रूप से औपनिवेशिक शासन के ख्यालात् थे।

क्योंकि पाकिस्तान के निर्माणकत्र्ताओं के मस्तिष्क में मुश्किल से गैर-उपनिवेशन आ पाता है, इस प्रकार के अनेक पूर्वाग्रह बिना चुनौतियों के ही रह गए हैं। इसके बदले दो राष्ट्र् नीति और देश के बटवारे ने पाकिस्तानियों के लिए कितने ही असंभव और हानिकारक विवादों को पैदा किया। यद्यपि यह असंभव है कि पाकिस्तान का वर्तमान शासकवर्ग कभी भी सिंध को सही और सत्य के तौर पर पेश करेगा तथापि साधारण सिंधी पूंछ सकता है कि सिंध में इस्लाम का आगमन जनसाधारण के लिए लाभदायी था तो फिर यह कैसे है कि आज भी सिंध का ग्रामीण जनसाधारण आदमी दुनिया में सबसे अधिक अशिक्षित और पददलित है। क्या यह व्यंगात्मक नहीं है कि पड़ौसी राजस्थान में /जोकि भारत का मूलरूप से हिंदू जनसंख्या के साथ सबसे कम उन्नत राज्य/ पाकिस्तान के 45 प्र.श. के मुकाबले 61 प्र.श. से अधिक शिक्षित लोग हैं। /निश्चित ही भारत के सबसे अधिक औद्योगिक गुजरात राज्य या सबसे अधिक समृद्ध पंजाब राज्य, /दोनों में 70 प्र.श. शिक्षा/ दोनों से सिंध की तुलना करना तो स्थिति को और भी दुरूह बना देना है।/

आज का सिंध /जो एक समय दुनिया की शुरूआती सुव्यवस्थित सभ्यताओं में से एक की हरप्पन और मोहनजुदाड़ो की सभ्यता सांस्कृतिक और आर्थिक कष्टों में है/ भारी तौर पर गल्फ के तेल की राजाशाही के देश-प्रत्यावर्तन पर आर्थिक रूप से औपनिवेशिक भूतकाल केे वजन और वर्तमान की तानाशाही से लड़ता हुआ बेहद आश्रित है। सिंध धार्मिक संहारक युद्ध के खून से लगातार सनता रहता है। यहां तक कि आंतरिक रूप से पंजाबी सैन्यवर्ग के हाथों भेदभाव को सहता रहा। उसके सच्चे इतिहास की वापिसी के लिए पहला कदम भूतकालीन औपनिवेशिक बेड़ियों से और अरब आक्रमणों और विजयों के झूठे गुणगान से छुटकारा पाना होगा जिसने उसकी समृद्धि को लूटा और बदले में चंद छुद्र टुकड़े दिये।

वस्तुपरक और पक्षपातरहित ऐतिहासिक अभिलेख प्रगट कर सकते हैं कि सिंध को अरब आक्रांताओं द्वारा ’’मुक्त कराया और सुसंस्कृत किया’’ से बात और साक्ष्य एकदम उलटे हैं। बल्कि सिंध ने नये अरब को शिक्षित और सुसंस्कृत किया और जिसने बदले में भारत के ज्ञान को यूरोप में पहुंचाया था। इस्लाम पूर्व के इतिहास को घृणा या अवहेलना की दृष्टि से देखने की बजाय सिंध के बौद्धिक और सांस्कृतिक रिवाजों के सकारात्मक पक्षों का संज्ञान लिया जाना चाहिए जो इस्लामीकरण पूर्व विकसित हुए थे और जिन्होंने अरब और पश्चिमी दुनिया की सभ्यताओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।

संदर्भः

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टिप्पणीः

जैसा पहले कहा जा चुका है ज्योतिषविद्या का नकारात्मक प्रभाव और हिंदू समाज के कर्मकाण्ड की भ्रांतिपूर्ण आस्था ने आक्रांताओं /जो जंग के मैदान में गौरव और नैतिकतारहित थे/ के विरुद्ध सुरक्षात्मक योजनाओं के बनने में बाधा उत्पन्न की। आक्रांता ज्यादा व्यवहारिक और युद्ध कौशल में भारी प्रतीत होते हैं। सिंध के संबंध में इस प्रकार के कारण कितनी दूर तक कारक बने थे, और अधिक खोजबीन की जरूरत है। परंतु बाद की लड़ाईंयों के प्रमाण षड़यंत्राकारी हैं।

उदाहरण के लिए गुजरात का एक वाक्या है जनता की सामूहिक ’’आरती’’ और ’’हवन’’ जो इस विश्वास से किए गए थे कि आक्रमण टल जायेगा बजाय किसी प्रकार की मजबूत सुरक्षात्मक योजना या तैयारी के। यह भी उदाहरण है पृथ्वीराज चैहान की सेना ने लड़ाईयों में अनेक बार इसलिए मौके गंवाये थे कि ग्रह-नक्षत्रा की दशायें उनके पक्ष में नहीं होने के कारण सेना ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया था।

परंतु इन सब कमियों के होने पर भी यह प्रगट होता है कि ’’महाभारत’’ /जिसका उस समय तक परशियन और अरबी में अनुवाद हो चुका था/ में वर्णित संकोच और संवेदनारहित सैन्य तौर तरीकों को आक्रमणकारियों ने हमारे मुकाबले ज्यादा सावधानी, गौरव और स्वाभिमानी ढंग से अपनाया लिया था जबकि भारतीय शासक युद्ध की आदरपूर्ण नैतिकता से ही जुड़े रहे परंतु आक्रांता ऐसे किसी सदाचरण या नैतिक अवरोध से मुक्त रहे थे।

दूसरी ओर, राजस्थान और बुंदेलखंड के राजपूत और उड़ीसा के कलिंग/उत्कल राजा सफलतापूर्वक आक्रांताओं से लड़े और दूसरे दिन की लड़ाईयों के लिए पूर्व तैयारियों में संलग्न रहे। और संभवतया यह कोई संयोग नहीं था। उड़ीसा क्षेत्रा में समाज पर ज्योतिष एवं वैदिक कर्मकाण्ड का 15 वीं सदी तक अपेक्षाकृत कम प्रभाव रहा और राजस्थान और बंुदेलखंड में ब्राह्मणों की भागीदारी उतनी प्रमुख कभी भी नहीं रही। यद्यपि ज्योतिष की रुचि ने अनेक भारतीयों को गणित और खगोलशास्त्रा में महत्वपूर्ण खोज करने के लिए प्रेरणा दी थी परंतु उसका युद्ध भूमि में अतिशय प्रभाव स्पष्ट तौर पर घातक ही रहा था।

दूसरे विश्लेषकों ने आक्रमणकारियों की सफलता का श्रेय आंशिक तौर पर बेहतर हथियारों एवं युद्ध की उन्नत तकनीक को दिया। कुछ इतिहासकारों ने युद्ध क्षेत्रा में हाथियों की उपादेयता की अविश्वनीयता के उद्धण दिये हैं कि अचानक और अनापेक्षित सेना की खास लड़ाईयों के मैदान मंे उनके नष्ट हो जाने के। हाथियों को जहर दिए जाने के भी उदाहरण हैं। आक्रमक शक्तियां छल-कपट और आतंक से रक्षक जनता को तहस-नहस कर डालते थे। यह भी प्रगट होता है कि भारतीय रक्षण मुख्यतया सेनापति की वीरता एवं उसके जिंदा रहकर लड़ाई में भाग लेते रहने पर आश्रित होता था। एक बार सेनापति पकड़ा या मारा गया तो शेष सेना का मनोबल टूट जाता और वे धराशायी हो जाते। कुछ राजाओं की कहानियां भी हैं जिनमें वे कायर की तरह से मात्रा छोटी-सी पिछाहट या हारने पर भाग निकलते थे बजाय लड़ने के।

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