"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

उड़ीसा का इतिहासः एक परिचय

उड़ीसा का इतिहास कई प्रकार से भारत के उत्तरी मैदानी भागों के इतिहास से भिन्न रहा है। भारतीय इतिहास की कई विशेषतायें जो आम तौर पर अन्य क्षेत्रों में मिलतीं हैं, वे उड़ीसा में लागू नहीं होतीं। इसलिए उड़ीसा का इतिहास एक रोचक अध्ययन सामग्री है।

उड़िया शब्द ओडिय शब्द का अंग्रेजी विकृतरूप है जो स्वयं ओड्र या उद्र जाति का आधुनिक नाम है। यह जाति आधुनिक उड़ीसा के मध्य भाग में निवास करती थी। उड़ीसा कलिंग और उत्कल जातियों का भी निवास स्थान रहा है जिन्होंने इस क्षेत्रा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कलिंग का नाम प्रारंभिक वैदिक कृतियों में मिलता है। 6 वीं सदी ई.पू. में वैदिक सूत्राकार बौधायन कलिंग की चर्चा करते हुए उसे वैदिक क्षेत्रा से अलग बताते हैं। इससे पता लगता है कि इस क्षेत्रा में ब्राह्मण संस्कृति का प्रभाव नहीं था। भारत के कुछ अन्य हिस्सों के विपरीत जन जातीय रीति रिवाज और परंपराओं ने यहां की राजनैतिक संरचना और सांस्कृतिक गतिविधियों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका 15 वीं सदी तक निभाई। इसके बाद ब्राह्मणवादी प्रभाव ने यहां की परंपराओं पर विजय पाई और जातीय विभेद ने सामाजिक गतिविधियों पर अंकुश लगा दिया। प्राचीन जनतांत्रिक परंपराओं के अवशेष धीरे धीरे विघटित होते गए।

कलिंग

कलिंगीय इतिहास के प्रारंभिक चरण में कलिंग वासियों ने स्वाभिमानी स्वतंत्रा जन के रूप में प्रसिद्धि पाई थी। बढ़ते हुए मौर्य साम्राज्य की विशाल सेनाओं का कलिंग वासियों ने जिस निडरता और साहस से प्रतिरोध किया उसने कलिंग के खिलाफ अशोक के सैनिक अभियान को मौर्य इतिहास के पन्नों में सर्वाधिक खूनी अभियान बना दिया। संभवतया उस आशातीत बहादुरी के कारण ही एक न्यायोचित और दयालुपूर्ण प्रशासन का आह्वान करते हुए सम्राट अशोक कलिंग में दो सरकारी घोषणायें करने के लिए बाध्य हुए थे।

अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मौर्य शासन कलिंग में टिक नहीं पाया। पहली सदी ई.पू. तक कलिंग का जैन राजा खारवेल इस महाद्वीप का सर्वश्रेष्ठ सम्राट बन चुका था और मौर्य शासकों का मगध कलिंग साम्राज्य का एक प्रांत बन चुका था। उड़ीसा में भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि की पहाड़ियों में खारवेल के शासनकाल के स्मारक प्राप्य प्राचीन स्मारकों में सबसे प्राचीन हैं। उपलब्ध शिलालेखों में राजा खारवेल को केवल सैन्य कौशल में ही माहिर नहीं बताया गया है बल्कि उसे साहित्य, गणित और सामाजिक विज्ञान का भी ज्ञाता बताया गया है। कला के संरक्षक के रूप में भी उसकी महान् ख्याति थी और अपनी राजधानी में नृत्य और नाट्य कला को भी प्रोत्साहन देने का श्रेय उसे मिला।

यद्यपि कलिंग की वीरता ऐतिहासिक बन गई और साहित्य दर्पण में भी इसका उल्लेख आया है, यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि क्षत्रिय जैसी एक पुश्तैनी लड़ाकू जाति ने इस क्षेत्रा में अपना पैर नहीं जमाया। सैनिक कृषक वर्ग से ही आवश्यकतानुसार आते थे और सेना में उनका ओहदा उनके रण कौशल पर उतना ही निर्भर करता था जितना पुश्तैनी कारकों पर। इस और अन्य गुणों में उड़िया इतिहास दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के इतिहास के सदृश है और यह गुण उड़िया समाज की विशेषताओं में से एक है जिसने उड़िया समाज पर 16 वीं सदी तक, लगभग 300 सौ वर्षों के अन्तराल में इस्लामी शासकों के हमलों को सफलतापूर्वक निष्क्रिय किया।

धातुकर्म, कला और व्यापार

अपनी विशाल खनिज संपदा के कारण स्वाभाविक रूप से प्राचीन उडीसा में धातु कर्म का विकास हुआ और लौह युग में इस क्षेत्रा को अत्याधिक महत्व दिलाने में यह एक संभावित कारक था। लोहे के औजारों का उपयोग कृषि उत्पादन में, सिंचाई की नहरें खोदने में, पत्थर खदान से पत्थर निकालने में, गुफा तैयार करने में और परवर्ती काल में स्मारकों के निर्माण में होता था। चांवल उत्पादन को बढ़ावा मिला और लौह युग में सिंचाई के कार्य उड़ीसा से प्राचीन आंध्र और तामिलनाडू के क्षेत्रों में लगभग 300 ई.पू. के आसपास फैल चुके थे। /देखें एम.एस.रंधावा की पुुस्तक भारत में कृषि का इतिहास भाग 1, नई दिल्ली।/ उड़ीसा इस्पात उत्पादन का भी एक प्रमुख केंद्र बन गया। भुवनेश्वर और पुरी के स्मारकीय मंदिरों में इस्पात की बीम का उपयोग बहुलता से हुआ था।

समुद्रतटीय क्षेत्रा होने के कारण सामुद्रिक व्यापार का उड़िया सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा। दक्षिण पूर्व एशिया, विशेषकर दक्षिणी बर्मा, मलेशिया और इंडोनेशिया से सांस्कृतिक, व्यापारिक और राजनैतिक संपर्क का विशेष रूप से विस्तार हुआ। उड़िया लोक कथाओं और काव्यों में सामुद्रिक गतिविधियों का अंशदान रुचिकर रहा है। ऐतिहासिक अभिलेखों से पता चलता है कि 7 वीं सदी के आसपास कोंगोड वंश मध्य उड़ीसा से संभवतः मलयेशिया और इंडोनेशिया में जाकर बसा होगा। चीन से भी दूतावासों के विनिमय के साक्ष्य मिलते हैं। उड़िया व्यापारियों के दक्षिण पूर्वी एशिया के बंदरगाहों में सक्रिय होने के साक्ष्य पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। पुर्तगीज़ व्यापारी टोम पायर्स ने मलक्का नामक बंदरगाह का वर्णन करते हुए इंगित किया है कि इस व्यस्त बंदरगाह में उड़ीसा के व्यापारी 16 वीं सदी में भी सक्रिय थे।

पूर्वी भारत और थाइलैंड के बीच व्यापारिक संबंध के साक्ष्य तीसरी और चैथी सदी ई.पू. में भी मिलते हैं। हिमांशु राय ’’दी विंडस् आॅफ चेंज-बुद्धिज्म एण्ड मेरीटाईम लिंकस् आॅफ अर्ली साउथ एशिया’’ का कहना है कि कम से कम आठ समुद्री मार्ग भारत के पूर्वी तट को मलाया प्रायद्वीप से जोड़ते थे तथा लौह युग के बाद इन मार्गों से लोहा, तांबा और टिन जैसे धातु,सूती वस्त्रा और खाद्य सामग्री का व्यापार होता था। उन्होंने आगे लिखा है कि व्यापार में भारतीय तथा मलय-पोलिनेशियाई जहाजों का उपयोग होता था। उड़ीसा में भुवनेश्वर के निकट शिशुपालगढ़ से प्राप्त पुरावशेष बताते हैं कि प्राचीन उड़ीसा और रोम में पहली दूसरी सदियों में या संभवतः और पहले प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष व्यापार होता था। ह्वेनसांग के इतिवृत्तों में उड़ीसा के सागर पार संपर्क के संदर्भ 7 वीं सदी में मिलते हैं और दसवीं सदी तक पूर्वी देशों सेे उड़ीसा के व्यापार के अभिलेख बहुतायत से मिलना शुरू हो जाते हैं।

संतोषजनक कृषि उत्पादन और लहलहाते हुए समुद्री व्यापार ने मिलकर उड़िया कलाकौशल विशेषकर वस्त्रा उद्योग की कला के पल्लवित होने में भलीभांति योगदान दिया। बुनकरों और रंगरेजों के कई समुदाय पूरे राज्य में सक्रिय हुए जिन्होंने महीन मलमल, इकात, संबलपुरी और बोमकाई रेशम और सूत बुनने की कला, पैचवर्क, और कढ़ाई आदि कलाओं में प्रवीणता हासिल की। उड़ीसा पीतल और कांस्य धातु के काम के लिए भी ख्यात था। लाख के रंगे हुए बक्से और खिलौने, हाथी दांत पर बारीक काम, काष्ठ और प्रस्तर पर उकेरी हुई कलाकृति, पत्ते पर रंग भरना और ताड़पत्रा पर उकेरी हुई कला कृति, टोकरी बुनना और इस प्रकार के कई रंगीन कलाओं के लिए उड़ीसा विख्यात था। प्रायः साजसज्जा की ये तकनीकें लोक कहावतों पर निर्भर थीं। गोल आकृति के ताश के पत्ते जिन्हें गजीफा कहते थे, ऐसी ही तकनीकों से बनते थे।

बाद में उड़ीसा मुगल शासन के अधीन हुआ तो कटक चांदी के तार से निर्मित फीते और उनसे बनीं अत्यंत सुंदर चांदी के काम का मशहूर केंद्र बन गया था।

दर्शन, भाषा और विचारधारा

बौद्ध और जैन दोनों दर्शनों ने प्रारंभिक उड़िया संस्कृति के सांस्कृतिक और दार्शनिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। अधिकांश बौद्ध और जैन ग्रंथ पाली और प्राकृत में लिखे गए और प्राकृत व्याकरण की एक मशहूर पुस्तक उड़िया विद्वान मार्कण्डेय दास द्वारा लिखी गई। खारवेल की हाथी गुफा वाला शिलालेख पाली में है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि पाली उड़िया लोगों की मूल भाषा रही होगी।

7 वीं सदी तक ब्राह्मणवाद भी काफी प्रभावशाली हो गया था, विशेषतः राजदरबार में और ह्वेनसांग, मशहूर चीनी यात्राी, ने लक्ष्य किया कि किस प्रकार बौद्ध बिहार और ब्राह्मण संस्कृति के मंदिर एक दूसरे के पास पास पल्लवित हो रहे थे। यद्यपि राजदरबार के लेखों की भाषा संस्कृत थी, बोलचाल की आम भाषा वह नहीं थी। ह्वेनसांग के अनुसार उनकी लोक भाषा मध्य भारत की भाषा से अलग थी और संभव है कि वह आधुनिक उड़िया भाषा की जननी रही हो।

लेकिन 7 वीं 8 वीं सदी के भौम राजाओं ने यद्यपि संस्कृत में अपनी घोषणायें जारीं कीं, उन्होंने कई बौद्ध संस्थाओं को संरक्षण प्रदान किया तथा इस काल की कला, वास्तुशिल्प और काव्य इस क्षेत्रा में बौद्ध धर्म के जनप्रिय होने की कहानी कहते थे।
परवर्ती काल में उड़ीसा का बौद्धवाद घोर तंत्रावाद के प्रभाव से ग्रस्त हो गया जबकि कन्नौज से आये हुए ब्राह्मणों द्वारा एक अधिक पारंपरिक वैदिक और ब्राह्मणवादी ंिहंदुत्व यहां आयातित किया गया। दक्षिण से पुरी में शैववाद स्थापित किया गया। इसके अलावा उड़ीसा के अधिकांश आदिवासियों ने किसी न किसी रूप में जड़ात्मवाद और अपने टाॅटमों की पूजा जारी रखी। इन सब विभिन्न परंपराओं को एकजुट करके आया शिव-शक्ति संप्रदाय जो शैववाद, शिव की पूजा; शक्तिवाद, देवी मां की पूजा और वज्रयान अथवा महायान बौद्धवाद के तांत्रिक स्वरूप के सम्मिश्रण से आविर्भूत हुआ।

यह संयोजन इस प्रकार संभव हुआः औपचारिक विभिन्नतायें इन विभिन्न धार्मिक दार्शनिक लक्ष्यों को अलग करतीं थीं परंतु व्यवहारिक रूप में उनकी समानताएं बढ़तीं जा रहीं थीं। प्रारंभिक बौद्धवाद और हिंदुत्व की न्यायवादी विचारधारा में युक्तिवाद पर और प्रकृति के वैज्ञानिक अनुसंधानांे पर पर्याप्त जोर था, बाद में बौद्धवाद और शैव संप्रदाय दोनों ने उपनिषदों में सर्व प्रथम विकसित विचारधारा के दार्शनिक रूप भेदों पर जोर दिया और इसके साथ रहस्यवाद और भक्तिवाद भी जोड़ दिया। तंत्रावाद भी दो रास्तों पर विकसित हुआ - एक ओर इसने व्यवहारिक ज्ञान और प्रकृति के बारे में स्पष्ट समझ प्राप्त करने पर जोर दिया और दूसरी ओर यह भी रहस्यवाद और इंद्रजाल में सराबोर हो गया।

इसी समय बौद्ध लोकाचार ने ऐसा वातावरण निर्मित किया जहां सामन्जस्य को विवाद से अधिक अहमियत दी गई। इसके फलस्वरूप जनजातीय देवी देवताओं का हिंदू देवी देवताओं के साथ समावेश हो गया। तांत्रिक संरचनायें भी कुछ हद तक अनुमोदित हो गईं।

चूकि तंत्रावाद ने आध्यात्मिक मुक्ति के लिए कामवासना को एक सशक्त माध्यम के रूप में प्र्रस्तुत किया, प्रारंभिक बौद्ध धर्म के साथ व्याप्त संयम और ब्रह्चर्य की संस्कृति का स्थान कामवासना से जुड़ी सभी वस्तुओं ने निःसंकोच ले लिया।

भारत के अन्य कुछ भागों के विपरीत उड़िया समाज में जाति प्रथा का विभेद अभी तक नहीं गहराया था और कृषक वर्ग में समानता के गुण अभी भी अच्छी तरह समाहित थे। इसलिए कोई भी ऐसी विचारधारा जो समाज को जन्मगत रूप से विभाजित करे उन्हें अस्वीकार्य थी। शिव शक्ति संप्रदाय इस मामले में एक सामंजस्य था कि यद्यपि इसने सामाजिक विषमता को नकारा नहीं था मगर सामाजिक गतिशीलता - एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जाना, को भी प्रतिबंधित नहीं किया था। वास्तव में यह संप्रदाय विशेषतः इसलिए जनप्रिय हो गया क्योंकि इसने ज्ञान प्राप्ति द्वारा या कलाकौशल द्वारा या व्यक्तिगत प्रयत्नों द्वारा समाज में नीचे से उपर की ओर गतिशीलता की संभावना को स्वीकृति दे दी थी।

योगिनी संप्रदाय

उडी़सा में योगिनी संप्रदाय के अस्तित्व के लिए तांत्रिक प्रभावों का विशेष महत्व था। योगिनी संप्रदाय शक्ति, स्त्राी जीवन शक्ति की उपासना पर केंद्रित था तथा जादुई कर्मकांडों की क्षमता में इनका विश्वास था। योगिनी को योगियों की पत्नियों के रूप में चिह्नित किया जाता है। वे भी अपने पुरुष साथियों की भांति विज्ञान में प्रवीणता और जादुई शक्तियां प्राप्त करने के लिए योगाभ्यास करतीं थीं। योगिनी संप्रदाय के साथ कुछ तांत्रिक विचारधाराएं जैसे कौल मार्ग, अछूत या निम्न जाति की महिलाओं के साथ मैथुन, यौन समागम, को आत्मोन्नति का सर्वाधिक उत्कृष्ट अनुभव निरूपित करते थे। यद्यपि योगिनी संप्रदाय केवल उड़ीसा तक सीमित नहीं था, चार बचे हुए योगिनी मंदिरों मेें से दो हीरापुर और रानीपुर, झरियाल में मिलते हैं।

हीरापुर मंदिर बनवाने का श्रेय उड़ीसा के भौम और सोमवंशी राजाओं को है जिनका समय 8 वीं से 10 वीं सदी के मध्य रहा है। वे अपनी विभिन्न दर्शनग्राही उदारता के लिए मशहूर थे तथा दर्शन, कला, वास्तुशिल्प और साहित्य को संरक्षण देने में भी उनका नाम लिया जाता है।

जनप्रिय साहित्य
उस समय राजदरबार और बुद्धिजीवी वर्ग का साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा होता था और इस साहित्य में धर्म, राजनीति, कला और साहित्य पर विविध समीक्षायंे और सैद्धांतिक पुस्तकें शामिल थीं। इसके अलावा महाकाव्यों का पुनर्लेखन भी शामिल था। लेकिन जनप्रिय साहित्य का लेखन उड़िया भाषा में ही होता था जिसकी विषयवस्तु लोक गाथायें, महाकाव्य, सृष्टि की काल्पनिक कथायें, भजन, प्रणय और कामोद्दीपक रचनायें थीं।

लेकिन 15 वीं सदी में कपिलेंद्र देव ने गंगों को, जो उडीसा के कई स्मारकीय मंदिरों के संरक्षक थे, हरा दिया। साधारण स्तर से बढ़ते हुए उसने सूर्य वंश की स्थापना की। उसके शासनकाल में सरला दास ने जो एक साधारण कृषक परिवार में जन्मे थे और उनका नाम कटक जिले मंे स्थित उनके ग्राम में पूजी जातीं देवी सरला के नाम पर रखा गया था। उन्होंने अपने आपको एक अशिक्षित ’’शूद्र’’ बताया और शूद्रमुनि के नाम से जनप्रिय हुए। यद्यपि मौटे तौर पर उनका महाभारत अन्य पारंपरिक अनुवादों से मेल खाता था उन्होंने उसमें कई बातें मूल रूप से भी कहीं थीं तथा जन भावनाओं को ध्यान में रखकर लिखीं थीं। उनका अनुवाद स्थानीय लोक कथाओं और गाथाओं के ताने बाने से बुना हुआ था। इसके अतिरिक्त उसमें तत्कालीन शिल्पी और कृषक वर्ग द्वारा समाहित नैतिकता और सदाचार के गुणों का भी समावेश है।

सरला दास द्वारा चंडी पुराण भी लिखा गया जिसमें योगिनियों का संदर्भ देवी या आदि शक्ति के रूप में आया है। यह इस बात का उदाहरण है कि उड़ीसा के तटवर्ती इलाकों में योगिनी संप्रदाय की जनप्रियता उस समय भी बरकरार थी।

इस प्रकार उड़ीसा में 9 वीं सदी से रहस्यवादी और व्यवहारिक दर्शन की एक मिलीजुली जीवंत लहर उठी जिसमें कुछ हद तक लोगों के सामाजिक स्तर में आरोह अवरोह की गुंजायश थी और साधारण कृषकों के लिए जनप्रिय साहित्य और कविता में योगदान करने का अवसर भी।

इससे वहां अध्ययन के जनप्रिय होने में प्रोत्साहन मिला और चंूकि उड़िया सीखने में कोई रोक नहीं थी, साक्षरता वहां के ग्रामों में भी फैली और जनप्रिय साहित्य को अपनाने वाले एक बड़े समूह का विकास हुआ। ग्रामों में पुस्तकालयों का एक जाल स्थापित था जिसमें परिष्कृत लिपि में लिखित पुस्तकें उपलब्ध थीं। रंगीन पांडुलिपियां और सचित्रा महाकाव्य भी जनप्रिय हुए। मोटे तौर पर कई ग्रामों में साक्षरता औपनिवेशिक शासन के पूर्व 40 प्र.श. तक या उससे अधिक पहुंच गई थी।

उड़िया सम्यता का पतन

उड़िया समाज के पतन के पहले लक्षण तब दृष्टिगोचर हुए जब गंग और सूर्य राजाओं के प्रशासकों ने अनुचित विशेषाधिकार हथियाना प्रारंभ किया और कई अधिकारों को पुश्तैनी बना दिया। उसी समय धार्मिक मामलों में पुरी के ब्राह्मणों का दखल बढ़ता गया। पुरी के ब्राह्मणों के कारण कर्मकाण्डों को अधिकाधिक बढ़ावा मिलने लगा और धार्मिक पर्वांे में अभूतपूर्व शान शौकत से भरे समारोह आयोजित होने लगे। ब्राह्मणवादी देवताओं का वर्चस्व बढ़ने लगा और जनजातियों के देवता कमशः दर किनार होने लगे। समाज में आरोह अवरोह घटता गया और विधिवत् गठित जाति व्यवस्था दृढ़ रूप में सामने आई। पटनायक, महापात्रा, नायक और अन्य वर्ग जिन्हांेने राजकीय प्रशासन में बड़ा योगदान किया था, वे ब्राह्मणों के साथ उच्च कुलीन जातियों में शामिल हो गये और सामाजिक स्तरों का विभाजन पुख्ता हो गया।

16 वीं सदी में उड़ीसा की बड़ी नदियां तलछट से भरने लगीं। इससे सामुद्रिक व्यापार में भारी कमी हुई और संभवतः इससे समाज में अधः पतन के लक्षण सामने आये। अकबर के सेनापति राजा मानसिंह एवं मराठों के हाथों उड़ीसा की निर्णयात्मक हार ने भी इसे तहस नहस कर दिया और ब्रिटिश सत्ता के सामने लुंजपुंज बना दिया। बंगाल को जीतने के बाद शीघ्र ही अंग्रेजों ने इसे भी अपना उपनिवेश बना लिया।

औपनिवेशिक शासन के समय उड़ीसा

भारत के अधिकांश भागों की भांति औपनिवेशिक शासन ने उड़िया जनता के आर्थिक और सामाजिक जीवन पर जर्जरकारी प्रभाव डाला। कारीगरों के कई वर्ग, विशेषकर बुनकर और रंगरेज दिवालिया और निपट निर्धन हो गये। कमर तोड़ करों और जबरन बेकारी के बोझ तले कृषक वर्ग कष्ट से कातर हो गया। लेकिन उड़िया जन ने वीरतापूर्ण विरोध किया और आसानी से पराधीनता स्वीकार नहीं की। ब्रिटिश कब्जे के मात्रा तीन साल बाद जयकृष्ण राजगुरू ने, जो गजपतियों या खुरदा के राजाओं का पुश्तैनी पुरोहित था, एक संगठित विद्रोह किया जिसका परिणाम दुखांत पराजय रहा और ब्रिटिश ने उसे खुले आम फांसी दे दी। सन् 1818 ई. में एक दूसरा विद्रोह हुआ जिसमें समूचा उड़ीसा राज्य खुरदा के बख्शी जगबंधु विद्याधर के नेतृत्व में उठ खड़ा हुआ। छै महिने तक दक्षिणी उड़िसा के लोगों ने ब्रिटिश सत्ता के शासन को उखाड़ फेंका परंतु अंत में यह विद्रोह बेरहमी से दबा दिया गया और जनता को परिणाम में तबाही मिली।

अभिजात वर्ग योजनाबद्ध तरीके से समाप्त कर दिया गया - वहां की राजकीय सेना निहत्थी कर दी गई और अपने अधिकारों से भी वंचित कर दी गई। कृषक वर्ग तो पहले से ही गुलाम बना दिया गया था। सारे प्रशासनिक पद जिन पर ब्रिटिश लोगों का प्रत्यक्ष कब्जा नहीं था ब्रिटिश शासन के प्रति अधिक वफादार बंगालियों को दे दिये गये थे। स्थानीय पुलिस के सिपाही से लेकर स्कूल के सहायक अध्यापक तक के पदों पर बंगाली नियुक्त कर दिये गए और उड़िया लोगों को निकाल बाहर किया गया। कलकत्ता में कुछ बंगाली अंधभक्तों ने ऐसे प्रशासन का बचाव किया, कुछ ने तो यहां तक मांग की कि सभी उड़िया लोगों को बंगला भाषा के माध्यम से पढ़ाया जाये क्योंकि उड़िया बंगला भाषा की एक बोली मात्रा है और कुछ नहीं।

बंगाल के शहरी क्षेत्रों को विश्वविद्यालय और सांस्कृतिक संगठनों के रूप में कुछ रियायतें प्राप्त हुईं पर उड़ीसा को औपनिवेशिक साम्राज्य की एक छोटी चैकी में परिवर्तित कर दिया गया; एक ऐसा देश बना दिया गया जो सांस्कृतिक रूप से बेकार हो। उड़ीसा का भविष्य अब बरबस बंगाल और देश के अन्य हिस्सों में चल रहे स्वाधीनता संग्राम के फैलाव से जुड़ गया और राष्ट्र्ीय आंदोलन में वृद्धि का कोई भी संकेत स्वाभाविक रूप से राष्ट्र् प्रेमी उड़िया लोगों का जोशीला समर्थन प्राप्त करता।

यद्यपि आजादी देश के सभी वर्गों के लोगों के जीवन में आशातीत सुधार ले आयी फिर भी औपनिवेशिक शासन द्वारा दो सदियों तक पहुंचाई गई क्षति की भरपाई आजादी के बाद भी नहीं हो पाई। अभी हाल की जनगणना के परिणाम से स्पष्ट होता है कि गरीबी और निरक्षरता के उच्च स्तर ने राज्य का पीछा नहीं छोड़ा है।

अपनी प्राचीन जीवंतता प्राप्त करने के लिए उड़ीसा को केवल अन्य भारतीयों से अधिकाधिक सहानुभूति ही अपेक्षित नहीं है बल्कि केंद्र से सकारात्मक कार्यों के एक जागरूक कार्यक्रम की भी आवश्यकता है जो लोक शिक्षा और रोजगार के अवसरों को बढ़ावा दे। तभी उड़ीसा भारतीय संघ के एक स्पंदनशील सदस्य के रूप में भारत की मुख्य धारा में पूर्ण रूपेण शामिल हो सकता है।

टिप्पणीः प्राचीन उड़ीसा में झारखंड के भाग, दक्षिण बंगाल, छत्तीसगढ़ और उत्तरी आंध्र शामिल थे जो विभिन्न समयों में प्राचीन और मध्यकालीन
उड़ीसा के विभिन्न राज्यों में शामिल हो चुके थे।

संदर्भः उड़िया साहित्य का इतिहास - मायाधर मानसिंह, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली,
बुलेटिन आॅफ इंडियन हिस्टोरिकल रिव्यू ,भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद और सोशियल साइंस प्रोबिंग्स के अंकः संः आर.एस.शर्मा,

दर्शनीय इतिहासः उड़ीसा के मंदिरों के बिम्ब।

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