"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

भारत में ब्रिटिश शिक्षा

जैसा कि भारत में ब्रिटिश शासन के अधिकांश विद्वानों ने ध्यान दिया, भारत में ब्रिटिश की भौतिक उपस्थिति महत्वपूर्ण नहीं थी। लगभग दो शताब्दियों तक ब्रिटिशों ने उपमहाद्वीप के दो तिहाई भाग पर प्रत्यक्ष शासन किया और शेष एक तिहाई राजाशाही प्रदेशों पर वे पूरा प्रभाव रखते थे। बांटो और जीतो की नीति का प्रभावी ढंग से उपयोग किया गया। भारत में ब्रिटिश शासन का एक महत्वपूर्ण पक्ष था कि भारत के समाज में एक वर्ग विशेष को मनोवैज्ञानिक शिक्षा देना एवं उसे आदर्श ब्रिटिश प्रजा होशियारी से बनाना। भारतीय समाज के इस अंग्रेजी पढ़े वर्ग को अपने आपके और अपनी जन्मभूमि के मूल्यों और सिद्धांतों को अवशोषित करने के लिए चतुराई से उत्साहित करना जो भारत में ब्रिटिश कब्जे के लिए प्रेरक हो और भारत की वास्तविक संपदा की लूट और उसके मेहनतकशों के शोषण करने में सहायक हो।

1835 में, थामस मैकाले ने बहुत बढ़िया ढंग से ब्रिटिश उपनिवेशिक साम्राज्यवाद के उद्देशों को स्पष्ट कियाः ’’हमें एक ऐसे वर्ग को बनाने की भरसक कोशिश करना चाहिए जो हमारे और जिन पर हम शासन करते हैं, उन लाखों लोगों के बीच दुभाषिया हो सके, एक वर्ग जो खून और रंग में भारतीय हो परंतु स्वाद में, राय में, भाषा और बुद्धिमानी में, अंग्रेज हो।’’ भारत में उपनिवेशिक ब्रिटेन की शिक्षा नीति के रचयिता थामस मैकाले को वातावरण बनाना था कि शिक्षित भारतीय अपने खुद के, अपनी संस्कृति के, ब्रिटेन तथा चारों ओर की दुनिया के संबंध में क्या दृष्टिकोण रखेंगे। घोर जातिवादी थामस मैकाले के पास भारतीय इतिहास और संस्कृति के लिए निंदात्मक घृणा को छोड़ कुछ भी न था। 1835 के अपने एक बदनाम विवरण में लिखा किः ’’उनमें एक भी /प्राच्यविदों के बारे में बोलते हुए एक विरोधी राजनैतिक कथा/’’ नहीं मिला जो इस बात को झुठला सके कि एक अच्छे यूरोपियन पुस्तकालय का एक सेल्फ भारत और अरब के संपूर्ण साहित्य के बराबर मूल्यवान था । ’’यह कहना अतिशियोक्ति न होगी कि संस्कृत में लिखीं पुस्तकों में से इक्ट्ठा की गईं ऐतिहासिक सूचनायंे कम मूल्यवान हैं अपेक्षाकृत इंग्लेंड की प्राईमरी स्कूल में उपयोग लाये जाने वाले तुक्ष्य संदर्भोंं के।’’

भारतीय सभ्यता के लिए निर्लज्ज घृणा के विपरीत उपनिवेश पूर्व की यूरोपियन रचनाओं में हमें भारत के उज्जवल संदर्भ, स्वामी विवेकानंद द्वारा उद्धृत, मिलते हैंः ’’समस्त इतिहास भारत को कला और विज्ञान की मां कहता है’’ वीलियम मैकिन्टोश ने लिखाः ’’यह देश प्रचीनकाल से अपनी बुद्धिमत्ता और ज्ञान के लिए इतना अधिक जाना जाता था कि ग्रीस के दार्शनिक अपनी उन्नति के लिए यहां की यात्रा की उपेक्षा नहीं करते थे।’’’ फ्रांसीसी प्रकृतिवादी पीयर साॅनेअत् ने राय प्रगट कीः ’’हम भारतीयों के बीच भूतकाल के सबसे प्राचीन अवशेष पाते हैं ... हम जानते हैं कि यहां सभी लोग ज्ञान प्राप्त करने के लिए आते हैं ... भारत ने अपने वैभव में दूसरे सभी लोगों को नियम और धर्म दिए ... नीति कथाओं और बुद्धिमत्ता, दोनों के लिए, ईजिप्ट और ग्रीस उसके ऋणी हैं।’’

परंतु उपनिवेशी शोषण ने अपने मालिकों के लिए नयी विधियां पैदा कीं। अब यह ईमानदारी से नहीं माना जा सकता था कि भारत की अपनी समृद्ध संस्कृति थी, उसके दार्शनिक और वैज्ञानिक योगदान ने यूरोपियन विद्वानों को प्रभावित किया था या यूरोपियन पुनर्जागरण की शक्ल बनने में सहायक हुआ था। ब्रिटिश को अपने तरह के विनीत और आज्ञाकारी बुद्धिमानवर्ग की आवश्यकता थी जो अपने सहनागरिकों के प्रति घृणा से आपूरित हों। इसलिए यह महत्वपूर्ण था कि भारतीय परंपराओं के नकारात्मक पहलुओं को उभारा तथा सकारात्मक पहलुओं को नष्ट और धुंधला किया जाये। भारतीयों को शिक्षित किया जाना था कि वे गूढ़ और अनुवांशिकरूप से रूढ़िवादी और भाग्यवादी लोग थे, अविवेकी अंधविश्वासों से आवृत थे और उनके पास राष्ट््रीय चेतना, राष्ट््रीय भावना या इतिहास नहीं था। यदि उनके पास कोई संस्कृति थी तो वह आक्रमणकारियों द्वारा लाई गई थी। उनमें स्वतः प्राप्त करने की शक्ति का अभाव था। दूसरी ओर, ब्रिटिश ने आधुनिकता का सार प्रस्तुत कियाः दुनिया में जो कुछ बौद्धिक और वैज्ञानिक था उसके वे ही अग्रदूत थे। उनकी अद्वितीय संगठनात्मक क्षमता और दृढ़ इच्छाशक्ति भारत को जातिवाद और धार्मिक कट्टरता के दलदल से उपर खींच लेगी। ये और ऐसे दूसरे विचार, ब्रिटिश स्कूलों में शिक्षा पाने वाले युवा भारतीयों के दिमाग में भरे जाते थे।

सभी चेतन और अर्धचेतन तरीकों से ब्रिटिश दलालों ने भारतीय मानस पर बलात्कार और विजय की यात्रा शुरू कर दी। उन वर्षों के दौरान जे. एन. फरकुआ, मैकाले का समकालीन, ने लिखा थाः ’’ भारत में सरकार की नई शिक्षा नीति ने इन वर्षों में एक आधुनिक शिक्षितवर्ग बना डाला। ये वे आदमी हैं जो आदतन अंग्रेजी मेें सोचते और बोलते ह,ैं जो ब्रिटिश साम्राज्य के नागरिक होने में गर्व करते हैं, जो अंग्रेजी साहित्य को समर्पित हैं और उनकी बौद्धिक जिंदगी पश्चिम के विचारों के द्वारा पूरी तौर पर निर्मित की गई है। वे बड़ी संख्या में सरकारी नौकरी में प्रवेश करते और बच गए लोग शिक्षा, चिकित्सा, क्या विधिशास्त्रा या पत्राकारिता का पेशा अपना लेते हैं।’’

मैकाले की चालबाजी को इससे अधिक और क्या लाभ हो सकता था कि चाल्र्स ई. ट्र्ेविलान जो मैकाले का रिस्तेदार था, ने कहाः ’’हमारे साहित्य के द्वारा हमसे अंतरंग भारतीय युवाओं ने हमें विदेशी समझना लगभग समाप्त कर दिया है। हमारे समान वे उत्साह से ’’महान’’ आदमियों के बारे में बोलते हैं। उसी ढंग से शिक्षित, उन्हीं चीजों में रूचि लेते हैं। हमारे साथ उन्हीं अनुशरणों में संलग्न हो गए हैं और वे हिंदू की अपेक्षा अंग्रेज ज्यादा हो गये हैं। बस वैसे ही, जैसे कि देहाती रोमन, गाल्स या इटालियन की अपेक्षा, अधिक रोमन।’’

वह सौम्य प्रक्रिया नहीं थी परंतु ब्रिटिश उपनिवेशिक हितों के साथ करीब से संबंधित थी। चाल्र्स ई. ट्र्ेविलान ने सिलेक्ट कमेटी आॅफ हाउस आॅफ लार्डस् आन दी गवर्नमेंट आॅफ इंडियन टेरीटरी के सामने पूरी तरह खुलकर 23 जून, 1853 में जिक्र कियाः ’’... यूरोपियन शिक्षा में प्रशिक्षित होने का असर देशी दिमाग को पूरी तरह से नया मोड़ देने में है। इस तरह से शिक्षित युवा लोग देशज आदर्श के लिए स्वतंत्राता की कोशिश करना बंद कर देते हंै और संवैधानिक स्वशासन की स्थापना के अंतिम प्रतिफल के साथ देश के निकायों को इंग्लिश आदर्शों के अनुरूप उन्नत करने का ध्येय मानने लगते हैं । वे हमें दुश्मनों और अनाधिकारियों की तरह मानना बंद कर देते हैं। हमें दोस्त एवं संरक्षक और बलवान परोपकारी लोगों की तरह देखने लगते हैं, जिनके संरक्षण में उनके देश का पुनर्जन्म धीरे-धीरे किया जा सकता है ...। ’’

वास्तव में, भारत के मानस का अधिकांश शिक्षण, कक्षाओं के बाहर ब्रिटिश साहित्य के विक्रय से हुआ और अंग्रेजी शिक्षित भारतीयों ने ब्रिटिश उपन्यासों और लोकप्रिय विषयों की रचनाओं के लिए अतृप्त भूख पैदा कर ली थी। 1846 में, एडनबर्ग फिलाॅसोफिकल सोसायटी के सामने भाषण में थामस बेबिंगटन, 1800-1859, जो बाद में मैकाले के नाम से जाने गए, ने शुभकामनाओं के जाम पर प्रस्ताव रखाः ’’ब्रिटेन के साहित्य के लिए ... जिसने, व्यापार मंे विस्तार का असर और अस्त्राशस्त्रा की शक्ति की तुलना में, अधिक शक्तिशाली प्रभाव डाला ... जिसकी रोशनी के पहले नास्तिक और कू्रर अंधविश्वास गंगा के तटों पर तेजी से उड़ानें भरते थे !’’

इतने पर भी, अंग्रेजी में लिखीं किताबों के माध्यम से भारतीय सोच को प्रभावित करने से ब्रिटिश संतुष्ट नहीं थे। इस भय को समझते हुए कि भारतवासी संस्कृत के माध्यम से अपनी सही धरोहरें खोज लेंगे, विलियम करे जैसे क्रिश्च्यिन मिशनरियों ने ब्रिटिश अध्यापकों को संस्कृत सीखने तथा उपनिवेशिक हितों के अनुकूल गं्रथों की व्याख्या और प्रतिलिपि बनाने की जरूरत का अनुमान कर लिया था। रिचर्ड फाॅक्स यंग द्वारा उद्धृण में करे के पूरी तरह से धोखेबाज उद्देशों को उभार दियाः ’’जो इस विधि छले गए उनका ध्यान पाने के लिए यह आवश्यक था कि वे विश्वास करें कि वक्ता ही विषय का महान ज्ञानी है। इस दशा में संस्कृत का ज्ञान मूल्यवान है। इस प्रकार एक भ्रमित व्यक्ति, संभवतया एक ब्राम्हण, इसे ज्ञान का सबसे महत्वकारी हिस्सा मानता है। यदि सच की वकालत करने वाला अधूरा हो तो वह पहाड़ के विरूद्ध लड़ता हैः धारणा पूरी तरह उसके विरूद्ध है।’’

भारत की संस्कृति और इतिहास की जानकारी उपनिवेशिक सिद्धांतकारों के हाथों छली गई। भारत के घरेलू और विदेशी नजरिये का निरूपण उन लेखकों के द्वारा किया गया जिनका भारत की सभी वस्तुओं के बारे में अर्धचेतन पक्षपात् या खुला जातिवाद था। उदाहरण के लिए वीलियम करे /जो दुखी इस बात से था कि उसके सर्वोत्तम प्रयास के बाद भी कैसे इतने कम भारतवासी क्रिश्चियन बने/ भारतीय परंपराओं के लिए बहुत कम आदर या संवेदना रखता था। अपने खतों में से एक में उसने भारतीय संगीत को ’’वीभत्स’’ बतलाया यह कहते हुए कि ’’ईश्वर के लिए अनादरयुक्त कर्म है’’। चाल्र्स ग्रांट जो उपनिवेशिक धर्मगुरूओं के दायरे में भारी प्रभाव रखता था, 1797 में, अपनी ’’आबजर्वेशंस्’’ 1797, जिसमें उसने भारतीय समाज के लगभग सभी पहलुओं पर आक्रमण किया, ने प्रगट किया कि नैतिक तौर पर भारतीय भ्रष्ट हैं-’’अच्छे विश्वास, ईमानदारी और सत्य से रहित’’ /पृष्ठ 103/। ब्रिटिश गवर्नर जनरल कार्नवालिस ने मूल्यांकन कियाः ’’मैं वस्तुतः विश्वास करता हूं, हिंदुस्तान का प्रत्येक देशज भ्रष्ट है।’’

विक्टोरियन लेखक और अपने समय का महत्वपूर्ण कला आलोचक, जाॅन रस्किन ने भारतीय कला को घृणा से अस्वीकार कियाः ’’... भारतीय राक्षसी चीजों को छोड़, प्रकृति का चित्रा नहीं बनाता, प्रकृति के रूप और सत्य का हठधर्मी और दृढ़ता से वह विरोध करता है। वह आदमी का नहीं वरन् एक आठ हाथांे वाले राक्षस का चित्रा बनाता है; वह फूल का नहीं वरन् एक आड़ेटेड़े कुंडली का चित्रा बनाता है।’’ एक दूसरे, जार्ज वर्डबुश, जिसने भारतीय साजसज्जा की कला में थोड़ी रूचि ली थी, ने राय प्रगट कीः ’’... भारत में चित्राकारी और मूर्तिकला ललित कला के सदृश्य नहीं होती ’’।

बहुत से यूरोपियन और ब्रिटिश इतिहासकारों ने भारत को अनेक शताब्दियों तक एक प्रगतिहीन सांस्कृतिक समाज की तरह से पेश किया। वीलियम जोंस ने मूल्यांकन किया कि हिंदू समाज इतने समय तक स्थिर रहा कि ’’आज के हिंदू को देखने से लगता है -हम भूतकालीन हिंदुओं को देख रहे हैं।’’ जेम्स मिल, ’’हिस्ट््री आॅफ इंडिया’’ 1818 के तीन खंडों के लेखक, हेनरी मैन के समान, विलीयम जोंस से सहमत थे। इस दृष्टिकोण से, भारत एक परिवर्तनविहीन समाज था जहां बौद्धिक बहस या तकनीकी नवीनतायंे नहीं थीं, जहां अपरिवर्तनीय गूढ़ जातिप्रथा थी, जहां वर्गसंघर्ष या सामाजिक हलनचलन सुनायी नहीं देती थी, खासकर, उपनिवेशिक काल के यूरोपियन शोधकत्र्ताओं और विद्वानों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया था।

हीगल जैसे प्रभावशाली दार्शनिकों ने मानवजातिकेंद्रित और स्वयंसेवा के उपनिवेशन के औचित्य को स्वीकारने का मौका दिया। तर्क किया कि यूरोप ’’दुनिया के इतिहास का निश्चितरूप से अंत’’ था, उसने एशिया को ऐतिहासिक शुरूआत की तरह से देखा जहां इतिहास जल्दी ही ठहर गया। ’’भारतीय विद्वता की प्राचीनता में हम पहले की तरह विश्वासकर संतोष पाते थे और उसका आदर करते थे। भारत के महान ज्योतिष संबंधी कामों से रूबरू होने पर हमने अब सुनिश्चित कर लिया है उसके उद्धृत आंकड़ों की अशुद्धता का। इससे अधिक भ्रामक कुछ भी न होगा, कोई भी अधिक अपूर्ण न होगा अपेक्षाकृत भारतीयों की तिथिकी के। गणित, खगोलविज्ञान आदि में संवर्धन प्राप्त लोग, इतिहास के लिए इतने अयोग्य हंै, जिनमें उनकी सामंजस्यता और दृढ़ता नहीं है’’। भारत के बारे में विकृत नजरियों से तर्क करने का यह एक छोटा कदम था कि ’’ ब्रिटिश या बल्कि ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के स्वामी हैं क्योंकि एशियन साम्राज्यों का विनाशक भाग्य योरोपियनों के आधीन होने का है।’’

अफ्रीकनों के विवरणों में हीगेल का जातिवादी मत साफ साफ उजागर होता हैः ’’यह युगों के लिए चारित्रिक है कि उनकी चेतना वस्तुपरकता के सहजज्ञान तक नहीं आ पाई है; उदाहरण के लिए, ईश्वर या कानून जिसमें मानवता दुनिया से संबंध बनाती और सारत्व से सहजज्ञान पाती है। ... वह काला आदमी अनगढ़ता में मनुष्य प्राणी है।’’

इन्हीं विचारों ने जर्मन लेखकों जैसे मैक्सवेवर के दृष्टिकोणांे को ढाला। वह अपनी ’’दी प्रोटेस्टेंट इथिक्स एंड दी स्प्रिट आॅफ कैपिटलइज्म’’ 1930 के लिए प्रसिद्ध था। भारतीय धर्म और दर्शन के अपने ब्यौरों में ’’भौतिक त्याग’’ और ’’दुनिया के नकारक लक्षण प्रमुखता’’ पर विशेष ध्यान दिया। उसने वैज्ञानिक परिमंडल और विवेकपूर्ण विश्लेषण जिनसे भारतीय विचार सराबोर हैं, की संपन्न धरोहरों की उपेक्षा की। वेवर ने पूर्व में बौद्धिक सिद्धांतों के होने पर ध्यान ही नहीं दिया इस बात पर बल देते हुए कि भारत केः’’वैज्ञानिक, कलात्मक, शासनात्मक, आर्थिक विकास ने पश्चिम में तर्कवाद की पद्धतियों को नेतृत्व नहीं दिया।’’ यह अज्ञान था या तंगनजरी जिसने उसके ये विचार गढ़े। ये विचार असरहीन नहीं थे और उदहारण थे यूरोप केंद्रीभूत अंतरधारा के जो उस समय के ब्रिटिश और यूरोपियन विद्वानों में व्याप्त थे।

स्वाभाविक तौर से ब्रिटिश शिक्षित भारतीयों ने अपने और भूतकाल के इन चरित्राचित्राणों को स्वीकारा और इनका स्वदेशीकरण किया। इस प्रकार के ह्रास से सबसे अधिक प्रभावितों में युवा गांधी थे। वे दक्षिण अफ्रीका में थे, जब उनने जनरल स्मट्स से मिलना चाहा और वोवर युुद्ध में दक्षिण अफ्रीका के भारतवासियों की सहभागिता का प्रस्ताव रखा। जनरल के साथ वार्तालाप में जैसा कि ब्रिटिश शिक्षा की नीति के परिणाम की आशा थी, गांधी उपनिवेशिक चाटुकार दिखे। ’’जनरल स्मट्स, सर, युद्ध में हम भारतीय सरकार के हाथों को मजबूत करना चाहते हैं। पर हमारे प्रयासों को ठुकरा दिया गया है। क्या आप हमारे दोषों के बारे में बता सकेंगे जिससे हम सुधरें और इस भूमि के बेहतर नागरिक बन सकें !’’ जिसका जनरल स्मट्स ने उत्तर दियाः ’’मि. गांधी, हम आपके दोषों से नहीं डरते, हम आपके गुणों से डरते हैं।’’ अंततः गांधी धीमे और क्रमिक राष्ट््रीय परिवर्तन से गुजरे। प्रथम विश्वयुद्ध 1914 में, ब्रिटिश के युद्ध कार्यों के लिए उन्हांेने प्रचार किया था और वे ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वतंत्राता के नारे के सबसे पीछे के राष्ट््रीय नेताओं में से एक थे।

ब्रिटिश शिक्षित भारतीय पैथागोरस, आर्कीमिडीज, गेलेलिओ, और न्यूटन को जानते हुए परंतु पाणिनी, आर्यभट्ठ, भाष्कर या भाष्कराचार्य को बिना जाने, बड़े हुए थे। तर्कशास्त्रा और न्यायसूत्रा, बौद्धों की बौद्धिकता या जैनों के जिज्ञासावादी दार्शनिक सिद्धांत, सामान्य तौर पर, उन्हें ज्ञात न थे। उन्हें भारतीय शास्त्रों में पाये जाने वालीं प्रकृति की गतिशीलताओं के असंख्य उद्धृणों की जानकारी नहीं थी। उन्हांेने होमर या डिकिंस को पढ़ लिया था परंतु पंचतंत्रा, जातक कथायें या भारतीय आगम में से कुछ को भी नहीं पढ़ा था। पश्चिम के सौंदर्यशास्त्रा और साहित्यिक मतों को स्कूल में पढ़कर वे साहित्य एवं कलाओं में भारत के योगदान को स्वीकार करने में हिचकिचाते थे। जो पश्चिमी सभ्यता के लिए महत्वपूर्ण था वही विश्वैशिक माना जाता था। हर भारतीय चीज को पिछड़ी हुई और पुरावशेष की तरह नकारा जाता था या प्रकृति प्रदत्त अद्भुतता की मानिंद माना जाता था। पश्चिम शिक्षित भारतीय बहुत कम जानते थे कि ’’पश्चिमी विज्ञान और सभ्यता’’, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, भारतीय वैज्ञानिक अनुसंधानों और खोजपूर्ण ग्रथों की कितनी ऋणी थी।

दिलीप के. चक्रवर्ती /कोलोनियल आईडिओलाॅजी/ स्थिति का सारांश करके बतलाते हैंः ’’भारत के भूतकाल के प्रतिरूप ... पश्चिमी भारतविदों द्वारा भाषा, साहित्य और दर्शनशास्त्रा की किताबों में, भारतीयों पर यह मत थोपा गया कि वे अपने सर्वोत्तम में सत्तावादी और सबसे बुरे में जातिवादी थे ...।’’

प्रिया जोशी ने /कलचर एंड कंज्पशन, फिक्सन, दी रीडिंग पब्लिक एंड दी ब्रिटिश नाॅवेल इन कोलोनियल इंडिया/ सांस्कृतिक उपनिवेशन की घटना को विस्तार देते हुए लिखाः ’’बहुधा नयी शिक्षा पद्धति जो उपनिवेशित हो चुके हैं को अपने ही भूतकाल से अज्ञानी और परिचयहीन करती है। स्वदेशी इतिहास और रीतिरिवाज जो कभी मनाये या काम में लाये जाते थे, धीरे से दूर छिटक जाते हैं। उपनिवेशित दो विभिन्न संस्कृतियों के संकरण बन जाते हैं। उपनिवेशिक शिक्षा एक धुंधलका पैदा करती है जो थोपे गए उपनिवेशिकों के विचारों और स्वीकृत देशज रिवाजों के बीच अंतर करना कठिन कर देता है।’’

निगुजी वा थोउंग ने /कीनिया डीकाॅलोनाइजिंग दी माईंड/ उपनिवेशिक शिक्षा द्वारा अलगाववादी भावना पैदा करने पर गुस्सा जाहिर करते हुए मूल्यांकन किया कि वह प्रविधिः ’’... लोगों के अपने नामों में, उनके पर्यावरण में, संघर्ष की अपनी धरोहरों में, अपनी एकता में, अपनी क्षमताओं में और आखिरी तौर पर स्वयं में विश्वास को समाप्त कर देती है। वह उनके अपने भूतकाल को गैरउपलब्धियों वाली बंजर भूमि की तरह पेश करती और उससे दूरी बनाने के लिए कहती है। वह उन्हें उससे समरूप होने के लिए कहती है जो उनसे बहुत दूर हटा दिया गया है।

पश्चिम चले गए युवा भारतीयों को ऐसी सोच से संक्रमित करने के प्रयत्न जारी हैं। ब्रिटिश शिक्षित भारतीयों जिन्होंने स्वतंत्राता संग्राम में हिस्सा लिया था की चेतना पर मानसिक असुरक्षा और अपहरण के तत्वों ने भी दबाव बनाया था ।

समकालीन शैक्षणिक समुदायों में विभिन्न झूठे सिद्धांतों का टपकना जारी है। जबकि कुछ लिखते हैं कि वैदिक युग के समय से भारतीय सभ्यता ने मूलगामी प्रगति नहीं की। कुछ दूसरों के लिए तो अशोक और गुप्ताओं की घड़ी ’’पुरातन युग’’ के साथ रूक गई। कुछ इस्लामी विद्वानों ने भारत में इस्लामिक राज्य के अधिक सकारात्मक नजरिये की स्थापना करते हैं। वे उपनिवेशिक विद्वानों से एक राय हैं कि इस्लामी शासन से पहले भारत सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर मृतप्रायः और तकनीकी तौर पर पिछड़ा था। भारतीय इतिहास के नजरियों के अध्ययन को अपना आधार बनाने वाले विद्वान भारत के नकारात्मक पहलुओं पर खास ध्यान केंद्रित करते हैं पर इन नकारात्मक पक्षों को ऐतिहासिक संदर्भ में बैठा नहीं पाते। कुछ ने भारत की सामाजिक प्रथाओं और सांस्कृतिक गुणों की अन्य देशों की प्रथाओं और गुणों से गंभीर और वस्तुगत तुलना की कोशिश की। बहुधा भारतीय ऐतिहासिक विवरण की प्रतिकूलतापूर्वक तुलना उन यूरोपियन उपलब्धियों से कर दी जाती है जो, वास्तव में, अनेक शताब्दियों के बाद पैदा हुईं थीं।

स्वतंत्राता बाद के, भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के बहुत से विद्वान, उपनिवेशिक प्रतिमानों से उभर नहीं सके। वे उपनिवेशिकता से पे्ररित सिद्धांतों में ही जूझे रहे और ऐतिहासिक तथ्यों के विपरीत ही चलते रहे। कुछ विद्वान ब्रिटिश के मिथ्या वर्णन से सचेत और भारतीय विद्वानों के छिद्रन्वेशी मूल्यांकन से निराश होकर भारत के ऐतिहासिक तथ्यों के तार्किक विश्लेषण के बिना ही अतिवाद के दूसरे छोर पर चले गए। कुछ ने भारतीय इतिहास के कृत्रिम अतिवादी नजरियों से यहां तक कोशिश की कि भ्रांतियों और तथ्यों के बीच वे अंतर नहीं कर सके। गूढ़ जातिवादी पूर्वाग्रह प्रचलित होते रहे और पश्चिमद्वेष ने पश्चिम की उपयोगी और सही संरचनाओं की संभावनाओं का परित्याग तक कर डाला। पश्चिम थोपित आर्थिक पद्धति और शोषणकारी ढांचा, भारतीय आर्थिक परिदृष्य को दबोचे रहा और प्रायः बिना किसी प्रश्न के, दोनों, स्वीकर किये जाते रहे।

इस प्रकार से भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे बड़ी कठिनाई है कि दुनियां से उसके संबंधों एवं उसकी उन्नति से सरोकार रखने वाले विद्वानों को उपनिवेशिकता के पक्षधर रचनाकारों की विकृतियों एवं मतों से कैसे स्वतंत्रा रखा जा सके। साथ ही, अतार्किक प्रशंसा, कातर विश्वास तथा दूसरों की सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक उपलब्धियों केे प्रभाव से बचकर भारत के विद्वानों द्वारा पश्चिमी तथा दूसरी सभ्यताओं का वस्तुपरक एवं निर्लिप्त अध्ययन करने की गंभीर आवश्यकता है।