"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास

/उपनिषद दर्शनः यथार्थवाद की लिए धरातल के लिए उपक्रम/

कुछ वैदिक ग्रंथों के समान उपनिषद ग्रंथ, मूलरूप से ’’आत्मा,’’ ’’जीव’’ या ’’ईश्वर’’ के ज्ञान को पाने से संबंधित हैं। वैदिक और उपनिषद साहित्य के पक्ष प्रकृति और प्राकृतिक प्रक्रियाओं के सहजज्ञान की ओर उन्मुख हैं। साथ ही, बजाय सत्य की अलंघ्य और सुनिश्चित परिभाषाओं के, अनेक विचार दार्शनिक और विश्लेषणात्मक रूप में प्रस्तुत किए गए।

उपनिषद ग्रंथ के विद्वानों को आत्मा को समझने के लिए ध्यान केंद्रीभूत करने की प्रेरणा मिलती थी परंतु दूसरे विद्वानों द्वारा दुनिया की बौद्धिक व्याख्या पूरी तरह से नकारी नहीं गई और अंततः उपनिषदकाल ने विवेकपूर्ण विचार, वैज्ञानिक अवलोकन, तर्क, गणित तथा भौतिक विज्ञान के अध्ययन के लिए एक भूमि तैयार की।

यह एक ऐसे युग के बाद हुआ जब अनुष्ठान और अंधविश्वास बड़े पैमाने पर फैलना शुरू हो चुके थे तब एक प्रकार से, उपनिषादिक ग्रंथों ने विवेकवाद के लिए भूमि तैयार करने में सहायता दी। ब्राह्मण रूढ़िवादिता और अनुष्ठान की शुचिता अब, आत्मिक परिदृश्य के द्वारा हटाई जाने लगी। इसी परिदृश्य ने साम्प्रदायिकता से परहेज किया जिसका सर्वाभौम तौर से उपयोग कर व्यक्ति को सामाजिक हैसियत से मुक्ति दिलाई। धर्मगुरूओं द्वारा स्थापित कसौटी के विपरीत ’’आध्यात्मिक सत्य’’ की खोज जाने पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा था। यद्यपि उपनिषद प्रवचनों में विषय संबंधी एक रूपता थी परंतु भिन्न-भिन्न व्याख्याकारों ने विभिन्न परिदृश्य और अंतरदृष्टियां सूक्ष्मता से उजागर कीं।

उपनिषादिक और पूर्ववर्ती वैदिक विवेचना में ईश्वर की सामान्य धारणा कि वह विश्व का सृजक और मनुष्य को प्रतिफल एवं दण्ड देने वाला है से एकदम अलग थी। उपनिषद का ईश्वर दार्शनिक एवं अमूर्त ज्यादा था। विभिन्न ग्रंथों ने विश्वात्मा के सिद्धांत को प्रतिपादित किया जो सभी प्राणियों में व्याप्त था /जिसने सभी प्राणियों को गले से लगाया हुआ था। सभी प्रकार का जीवन इसी विश्वात्मा में से उत्पन्न होता और मृत्यु पश्चात उसी विश्वात्मा में पुनः विलीन हो जाता। प्राकृतिक परिघटनाओं की सदृश्यताओं से विश्वात्मा की यह धारणा पैदा हुई थी।/

’’जैसे मधुमक्खी पौधों के रस से शहद बनातीं और उन रसांे को एक अन्य रूप में परिवर्तित करतीं और ये रस भेदभाव नहीं रखते कि मैं इस या उस पौधे का रस हूं, उसी तरह से जब सभी प्राणी सत्य में विलीन हो जाते तब वे नहीं जान पाते कि वे सत्य में विलीन हो गए हैं .....।’’

’’पूर्वी नदियां पूर्व की और बहतीं, गंगा के समान और पश्चिमी, पश्चिम की ओर सिंधु की तरह। वे एक समुद्र से दूसरे समुद्र में जातीं और बादल समुद्र से पानी आकाश में उठाकर वर्षा के माध्यम से वापिस समुद्र में भेज देते; वे सचमुच समुद्र बन जातीं और जब वे समुद्र में होती तो नहीं जान पाती कि मैं यह नदी हूं या वह नदी हूं। उसी प्रकार से सब प्राणी सत्य से प्रारंभ होकर नहीं जान पाते कि वे सत्य से प्रारंभ हुए थे।’’

एक दूसरी कथा में ’’बुद्धिमान’’ पिता ईश्वर की उपनिषादिक धारणा को समझाने के लिए अपने पुत्रा से पानी में नमक घोलने के लिए कहता है और उसे उपर, मध्य और तलहटी से पानी को चखने के लिए कहता है। पुत्रा ने पानी का स्वाद खारा पाया। इस पर पिता ने उत्तर दिया कि ’’विश्वात्मा’’ हम सब में नमक के समान अदृश्य रहता है क्योंकि वह पानी में नमक की तरह पूरी तौर से घुल चुका है।’’ चंदोग्य 17।

इस सिद्धांत से एक शिक्षा उभरी कि व्यक्ति की आत्मा को विश्वात्मा से संदर्भित किया जा सकता था अर्थात् विभिन्न ढंग, विभिन्न नाम और विभिन्न प्रकार की प्रार्थनाओं से सभी प्राणी एक दूसरे से संबंधित होकर भी विश्वात्मा से संबंधित थे और विश्वात्मा में विलीन होने की पात्राता रखते थे। इस दृष्टिकोण ने समतावादी और गैर भेदभाववादी दार्शनिकताओं जैसे कि जैन, बौद्ध के साथ गैर-वर्णवादी हिंदू धारणाओं के लिए आधारशिला रखी जिसने उपनिषदकाल का अनुसरण किया। स्पष्ट है, यह प्र्रक्रिया निरपेक्ष समाज की विरोधी नहीं थी और विभिन्न मतों एवं उपमतों को शांति और समता से सह-अस्तित्व का अवसर देती थीं।

अपने दर्शन को परिभाषित करने के दौरान उपनिषदकाल के विद्वानों ने अनेक प्रश्नों को उठाया और मिकेनिकल थेइज्म को चुनौति दी /ऐसा ही ऋग्वेद और अथर्ववेद की कुछ ऋचाओं में किया गया है।/ यदि ईश्वर संसार का सर्वोपरि सृजक है तो उस सर्वोपरि सृजक को किसने बनाया ? इस प्रकार के प्रश्न करने की तार्किक परिणति सृजक संबंधी प्रश्नों की अनंत श्रृखंला में होगी या उसे नकार देने या प्रश्नों की वृति को ही त्याग देने में होगी। दर्शनशास्त्रा के इस चक्रव्हूय् का साधारण समाधान था सहज ढंग से तर्क और प्रश्न करने के विश्वास को ही त्याग देना। सृजक मत के विश्वास करने वाले कुछ विद्वान इस विरोधाभाष को अपने लाभ के लिए उपयोग में लाते थे। ईश्वर का अस्तित्व है क्योंकि वह नश्वरों के द्वारा न समझा जाने वाला है। परंतु कमोवेश इस विरोधाभाष को यह कहकर हल करने का प्रयास किया कि ईश्वर जो सभी रूप से समस्त आयामों में, आकाश और समय समेत व्याप्त है। यह दार्शनिक बढ़त थी जिसने सबसे बड़ी चुनौती का मुकाबला किया, ईश्वर को मनुष्य समाज का सृजक माना और जिसे तर्क से पूरी तरह नकारने की आवश्यकता नहीं रह जाती थी।

उपनिषदकाल की दूसरी उपलब्धि यह थी कि धर्म को किताबी तोतारटंत के परिमंडल से बदलकर बौद्धिक और खंडनात्मक विमर्श के परिक्षेत्रों में प्रवेश करा दिया। उपनिषादिक दार्शनिकों ने कोई कठोर या अपरिवर्तनशील नियम नहीं बनाये वरन् सांसारिक अंतरदृष्टि और व्याख्या के महत्वपूर्ण और मोहक दृष्टांत बनाये। प्रकृति की बजाय, व्याख्याओं एवं विशलेषणों से अपने अनुयायियों को अभिभूत करके और बौद्धिकता एवं विमर्श की रीतियों के द्वारा वे एक ऐसा घेरा बनाते जहां द्वन्दात्मक तथा विवेकपूर्ण विचार के आदान-प्रदान प्रस्फुटित हो सकें। /नीचे संदर्भ भी देखिए/

प्रश्नों के दौरान ईश्वर संबंधी विमर्श के द्वार उन्होंने बुद्धिवादियों और यहां तक कि नास्तिकों के लिए खोले जो सृजक रूपी ईश्वर की भूमिका एवं गुण संबंधी संभाव्य प्रश्नावलियों को ऐसे परिणामों तक ले जाते कि वे ईश्वरवादी को ही पूरी तरह से नकारने लगते थे। परंतु किसी भी तरीके से अनेक बुद्धिवादी और या प्रकृतिवादी दर्शन की चिंतनधारायें इस मूलभूत आधारशिला से उभरीं उनमें से कुछ नाममात्रा की ईश्वरवादी थीं और कुछ दूसरी थीं निरीश्वरवादी। शुरूआती जैन, और शुरूआती बौद्ध एवं लोकायत भी निरीश्वरवादी थे। इस प्रकार से उपनिषदों में बहुत कुछ दुरूह बौद्धिक शब्दजाल और निरर्थक दार्शनिक पूजा की तरह है जिसे त्याग देना चाहिए। उपनिषद दार्शनिकों ने भारत भूमि पर बुद्धिवाद के बीजों के लिए जमीन तैयार की थी।

वैशेषिक मत

वैशेषिकमत, वैशेषिक सूत्रा के रचयेता कणद द्वारा स्थापित माना जाता है। यह प्रारंभ का एक यथार्थवादी मत था जिसकी मुख्य उपलब्धि प्रकृति को दो टुकड़ों - समान और असमान - में बांटे जाने के प्रयास में थी। उसने बताया था कि पदार्थ छोटे और अनश्वर अणुओं से बना जो विभिन्न ढंग के नए सम्मिश्रणों में मिला और उसने पृथ्वी पर विद्यमान समस्त पदार्थों को रूप दिया।

उनका दर्शन इन धारणाओं के माध्यम से व्याख्यातित था - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव।

अणुओं के एक अन्य ढंग के संयोजन से द्रव्य को समझाया गया था। द्रव्य गुण एवं क्रिया के भंडार थे। गुण द्रव्य में रहता और गुण अपने आप में गुण नहीं रखता। गुण को 24 संख्याओं में जाना गया था - रंग, आकार, गंध, स्पर्श, संख्या, विस्तार, विशिष्ठता, संयोग, वियोग, सामीप्य, दूरी, भारीपन, तरलता, और गाढ़ापन। समय के साथ ये विशिष्ट थे। मनोवैज्ञानिक लक्षण इस प्रकार थेः आनंद, कष्ट, इच्छा, विस्तृणा, प्रयास, प्रवृति, बोध और प्रभाव। साथ ही, नीतिशास्त्राीय लक्षण थेः गुण और अवगुण। अर्थात् विशेषताएं जो जड़ वस्तुओं, जिन्हें अलग से नहीं लिया गया, के लिए प्रयोज्य नहीं थीं।

कर्म भौतिक गति द्वारा प्रगट होता था। गुण जो निष्क्रिय होता था के विपरीत कर्म गतिवान होता और कर्म संयोग एवं वियोग का निर्धारक था। पांच प्रकार के कर्म बतलाये गएः उपर फेकना नीचे फेकना, सिकुड़ना, फैलना और संचलन।

सत्ता या भौतिक अस्तित्व को तत्वों, गुणों और कर्माें के सामान्य लक्षण सदृश्य माना गया अर्थात् अस्तित्वमान, कल्पना के विपरीत, सत्ता में तत्वों, गुणों और कर्माें की क्षमता होती थी।

सामान्यता को मानसिक धारणा माना गया, तत्वों, गुणों और कर्माें के सामान्य वर्ग बनाने के लिए, जबकि विशेषता का उपयोग वैयक्तिक इकाईयों को अपने सामान्य वर्गाें से अलग करने एवं पहिचानने में किया जाता था। समवाय ऐसा संबंध था जो वस्तुओं में विद्यमान रहता था जिसे वस्तु विशेष को नष्ट किए बिना अलग नहीं किया जा सकता था।

अभाव की चार श्रेणियां सूचिबद्ध की गईं थींः प्राग अभाव का संदर्भ ऐसी वस्तु से था जिसका पैदा होने से पूर्व अभाव रहा हो, दवंम अभाव या उत्तरवर्ती खंडन यथा वस्तु के नष्ट करने के बाद उसकी अनुपस्थिति, अन्योन अभाव यापारस्परिक अभाव अर्थात् ऐसी वस्तु जो एक दूसरे से अलग और भिन्न हो, अत्यंत अभाव या अंतिम या संपूर्ण अभाव अर्थात् भूत, वर्तमान और भविष्य मंे अनस्तित्व यथा वायु में स्थाईरूप से गंध नहीं थी /जोकि संभवतया उस समय सच रहा होगा जब प्रदूषण नहीं होता रहा होगा !/

कारण और कार्य के वृत में समय-संबंध के अध्ययन का महत्वपूर्ण योगदान वैशेषिक मतावलंबियों का था। प्रारंभिक रूप से इस और इसी तरह के कुछ अन्य मतों ने समय-संगणना के सिद्धांत की स्थापना की जिसे ब्रहमांड-संगणना तक विस्तार दिया जा सका।

वैशेषिक मत ने इस प्रकार से विज्ञान के अध्ययन के लिए धारणाओं को संख्याबद्ध करके भौतिकविज्ञान और रसायनविज्ञान के अध्ययन की ओर बढ़ाया। साथ ही, व्यवस्थित अवलोकन एवं वर्गीकरण के प्रयत्नों से औषधिविज्ञान और पशुविज्ञान के अध्ययन ने बड़ी प्रेरणा पायी थी।

न्याय और संबंधित मत

न्यायमतों ने मनन् किया और वैशेषिकमत पर सटीक बोध और सही निष्कर्ष के द्वारा वैज्ञानिक ज्ञान को इक्ट्ठा किया।

इस सिद्धांत ने ज्ञान प्राप्त करने के चार साधन बतलायेेः प्रत्यक्षः इंद्रियों में से किसी एक के द्वारा बोध; अनुमान; उपमानः ज्ञात वस्तु से तुलना या शब्दः मौखिक साक्ष्य द्वारा।

बोध की दशाओं, फैलाव और सीमाओं का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया गया। बोध के चार विभिन्न प्रकार बतलाये गये थेः तरसरेनःु कम से कम दिखलाई देना; अनुभूतरूपः इंद्रियातीत बोध; अभिभूतः धुधंलाया बोध और अनुभूत वृत्तिः संभाव्य बोध।

तत्व निर्धारण की सामान्य विधि बताई गई जिसमें उद्देश्य का वर्णन, बोध के द्वारा प्राप्त आवश्यक प्रमाण, लक्षण या उप लक्षण और परीक्षण एवं निर्णय हों। इस रीति में दृष्टांत, अवयव, तर्क और वादः निर्णय तक पहुंचने के लिए दो विपरीत पक्षों के मध्य विवेकपूर्ण विमर्श होंगे। इस रीति का सफल परिणाम सिद्धांत की स्थापना या गणित के संबंध में प्रमेय की प्रमाणों के द्वारा स्पष्ट करते हुए स्थापना में होगा। विकल्प के तौर पर, यह रीति मूल समस्या के खंडन की ओर उन्मुख होती थी।
न्यायमत ने विभिन्न प्रकार के तर्कों काी पहिचान की है जो वैज्ञानिक खोज के रास्ते में रोड़े या बाधक थे। वे इस बात की ओर इशारा करते थे कि वैज्ञानिक सटीकता और सत्य की खोज के रास्ते में अनेक व्यवहारिक अवरोध रह सकते हैं। उन्होंने कई शब्दों को सूचिबद्ध किया - झड़पः अर्थात् सत्य तक पहुंचने के बजाय जीत हासिल करने के लिए तर्क। यह शब्द इसलिए गढ़ा गया था कि अतिशियोक्ति और शब्दाडम्बरी तर्क का मूल तर्क से विभेद किया जा सके। वितंडः गैर भरोसे का तर्क या छिछोरा या विमर्श के सार से विमुख/हटाने के लिए जिसका उद्देश्य विरोधी को नीचा दिखलाना या उसकी साख को कम करना और चालः तर्क को शब्दछल या धोखे से उलझाना। आगे बढ़कर चाल के तीन प्रकार को सूचिबद्ध किया गया हैः वाक् चालः मौखिक शब्द छल जिसमें विरोधी के शब्दों को जानबूझ कर मन्तव्य के विपरीत बताना। सामान्य चालः झूठ का सामान्यीकरण करना या जानबूझकर गलत रूप से सामान्यीकरण करके सिद्ध करना कि मौलिक तर्क ही हास्यापद या विकृत था। उपर चालः किसी शब्द की गलत व्याख्या करना जिसे सांख्यकी की तरह से उपयोग में लाया गया हो और साहित्यिक की तरह लिया गया हो। साथ ही बताया जाति को। जातिः एक प्रकार का झूठा तर्क जिसमें गैर उपयोगी सद्श्यता बतलाई जाती जिससे मूल तर्क को त्यागा जा सके या मूल तर्क के खंडन के लिए विपरीत तौर पर असंबंधित सदृश्यता प्रगट की जा सके ।

न्याय सिद्धांत ने यह भी ज्ञात किया कि विवेकपूर्ण एवं अर्थपूर्ण विमर्श तब तक संभव नहीं होता जब तक कि कुछ मूलभूत सिद्धांतों और आधारभूत परिभाषाओं एवं धारणाओं को परस्पर में स्वीकार न कर लिया जाये। निग्रह स्थान असहमतियों के लिए बतलाया है, पहले के परस्पर स्वीकारे जाने वाले सिद्धांतों के अभाव पर आधारित। एक उदाहरण हो सकता हैः ईश्वर भक्त तर्क को त्यागे और एक निरीश्वरवादी आस्था को त्यागे।

न्याय मतावलंबियांे ने पाॅच प्रकार के हेत्वाभाष सूचिबद्ध किए थेः सर्वथात्ययात्ः सर्वथा पक्ष में न आने वाला। इसे असिद्ध भी कहा जाता है। यह अनिर्णयकारी है और जिससे एक से अधिक निर्णय पाये जा सकते हैं परंतु वह एक हेतू के लिए प्रयुक्त होता है; विरूद्धः जहां हेतू की स्थापना के विरूद्ध तर्क दिए जाते हैं; कालातीतः जहां समय के व्यतीत हो जाने से तर्क बेकार हो जाता है; साध्यसमः जहां तर्क सिद्धांतांे और धारणाओं पर आश्रित है जो प्रमाणित नहीं हंै और जिन्हंे साक्ष्यों की खुद ब खुद जरूरत है। यह एक भ्रांति है जहां एक अप्रमाणित परिणाम दूसरे अप्रमाणित परिणाम में मात्रा बदल जाता। अंत में, प्रकारण साम्यः जहां तर्क के हेतू को उखाड़ने के लिए प्रयास किया जाता।

इस ढंग से न्यायमत ने विवेकी दर्शनशास्त्रा को परिभाषित किया जहां वैज्ञानिक शब्दशास्त्रा की व्याख्या बाल की खाल निकालने के समान की गई और अवैज्ञानिक विमर्श के खतरों और प्रचार-कुचक्रों को कुशलतापूर्वक उजागर किया।

संयोग

जैन और बौद्ध विद्वानों ने और साथ में कुछ उत्तरवर्ती हिंदू विद्वानों ने वैज्ञानिक विवेचना के लिए अपने-अपने मार्ग बताये। वास्तव में, सभी विवेकवादी मतावलंबी संयोग एवं संयोगिक संबंधों की व्याख्या से सरोकार रखते थे। उन्होंने बताया कि कार्य के होने के लिए एक कारण की जगह अनेक कारण या कारणों का समूह या सम्मुच्चय की आवश्यकता होती है। बौद्ध विद्वानों ने जोर दिया कि कारण और कार्य रेखीय प्रभाव नहीं रखते परंतु ऐच्छित प्रभावों की सिद्धि के लिए सही स्थितियां चाहिए अर्थात् वृक्ष को सफलतापूर्वक बढ़ने के लिए उसे केवल बीज की नहीं वरन् मिट्टी, उर्वरक, सूर्य प्रकाश और पानी की भी आवश्यकता होगी।

दोनों, जैनों और बौद्धों ने सही रूप से जाना कि ऐच्छिक परिणाम के लिए कारण या कारक में संभावना होना चाहिए। उदाहरण के लिए केवल आम का बीज आम का वृक्ष उत्पन्न नहीं कर सकता। आम के बीज में आम के वृक्ष बनने की संभाव्यता /उर्जा/ का होना नितांत आवश्यक है। अन्य उदाहरण की तरह, कांच के समान टूटने वाली वस्तु दबाव से टूट जायेगी जबकि इस्पात समान मजबूत वस्तु नहीं टूटेगी। इस प्रकार से विभिन्न तत्वों के विभिन्न गुणों पर भौतिक दबाव विभिन्न परिणाम देगा।

न्यायिक मत ने सह-परिणाम बतलायेः पूर्ववर्ती श्रंृखला में परिणामों की श्रंृखला परिणमित हो सकती है या तो एक के बाद एक समय में या लगभग एक ही बार में। न्यायिक गं्रथ संयोग पर बतलाते हैं कि यह ज्ञात था कि प्रकाश बहुत ही तेज गति से जाता था परंतु प्रकाश का भेजा जाना तात्क्षणिक नहीं होता।

जैन और बौद्ध अणु सिद्धांत

जैन और बौद्ध दार्शनिकों ने अणु संबंधी अपने सिद्धांत प्रतिपादित किए। वैशेषिक के समान जैनों ने अणु को पुद्गल का सूक्षतम अविभाज्य अंश माना। उन्होंने आगे बढ़कर इस बात की भी स्थापना की कि यौगिक अणुओं में विरोधी ध्रुव का अणु होना चाहिए - जैसा कि विद्युत कर्षण के गठबंधन में होता है। जो भी हो, उनके सोच में एक चूक हो गई कि सहकर्षण बंधन में यौगिक अणुओं के लिए विरोधी या विपरीत ध्रुव के अणुओं की आवश्यकता नहीं होती। परंतु उनका यह सहजज्ञान कि विरोधी ध्रुव पारस्परिक खिंचाव और रसायन प्रतिक्रियाओं के होने में मदद करते हैं, सही था। बौद्ध दृष्टिकोण में, पदार्थ दु्रत गति से होने वाली शक्तियों या उर्जा की धाराओं का समुच्चय था। उनके सिद्धांत का प्रतिपादन प्राकृतिक परिघटना जो प्रकाश के निसर्ग से संबंधित होती थी के उदाहरण से होता था। अणु के प्रकाश की क्षणिक चमक अणुओं के संयोग / वियोग के निश्चित और कठोर नियमों के अनुसार होती थी और उनके माध्यम से जानी जाती थी। इस प्रकार से पदार्थ को प्रकाश से ज्यादा घनीभूत एवं केंद्रीभूत स्वरूप में माना गया। यद्यपि उस समय के अणु संबंधी अन्य सिद्धांतों के विपरीत उनका दृष्टिकोण सामान्य दृष्टिकोण से मेल रखता था कि प्रकृति की समस्त वस्तुएं अस्थाई थीं, कि प्रकृति में सतत् परिवर्तन होते रहते थे, कि उनके विनाश और पुनर्जीवित होने की प्रक्रियायें सतत् होती रहती थीं।

जैनदर्शनः स्याद्ववाद पद्धति

स्याद्वाद स्यात् एवं वाद इन पदों से बना है। स्याद्वाद वह भाषा पद्धति से बना है जो वस्तु तत्व का सम्यक् प्रतिपादन करती है। वह निश्चित तौर से यह बताती है कि किसी विचार या अवलोकन का सत्य केवल सच्चा या केवल झूठा नहीं होता। वह अनिश्चयात् है। सत्य स्थिति, समय और संदर्भों पर आधारित होता है। वह सापेक्ष होता है। इस पद्धति ने सत्य की सात दशायें बताईंः सच, झूठ, सच या झूठ, अनिश्चयात्, सच या अनिश्चयात्, झूठ या अनिश्चयात् और सच या झूठ अनिश्चयात्। स्याद्वाद का एक अर्थ में पर्यायवादी शब्द है अनेकांतवाद।

जैन विवेकवादियों ने वैयक्तिक एवं सार्वभौम विशेषताओं के सामान्यीकरण से संबंधित महत्वपूर्ण सूत्रा स्थापित किए। उन्होंने यह भी ध्यान में रखा कि वास्तविक दुनिया में वस्तुयें एक दूसरे के संबंधों की जटिलता में अस्तित्वमान होती और विशेष गुण रखती हैं। उन्हें अस्थाई और स्थानिक तौर पर चिह्नित किया। प्रत्येक सत्य इस प्रकार से संबंधों और गुणों के मकड़जाल से आच्छादित है जिसे उनकी पद्धति या संदर्भ या प्रबंध की दुनिया कहा और जो उन्हंे दूसरों से अल्हदा करता है। जैन दार्शनिकों ने सफलतापूर्वक परिवर्तन और स्थाईत्व के पूर्ववर्ती विमर्शों का संश्लेषण किया था, यह मानते हुए कि सभी वस्तुयें या वस्तुओं के अंश अस्तित्वता, दढ़ता और अवसान की अवस्थाओं से गुजरती हैं और इसलिए सत्यता वस्तुओं का एक जटिल समुच्चय सापेक्ष तौर पर स्थाई तब भी सापेक्ष तौर पर परिवर्तनशील होता है।

इन धारणाओं ने भारतीय विज्ञान की नींव डाली और गणित तथा ज्योतिष के साथ कृषि और मौसम के विज्ञानों के क्रमिक विकास में योगदान दिया। धातुविज्ञान और वास्तुशिल्प का विकास पीछे-पीछे आया। औषधि और शल्य चिकित्सा ने शायद सबसे ज्यादा और सबसे पहले प्रेरणा इन विकासों से पाई। दर्शनशास्त्रा के विकास ने ललितकलाओं और संस्कृति के क्षेत्रा में सुसंगत प्रगतियों का नेतृत्व किया।

तब भी, एक दूरी तक भारतीय इतिहास में ज्ञान एवं विज्ञान के विकास संबंधी जानकारी बहुधा बहुत क्षीण रहती है। ये और इसी प्रकार के अन्य योगदान उपनिवेशन के दौरान या तो नकार दिए गये या फिर उनका तिरस्कार किया गया था और अब, न केवल भारत वरन् विदेशों में उनको पुनः स्वीकारा जाने लगा है। परंतु 1068 ई. से दुनिया के कुछ हिस्सों में विज्ञान की मुख्य धारा में भारतीय योगदान को बड़े सम्मान के साथ सहज स्वीकारा जाता था।

यहां वह उद्धृण है जो सईद अदुलूसी, 11 वीं सदी का स्पेनी विद्वान एवं राजदरबारी इतिहासकार ने लिखा थाः ’’शताब्दियों के और बीतते समय के दौरान देशों के बीच, भारत को ज्ञान की खदान, न्याय एवं अच्छे शासन का अगुआ माना जाता रहा और उच्च बुद्धिमानों के साथ भारतवासियों का उनके उन्नत विचारों, सार्वभौम सिद्धांतों, दुर्लभ अविष्कारों और आश्चर्यजनक गुणों के लिए आदर किया जाता रहा था। अंकगणित और रेखागणित का उन्हांेने अध्ययन किया था। उन्हें सितारों की गति, विशाल ब्रह्माण्ड के रहस्य और दूसरे गणितीय विज्ञानों का भी प्रचुर और गहन ज्ञान था। और इसके अतिरिक्त वे सबसे ज्यादा ज्ञान औषधिविज्ञान में रखते थे और औषधि के गुणों, प्रकृति के मिश्रित तत्वों और वस्तुओं की विभिन्नताओं के गहरे अध्ययन का भंडार रखते थे।’’ अबुलकाशिम की टिप्पणीः इंडिया इन तशकुत अल उमाम में /देशों की श्रेणियांे में।/

संदर्भः

वैदिक / उपनिषादिक ग्रंथों से उद्धणः अथर्वेद अध्याय 19, ऋचा 59; ऋृग्वेद अध्याय 9, ऋचा 112; अध्याय 10, ऋचा 127; द्वेना उपनिषद, साम्यवेद का परिशिष्ठ, चंदोग्य
उपनिषद, भागवत पुराण की कवितायें इत्यादि,
इंडियन थाॅट ए क्र्रिटिकल सर्वे - के. दामोदरन,
लोकायतः ए स्टडी इन ऐंशियेंट इंडियन मटेरियलिज्म - देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय,
इन डिफेंस आॅफ मटेरियलिज्म इन ऐंशियेंट इंडिया - देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय,
वाॅट इज लिविंग एण्ड वाॅट इज डेड इन इंडियन फिलासिफी - देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय,
ए हिस्ट्र्ी आॅफ सिवलाईजेशन इन ऐंशियेंट इंडिया /इंडोलाजी/ - देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय,
दा केटेग्रीज आॅफ नेशनस् का अंग्रेजी अनुवादः साईंस इन इंडिया - सईद अल अदुलूसी।

नीचे लिखे वेव-लिंकस् को भी देखिएः

1.भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के लिए आदिवासी योगदान,
2.बौद्ध नीतिशास्त्रा और सामाजिक समीक्षा,
3.भारत में तकनीकी खोजें और उनके उपयोग,
4.सूफी धारायें और इस्लामी राजदरबारोें में सभ्यता,
5.भारत में गणित का इतिहास,
6.प्राचीन भारत में दार्शनिक विचार और वैज्ञानिक तरीकों का विकास।