"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

सूफी धारायें और इस्लामी राजदरबारों में सभ्यता

इस्लामी दरबारों में समृद्ध होती सभ्यताओं का सही आंकलन सूफी धाराओं को समझे बिना संभव नहीं। सूफी धाराओं ने महान् इस्लामी साम्राज्यों की सांस्कृतिक धरोहरों के निर्धारण में मौलिक और निर्णयकारी भूमिका अदा की थी। विश्व इतिहास का कोई भी विद्यार्थी जानता है कि जब भी धार्मिक सर्वोच्चता का बोलबाला चलता है सभ्यता बुरी तरह से रुक जाती है। किसी भी सभ्यता के विकास के लिए दकियानूसी परंपराओं एवं मतांधताओं से मुक्त बौद्धिक एवं सांस्कृतिक विस्तार की आवश्यकता होती है। पूर्ववर्ती इस्लामी राजदरबार के उदाहरणों में खासकर बगदाद के अब्बाशिद के शासनकाल में चर्च और राज्य में अनौपचारिक विभाजन था। अरब सभ्यतायें, भारतीय और मेडीटरेरियन सभ्यताओं की तरह से विभिन्नदर्शनग्राही स्त्रोतों से आवक पाकर महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त कर सकीं, फिर चाहे वे आवक देशज हों या विदेशी।

परंतु एकबार कुरान और शरीयत नियमों को कठोरता से लागू करना शुरू हुआ तो नये इस्लामी समाजों को, जैसा कि मध्यकालीन यूरोप में ईसाई राज्यों में भी हुआ था, अंधेरे युगों में गिरने से बचाने के लिए इस्लामी दरबारों को वैकल्पिक धाराओं की आवश्यकता हुई। प्रोटेस्टेंटों के सदृश्य सूफीवाद और कई उदारवादी मत उत्पन्न हुए और इस्लामी राजाओं द्वारा शासित समाजों में बौद्धिक उन्नति और सांस्कृतिक प्रसार के वे आधारभूत वाहक बने।

इस्लाम की विजयों के पहले से ही विद्यमान हिंदू, बौद्ध, जूडिक, मैनीचियन और जोरोस्ट्र्नियन समाज के संक्रमण को सरल करने के लिए सूफी धारायें आवश्यक थीं। इन सांस्कृतिक और धार्मिक पद्धतियों के बीच सामंजस्य के लिए सूफीवाद ने रास्ता तैयार किया। सूफी विद्वानों ने जूडिक, ईसाई एवं इस्लाम के बीच विकास एवं निरंतरता को बनाये रखने के लिए बहुत काम किया। सूफीवाद ने एक ओर, ईसाई, मैनीचियन्स, यहूदी एवं मुस्लिमों के विरोधी विश्वासों के बीच सामंजस्य में मदद की और दूसरी ओर, राजनैतिक तनाव कम करने तथा सामाजिक शांति व स्थाईत्व के लिए सहुलियतें पैदा कीं।

इस प्रकार के कार्य इस्लामी विजेताओं के हितों के प्रतिकूल नहीं थे और प्रायः बर्दास्त कर लिए जाते थे। यद्यपि सूफी विद्वान रूढ़िवादी उलेमाओं को यह विश्वास दिलाने में भारी कष्ट उठाते थे कि उनके बौद्धिक नियम इस्लाम के दुनियावी नजरिये के खिलाफ नहीं पड़ते। 10 वीं सदी में, कलवादी, बुखारा ’’तारूफ’’ के लेखक और 11 वीं शताब्दी के परशियन विद्वान, हजबुरी ’’काशिफ’’ के रचनाकार ने अपने कार्य को इस्लामी परंपराओं के बड़े दायरे के भीतर रखने की कोशिश की थी। हजबुरी का कहना था कि धार्मिक कानूनों के मानने के अलावा उच्च सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए इस्लाम में स्थान था। उसने इस बात पर जोर दिया कि कुरान में जो कुछ था उसे वह चुनौति नहीं दे रहा था या उसके खिलाफ नहीं था।

अनेक सूफी विद्वानों ने कुरान एवं शरीयत की अपनी ईमानदार प्रतिबद्धता की पुष्टि के लिए और कुछ दूसरों ने सूफीवाद को इस्लाम के पैतृक वजन और अधिकार से बच निकलने के साधन की तरह से उपयोग किया। शुरूआती सूफी विद्वानों में कुछ महिलायें जैसे रबिया 9 वीं सदी और नूरी 10 वीं सदी में हुईं थीं। उन दोनों ने दुनियावी त्याग पर जोर दिया और बतलाया कि
आध्यात्मिक उपलब्धि ’’ईश्वर’’ को अपने भीतर ही खोज लेने में है। पुराणपंथी महात्माओं के प्रभुत्व और रुढ़िगत रीतिरिवाजों के नकारने में पूर्ववर्ती हिंदुओं और बौद्धों दोनों की कुछ समानताओं को अंगीकार किया था।

जैसा कि सूफी साहित्य और व्यवहार में सन्नहित है कि भारतवासियों पर न केवल उपनिषदों के कुछ रचियताओं या बौद्ध अनुयायियों का प्रभाव है वरन् भारतीय लोक और भक्तिमय साधुओं का भी है। मुगल शाहजादे दाराशिकोह ने अपने ’’दो सागरों का संगम’’ में ऐसी ही विशेष टिप्पणी की थी।
वास्तव में, सूफी मत और व्यवहार के समानतर पक्ष भारतीय दर्शन साहित्य में उपलब्ध थे परंतु प्रायः सूफी विचार की अधिक समानांतरकारी धाराओं के मध्य उन पक्षों को इस्लामी राजनैतिक सहनशीलता के बीच ही परखा देखा जा सकता था। यहां तक कि अधिकांश सूफी वेदांतियों के समान ही तात्विक धर्म को एक खोल की तरह मानते थे। वे इस बात का खंडन नहीं करते कि एक औसत अनुयायी के लिए प्रतिदिन की क्रियायें और पारंपरिक धार्मिक रिवाज महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते थे। अधिकांश एकदम विद्रोही नहीं थे वरन् धर्म की मुख्य धारा के प्रभाव को स्वीकार करते थे। परंतु कुरान की शाब्दिक व्याख्या और जड़ता को वे कम स्वीकार करते प्रतीत होते हैं। ’’शब्दों का उपयोग धार्मिक सत्य के लिए नहीं किया जा सकता, सिवाय समतुल्यता के।’’ हकीम सनाई का यह भाव उनकी ’’दी वाॅल्ड गार्डन आॅफ ट्र्ूथ’’ में व्यक्त किया गया है जो लगभग केना और चंदोग्य उपनिषदों में प्रगट है।

समय बीतते बीतते विभिन्न सूफी धारायें विकसित हुईं। ज्यादा अग्रगामी सूफी विद्वान कुरान की संगतता पर कम और एक ऐसे आध्यात्मिक सत्य पर ज्यादा जोर देते थे जो धर्मशास्त्रों से इक्ट्ठा किए जाने वाले से श्रेष्ठ था। व्यवहारिक अनुभव, सहजज्ञान के उन्नत और दुनिया के सापेक्ष महत्व के द्वारा सांस्कृतिक उत्थान और आध्यात्मिक अन्वेषण पर ज्यादा बल दिया जाता था बजाय धर्म सिद्धांतो को दुहराते रहने के। सूफियों ने आकर्षित करने वाले पुराने मतों और दार्शनिक रिवाजों का समावेशन किया। उन्होंने अपनी अतुल एवं कुशाग्र बुद्धि की अंतरदृष्टि से आगे बढ़कर ये समावेशन किए थे।

इनमें से ’’इल्युमिनिस्ट’’ धारा के स्पेनिश सूफी सर्वाधिक रुचिकर रहे और उनमें से अनेक भारतीय सभ्यता के प्रशंसक थे। उनके पास भारत के दार्शनिक और वैज्ञानिक शास्त्रों के अनुवाद की सुविधायें थीं। स्पेनिश सूफी दार्शनिक और वैज्ञानिक ज्ञान को आगे बढ़ाने तथा उसके संरक्षण करने में भी रुचि रखते थे। वे फ्राॅसिस्कान धर्मगुरूओं जैसे रोगर बेकाॅन 1268 सदी, पर बहुत प्रभाव रखते थे। फ्राॅसिस्कान धर्मगुरूओं ने दुनियां के दृष्टिकोण को इस तरह बतायाः ’’ज्ञान के दो स्वरूप हैं तर्क और अनुभव। तर्क निष्कर्ष लाता है और उसे स्वीकार करने के लिए हमें मजबूर करता है परंतु वह निश्चितता पैदा नहीं करता और न ही शंकाओं का निवारण कि मन सत्य में रम सके, जब तक कि वह अनुभव द्वारा प्राप्त न किया गया हो।’’

बीरबल की तरह मुल्ला नसिरुद्दीन मजाकिया नीतिकथाओं के द्वारा ’’दी सटलीज् आॅफ दी इंकम्पैरेबल नसिरुद्दीन’’ अमर हो गए और सूफी व्यंग के जाने माने उदाहरण सामने आये। भारत में सूफी कवि कबीर कटु हास्य और लोक ज्ञान को अपने दोहों में लाये। भारतीय भक्ति साधुओं या बर्मी या जापानी बौद्ध भिक्षुओं की नीति और काल्पनिक कथायें मानवीय परिस्थितियों एवं जीवन की विषमताओं पर प्रहार करने में समर्थ थीं। ये कथायें चारित्रिक एवं नैतिक संकटों पर प्रकाश डालतीं और साथ ही अपने ज्ञान को बताने की महत्वपूर्ण भूमिका अदा करतीं। यद्यपि ज्यादा जोर तो आध्यात्मिक ’’सत्य’’ की खोज पर होता था परंतु उनकी रचनाओं में व्यापकरूप से असरकारक पक्ष धर्मनिरपेक्षता का ही हुआ करता था। इस मायने में ऐसी सूफी कथाओं में ठीक पंचतंत्रा या एसपस फेबलस् की तरह दुनियां की सभ्यताओं के लोक साहित्य का बंधुत्व मिलता था।

सूफी साहित्य और काव्य का कुछ भाग रोमानी प्रेम के मनोविज्ञान से संबंधित रहा। संभवतया एक संयोग की तरह से कि कैसे रूढ़िगत एवं परिशुद्धवादी समाज में प्रेम और काम भावनाओं को एक दूसरे से मिलाया जा सके। प्रायः भावनात्मक उद्गारों को अनैतिक या गैरकानूनी माना जाता था, जैसा कि समलैंगिक प्यार में। उसे दैनिक एवं रहस्यमय आध्यात्मिक आवरण में संजोकर और राजनैतिक एवं सामाजिक प्रतिबंधों की पकड़ से बचाकर प्रस्तुत किया जाता था। फरिउद्दीन अतर 13 वीं सदी, निशापुर, ईरान और जलालुद्दीन रूमी ब्लक्ख, अफगानिस्तान 13 वीं सदी की रचनाओं में प्रेम कथाओं का संदेश होता था।

दोनों मानव विकास के विभिन्न स्तरों के बारे में कहते थे। आध्यात्मिक उन्नति के इन शब्दों में अतर ने ध्यान दिया थाः ’’क्योंकि किसी ने कुछ का दुरोपयोग किया इसलिए उसे छोड़ देना मूर्खतापूर्ण होगा, सूफी सत्य को कानूनों और कायदों में नहीं बांधा जा सकता, सूत्रों और रीतिरिवाजों में भी नहीं क्योंकि वह तब भी आंशिक रूप से इन सभी चीजों में उपस्थित रहता था।’’

रूमी ने सामाजिक विकास के सिद्धांत का अनुमोदन किया प्रतीत होता है। वह भारत के पूर्ववर्ती आध्यात्मिक सिद्धांतों से मेल खाता भी प्रतीत होता हैः ’’मैं एक जड़वत् तत्व की तरह मरा और एक पौधा बना; और, एक पौधे की तरह मरा और एक पशु की तरह बना; और, एक पशु की तरह मरा और एक आदमी बना - इसलिए मुझे मनुष्य रूप छोड़ने में क्यों डरना चाहिए ? मैं आदमी की तरह मरूंगा, एक दैविक रूप में पैदा होने के लिए।’’ मथनवी कहानी में - 17।

अनेक दूसरे सूफियों की तरह जो धार्मिक और दार्शनिक कूटचिक्तिसकों जैसे संशयवादी थे, जैसा कि बाद के कबीर भी थे, रूमी ने लिखाः ’’वह जो भाग्यवश प्रबुद्ध है जानता है कि कुतर्क शैतान और प्रेम आदिम से मिलता है’’ - मथनवी में। यही बातें नूरूद्दीन जामी, खुरासान 15 वीं शताब्दी, ने प्रगट कीं थीं ’’सूखा बादल, पानी रहित में वर्षा देने की शक्ति नहीं होती’’ पुराने धार्मिक रीतिरिवाजों और पर्वों को आदतन या बिना सोच विचार के मनाते रहने के संदर्भ में।

रूमी सारगर्भित कहावतों के लिए प्रसिद्ध हुआः ’’एक आदमी जिसने कभी पानी न जाना हो को आंखों पर पट्टी बांधकर पानी में फेंक दिया जाये, वह उसे अनुभव करता है। जब पट्टी हटा दी जाती है वह जान जाता है कि वह क्या है। तब तक वह उसे उसके प्रभाव से ही जानता है।’’- फीही मा फीही में। नकल के लिए बोलते हुए वह कहता हैः ’’नहर खुद नहीं पीती, परंतु वह प्यासे तक पानी पहुंचाने का काम करती है।’’ सत्य को एक की अपेक्षा अनेक तरीकोें से बताया जा सकता है। इस बात को रेखांकित करते हुए उसने लिखाः ’’एक मिथ्या या विपरीत कथा, सत्य को उजागर करती है।’’

रूमी के अवलोकनों में सबसे खास बात एक ऐसे नियम के होने की थी जिसकी यूरोपियन लोग संभवतया हीगेल से तुलना करेंः ’’विपरीत चीजें एक साथ काम करतीं हैं, यहां तक कि सामान्यतः विरोधी भी।’’ - फीही मा फीही में।

शेख सादी सिराज, 13 वीं सदी, और रूमी का समकालीन ’’गुलिस्तान’’ गुलाब का बगीचा और ’’बुशतान’’ फलोद्यान और मानवीय विचारों की अंतरदृष्टि के लिए प्रसिद्ध हुआ। वह बगदाद में शिक्षित, अनेक स्थानों पर घूमा और भारत भ्रमण भी किया हुआ था। रूमी के समान ही सादी ने भारत की सूफी सूक्तियों पर और डिमास्कस से काबुल तथा मध्य पूर्व तक प्रभाव डाला था। वह सत्तावादी और अन्यायी राजा और कंजूस धनाढ्यों की कटुउक्तियों के लिए प्रसिद्ध हुआ था। इस विधा को कबीर ने आगे बढ़ाया था।

यद्यपि भारत एवं मध्य पूर्व में अधिकांश सूफी संघ मूलरूप से ’’आत्मिक’’ उन्नति से संबंधित थे और वे मुख्यतया दुनियावी जीवन की ओर संशयवाद या उसे त्याग देने के बारे में ज्यादा झुकाव रखते थे। सूफियों के प्रशंसक, 20 वीं सदी के भारतीय टिप्पणीकार शेख इदरीस जैसे आदर्श सूफियों ने परित्याग को जीवन की पहिचान से बदला और जोर दियाः ’’वैदांति और बौद्ध मतों के द्वारा प्रतिपादित वास्तविक दुनियां के पूर्ण त्याग के विपरीत, सूफी दुनियां से पूर्ण विमुखता को नहीं स्वीकारते। वे उसमें भागीदारिता को बढ़ावा देने की वकालत करते थे, यद्यपि वे दुनियां से विमुख होने की पूरी क्षमता रखते थे। आदर्श सूफी से त्याग और भागीदारिता के बीच संतुलन कायम करने की अपेक्षा होती है - तर्क और रहस्यवादिता के बीच संतुलन’’ ’’दी सूफीज् डबल प्ले’’ में।

इदरीज शाह भी कहते हैं कि सूफी नजरिये से मनुष्य असीम तौर से पूर्णता योग्य है, कि पूर्णता दुनियां के साथ समन्वय से प्राप्त होती है और उसके लिए भौतिक और आध्यात्मिक संतुलन की आवश्यकता होती है। वह सूफियों में सामन्जस्यता के लिए विश्वव्यापकताएं पाने और जो आदर्श धर्म का पालन करते हैं उनमें उंची चेतना की जागृति के लिए सूफियों की भूमिका के तौर पर संदर्भित करता है।

17 वीं सदी में, सिराजुद्दीन अब्बासी जन्म 1649 कश्मीर, सूफियों के बारे में लिखता हैः ’’यदि तुम उनका संतो के समान आदर करो, तुम उनके साधुत्व से लाभांवित होओगे, परंतु यदि तुम उनके साथ सहयोगी की तरह काम करोगे तो उनके संसर्ग से लाभ प्राप्त करोगे।’’ सूफी सिद्धांतों के प्रचार कार्य के अपने अनुयायियों से संलग्न होते हुए अब्बासी ने अपने ’’सफरनामा’’ में लिखा थाः ’’फूलों में फूल बनो, कांटों में कांटा।’’

अब्बासी सूफियों के प्रशंसकों में अकेला नहीं था। भारत में, कमोबेश, सूफियों के प्रालेख को बड़े आदर के साथ देखा और आंका जाता रहा, खासकर इस्लामी सभ्यता के प्रशंसक विद्वानों द्वारा। भारत की समन्वयात्मक संस्कृति के विकास में सूफियों की अहम भूमिका को चिह्नित किया गया। सूफियों को उनके सार्थक काव्य एवं साहित्य के लिए विशेषतया जाना जाता है; साथ ही, ललित कलाओं में उनके योगदान के लिए भी। कुछ विद्वानों ने तो सूफियों में समन्वय की पुनस्र्थापना के प्रयास को भी देखा जिसे एक समय, उत्तरवर्ती बौद्धों ने त्याग दिया था, जो ज्ञान और गुणगान के कारण पुराना पड़ चुका था और यहां तक कि परजीवी और जनसामान्य द्वारा परित्यक्त हो चुका था। कुछ अन्य इस बात को कुछ कुछ आधुनिक स्पर्श के साथ और सुख भोगी प्रवृतियों पर बंदिशों के साथ पुनस्र्थापना मानते हैं क्योंकि वे प्रवृतियां भारत में इस्लामी शासन आने के पहले से ही प्रबल हो गईं थीं।

जो भी हो, इस प्रकार के मूल्यांकनों का सावधानीपूर्वक परीक्षण किया जाना चाहिए। एक बार इस्लामी विजयों ने हिंदू और जैन संस्कृतियों को पराजित और क्षीण किया, सूफी इस्लाम, आसानी और तुलनात्मक रूप से ज्यादा गंभीर और उर्वरक दिखलाई दिया। ज्यादा कल्पनाशीलता मेें हमेशा खतरा बना रहता है। उदाहरण के लिए कुछ सूफी मतों में, सूफियों को जीवन के सभी सांस्कृतिक पक्षों में योगदान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था यथा चित्राकारिता, स्थापत्यशिल्प और अलंकरण के साथ व्यवसायिक कला, नृत्य और संगीत तथा ज्योतिष एवं गणितशास्त्रा में भी। परंतु इस बात को सभी सूफियों ने मन से स्वीकार नहीं किया और अधिकांश सूफी भक्तिवादी प्रतिपक्षियों के समान ही, दानशीलता और आध्यात्मिक व्याख्यान देने में लगे रहते थे। भारत में सूफी प्रार्थनागृह लोकप्रिय हुए समानपक्षी मुस्लमानों की तरह से इच्छापूर्ति के मंदिर जहां भक्तगण साधुओं से आर्शीर्वाद पाने की आशा से आते थे कि उन्हें अच्छा भाग्य या पुण्य मिलेगा या संभवतया उनकी कष्टदायी परिस्थितियों का निवारण हो जायेगा।

इस्लामी आक्रमणों के विरोधी बतलाते हैं कि सूफी विद्वानों ने जासूसी के कार्य किये थे और उन्होंने हिंदू विरोधी तीखे तथा भ्रामक लेख भी लिखे थे और आक्रमणकारियों एवं विजयेताओं की प्रशंसायुक्त प्रशस्ति अपने लेखों में देते थे। इस आलोचना में कुछ सत्यता है क्योंकि सूफी द्वारा ’’मूर्ति’’ विनाश का प्रतिरोध नहीं किया गया; खासकर उन सूफियों द्वारा जो आक्रमणकारियों के साथ आये थे। अलगजली मसहद, ईरान जैसों ने अपने काम के सार को इस्लाम का बुद्धिवाद के साथ समन्वय करने में समझा और अन्य सूफियों को इसका समर्थन करते भी देखा गया। यहां तक कि इस्लाम की रूढ़िवादिता को मजबूत करते हुए अधिकांश सूफियों ने इस्लाम को मानवीय चेहरा प्रदान करने की कोशिश की परंतु उसके विरुद्ध न बोलते हुए अथवा विजयेताओं के अमानवीय सैन्य कृत्यों और इस्लाम के नाम पर खूनी अभियानों को रोकने का प्रयास नहीं करते हुए। तब भी सूफी संघों ने इस्लाम के प्रति भक्ति रखते हुए प्रेम और भाईचारे को बढ़ावा दिया। इस प्रकार के आदर्शवादी सिद्धांत बढ़कर हमेशा ’’मूर्ति पूजकों’’ को समाहित नहीं करते थे। और, कुछ सूफियों में, दुनियावी नजरिये के लिए खासकर कुलीन वर्ग होता था। नारी की आश्रित स्थिति को कम ही चुनौति दी जाती यद्यपि कुछ सूफी समुदाय जैसे कि इल्युमिनिस्ट में महिलायें शिक्षिका या विदुषी भी हुआ करतीं थीं।

परंतु इन परिसीमाओं के बाबजूद, एक बार इस्लाम की स्थापना हुई और वह स्थाई हुआ, कि उन भूभागों में सूफी बिना नागा रंगीनता और सौंदर्य का स्पर्श देते जिसके बिना वह भूभाग निस्तेज और सौंदर्यविहीन था। अफगानिस्तान में सूफियों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। खासकर हेरात में, जो लघुचित्रों के लिए प्रसिद्ध बनकर उभरा था। पश्चिमी पंजाब में, मध्यकालीन पंजाबी वास्तुशिल्प के सूफी प्रार्थनागृह होते थे जैसे कि मुलतान, उच्छ, डेरागजनी खान, डेराआडिल, डेरादीन पनाह, डेरा इस्माइल खान में। इन स्मारकों में, ऐसा लगता है मानों तक्षशिला की आत्मा पुनः जीवित हो गई हो। सूफियों ने प्रादेशिक सल्तनतों में जैसे जौनपुर, सिंध, गुजरात, बंगाल, और दक्खिन में पुराने भारतीय रीतिरिवाजों को नये वास्तुशिल्प में प्रभावशाली ढंग से समायोजित करने के लिए एक अहम भूमिका अदा की थी।

सूफी धारायें जो राजनैतिक तौर पर रूढ़िगतता के साथ थीं के विपरीत, सूफी रहस्यमयवादी पंथ ने ज्यादा ही अस्पष्ट स्थिति को अपनाया था, गुप्त सूत्रों और रहस्यवाद को असहमति के माध्यम की तरह से उपयोग करते हुए। रूढ़िवादियों की धार्मिक पुलिस से रहस्यवाद कुछ सुरक्षा प्रदान करता था - क्योंकि प्रायः रहस्यवादी पागल होने का या जब उन पर विधर्मियों का समर्थन करने का दोषारोपण किया जाता था वे रहस्यवादी अर्धचेनावस्था में होने का बहाना बना लेते थे। सूफी इस बात का दावा कर सकते थे कि उनके असंगत कथन पूरे होशोहवास या चेतनावस्था के नहीं थे या कि उन्होंने स्वेच्छिकता से ईश निंदा नहीं की।

इस ढंग से सूफी धारायें निश्चितरूप से आधीनस्थ चरित्रा की होतीं थीं और जीवित रह पा सकीं। वे सामाजिक आलोचना की अभिव्यक्ति का माध्यम बनीं। टर्की और परशिया में इन आधीनस्थ धाराओं ने खासकर ललित कलाओं और हस्तकौशल के संघों में बहुत से समर्थकों को आकर्षित किया। इसने एक दूरी तक कारीगरों के लिए राजनैतिक संरक्षण दिया और राजशाही द्वारा उनके शोषण पर सीमा लगाने में कदम उठाया।

परंतु मौलिक सूफियों के बढ़ते प्रभाव ने पुराणपंथी प्रतिक्षेप को उकसा दिया और ईरान में सबसे मौलिक संघों जैसे निम्मुत्तुल्ला को वहां से भागने के लिए मजबूर होना पड़ा और भारत में शरण लेना पड़ी। तब भी, ज्यादा आज्ञाकारी संघों को रहने दिया गया और वे शकाविद ईरान पर महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्र्रभाव डाल सके, खासकर कला और स्थापत्यशिल्प के क्षेत्रा में। सूफी संुदर आकृतियांे और महान प्रभावशाली स्मारकों के निर्माण में कारक बने जिन्होंने इस्कान और तबरेज जैसे शहरों को सज्जित किया और शिराज की कला में योगदान दिया।

भारत के कारीगरों के समुदायों में से बहुतों को सूफी पंथ ने आकर्षित किया, विशेषतया बुनकरों को परंतु क्योंकि भारत में इस्लाम परिवर्तन आंशिक था, सूफीवाद के अनेक विकल्प भक्ति और तांत्रिक पंथों में उपलब्ध हो गये थे और समानरूप से निकास का काम किया। आधीनस्थ आंदोलनों में से सबसे शक्तिशाली सिखवाद उभरकर निकला जो एक हिस्से के लिए सूफीवादी रहस्यवाद की मौलिक प्रेरणा का ऋणी रहा और सूफी विचार का प्रभाव सिख गुरूओं पर जारी रहा था। इसको आदर और गर्व से स्वीकारा जाना चाहिए। जो भी हो, जैसे ही एक सिख राज्य का एक हिस्सा शासक वर्ग में उपर उठा, सिखों का मौलिक चरित्रा शनैः शनैः क्षीण हो गया और ऐसा ही अन्य सूफियों के साथ भी ऐसा ही हुआ जब वे शासक साम्राज्यशाहियों के करीब हुए, तब।

अपने सर्वोत्तम में, सूफी धारायंे ढोंगी और दमनकारी धार्मिक हठधर्मिताओं के लिए कटु आलोचक बनीं थीं। उन धाराओं ने बौद्धिक उन्नति और सांस्कृतिक क्षेत्रा में सृजनात्मकता को आगे बढ़ाया। भारत में सूफियों ने देश के रीतिरिवाजों और इस्लाम के बीच की दूरी को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का विशेष काम किया। और संभवतया, यह भी कहा जा सकता है कि उनके प्रभाव ही भारत में हिंदू और इस्लामी राजदरबारों के लिए सजावटी कला और औद्योगिक पूर्व के उत्पादों के कारक बने थे।

यद्यपि इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि जहां तक सूफी आंदोलन इस्लाम से अभिन्नरूप से गुथा हुआ था उनका विश्व दृष्टिकोण तदानुसार ही सीमित था। परंतु सूफी साहित्य में विश्वव्यापकता एवं धर्मनिरपेक्षता के तत्व हैं। और भारत में उसने हिंदुओं, सिखों और जैनों को मुस्लिमों से कम प्रेरणा नहीं दी। इदरीज शाह ने यूरोपियन साहित्य पर भी सूफी प्रभाव को आंका है; चासर ने किस ढंग से अतर और रूमी के कार्य का मूल्यांकान किया था और जर्मनों ने सादी के कार्य को कैसे पंक्ति बद्ध किया था, जाहिर है।

इस औद्योगिक क्रांति के बाद के काल में, जिसने कुछ नए प्रतिमान स्थापित किये, जहां आधुनिक सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक संगठन और प्रक्रियायें खासकर आवश्यक हो गईं हैं मानवीय परिस्थितियों के मूल्यांकन के लिए सूफी विचार के पक्ष संदर्भित और समीचीन हैं। मनोवैज्ञानिक सहायता के साथ मानवीय स्वभाव की वैचारिक और मननशील अंतरदृष्टि, सूफी साहित्य की सूक्तियों के स्वर्ण सदृश्य सत्य को कोई भी सहज प्राप्त कर सकता है - ये वे हैं जो, समय और स्थान की परिसीमाओं को फलांगती हैं। वे आज भी मार्ग दर्शन कर सकतीं हैं।

संदर्भः
वैदिक और उपनिषद साहित्य से दृष्टांत,
दी सटल्टीज आॅफ इनकम्पैरेबिल नसुरूद्दीन,
मथनवी, फीही मा फीही, रूमी,
गुलशन एवं बुश्तान - शेख सादी,
कंफ्लुऐंस आॅफ दी टू सिटीज - दाराशिकोह,
दी सूफीज - इदरीज शाह,
कबीर के दोहे,
भारत के प्रादेशिक सल्तनतों में सूफी प्रभावः हिंदू और जैन परंपराओं के साथ प्रादेशिक सल्तनतों का अनुकूलन एवं समझौता,

टिप्पणीः
इदरीज शाह कहते हैं कि सूफी नजरिये से मनुष्य असीम तौर से पूर्णता योग्य है, कि पूर्णता दुनियां के साथ समन्वय से प्राप्त होती है और उसके लिए भौतिक और आध्यात्मिक संतुलन की आवश्यकता होती है। वह सूफियों में सामन्जस्यता के लिए विश्वव्यापकताएं पाने और जो आदर्श धर्म का पालन करते हैं उनमें उंची चेतना की जागृति के लिए सूफियों की भूमिका के तौर पर संदर्भित करता है।

उदाहरण के लिए रूमी की रचनाओं में भौतिक और शारीरिक दुनियां से पीछे लौटने या उसके परित्याग को अनेक जगहों पर गौरांवित किया गया है। और इसके विपरीत वेदांतियों ने तो द्वैतवादी स्थिति को स्वीकार कर लिया था - ’’आघ्यात्मिक दुनियां’’ की श्रेष्ठता पर जोर देते हुए - परंतु कुछों ने भौतिकवादी दुनियां के अनुभवों को वजन देते हुए। ठीक वैसे ही जैसा कि सूफी मत दुनियावी कार्यकलापों यथा ललितकलायें, संगीत और विज्ञान को उत्साहित करते थे परंतुु कुछ अन्य थे जो इन सबको निरूत्साहित करते थे।

उस समय हिंदू वैष्णव और अन्य भक्तिवादी मतांवलंबी भी थे जिन्होंने संगीत, ललितकला और साहित्य के क्षेत्रों में बहुमूल्य योग्यदान दिया था।