"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

मुगलों का उत्थान और पतन

इतिहास के किसी भी काल ने इतना अधिक ध्यान नहीं खींचा जितना कि भारत में मुगल शासनकाल ने परंतु उस काल की अध्ययनशील खोज नहीं की गई। भारत और पश्चिम के अनेक इतिहासकारों ने मुगलों के शासनकाल पर भारतीय इतिहास के अन्य कालों की उपेक्षा और बहिष्कार होने की हद तक ध्यान केंद्रीभूत किया। दूसरे राजवंशों के शासन की गहरी छानबीन, फिर चाहे वे मुगलों के आधीन रहे हों -जैसे कि राजपूत और बुंदेलखंडी या उनके पश्चात्वर्ती -जैसे कि परमार, काकतिया, सारकी या तामिलनाडू के पांडया ने बामुश्किल प्रभावशाली इतिहासकारों का ध्यान अपनी ओर खींचा। बहुधा भारतीय इतिहास में उनकी भूमिका और योगदान को मुगलों के बाहरी किनारों पर गौण तथा भारतीय सभ्यता में हाशिया समान माना गया।

पत्राकार, कलामर्मज्ञ और इतिहासकार पक्षपातों से पीड़ित रहे और सम्मानित कला समालोचक तथा समाज विज्ञानियों ने मुगलों के पतोन्मुखी गिरावट से उभरी भारतीय सल्तनतों के बारे में बिलकुल उदासीनतापूर्वक लिखा।

जबकि ताजमहल समेत अन्य स्मारकों का प्रेम और मुगल पुरावशेषों की उत्कृष्टता मुगल राजदरबारों के प्रति भारतीय और पश्चिमी विद्वानों के खास ध्यान को न्यायोचित ठहरायेगी, इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि यह रुचि औपनिवेशिक उत्प्रेरिक पक्षपातों की ही प्रतिध्वनि थी जिसने भारतीय इतिहास की पूर्वाग्रही व्याख्या की। सबसे ताकतवर शासकों के परिप्रेक्ष्य से ही इसने इतिहास को देखने की वृति को उत्प्रेरित किया बजाय आम जनता या मध्यमवर्गीय श्रेणियों के परिदृश्य से देखने के।

मुगलों के विदेशी होने और उनकी भारतीयता पर हाल के वर्षों में गरमागरम बहसें हुईं हैं। मुगलों के इतिहास का एक पक्ष जो विद्वानों के ध्यान से बचा रह गया था वह था उनका विस्तारवादी सैन्यवाद का पक्ष जो जहांगीर को छोड़कर औरंगजेब तक वास्तव में, प्रत्येक मुगल शासक का रहा था।

यद्यपि युद्ध-कार्य मुगलों का कोई अद्वितीय काम नहीं था तथापि मुगल सैन्य-निर्णयों की केंद्रीयता और प्रशासन दोनों, श्रेष्ठ थे। सैन्य-कार्यों की बारंबारिता, उनके पैमाने और गहनता में दिल्ली की सल्तनत के अधिकांश मुगलों में एक सदृश्यता थी अपेक्षाकृत अन्य शासकों के।

यह नहीं कहा जा रहा है कि उनमें कोई विशिष्ठतायें नहीं थीं। पूर्ववर्ती आक्रमणकारियों के विपरीत मुगल विदेशी भूमि में होने के प्रति कुछ ज्यादा ही सचेत थे और बाबर ने अपने संस्मरणों में बहुत समझकर कहा था धर्मनिरपेक्ष नीति लागू करने की आवश्यकता के संबंध में, खासकर एक ऐसे देश में जो गैर-इस्लामिक था। विदेशी भूमि में विधि सम्मतता और राजनैतिक समर्थकों की आवश्यकता के संबंध में भी मुगल अधिक जागरूक और सचेत थे।

जीवन की संुदर वस्तुओं के प्रति उनकी रुचियां, उनके मनमोहक पुरावशेष और मनोरंजनात्मक एवं सांस्कृतिक कार्यकलाप उनको दूसरों से अलग करते थे। वे युद्ध करने में पारंगत तो थे पर कुछ अन्य कामों में नहीं। परंतु यह ध्यान में रखना चाहिए कि अकबर और औरंगजेब के शासनकाल अपनी राजनैतिक और सैन्य-नीतियों को लागू करने में कठोर और कभी-कभी निर्दयी थे।

उनकी योजनायें उनकी नीतियों के अनेक पक्ष उजागर करते हैंे। खास सैन्य-योजनाओं के लिए राजधानियों को सुयोग्य केंद्रों में बारंबार ले जाया गया था। मुगलों के युद्ध-कार्यकलापों में योगदान देने के लिए राजपूत राजाओं के साथ मैत्रियां उनकी सामथ्र्य के आधार पर की गईं थीं। युद्ध-हथियारों के विकास के लिए राजकीय निवेश किए गए जिससे मुगलों की सैन्य-तकनीक की धार पैनी बनी रहे। हर मुगल राजकुमार को युद्ध कौशल में न केवल प्रारंभिक प्रशिक्षण से वरन् वास्तविक लड़ाईयों में भाग लेकर अनुभव से लैस किया जाता था। युद्ध का संस्कार इतना उपर तक उठा था कि उसने उत्तराधिकार की लड़ाई में भाई को भाई के विरुद्ध तक लड़ाया।

युद्ध-कलापों की केंद्रीयता राजदरबार के इतिहास और शाहजहां एवं युवा औरंगजेब के बीच के पत्राचार से उभरे जहां युद्ध गतिविधियों के अलावा अन्य किसी विषय पर लगभग कोई बात नहीं होती थी। अकबर के शासनकाल में युद्ध चित्रा और युद्ध गौरव के अंकन लघुचित्रों के सामान्य विषय हुआ करते थे।

मुगलों का सैन्य चरित्रा पूरी तौर से अनापेक्षित नहीं था क्योंकि यदि वे युद्ध में इतने भींगे न होते तो उत्तरी भारत की विजय की कोशिश कभी नहीं करते और सर्वप्रथम, भारतीय उपमहाद्वीप के शेष भाग नियंत्राण का विस्तार भी न कर पाते।

मुगल घुमंतु-युद्ध-विद्या में ज्यादा ही पारंगत थे जो समय-समय पर घास के मैदानों से मध्य एशिया के रेगिस्तानों तक छा जाया करते थे। स्थापित कृषक सभ्यताओं पर धावा बोलते, उन्हें लूटते और उनको जीतने में सफल होते थे। न केवल भारत चीन, पूर्वी यूरोप और मध्यपूर्व के उपजाउ अर्धचंद्राहार-इलाकों ने ऐसे धावों एवं आक्रमणों को सहा था। चंूकि घुमंतु-कुलीन भूमिहीन थे परंतु धन-संपदा के लिए कृषकवर्ग को ही निचोड़ा करते थे। घुमंतुओं की आय के प्रमुख साधन थेः स्थापित सभ्यताओं पर धावे या उनकी लूट या व्यापारिक कारवों पर कराधान। दासों का व्यापार भी आय का स्त्रोत् था। युद्ध में परिपक्व योद्धा बहुधा उन्नत सभ्यताओं की सेनाओं पर बड़ी आसानी से जीत हासिल कर लेते थे क्यांेकि उन पर अचानक धावा बोला जाता और सेनाओं में आक्रमण के आतंकवादी तरीकों के मुकाबले का अनुभव नहीं होता था।

समय बीतने पर, स्थापित सभ्यताओं में दोनों पक्षों की दीर्घकालिक लड़ाईयों की लागत ने और उपजाउ भूमि और नागरी बसाहटों के विनाश ने युद्धों के प्रति स्वाभाविक प्रतिरोध पैदा किया। यदि प्रतिद्वंदी मोटे तौर पर समान बलशाली हांे, तो निर्णयकारी विजयें असंभव होती थीं और यदि एक ही पक्ष अंतिमरूप से बच रह जाता तो जीत की लागत बहुत उंची हो जाती। / कलिंग की लड़ाईयों में अशोक का बौद्धधर्म परिवर्तन जीवन के विनाश का ही परिणाम था।/

भारत में इसने जैनों और बौद्धों को युद्ध विरोधी बनाया तथा भक्ति-धाराओं के विभिन्न अनुयायियों को भी युद्ध विरोधी बनाया और उन्होंने कृषकों को अपनी ओर आकर्षित किया। यहां तक कि कौटल्य जो युद्ध का परहेजी नहीं था ने ’’अर्थशास्त्रा’’ में युद्धकाल में राजाओं को सावधान रहने और दूर दृष्टि रखने की सलाह दी थी। जब भी जीत की संभावना कम हो राजाओं को शांति स्थापित करने के लिए राजनैतिक संधियां करने की सलाह दी और जब राजनैतिक प्रयासों से युद्ध न टाला जा सके, तब भी, इन संधियों से युद्ध की पुनरावृति और लम्बाई तो कम होती ही थी। चूंकि कृषि कर ही दोनों युद्धरत पक्षों की आय का मूल स्त्रोत् होता था, यह दोनों पक्षों के लिए लाभदाई होता कि युद्ध में उदारता और सदाचरण का पालन करें जिससे नागरिक मृत्यु रुकेगी और कृषि भूमि की कछवारी और सिंचाई व्यवस्था का विनाश भी टाला जा सकेगा।

जब अरब शत्राुओं ने सिंध पर आक्रमण किया और वहां की सिंचाई व्यवस्था नष्ट की तो आम जनता हकबका गई। उदारता और सदाचरण के कानून इस उपमहाद्वीप में सामान्य बात थे परंतु आक्रमणकारियों को तो इनका कोई मूल्य ही न था। वे तो किसी तरह से विजय हासिल करना चाहते थे। भारतीय उपमहाद्वीप में मुगलों के आने पर उत्तरी भारत में हिंदू राजाओं का शासन समाप्त हो गया था। इस्लामी शासक नये आक्रांताओं के आक्रमणों को रोकने में समर्थ नहीं थे। एक बार विजयी हुआ कोई भी इस्लामी विजेता स्थाई राजवंश की स्थापना करने में सफल नहीं हो रहा था। नये-नये आक्रमणकारी आते रहे और पहले के राजा को हराते रहे। उनमें से अनेक स्थानीय जनसाधारण की घृणा के पात्रा रहे। स्थानीय जनता के सहयोग के बिना कोई भी शासक छोटे से छोटा राज्य स्थापित नहीं कर सकता था।
लोधियों पर बाबर की प्रारंभिक विजय कोई विशेष घटना नहीं थी। स्थानीय मुगल प्रशासक के पुत्रा नारनौल, में जन्मे शेरशाह सूरी के हाथों हुमांयु की हार अधिक दूरगामी घटना थी। भारत में जन्मा और पला शेरशाह सूरी भारतीय परिस्थितियों से ज्यादा परिचित था और स्पष्ट तौर पर जानता था कि हुमांयु का सत्ता पर अधिकार बुरी तरह से हलका होगा। दूसरे, मुगलों के खोखले समर्थन को भांपते हुए उसने मुगलों के प्रसार को रोकने और पंजाब एवं गंगा के मैदानों के एकीकरण करने में सफलता पाई। ग्रेंड टं्र्क रोड बनाने और विशेष वस्तुओं के उत्पादक नगरों को स्थापित करने से व्यापार और उद्योगों में विस्तार हुआ। प्रशासनिक बदलाव और सामाजिक सुधार जिन्होंने स्थाई कर-आधार बनाने में मदद की, से राज्य में थोड़ी विधिवतता आई। जब हुमांयु दिल्ली की राजगद्दी पर वापिस बैठा तब उसको इस प्रकार से संभाव्य बड़े और समृद्ध साम्राज्य की आधारशिलायें विरासित स्वरूप मिली थीं।

अकबर के राज्य में /और ज्यादा दूर तक जहांगीर के राज्य में/ अनेक धर्मशालाओं और अस्पतालों के निर्माण से व्यापार की गतिविधियां ग्रेंड टं्र्क रोड के किनारे-किनारे अधिक विकसित हुईं, खासकर पंजाब में। राज्याधीन कारखानों की स्थापना की गई जिससे राजदरबार और निर्यात के लिए उंच्च गुणवत्ता की वस्तुओं का निर्माण किया जा सके। व्यापार और कृषि दोनों की आय से मुगल राजकोष भरा हुआ था और उसका व्यय युद्ध-कार्यकलापों पर किया जाता था जिन्होंने पूर्व में आसाम और दक्षिण में दक्खिन के पठारों तक मुगलों को पहुंचा दिया था। ये आक्रमण बड़े तौर पर राजपूत और बुंदेलखंड की सेनाओं के सहयोग पर आश्रित होते थे जिन्हें प्रोत्साहनों और राजनैतिक बल प्रयोग से जीता जाता था।

गंगा के मैदानी इलाकों से भारी कृषि-कर-आय ने अकबर को सबसे अधिक शक्तिशाली राजपूत राजाओं /जैसे जयपुर और बीकानेर/ को वहां के कर-अधिकार अनुदान में देने में समर्थ बनाया था। वैवाहिक रिस्तों ने आपसी संबंधों को और मजबूत बनाया। मुगलों की कुछ निर्णयक विजयें जयपुर के राजा मानसिंह के नेतृत्व में हुईं थीं। अन्य विजयें मुगलों की हिस्सेदारी को असमान शर्तों और सैन्य धमकियों को स्वीकार करने तथा कुलीन वंशजों को दिल्ली में बंधक रखकर जबरिया प्राप्त हुईं थीं। पहाड़ के राजपूतों एवं दतिया, झांसी और ओरछा के राज्यों को राजकर के साथ-साथ सैन्य अभियानों के लिए मुगलों को सैनिक मुहैया कराना पड़ते थे। जो इन जबरिया भागीदारियों का विरोध करते थे /जैसे ग्वालियर/ उनको सजा दी जाती जिससे दूसरों को नसीहत मिल सके कि विद्रोह करने से उनका क्या हश्र होगा।

इस ढंग से ही मुगलों ने भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण को छोड़कर, की लगभग पूरी लम्बाई और चैड़ाई में साम्राज्य का विस्तार किया। परंतु सैन्य सफलता से स्थाईत्व और जनस्वीकारितता की निश्चिंतता नहीं मिल पाती थी। प्रारंभ में कृषि और व्यापार से कर की आय युद्ध-व्यय और स्थानीय एवं विदेशी विलासिता की वस्तुओं के खर्चों से अधिक होती थी परंतु औरंगजेब के गद्दी पर बैठने तक मुगल खजाना लगभग रिक्त हो चला था।

भारतीय उपमहाद्वीप में प्रारंभ के इस्लामी आक्रमणकारियों ने मंदिरों की संपदा एवं रत्न-आभूषणों की लूट और जनता की बचतों की डकैतियों के द्वारा आकूत संपदा इक्ट्ठा की थी। आक्रमणकारी सैनाओं के द्वारा पकड़े गए सैनिका एवं नागरिक को दास बनाकर बेचने से भारी लाभ प्राप्त होता था। जो भी हो जब तक भारतीय परिदृश्य पर मुगल आये मंदिरों में संचित समूची संपदा लुट चुकी थी और युद्ध द्वारा बनाये गए दासों के विरोध में भी काफी प्रतिरोध होने लगा था। परिणामस्वरूप मुगलों को इन क्षेत्रों से धन-संपदा की प्राप्ति नहीं हो पा रही थी और उनको अब मुख्यतया कृषि-कर पर निर्भर रहना पड़ता था। व्यापार पर भारी कर नहीं था क्योंकि पूर्ववर्तियों की तरह अपनी वैधता के लिए उन्हें व्यापारवर्ग के समर्थन पर आश्रित होना पड़ता था। मुगलशासन में कृषि कर की दरें सबसे उंची रहीं और बाद में केवल ब्रिटिश उपनिवेशनकारियों द्वारा लांघी गई थीं।

इसने मुगल सीमाओं के बड़े हिस्सों में विद्रोहों को स्वाभाविक रूप से पैदा किया। पहाड़ी एवं मेवाड़ी राजपूत और मध्य भारत के राजाओं ने नजराना देना बंद कर दिया और स्थानीय कुलीन भी दिल्ली को कर भेजने में आनाकानी करने लगे। अनेक स्थानीय अधिकारी मुगलों के राजदरबारों के लिए विलासता के तौर तरीकों पर राज्य-धन खर्च करते और दिल्ली के प्रशासकों को घूस देकर बच निकलते थे। शाहजहां के शासनकाल में एक नई समस्या पैदा हो गई थी। यद्यपि भारतीय उत्पाद और निर्यात की मांग अभूतपूर्व स्तर तक उंची हुई परंतु मुगलों के राजकोष में बहुत ही थोड़ी संपदा पहुंची क्योंकि व्यापारियों ने लाभ का बड़ा भाग भारत के बाहर रखना शुरू कर दिया था। भारत के निर्यात व्यापार को नियंत्रित करने के लिए अनेक बार असफल सैन्य कार्यवाहियां की गईं परंतु ये कार्यवाहियां मात्रा शून्य साबित हुईं। उस समय शाहजहां को विशाल इमारतों के निर्माण और विलासता की आयातित वस्तुओं की भूख बनी रही।

मुगलशासन के दिवालिया होने के डर से औरंगजेब ने अपने पिता के विरुद्ध राज्य तख्ता पलटा और व्यर्थ के खर्चों को समाप्त किया। परंतु कीमती उपहार और कर अधिकारों को धीरे-धीरे बांटने की क्षमता के बिना औरंगजेब रूढ़िगत धर्म और मुल्लाओं पर शाहजहां के शासन में शुरू की गई प्रथा के समान, अपने शासन की वैधानिकता के लिए विश्वास करता रहा। परंतु मुगलों की घटती जा रही साख के लिए यह मुश्किल उपाय रहा। यद्यपि औरंगजेब ने बाह्य रूप से अभेद्यता को बनाये रखा परंतु वास्तव में, मुगल साम्राज्य बड़ी कठिन दशा में था। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् केंद्रीभूत शक्तियां नियंत्राण के बाहर हो गईं और मुगलों के हाथ में दिल्ली के आस-पास के कुछ मैदान मात्रा ही बचे रह गए थे।

मुगलों की राज्य सीमाओं में उंचे करों के बोझ से किसानवर्ग अक्रोशित होता जा रहा था। पंजाब में किसान और कारीगरों में गुरू गोविंदसिंह के प्रभाव से क्रांतिकारी परिवर्तन पैदा हुए जिन्होंने महिलाओं को धर्म और युद्ध दोनों क्षेत्रों में समान भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया। हरियाणा में जाट और यादव सहयोगियों ने अपनी स्वतंत्राता घोषित कर दी। मराठवाड़ा प्रदेश में बहुजातीय मैत्राी ब्राहमण, क्षत्रिय, कृषक एवं कारीगरों के स्वयंसेविकों ने बिखरे हुए मुस्लिमों के साथ मराठों के विद्रोह में साथ दिया। अफगानिस्तान और कश्मीर, अवध और बंगाल के इलाकों में स्थानीय प्रशासकों ने भी स्वतंत्राता की घोषणा कर दी। पहाड़ी राजपूतों, बंुदेलखंडियों और जबलपुर-नागपुर पट्टी के आदिवासियों के मूल के शासकों ने मुगलों को नजराना देना बंद कर दिया था।

कुछ इतिहासकारों ने औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता की तुलना अकबर की धार्मिक उदारता से करते हुए जिसने वास्तुशिल्पी नवीनताओं और सांस्कृतिक समन्वयता को बढ़ावा दिया था, मुगल पतन का दोषारोपण औरंगजेब के उत्साह को माना था। अकबर के राजदरबार में पैदा हुई समन्वयवादी रिवाज फतेहपुर सीकरी के नमूनेदार सम्मिश्रण की ओर इशारा करते हैं और यह भी बताते हैं कि कैसे कुछ हिंदुओं ने उसके प्रशासन में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।

कुछ विद्रोहों के तात्कालिक कारण औरंगजेब की साम्प्रदायिक पैगम्बरी वृत्तियां रही हों परंतु उन्हें मुगल साम्राज्य के पतन का एक मात्रा कारण नहीं माना जाना चाहिए। चुनौतियां तो अकबर की सैन्य सफलताओं के एकदम बाद ही शुरू हो गईं थीं। यद्यपि औरंगजेब को इस्लामी रूढ़िवादिता के साथ जोड़ा जाता था परंतु औरंगजेब के राजदरबार में अकबर के राजदरबार की अपेक्षा हिंदुओं की नौकरियां अधिक संख्या में थीं। अपने पूर्ववर्तियों की तरह औरंगजेब ने हिंदू राजाओं के साथ मैत्राी जारी रखी परंतु उनके साथ वैवाहिक संबंधों को त्याग दिया था। बिना वैवाहिक बंधन के तथा कर-आधार जो कमजोर होता जा रहा था, मुगल लड़ाईयों में राजपूतों के लड़ने की उत्कंठा खत्म हो रही थी और बलप्रयोग कम असरकारक होता जा रहा था।

तब भी, अनेक मूलभूत कारक भी थे। किसानों पर अत्याधिक करों की दर और दूसरा महत्वपूर्ण कारण सिंध, पंजाब, कश्मीर और यमुना-गंगा के मैदानों में मुगलशासन के सकारात्मक योगदान का अभाव मुगलशक्ति के बिखराव का कारण था।

इसलिए यह विचित्रा है कि कैसे आधुनिक भारत में आर्थिक और राजनैतिक विकेंद्रीकरण के कुछ चहेतों ने मुगल साम्राज्य की एकीकृतता का प्रसन्नतापूर्वक समर्थन किया, मानों केंद्रीयकरण अपने आप में कोई ध्येय हो। यह ध्यातव है कि भारत का एकीकरण अकबर ने अधिकांशतया युद्ध और बल प्रयोग के द्वारा प्राप्त किया था और महत्वपूर्ण यह है कि इस केंद्रीयकरण के लाभ समूचे साम्राज्य को नहीं मिलते थे। कुछ राज्य राजकर देते थे परंतु बदले में वास्तविक लाभ प्राप्त नहीं करते थे। खासकर गुजरात, छत्तीसगढ़, नागपुर और विदर्भ, पूर्वी मध्य प्रदेश, झारखंड और बिहार के अधिकांश प्रदेशों में निवेश का अभाव रहा और उनमें यथा स्थिति बनी रही या घटाव होता रहा।

दुनिया से जोड़ने वाले मुख्य व्यापारिक मार्गों को छोड़कर, मुगलराज्य ने उत्तरी भारत मंे न तो कृषि संबंधी विस्तार और न ही व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए निर्माण या संरचनाओं पर निवेश किया। मुगल उत्पादक नगरों की बड़ी संख्या यमुना और गंगा के मैदानों में या सिंधु के किनारों पर थी और यह कोई मात्रा संयोग नहीं था कि मुगल साम्राज्य की विधिवत्ता मूलरूप से इन्हीं इलाकों में जीवित रही थी।

इतिहासकारों ने प्रशंसा से अकबर की धर्मनिरपेक्षता और समतावादिता के बारे में लिखा और अकबर एवं औरंगजेब के बीच के अंतर को बारीकी से बताया परंतु खास नुक्ते तो छोड़ दिये। इस बात को स्पष्ट किया जाना चाहिए कि यद्यपि अधिकांश मुगल जानबूझकर धर्मनिरपेक्ष थे, उनके शासनकाल में कभी भी हिंदू और मुसलमानों की जनसंख्या के अनुपात में प्रशासनिक पदों को आबंटित नहीं किया गया। मुसलमानों ने हमेशा अधिक प्रतिनिधित्व पाया और शुरूआत के मुगलों का झुकाव कलाओं और संगीत के साथ-साथ मध्य एशिया, परशिया और चीनी रस्म-रिवाजों की ओर ही रहा। बाबर के जमाने के लघुचित्रा संपूर्ण रूप से बुखारा रिवाजों के थे जबकि अकबर के शासनकाल में परशियन और पश्चिम की नकलें ख्यात् हुईं थीं। केवल जहांगीर के काल में बिखराव और असामान्य गुण छोड़कर स्पष्ट और सुसंगत शैली विकास हुआ था।

राजपूत मां का पुत्रा जहांगीर राजपूत रिवाजों से प्रभावित था और कुशल हिंदू कारीगरों को इनाम देता था तथा उन्हें राजदरबार में मुख्य पदों पर रखता था। आकृति, ललितकलाओं और हस्तकौशल की गुणवत्ता में बारीक परख की योग्यता रखने के कारण उसने बिना भेदभाव गुणियों को प्रोत्साहित किया। उसे स्थानीय रीतिरिवाजों और अपने पिता के समान दर्शनशास्त्रा में रुचि थी। दाराशिकोह और शाहजहां के साथ तो दरबारी मजाकों का जुड़ाव था परंतु वहां औपचारिकता की वृत्ति के कारण मुगल रीतिरिवाजों में राजपूत एवं बुंदेलखंड के राजाओं के ढंग और जनसामान्य एवं लोक प्रभावों को आने से रोक मिली।

परशियन सभ्यता एवं भाषा और उर्दू को प्रशासनिक भाषा के बतौर प्रोत्साहन के द्वारा मुगलों के राजदरबारी तौर तरीके लोक रीतिरिवाजों से और भारतीय जनता से अलग-थलग ही रहे। सभ्य कुलीनजन एवं शहरी विद्वानों में प्रिय हुई उर्दू अपनी मातृक परशियन एवं अरबी शब्द भंडार और गैर-भारतीय लिपि के साथ सामान्य जनता की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर सकी। वह मूलतः विद्वानों की ही भाषा बनी रही। हिंदी पट्टी के बाहर वह बड़ी समस्या ही बनी रही। मुगल राजधानियों से दूर-दूर के नागरी केंद्रों की संपदा के दूर होते रहने से यह नितांत आवश्यक हो गया था कि मुगलशासन के प्रति जल्दी ही दुराव पैदा हो। मध्य भारत और बाहरी किनारों के भू-भागों में एकीकृत मुगल साम्राज्य में साधारणतया कोई रुचि नहीं थी इसलिए धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के गठबंधन इन इलाकों में मुगलशासन के लिए चुनौतियां बनकर उठ खड़े हुए थे।

मुगलशासन की एक गंभीर खामी यह थी कि आधुनिक शिक्षा पर राजकोष की एक भी छदाम का खर्च न करना। औरंगजेब तो आधुनिक विज्ञान और तकनीकों के प्रति शंकालु बना रहा था। जबकि यूरोप के देशों ने पुस्तकों की छपाई एवं विश्वविद्यालयों पर निवेश करना शुरू कर दिया था और इधर मुगल विज्ञान के प्रति उपेक्षापूर्ण रुख रखते रहे। यद्यपि औरंगजेब के तहत मुगलसाम्राज्य ने भारत में यूरोपियन व्यापारिक बस्तियों के निर्माण को सफलतापूर्वक रोका था, परंतु भारत में मुगलों के द्वारा एकता और वैज्ञानिक उपलब्धियों के लिए कोई भी आधारशिला नहीं रखी गई थी। परिणामतः भारत को बड़े पैमाने पर यूरोपियन सैन्य चुनौतियों और सांस्कृतिक उत्थान के लिए अयोग्य ही छोड़ दिया गया था।

/यह नहीं कहा जा रहा है कि स्थानीय राज्य उपनिवेशन के प्रतिरोध के लायक थे, उनकी वैमन्स्यकता और तनावों ने ब्रिटिश के विरुद्ध एकीकृत धड़ा बनने से रोक रखा था। परंतु बात अधिक महत्व की यह है कि उपर की केंद्रीयभूतता के बिना बड़ी जनप्रिय वैधानिकता, जनसमर्थन और स्वीकारता अपने आप में गंभीर सीमायें रखती थी।/
दुर्भाग्य से मुगलों की ऐसी कमजोरियां भारतीय इतिहासकारों के ध्यान में नहीं आईं और जो समालोचक थे वे अपना ध्यान मुख्यतया जातीयता, हिंदूधर्म और संस्कृति के मसलों पर पर लगाया करते थे, बजाय सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक कारणों के जो ज्यादा ही अंकुरित होने वाले होते थे। मुगलशासन के जातीयवादी दृष्टि के आलोचक बहुधा उपेक्षा कर जाते हैं कि किस प्रकार से खास जातियों ने अपनी सेवायें और राजभक्ति मुगलशासन के प्रति प्रगट कीं और बदले में भौतिक लाभ प्राप्त किए थे। खासकर कायस्थों ने उपर उठने की गतिशीलता अनुभव की - लेखापाल और नोध करने के काम से उठकर महत्वपूर्ण प्रशासनिक पद सामाजिक तौर पर ब्राहमणों के समतुल्य प्राप्त करके। मुगलशासन की सफलताओं में व्यापारिक जातियों को भी ऐसा ही अवसर उपलब्ध था और यहां तक कि औरंगजेब के राज्य में, सबसे उपर के राजस्व पदाधिकारी हिंदू बनिया या ब्राहमण ही थे।

बिहार के मैथिल ब्राहमणों की पदोन्नति पूर्ववर्ती इस्लामी शासकों द्वारा की जा चुकी थी और उनकी प्रादेशिक सत्ता को मुगलों द्वारा कोई चुनौती नहीं दी जाती थी जबकि दूसरी ओर, प्रादेशिक हिंदू शासक /यथा मेवाड़ और पहाड़ी राजपूत या बुंदलेखंड के/ बहुधा मुगलों द्वारा शमित ही रहे थे, वे बहुत ही आराम और सुख चैन से जीवनयापन करते थे और इसी ने उन्हें मुगलशासन के किसी गंभीर आक्रमण या चुनौती के लिए सामूहिक तौर से संगठित होने से रोका था।

दूसरी ओर, ब्रिटिश इतिहासकारों, कलामर्मज्ञों और भारतविदों में मुगलों के प्रति लगाव की व्याख्या करना कठिन नहीं है। भारतीय सभ्यता के उंचे नुक्तों की तरह मुगलों को आदर देने से और उनकी परशियन प्रेरणाओं पर ज्यादा ही जोर देने से ब्रिटिश विद्वानों ने एक मिथ्या प्रभाव प्रगट करने की कोशिश की कि भारत में सभी प्रकार की महान उपलब्धियों के लिए विदेशी-उत्प्रेरणा की आवश्यकता होती रही थी।

मुगलशासन में ब्रिटिशों की रुचि भारत में उनकी उपनिवेशन की अर्ध-सुसुप्त इच्छा से जुड़ी हुई थी और मुगलशासन से कोई अधिक भिन्न नहीं थी। यह तथ्य कि मुगल विदेशी विजेताओं की तरह भारत में आये थे और विशाल साम्राज्य की स्थापना राजनैतिक गतिविधियों एवं सैन्य विजयों के आधार पर की थी से उपनिवेशन के अति हानिकारक परिणामों के लिए ब्रिटिश शासकों को क्षमा प्राप्ति का अवसर मिलता था। क्योंकि मुगलों ने किसानों पर करों के भार को बढ़ाया था, उन पर विदेशी भाषा जो विदेशी लिपि में लिखी जाती थी और अनेक रूप से वे देशज् सांस्कृतिक धाराओं से अलग और अछूते रहे - इन सबने ब्रिटिश शासन को भारतीय अनुभव की निरंतरता का ही हिस्सा प्रगट किया।

परंतु इन सभी समानताओं के बाबजूद भारत में मुगलशासन को ब्रिटिश शासन से अलग करने वाली मूलभूत भिन्नतायें हैं। पहली, मुगलशासन के दौरान, किसानों और विशाल जनता में उतनी दरिद्रता नहीं थी जितनी ब्रिटिश शासन के दौरान थी। यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारतीय उत्पादनों की गुणवत्ता ने सुयोग्य आदर प्राप्त किया और जहांगीर एवं शाहजहां के शासनकालों में उनकी भारी मांग हुआ करती थी जबकि ब्रिटिशकाल में भारत यूरोपियन निर्यातकों का कचरा-घर बना और पलासी की हार के बाद भारत के निर्यातों में भारी गिरावट आई।


हर गलती और विदेशी प्रवृतियों के बाबजूद मुगलों ने भारत में ही रह जाने का मन बना लिया था। समय बीतने पर वे देशज् बने और इसलिए ही 1857 केे विद्रोह में उत्तरवर्ती मुगलों ने ब्रिटिशों का विरोध किया था। राजपूत राजकुमारियों के साथ अकबर की शादियों की नीति ने सैन्य नीति के क्षेत्रा में युक्तिपूर्ण उद्देश्यों को पूरा किया और उसने मुगलों की रुचियों का स्वदेशीकरण भी किया।यद्यपि ब्रिटिश इतिहाकार और कलामर्मज्ञों ने बड़े विस्तार के साथ लिखा कि अकबर ने अफगानिस्तान से हेरात और ईरान के राजदरबारों से सिराज या तबरिज लिया था तथापि जहांगीर द्वारा प्रोत्साहित पुरावशेषों में गहरे रंगों एवं काल्पनिक प्रकृतिवादी आकृतियों के लिए राजपूत रीतिरिवाजों का वह ऋणी था। स्थानीय प्रभावों ने बड़ी दूर तक मुगलों पर अपनी छाप छोड़ी अपेक्षाकृत ब्रिटिश शासकों के जिन्होंने वास्तव में, जहां भी प्रत्यक्ष शासन किया वहां के सांस्कृतिक रीतिरिवाजों को नष्ट किया था।

परंतु ज्यादा महत्वकारी है कि किसानवर्ग से ली गई संपदा को मुगलों ने यद्यपि नष्ट किया था परंतु भारत में उनकी ललित कलाओं एवं वास्तुशिल्प की धरोहरें बनी रही आईं। भारत की धन-संपदा को योजनापूर्वक दूसरे देशों को नहीं भेजा गया जैसा कि ब्रिटिशों ने किया था। उनके पतन के बाद स्थानीय शक्तियों ने ज्यादा जनप्रिय स्वीकृति के साथ अधिकार ले लिए और कुछ देशज् सांस्कृतिक प्रथाओं ने शीघ्रता से और आसानी से अपने आपको भारतीय जीवन के अनेक पक्षों पर पुनस्र्थापित किया परंतु ब्रिटिश औपनिवेशिक लूट और सांस्कृतिक विकृतिकरण बहुत ही कठिन थे कि उनको पलटा या मिटाया जा सके। भारतीय जीवन के अनेक पक्षों पर इन सबने छलपूर्वक असर डालना जारी रखा था।

इस प्रकार से ब्रिटिश विद्वानों ने चतुराई से ब्रिटिश शासनकाल में विशाल संपदा की लूट और मनोवैज्ञानिक तार्किकता के विनाश के लिए मुगलशासन के प्रतिनिधित्व का चतुराई पूर्वक उपयोग किया परंतु जिसकी समतुल्यता भारत के इतिहास में अन्यत्रा नहीं है।

साथ ही, भारत या पाकिस्तान, बंगलादेश या अफगानिस्तान के लिए वे इतिहासकार और समाजविज्ञानी जो उपमहाद्वीप में सामाजिक समानता की प्रक्रिया को बढ़ाने और प्रजातंत्रात्मक अधिकारों के विस्तार में रुचि लेते हैं, को मुगलशासन काल बड़े परीक्षण का विषय होना चाहिए। भारत में मुगलकाल का प्रेम और रहस्यमयता को हटाया जाना चाहिए परंतु बिना सांप्रदायिक जाति विवाद में पड़ते हुए जिसमें मुगलशासन काल को ब्रिटिश उपनिवेशन से अधिक बड़ी बुराई की तरह से देखा जाता है।

संबंधित आलेखः

1.सिंध की अरब विजय और इस्लामीकरण,
2.पंजाब और गजनी एवं गौर आक्रमण,
3.इस्लाम और उपमहाद्वीपः उसके संघात का मूल्यांकन,
4.हिंदू और जैन परंपराओं के साथ प्रादेशिक सल्तनतों का अनुकूलन और समझौता,
5.भारत में हस्तकौशल और व्यापार के ऐतिहासिक स्वरूप,
6.भारतीय कला और वास्तुशिल्प में प्रगति,
7.1857 का क्रांतिकारी उभार,
8.भारत में सामाजिक संबंधों का इतिहास,
9.सूफी धारायें और इस्लामी राजदरबारों में सभ्यता।

संदर्भः
1. चाचनामा, फुतुह ए बुल्दानः /सिंध के आक्रमण और विजय के इतिहास की अरबी/परशियन पाठ्य पुस्तकों से अनुवाद एवं उद्धण,

1 ब. ताजू ए मासिर और तबाकत ए नासिरः किलों और मंदिरों के विनाश, मंदिरों की संपदा की लूट, हारे सैनिकों के कत्लेआम और दासों के ले जाने संबंधी विवरण दिल्ली सल्तनत के अनेक अरबी और परशियन इतिहास में हैं,

2. स्काॅट लेवीः हिंदूकुश पार हिंदूः मध्य एशिया दास व्यापार में भारतीय / जरनल आॅफ दा राॅयल एशियाटिक सोसायटीः ज्ीम प्दकपंद डमतबींदज क्पंेचवतं प्द म्ंतसल डवकमतद ब्मदजतंस ।ेपं - प्तंदए प्तंदपंद ैजनकपमे ;34ण् 4द्ध,

2 ब. डिरिक काॅफः नौकर, राजपूत और सिपाही। ज्ीम मजीदवीपेजवतल व िउपसपजंतल संइवनत पद भ्पदकनेजंदए 1450.1850ए कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, 1990 बतलाता है कि मुगल शासनकाल में दास प्रथा के होने के साक्ष्य हैंः ’’मुगल कुलीनवर्ग के द्वारा हजारों-हजार की संख्या में दास बनाने और बाहर भेजे जाने के अकाट्य प्रमाण हैं।’’ ’’इनमें से बहुतों को भारत के पश्चिमी में स्थित देशों में बेचा जाता था। सन् 1400 से पूर्व यह व्यापार फलीभूत हो रहा था, जब मुलतान एक महत्वपूर्ण बाजार था, परंतु उसके बाद वह काबुल के साथ चालू रहा था /पृ. 10/’’ ’’भेजे जाने वाले इस व्यापार में जहांगीर की हिस्सेदारी थी /पृ. 11/ और साम्राट शाहजहां राजद्रोहियों को सिंधु नदी के पार पठानी कुत्तों के बदले में भेज दिया करता था।’’ उसने बताया कि यह स्पष्ट है कि 1660 के दशक में भारतीय दासों की भारी मांग परशिया में बनी रहती थी।

डोरिक काॅफ ने यह भी बतायाः ’’इस इलाके का एक हिस्सा जबरन दासों के भेजे जाने की नीति सम्मत था जबकि पश्चिमी भारत में राजपूतों को नष्टकर दास बना के सिंधु नदी पार बाहर भेजा जाता था। अफगानों को पूर्व की ओर खदेड़ा जाता था आ ैर राजपूत विद्रोहियों के इलाकों में बसा दिया जाता था। फिजक अफगान अपनी मातृभूमि से पूरी तरह से विलुप्त हो गए थे, राजपूतों के साथ पेश होने के लिए ... ।’’

3. इंडियन हिस्टोरिकल रिव्यू के बुलेटिन /इंडियन कौंसिल आॅफ हिस्टोरिकल रिसर्च/ और सोसियल साईंस प्रोबिंग्ज।

4. ए कांप्रीहेंसिव हिस्ट्र्ी आॅफ इंडिया, सं. मोहम्म्द हबीब और के.ए.निजामी, पीपीएच, 1970,

5. ए हिस्ट्र्ी आॅफ माडर्न इंडिया, सं. क्लाउड मारकोविच, एंथम प्रेस /मुगल एम्पायर के परिच्छेद को देखिए, खासकर, ’’अकबर एण्ड दा कंस्ट्र्क्शन आॅफ एम्पायर और मिथ्स् एराउन्ड अकबर,

6. मीरा सेठीः वाॅल पेंटिंग्ज् आॅफ दा हिमालया /भारत सरकार का प्रकाशन विभाग/। मीरा सेठी ने स्थानीय सल्तनतों का मुगलों के साथ सविस्तार वर्णन किया है,

मुगल पुरावशेषों पर पुस्तकों को भी देखिए जैसे दा इंडियन हैरीटेजः कोर्ट लाईफ एण्ड आर्टस् अंडर मुगल रूल जो लंदन में विक्टोरिया और अल्बर्ट म्युजियम के संग्रह में मुगल पुरावशेषों का अभिलेखन करता है। यद्यपि अभिलेख जो चाहा गया है को दर-किनार करता है तब भी अनेक चित्रा मुगल उत्पादों की विभिन्न एवं बेहद संुदर गुणवत्ता का बखान करते हैं। चूंकि भारत के बाहर ही मुगलों की धरोहरें संग्रहालयों में हैं मुगल धरोहरों के छाया चित्रों के संग्रह आवश्यक मार्ग दर्शन एवं भारत में मुगलों की भूमिका के मूल्यांकन में, सहायता कर सकते हैं।

मुगल पुरावशेषों के उदाहरणों को अनेक आॅन-लाईन कलेक्शनों में भी देखा जा सकता है जैसे कि लाॅस ऐंजिल काॅउंटी म्युजियम आॅफ आर्टस्। म्युजियम लिंक को उपर देखिए।