"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

इस्लाम और उपमहाद्वीपः उसके संघात का मूल्यांकन

संभवतया भारत के इतिहास का कोई भी पक्ष इतना अनुराग और हिंसक असहमति पैदा नहीं करता जितना कि इस महाद्वीप में इस्लाम की भूमिका का मूल्यांकन। एक ओर, दो राष्ट्र् नीति के सबसे अधिक पक्षधर भारत भूमि पहुंचने वाले प्रत्येक आक्रमणकारी या क्रूर विजेता का बचाव करते हुए इस्लाम के आगमन को अत्याधिक सकारात्मक मानते हैं परंतु दूसरे हैं, जो इस्लाम के आगमन को उपमहाद्वीप की जनता के लिए औपनिवेशिक शासन से भी ज्यादा विनाशकारी मानते हैं। ’’दो राष्ट्र् नीति और विभाजनः एक ऐतिहासिक नजर’’ आलेख को भारतीय इस्लामीकाल की तुलना ब्रिटिश औपनिवेशिककाल से करने के लिए देखिए।

और जबकि उपमहाद्वीप में इस्लाम के संघात के मूल्यांकन में पूरे ढंग से वस्तुपरक होना असंभव होगा, इतिहासकारों का बड़ा भाग संभवतः इन दोनों नजरियों को गैर-ऐतिहासिक होने के कारण - या तो बड़े रूप में एक दलीय होने से या पूर्वाग्रही होने से खारिज कर देगा। सबसे ज्यादा विवेकी इतिहासकार स्वीकार करेगा कि इस प्रश्न का कोई साधारण या छोटा-सा उत्तर नहीं हो सकता। तब भी, सद्इच्छा वाले इतिहासविज्ञ भी अपने पूर्वाग्रह रख सकते हैं। भारत में इस्लाम की भूमिका के संबंध में उनके मूल्यांकन बड़े तौर पर अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं और मूल्य-पद्धति पर आधारित होंगे। इसे इतिहासकारों द्वारा अपने दृष्टिकोण को बनाने स्त्रोतों की प्रकृति और क्षेत्रा के परामर्श से भी आकारित हो जायेगा। कुछ हद तक, भारत के इस्लामीकाल केे अध्ययन की क्षति हुई क्योंकि बहुधा इस्लामी पृष्ठभूमि के इतिहासकारों ने अपने प्रयत्नों को इस्लामी शासकों के अध्ययन पर केंद्रीभूत किया। वे अपनी खोजों के दौरान, मुख्यतया इस्लामी संदर्भों के स्त्रोत के साथ ही टिके रहे दूसरी ओर, हिंदू पृष्ठभूमि के इतिहासकारों ने इस्लामीकाल को सदैव पर्याप्त गहराई से नहीं पढ़ा। परिणामतः वस्तुपरक होने की इच्छा रखते हुए भी, उन्होंने आंशिक तौर पर सही, सिद्धांतों को ही पुनर्शक्ति दी। भारत के इतिहास के परस्पर विरोधी नजरियों से भारतीय इतिहासकार ग्रसित ही रहे आये हैं।

भारतीयों के लिए यह समस्या औपनिवेशिक शासन के संघात से घिर गयी, खासकर तब जब उसने भारत के विभिन्न धार्मिक समुदायों में विभाजन फैलाने और तनावों को गहराने में अपने प्रयास गहराये। औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध संघर्ष की जरूरत भारतीय जनता में सबसे ज्यादा फैली हुई एकता की थी। प्रायः इसका अर्थ था कि हिंदू और मुस्लिम विद्वानों के बीच झगड़े शांत रहें। अनेक इतिहासकारों पर साम्प्रदायिक दंगों या तनावों और धार्मिक विभाजन का भारी दबाव बना रहा। स्वतंत्राता के बाद के काल में बटवारे ने इन आशंकाओं को लम्बायमान बना दिया। चंूकि भारत में मुसलमान अल्पसंख्यक थे धर्मनिरपेक्ष इतिहासकारों में इस्लाम की भूमिका संबंधी मूल्यांकन में अरुचि व्याप्त रही और जिसे नकारात्मक की तरह से जाना गया। दुर्भाग्य से इसने बौद्धिक रिक्तता और ऐतिहासिक नसमझी को बढ़ावा दिया जिसका दुरूपयोग रहस्य बताने वालों और गैरईमानदार इतिहासकारों ने किया था।

भारत के इतिहास के इस महत्वपूर्ण काल के पाण्डित्य के अधिकारिक स्तर को पाने के लिए यह आवश्यक है कि भारतीय इतिहासकार इस चुनौती को बड़ी समर्पितता और वस्तुपरकता के साथ स्वीकार करें। इसके साथ-साथ, यह महत्वपूर्ण है कि भारतीय इतिहास का विद्यार्थी इस्लामी आक्रांताओं एवं विजेताओं के अपराधों से आम भारतीय मुसलमान को अलग करना सीखें। यह भी महत्वपूर्ण है, हम मध्यकालीन शासकों के अभिलेखों को आज की न्याय और पक्षरहितता की कसौटी से नहीं परखें।

दूसरी ओर, समान रूप से उसे बचाना खतरनाक होगा जो एक सामाजिक युग में सकारात्मक प्रतीत हुआ था और बाद के काल में, जो आलोचना या निंदा के योग्य लगा था। जो एक खास समय में प्रगतिशील था, बाद के काल में, विकास के रास्ते का रोड़ा बना था। इसलिए यह समझना आवश्यक है कि विभिन्न काल में भिन्न-भिन्न सामाजिक मानदण्ड माने गये या सहे या प्रोत्साहित किए गये परंतु सामाजिक विकास की मांगें कि नैतिकता के नियमों के विस्तार या सुधार में मदद दें जिससे धर्म, सामाजिक रीतिरिवाज और राजनैतिक सिद्धांत के मूल्यांकन बदले जा सकें।

उपमहाद्वीप पर इस्लाम के संघात के मूल्यांकन में, इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि उपमहाद्वीप उत्तर पश्चिम के आक्रमणों के प्रति कभी भी उदासीन नहीं रहा था। दूसरी समाजों के समान कृषि प्रधान भारत पर समय-समय पर असभ्य बर्बर कबीलों के द्वारा एक लम्बे समय तक आक्रमण होते रहे। उस मायने में, इस्लामिक आक्रमण अद्वितीय या अलग-थलग प्रकार के नहीं थे। इस्लामी आक्रमण को जो भिन्न बनाता था, वह यह था कि वे अपने पूर्ववर्ती इस्लामी विजेताओं जो व्यापक सामाजिक पद्धति में समाहित हो गए थे, ने अपनी इस्लामिता को बचाये रखा और उन्होंने नई कानूनी एवं प्रशासनिक पद्धतियां बनाईं जिसने उस समय के सामाजिक सदाचार एवं नैतिकता को चुनौती दी और आम तौर पर उनका स्थान ले लिया। उन्होंने नये सामाजिक रीतिरिवाजों को चलाया जो कुछ मायने में प्रचलित सांस्कृतिक रिवाजों से बहुत अधिक भिन्न थे। जबकि ये झगड़े और विवाद के मूलकारक थे परंतु इसे भी देखा जाना चाहिए कि कुछ इस्लामी शासक थे जिन्होंने अपने धर्मनिरपेक्ष तरीकों में स्थानीय रीतिरिवाजों को समाहित कर लिया था।

यह ध्यात्व है कि इस्लामिक आक्रमणकारियों के अनेक प्रकार थे। उनमें वे भी थे जो मूलतः लूट और डकैती के लिए आये थे और लूटमार के बाद जल्दी से वापिस लौट गए। ऐसे आक्रमणकारियों ने निःसंदेह बहुत ही चुभनपूर्ण प्रभाव डाले। कोई भी समाज जो बारंबार बाहय् आक्रमण को सहता हो अपना आत्मविश्वास और ताकत खो देता है। उसे आर्थिक हानि भी सहना पड़ती है क्योंकि कि उसकी धन-संपदा को बलपूर्वक छीना जाता और अन्य जगह खर्च किया जाता था। जो भी हो भारत इस प्रकार के धावों के कष्टों में अकेला नहीं था। ईरान और ईजिप्ट जो इस्लामीशासन के बहाव में आ चुके थे ने भी इन हिंसक आक्रमणों को सहा था। सामान्यतः भारतीय राजाओं के राजकोष /जिन्हें विशाल कृषि कर मिला करते थे/ तुलनात्मक रूप से मालदार थे और बहुधा मध्य और मध्यपूर्व एशिया के कम उपजाउ इलाकों के ईषालु विजेताओं एवं लालची लुटेरों को आकर्षित करते थे। भारत की सभ्यता को संपन्न बनाने में भौगोलिक लाभों ने ही मदद पहंुचाई थी परंतु उसके उपर महत्वकांक्षी विजेताओं और लुटेरों के बार-बार के आक्रमण शाप बनते रहे।

परंतु सभी आक्रांता लुटेरे नहीं थे। कुछ साम्राज्य को जीतने के लिए लड़े और नये कुलीनवंशों के निर्माण के लिए ठहरे थे परंतु उनके बाद वाले उत्तराधिकारियों और नये राजाओं की प्रथायें तुलनात्मक रूप से बहुत भिन्न थीं। उनमें से कुछ हिंदू पत्नियों से पैदा हुए थे। कुछ राजाओं को घृणा की दृष्टि से देखा गया और अन्य कुछ को जनता द्वारा अपना लिया गया था। 14 वीं सदी का टयूनिशियन यात्राी, इब्नबतूता जिसने भारत की यात्रा के गहन अभिलेख छोड़े थे, के संस्मरणों के अनुसार पूर्ववर्ती शासकों में एक राजा खासकर क्रूर था और दिल्ली की जनता के द्वारा तिरस्कृत हुआ था। उसके संस्मरण इस बात का इशारा करते हैं कि अरब, परशिया और टर्की के मुसलमानों को राजदरबारों में महत्वपूर्ण पद दिए गए थे। यह इस बात का सबूत देता है कि स्थानीय लोग दिल्ली प्रशासन में आधीनस्थ की ही भूमिका पाते थे। एस.ए.ए.रिजवी ने ’’दा वंडर डैट वाज इंडियाः खंड दो’’ में मुहम्मद बिन तुगलक की ओर इशारा किया, जिसने न केवल स्थानीय लोगों को प्रोत्साहित किया वरन् कारीगरों के दलों यथा रसोईए, नाई और मालियों को उच्च प्रशासनिक पदों के लिए मौके दिये। उसके राज्य में यह संभव रहा कि उच्च सामाजिक गतिशीलता और परिष्कृत सामाजिक स्तर पाने के साधन के तौर पर इस्लामधर्म में परिवर्तन होने लगा था।

इस बात के भी प्रमाण हैं कि इस्लामी और हिंदू राजाओं के बीच सहयोग रहा। जौनपुर के शासक, इब्राहीम शाह शारूकी, 1401-40, के साथ तिरहुत के राजा कृतिसिंह के बीच संबंध थे। जौनपुर के सुलतानों को अपने मुस्लिम विरोधियों के प्रतिरोध में बार-बार हिंदू राजाओं ने मदद पहंुचाई थी, खासकर लोधियों के। इसी प्रकार अकबर के शासनकाल में राजपूतों और मुगलों के बीच कार्यकारी मैत्राी थी - ऐसी मैत्राी जो औरंगजेब के शासनकाल तक चली और बाद में कमजोर हुई तथा बिखर गई। ’’दो राष्ट्र् नीति और विभाजनः एक ऐतिहासिक नजर’’ को भी देखिए।

इसलिए इस्लामी शासकों को एक ही तूलिका से चित्रित करना भूल होगी। निश्चित तौर से उनमें से कुछ स्थानीय लोगों के प्रति दमनकारी थे, मंदिरों और मूर्तियों को विकृत करते और देशज् संस्कृति से आम तौर पर विलग बने रहते थे। अनेक इस्लामी शासकों ने प्राचीन हिंदू या जैन स्मारकों को छीन लिया और उनको अपने उपयोग में ले लिया। परंतु दूसरे जैसे अहमदाबाद के अहमदशाह या बीजापुर के आदिलशाह अपेक्षाकृत देशी रीतिरिवाजों के साथ संबंध बनाये रखे थे। बड़े पैमाने पर नई इमारतों के निर्माण के कार्य भी हुए थे। शेरशाह सूरी ने अपने अल्पकालीन शासनकाल में नये शहरी केंद्रों को बनाने में खास एवं निर्णयक भूमिका अदा की थी। लोधियों और मुगलों ने जहांगीर की तरह नये-नये शहर बसाये थे।

यद्यपि कुछ शासक अपनी प्रजा से दूर ही रहे और टर्की, मध्य एशिया, परशिया और ईराक से आयातित रीतिरिवाजों के प्रति गहरे तौर पर पूर्वाग्रही ही बने रहे परंतु कुछ दूसरे शासकों ने संस्कृत को पढ़ने में रुचि दिखलाई, स्थानीय ललितकलाओं को प्रोत्साहित किया और हिंदुओं को प्रशासन में नियुक्त किया। अहमदशाह ने हिंदू और जैन वास्तु के चिह्नों को अपनी इमारतों में समाहित किया। मुुगलशासक अकबर और जहांगीर जैसों ने अपनी पसंदगियों में विभिन्नदर्शनग्राही बनने की कोशिशें की थीं और दक्खिन में दूसरों ने भी स्थानीय शैलियों को प्रोत्साहित किया था। कुछ बहुत ही समझदार इस्लामी शासकों /खासकर वे जो भारत में पैदा हुए और पले-बढ़े/ ने भारतीय भौगोलिक और मौसम संबंधी परिस्थितियों को समझा और राजस्थानी, मध्य प्रदेशीय या तामिलनाडू एवं अन्य जगहों पर नहरों, बांधों, तालाबों, सीढ़ीदार कुओं और जमीन के नीचे के जलाशयों पर राज्य की ओर से निवेश किया था।

अपने धर्मनिरपेक्ष व्यवहार में इस्लामी शासकों ने अपने सर्वोत्तम में शहरी जीवन और संस्कृति के फैलाव में भागीदारी की थी वैसे ही जैसे कि उनके कुछ दूसरे शासकों ने पूर्ववर्ती कालों में किया था। /व्यापार एवं उत्पादन में इस्लामी शासकों के योगदान को ’’भारत में हस्तकौशल एवं व्यापार के ऐतिहासिक स्वरूप’’ आलेख में सविवरण सम्मलित किया गया है।/ जो भी हो एक बड़ा विवाद इस्लामी और हिंदू शासकों के बीच उभरा और यह विवाद करों और उनकी कानूनी नियमावली को लागू करने के संबंध में था। यही वह बात थी जो उभरकर सिर तक उठ आई थी। यदि कोई इब्नबतूता के विवरण से ताकीद करना चाहे तो प्रगट होगा कि हिंदू राजा व्यापार पर ज्यादा कर लगाना चाहते थे अपेक्षाकृत कृषि के जबकि इस्लामी शासक व्यापारियों के प्रति उदार नीति चाहते थे और कृषि से ज्यादा कर राजस्व इक्टठा करने की नीति पर अमल करना चाहते थे। इससे प्रगट होता है कि इस्लाम के आने से कृषकवर्ग के खर्चे से वाणिज्यिकवर्ग केे हित में राजसत्ता स्थानांतरित हुई थी।

इस्लाम और व्यापार का विस्तार

यह व्यापार का विस्तार था जहां इस्लाम का संघात सबसे अधिक था। दुनिया में इस्लामीकाल के सबसे अधिक महत्वकारी पक्षों में से एक यह था कि इस्लामी राजदरबारों का उदय होना जो व्यापारिक और कानूनी व्यवस्था की स्थापना पश्चिम में, मरक्को से उत्तर पूर्व में मंगोलिया और दक्षिण पूर्व में इंडोनेशिया तक करने में समर्थ थे। यद्यपि भारत व्यापार में पहले से ही प्रचुर लाभ कमाता था और उसके लिए यह कोई लाभदायी महत्व का नहीं था। संभवतया अरेबियन या मध्य एशियन रेगिस्तान के लोगों के लिए यह बात बड़े महत्व की थी क्योंकि उनके नखलिस्तान व्यापार पर ही निर्भर हुआ करते थे।

जैसे-जैसे एशिया में इस्लाम के द्वारा हिंदू और बौद्ध साम्राज्यों का पतन होता गया और इस्लाम अफ्रीका के आरपार फैलता गया वह एक उच्च कोटि की केंद्रीभूत-शक्ति बनता गया जिसने एक सामान्य कानूनी पद्धति के निर्माण में मदद दी। इस पद्धति ने ईजिप्त या टयूनिशिया में जारी की गई हुंडियों को भारत या इंडोनेशिया में स्वीकारे जाने में योगदान दिया था। एक अंतरराष्ट्र्ीय मजबूत कानूनी व्यवस्था के निर्माण और उसे जीवित रखने के लिए इस्लामी शासकों को स्थानीय एवं परंपरागत शासन की पुरानी व्यवस्था को उखाड़ फेंकना पड़ा। इसका अर्थ यह भी है कि वे प्रायः विदेशियों से व्यापार करना ज्यादा पसंद करते थे जिन्हें पुरानी व्यवस्था बनाये रखने में कोई रुचि नहीं थी। यह भी संभव है कि व्यापार की शर्तें इस प्रकार बनाईं गई थीं कि जिन्होंने स्थानीय कारीगरों एवं कृषकों को हानि पहंुचाई परंतु शासकों ने नये-नये स्थापित और तेजी से विस्तार करने वाले इस्लामी साम्राज्यों में कुलीनजनों एवं रहीस व्यापारियों का ही पक्ष लिया था।

जैसे ही पुराने समाज में पुराने इकरारनामे कमजोर पड़े, इस्लाम विजित-समाजों को बांधने वाली नई शक्ति बना और उसके कानूनों को पक्का करने के लिए इस्लामी शासकों ने प्रारंभिक तौर पर ऐसी व्यवस्था को बढ़ावा दिया जिसमें एक घूमने वाला दरवाजा मुल्लाओं, प्राशासनिक कुलीनजनों और वाणिज्यिकवर्गों के लिए खुला हुआ था। इब्नबतूता खुद ब खुद इस परिघटना का उत्कृष्ट उदाहरण है। उसने दिल्ली में इमाम की नौकरी की, मालद्वीप में न्यायिक पदाधिकारी बना और मलाबार में उपराज्यदूत एवं व्यापारी। उसकी इन स्थितियों में कोई विरोधाभास नहीं था क्योंकि इनमें से प्रत्येक ने एक दूसरे को परिपूर्ण किया था। इस्लाम ने संविदा बनाई थी जिसमें राजसत्ता, कानून और धर्म एक दूसरे में इस ढंग से घुलमिल गए कि वाणिज्यिकवर्ग के हितों की रक्षा की जा सके। इसने दुनिया के व्यापार के मध्यकाल में सबसे अधिक संभाव्य प्रसार को बढ़ावा दिया था।

कृषि प्रधान समाजों ने इस परिवर्तन में अहम भूमिका अदा की थी। वाणिज्यिक समुदाय के हित ऐसे थे कि उनकी इच्छा कृषि पर उंचे और व्यापार पर कम दर के कर लगाने की थी। कमोवेश, इस्लामी शासकों ने बिलकुल इसी नीति को लागू किया था। इसने नये-नये व्यापारिक और उत्पादक केंद्रों की स्थापना में मदद की और जहां भी इस्लाम ने अधिकार जमाया, वे केंद्र उभर आये। दुनिया के रेगिस्तान के इलाकों के लिए इस्लाम एक धमाके की तरह व्यापार द्वारा संपदा कमाने के लिए आया, जिनकी प्रकृति की पृष्ठभूमि की निर्धनता को देखते हुए कल्पना भी नहीं ंकी जा सकती थी। परंतु दुनिया की सबसे बड़ी स्वावलंबी और भारत के समान विकसित कृषि प्रधान सभ्यताओं /ईजिप्त या इंडोनेशिया/ के व्यापार के लिए ये बढ़ोतरी तो कम महत्व की थीं अपेक्षाकृत मिली-जुली थैली के। /जिसे हम बाद में देखेंगे।

इस्लाम और तकनीकी प्रसार

अंतरराष्ट्र्ीय व्यापार के बढ़ने से, उत्पादन की तकनीक और संस्कृति में विकास हुआ। स्थानीय खोजें और प्रादेशिक तकनीकें आसानी से विश्वव्यापी हुईं। तकनीकी मायने में पिछड़े हुए दुनिया के उन हिस्सों के लिए यह बहुत अधिक महत्वपूर्ण था। दूसरी ओर, भारत जैसे देश के लिए, जिसके पास बौद्धिक रीतिरिवाजों की स्वयं की धरोहरें थीं और अपेक्षाकृत विकसित सभ्यता थी के लिए कम महत्वकारी रहा होगा। तब भी, किसी भी देश में, तकनीकी विकास पर ताला नहीं लगा था और इस्लाम के इस दूर तक आने के मायने थे नई तकनीकों के साथ सहभागिता जिसने भारत को सहयोग ही दिया। यद्यपि इतिहासविज्ञों के बीच इस नुक्ते पर बड़ा विवाद है कि भारत में कैसे इस्लामी आक्रांताओं द्वारा तकनीक लाई गई थी। एक मत है कि सिंचाई के लिए पानी-चक्र सदृश खोजें इस्लामीकाल के ही अविष्कार थे। दूसरे मायने में प्रमाण ज्यादा प्रखर हैं। मध्य एशिया, ईरान और ईराक में व्याप्त मृतिकाशिल्प /सिरेमिक टाईल्स्/ के उपयोग को वास्तुशिल्पी निर्माणों में प्रोत्साहन मिला था। राजस्थान की नीली मृतिका भी चीन की मृतिका की ही स्वीकारोक्ति थी जिसे मुगल शासकों ने बड़ी संख्या में आयात किया था। सुलतान अबिदिन, 1420-70, का उदाहरण भी है। उसने कश्मीरी कारीगरों को समरकंद में कागज बनाने एवं किताबों की जिल्दसाजी सीखने के लिए भेजा था।

इस्लामी शासकों ने नई तकनीक को प्रवेश कराया था या नहीं इस बात को छोड़कर भी अनेक विचारणीय प्रमाण हैं कि बहुत से इस्लामी राजाओं ने कारखानों को विकसित किया था। अपने राज्यों में छोटी-छोटी कार्यशालायें स्थापित की थीं। इससे भी अधिक महत्व तो नये शहर जिन्हें किसी खास वस्तु के निर्माण में महारत हासिल थी, उनके ही शासनकाल में संपूर्ण भारत में उभरकर आये थे। खुरजा और सिवान भांड के लिए प्रसिद्ध हुए। मुरादाबाद पीतल के सामान, मिर्जापुर गलीचों और फिरोजाबाद कांच के सामानों के लिए ख्यात् हुए। सहारनपुर और नगीना काष्ट नक्काशी, फरूक्काबाद छपाई और विदूर एवं लखनउ कांसे के सामान जबकि श्रीनगर कुट्टी /पेपर मैक्/ और बनारस आभूषण और वस्त्रा उद्योग के लिए, आदि आदि।

कृषिवर्ग पर संघात

किसान वर्ग पर संघात प्रदेश से प्रदेश और शासक से शासक के आधार पर भिन्न-भिन्न पड़ा था। यहां तक कि शहरीकरण ने कुछों को एक ओर अवसर प्रदान किए परंतु ग्रामीण इलाकों में कुछ समस्यायें भी पैदा हुईं थीं। शहरी केंद्रों के निर्माण और विलासिता की वस्तुओं के उत्पादन /जो इस्लामी राजदरबारों में प्रसिद्ध थे/ दोनों का ही किसानवर्ग पर बड़ा भार पड़ता था। जबकि व्यापारिक समुदाय और कुछ कुशल कारीगरों के वर्गों ने सामाजिक गतिशीलता के लिए पैदा हो आये अवसरों का भरपूर फायदा उठाया था परंतु दूसरे लोगों ने भारी हानि उठाई।

आक्रमणकारी शासकों, खासकर दिल्ली सल्तनतकाल /यहां तक मुगल भी/ को मुश्किल से स्थानीय समर्थन मिल पाता था /विशेषकर यदि वे भारत में पैदा या पले नहीं होते थे और यदि वे प्रतिरोध करने वाली प्रजा पर इस्लाम कानून का कोई खास हिस्सा थोपने की कोशिश करते थे।/ इसका अर्थ यह हुआ कि यदि उन्हें अपना राज्य बनाये रखना था तो ज्यादा से ज्यादा हिंसा पर भरोसा करना पड़ेगा। यह साफ है कि सैन्य कार्यकलाप अधिकाधिक होने तथा बर्बर रूप लेने लगे। सजायें ज्यादा कठोर होने लगीं। उत्पीड़न और मृत्यु दण्ड बिना रोक-टोक दिये जाने लगे थे।

इस्लामी विजय के काल की शुरूआत में मुस्लिम राजाओं ने गैर मुस्लिमों पर घृणित जजिया कर लगा दिया था। कुछ मौकों पर तो उन्होंने किसानवर्ग के सबसे गरीब तकबों को दासों में बदल दिया था। दूसरे मौकों पर किसानवर्ग के कुछ हिस्सों को धर्मपरिवर्तन के लिए धकेला या स्थानीय विद्रोह अथवा कर-विद्रोहों के लिए उकसाया था। परंतु असफल विद्रोहों के परिणाम बस भयानक ही होते थे।

दासप्रथा में वृद्धि

दिल्ली सल्तनतकाल में भारतीय इतिहास में अभूतपूर्व उंचाईयों तक दासप्रथा बढ़ गई थी। एस.ए.ए.रिजवी ने बताया कि 14 वीं सदी के दिल्ली के राजा फीरोजशाह तुगलक के पास 1,80,000 दास थे। कंगाल किसानों को बहुधा अपने बच्चों, लड़की या लड़के दोनों को दास बनाने के लिए बेचने को मजबूर किया जाता था। इब्नबतूता के अनुसार पकड़ी गईं लड़कियां बहुत सस्ती होती थीं और यहां तक कि कुशल लड़कियां भी तुलनात्मक रूप से सस्ती पड़ती थीं। हिंदू राजाओं के विरुद्ध युद्धों और सशस्त्रा-धावों के द्वारा दास पकड़े जाते और स्थानीय बाजार में बेचे जाते थे। कुलीनजन बड़ी संख्या में और सांमत स्वामी तो दासों की समूची सेना ही रखते थे। मध्य एशिया के बाजारों में बड़ी संख्या में दासों को भेजा जाता था। कभी-कभी सेना के काम में लगाये गए दास अपने ढंग से लड़ाईयां लड़ा करते और शासकों से परोक्ष रूप से बदला लिया करते थे। यह न केवल दिल्ली में होता वरन् दक्ख्नि के औरंगाबाद एवं अहमदनगर में और बंगाल में भी होता था। परिणामतः सल्तनतकाल ऐसे शासकों के साथ जो जल्दी-जल्दी बदल जाते थे, बड़ी अस्थिरता का था। यह बहुत संभव है कि राजपूतों की जौहर प्रथा हार की दशा में होने वाली दुर्गतियों से बचने के साधन स्वरूप पैदा हुई हो।

दुर्भिक्ष के दौरान हिंदू और मुसलमान अपनी संतानों को बेचते और इस प्रकार धर्मगुरूओं को इस प्रथा के विरोध में बोलने के लिए मजबूर करते थे। 1562 में अकबर ने हार गए विद्रोहियों की संतानों और पत्नियों को पकड़ने की प्रथा को खत्म कर दिया और उसके बाद से ऐसा प्रतीत होता है कि दासप्रथा खत्म होने लगी होगी परंतु एकदम समाप्त नहीं हुई थी। गैर-मुस्लिमों पर, खासकर जजिया कर भी खत्म कर दिया था। तब भी, मुगलकाल में, किसानवर्ग पर उपज का छटवां या चैथे से तिहाई भाग तक भू-कर बढ़ा दिया गया था। जबकि इन बढ़े हुए करों में से कुछ को उन्नत सिंचाई के साधनों द्वारा संगत किया जा सकता था परंतु कई बार कृषि उत्पादन से और अधिक लाभ के लिए करों को बढ़ाया जाता और असहनीय हो जाने दिया जाता था। परिणामतः सिख और मराठा विद्रोहों को इन्हांेने जन्म दिया जिसने मुगलशासन को स्थाईरूप से क्षतिग्रस्त कर दिया था।

परंतु सभी इस्लामी शासकों ने किसानवर्ग को दुख नहीं दिया। शाह मीर जो कश्मीर में 1339 में राजा बना था ने भू-कर को 17 प्र.श. तय किया था। मैसूर के टीपू सुलतान जैसे राजा को अविवेकी कर लगाने वाले राजाओं की तरह नहीं माना गया और विशेष तौर पर प्रसिद्ध हुआ था। यहां तक कि अवध के लंपट नबाव किसानों के हितों को नागरी हितों के साथ जालसाजी द्वारा बहलाते रहे और इस प्रकार कुछ हद तक जनसमर्थन पाते रहे। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि केवल ऐसे जनप्रिय शासक /टीपू और अवध के नबाव समान/ ब्रिटिश शासन को काफी दूर तक प्रतिरोध देते रहने में समर्थ हो सके थे।

इस्लाम का सामाजिक संघात

यद्यपि धार्मिक सिद्धांत या विश्वास के रूप में इस्लाम अपने अनुयायियों के बीच समानता पर बहुत जोर देता है, परंतु अधिकांश इस्लामी शासन में समाज समानतावादी नहीं बना था। व्यापार के प्रति साधारण पूर्वाग्रहिता और किसानों के उपर उच्च दर के करों के रुख ने समाज के कुलीनों में संपदा की केंद्रीभूतता को बढ़ावा दिया था। इस्लामी आक्रमणकारियों के आगमन से न केवल गरीब और धनी के बीच की खाई और ज्यादा गहरी हुई वरन् इस्लामी शासकों ने जातिप्रथा को तोड़ने में कोई भी भूमिका अदा नहीं की थी।

इसलिए यह कहना अतिशियोक्तिपूर्ण होगा कि इस्लाम का समतावादी और हिंदुओं का विभाजनवादी चरित्रा था। कुछ इतिहासकारों ने इशारा किया कि वे जो शव ढोने या चमड़े कमाने या द्वारपाल जैसे गंदे कामों के द्वारा जीविका प्राप्त करते थे बहुधा इस्लामी और हिंदू कुलीनों दोनों, के द्वारा घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे। इस्लाम विजेताओं एवं कुलीनवंशों में से अधिकांश कारीगरों एवं मजदूरों से व्यवहार और शादियों से अपने को बचाकर ठीक उसी प्रकार से रखते थे जैसे ब्राहमण और क्षत्रिय करते थे। यह तर्क करना एक भूल होगी कि भारत में हिंदू जात-जड़ता समानरूप से लागू थी। भारत के अनेक कुलीनवंश निचली जाति या सामाजिक तौर पर निम्न मिश्रित जाति से उभरे थे। नंद शूद्र थे। मौर्य मिश्रित जाति से आये थे। हर्ष वैश्य था। राजपूत मध्य एशिया के वंशकुल से थे और क्षत्रियों के तरह से अपनी सत्ता कायम कर लेने के बाद स्वीकारे गए थे। और मुसलमानों के समान, उड़ीसा के कलिंगों ने किसी को भी अपनी सेवा में भरती होने की अनुमति दे रखी थी और वे अपनी कुशलता के कारण उंचे तक उठे थे। वैष्णव और भक्ति आंदोलनों ने इस बात को जनप्रिय बनाया था कि सद्गति प्राप्ति में आध्यात्मिक भक्ति /समर्पण/ जाति-भेद को पार करती थी। इस्लाम हिंदुओं के भारत के बहुसंख्यकों को कोई ऐसी बात नहीं बतलाता जो मौलिक रूप से नई हो या क्रांतिकारी हो और इसलिए बहुमत ने इस्लामधर्म में परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया था।

यह खासकर राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश और उड़ीसा में स्पष्ट है जहां कुछ कारीगरों एवं हस्तकारों ने इस्लाम में परिवर्तन किया था। राजस्थान में परिहारकाल में जातिगत समुदायों की सामाजिक गतिशीलता के होने के प्रमाण हैं। उड़ीसा में कलिंग शासनकाल की शुरूआत में जाति विभेद का कोई खास महत्व नहीं था। मध्यप्रदेश के चंदेल शासक जो स्वयं निचली जाति से आये होंगे परंतु जाति के संबंध में समानतावादी रवैये के लिए जाने जाते थे। इस्लाम पूर्व के भारत के संबंध में जिस प्रकार से इस्लाम के संघात भिन्नता रखते थे, इस प्रकार का सामान्यीकरण करना गलत होगा। जातिगत जड़ता और ब्राहमणवादी रूढ़िवादिता एक स्तरीय नहीं थे या उपमहाद्वीप के गुण सार्वभौमिक भी नहीं थे। यदि इस्लाम ने सचमुच में क्राॅतिकारी विकल्प भारत की जनता को दिए होते तो भारतीय जनता का बड़ा हिस्सा इस्लाम-परिवर्तित हो गया होता।

जैसा कि आमत्र्य सेन और दूसरों ने बताया इस्लाम-परिवर्तितों का बड़ा भाग बौद्ध से सीधा इस्लाम में बदला था या कुछ समुदायों से और कुशल कारीगरों की खास श्रेणियों में से।

नौकरशाही दकियानूसीवाद की वृद्धि

यद्यपि धर्म परिवर्तितों के बहुसंख्यकों को सदैव मजबूर नहीं किया जाता होगा, इब्नबतूता ने स्पष्ट बताया कि दैनिक प्रार्थनाओं में उपस्थित होने के लिए लोगों को बाध्य किया जाता था। भारतीय जिन धर्मों के आदी थे उनमें बड़े पैमाने पर छूट थी कि कब और कितने बार लोग मंदिर जायें। उन्होंने शरूआत में प्रतिदिन बारंबार नमाजों में जाने का प्रतिरोध किया। इमाम प्रायः धमकियां देते और प्रार्थनाओं में जाने के लिए परिवर्तितों को बेंत मारते थे।

इस्लाम का एक दूसरा नकारात्मक पहलु मूर्ति-पूजा के खिलाफ था इससे भारत की समृद्ध और प्राचीन मूर्तिशिल्प कला को बड़ा आघात लगा। इसके भी कुछ खास परंतु कम गंभीर दिखलाई पड़ने वाले परिणाम हुए। एक स्तर पर तो पत्थर की मूर्ति पूजा बहुत ही अविवेकी प्रतीत होती है, परंतु व्यवहार में अदृश्य ईश्वर की प्रार्थना की अपेक्षा मूर्ति-पूजा ज्यादा बुरी प्रथा नहीं थी। कम से कम पत्थर के मानवीय आकार में गढ़े गए भगवान में जनसाधारण की इच्छायें और कल्पनायें प्रतिबिंबित तो होती थीं परंतु सजा देने की शक्ति और नरकवास के दबाव के साथ अदृश्य ईश्वर की रोजाना एवं जबरिया प्रार्थना करवाना संभवतया बहुत ही ज्यादा आत्मघाती एवं मानसिक तौर पर जड़वतकारी था।

इस्लामीकरण ने इस प्रकार से स्वतंत्रा विमर्श और धार्मिक विरोध दोनों, को स्थाई धक्का पहुंचाया। हिंदूवाद जो एक शास्त्रा विरोधी एवं देवी-देवताओं की पूजापाठ करते हुए रूढ़िगत रीतिरिवाजों के विपरीत, ब्राहमणों के कर्मकाण्डों के साथ सहजीवन का सम्मिश्रण बन चुका था। कुरानी इस्लाम अपने प्रति उसका बारंबार संपूर्ण समर्पण चाहता था और विधर्मी मतों के लिए कोई भी गुंजायस नहीं रखता था।

जबकि दकियानूसी विचारों ने दोनों मतों के अनुयायियों को कमजोर बना डाला था, इस्लामी धर्मगुरूओं की ताकत सामाजिक रूढ़िवादिता को लागू करने में अधिक बड़ी थी। शाहजहां के शासनकाल में यह रुख ज्यादा उभरा था और औरंगजेब के शासन में तो चरमोत्कृष्टता पर पहुंचा था।

औरंगजेब के राजसत्ता ले लेने के समय तक राज्य का सामाजिक धन रूढ़िवादी धर्मगुरूओं द्वारा हथिया लिया जाता था। केवल इस्लामी विद्वानों को प्रोत्साहित किया जाता जो धर्म की अलौकिकता के कैदी बन गए हों एवं एक अनजान और अवर्णननीय तत्व के ध्येय के प्रति नितांत भक्त बन गए होते थे। अपने जीवन के अंतकाल में औरंगजेब ने इस्लामी रूढ़िवादिता और एकांतिकता के प्रति अपने झुकाव पर खेद महसूस किया परंतु तब तक रूढ़िवादी धर्मगुरूओं ने अपनी खुद की ताकत पैदा कर ली थी।

एक किताबी-धर्म होने के कारण इस्लाम का पुराणपंथी धाराओं के द्वारा आसानी से अपहरण किया जा सकता था बजाय हिंदूवाद के जिसके पास विधिवत् और केंद्रीकरण के संगठन इस्लाम के समान नहीं थे। उलेमाओं की सभा नहीं थी जो फतवा देने के अधिकार से युक्त होती थी। प्रतिदिन की प्रार्थनायें नहीं होती थीं। कोई एक ऐसी किताब नहीं थी जो धार्मिक झगड़ों का निपटारा करती। जबकि कुछ उपनिषद या गीता को या दूसरे रामायण को मानते जो अनेक रूपों में रचीं गई थीं। इन ग्रंथों में से अनेक तो अपने गहन दार्शनिक विवाद और संदिग्धता को लिए हुये उंची तौर पर खंडनात्मक थे। धर्म जैसे विचार ढीले-ढाले तौर पर परिभाषित किए गए थे और अपने आप में भाववाचक थे जो बदलते हुए समय और बदलती हुई जरूरतों के अनुकूल गढ़ लिये जाते थे।
कुरान में कोई भी खंडनात्मकता या द्वंद्वात्मकता की संभावना नहीं थी। कुरान के व्याख्याता केवल अपना समय ऐतिहासिक गौण बातों पर टालमटोल करते हुए पैगम्बर के कथनों और ’’न्याय का दिन क्या लायेगा’’ और ’’कौन जन्नत में जायेगा’’ से ही अभिभूत थे। उन्हें मृत्यु के बाद क्या होगा यह अधिक महत्वकारी था बजाय दिन ब दिन की सत्यता के। यद्यपि हिंदूवाद के मध्य ऐसी धारायें भी थीं जो वास्तविक जीवन से अलग हो जाने पर जोर देती थीं परंतु वहां ज्यादा वास्तविक और दुनियावी धाराओं के लिए और भी जगहें थीं। इस्लाम के आने के पूर्व कुछ हिंदू-राजाओं ने वैज्ञानिक और बुद्धिवादी विद्वानों का पक्ष लिया था। यद्यपि विज्ञान और शिक्षा के समर्थन का वृहत आधार कभी नहीं रहा और समाज में गहरे तक दोनों ने पैठ नहीं बनाई थी। परंतु उसने भारत के धर्मनिरपेक्ष और बुद्धिवादी रीतिरिवाजों को पनपने दिया था। यह अलग बात है कि कमजोर एवं प्रतिबंधित रूप में ही सही। राजा भोज जैसे कुछ हिंदू शासक, वास्तुशिल्पी और इंजीनियर की तरह से प्रसिद्ध हुए थे और अपनी अनेक इमारतों के लिए आदर प्राप्त करते रहे थे।


अकबर समान अधिक उदार इस्लामी राजाओं ने मदरसों में नियमों के पालन के साथ धर्मनिरपेक्ष विषयों को पाठ्यक्रम में सम्मलित कर लेने के लिए प्रयास किये थे। धार्मिक अध्ययन के साथ सदाचरण के नियम, नीतिशास्त्रा, गणित, ज्योतिषविद्या, कृषि, औषधिशास्त्रा, तर्कशास्त्रा और प्रशासनिक विषयों का भी अध्ययन किया जाता था। संस्कृत के अध्ययन के साथ व्याकरण एवं न्यायदर्शन /विवेकवादी दर्शन/ को भी लागू किया गया था। अकबर के शासन के हकीम शिराजी, मृत्यु 1589 ई, और उसके अनुयायियों ने इस्लाम के साथ गणित एवं विज्ञान को पढ़ाने के लिए उनके द्वारा स्थापित अध्ययन गोष्ठियों में प्रयास किया था। संभवतया अपने पिता के खुले हुए विचारों के परिणामस्वरूप जहांगीर को धर्मनिरपेक्ष मामलों पर ध्यान देने की प्रेरणा मिली थी और उसने वनस्पतिविज्ञान और प्राणिविज्ञान में रुचि दिखलाई थी। परंतु न तो अकबर और न ही जहांगीर मदरसाओं के दृष्टिकोण पर कोई महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सके। उलेमाओं का वास्तविक तरीका धर्मतंत्राी ही बना रहा और उन्होंने अकबर की इस्लामी शिक्षा पद्धति को धर्मनिरपेक्षवादी एवं उदार बनाने के प्रयासों का प्रतिरोध किया था। यह कोई अलग बात नहीं थी क्योंकि मध्य एशिया के विद्वान 11 वीं सदी में अलबरूनी को धर्म विरोधी विचारों के लिए और कुरान में बताये गए सर्वोपरिता को चुनौती देने के लिए जेल में डाल दिया गया था।


सामाजिक मामलों में भी, कुछ विशेष गुण थे जो कालांतर में प्रगट हुए थे। ब्राहमण एवं क्षत्रिय रूढ़िवादिता के विस्तार के बाहर भारत में पितृसत्तात्मकता का आंशिक असर था। किसानों और कारीगरों के कुुछ समुदायों में मानवीय यौन एवं व्यक्तिगत संबंधों के मामलों में ज्यादा सहनशीलता एवं वस्तुपरकता की समझ थी। ईश्वर और देवियों को स्थानीय एवं वैयक्तिक जरूरतों के मुताबिक बना लिया जाता था। धर्म व्यक्ति अथवा समुदाय के चुनाव का मामला था बजाय उपर से थोपे गए कोई कठोर सिद्धांत के। प्रादेशिक एवं स्थानीय मान्यतायें एवं विभिन्नतायें एक साथ रहती और जीवित थीं।

इन मामलों के लचीलेपन को कालांतर में इस्लामी धर्मगुरूओं ने सीमित अथवा समाप्त करने के यत्न किये। हिंदुओं की अपेक्षा शुक्रवार की नमाजों और फतवों के द्वारा धर्मगुरू जनता पर अधिक प्रभाव डाल पाते थे और धर्मगुरूओं के पक्ष में राजाओं के रहने से, चुनौती देना बेहद कठिन था। इसने परोक्ष रूप से कुछ बुद्धिवादियों और हिंदू छत्राछाया के स्वशासित विद्यालयों पर संघात किया और हिंदू भी कुछ दबाव तले आये होंगे।


यद्यपि सूफी और भक्ति रीतिरिवाजों ने धार्मिक हठधर्मिता एवं असहिष्णुता को चुनौती दी। दोनों धारायें वास्तविक दुनिया के त्याग की रहस्यमयता के बहाव में आये। यहां तक कि जैसे उन्होंने धार्मिक एवं सामाजिक स्वच्छंदता की तकलीफ से छुटकारा पाया, वे किताबी कठोरता और धार्मिक कट्टरवादिता के दबाव के विरुद्ध वास्तविक समाधान देने में असमर्थ थे। एक शक्तिशाली मानवीय सुधार सिखवादी धारा के रूप में प्रगट हुआ जो गरीबों और नागरिक अधिकारों से वंचितों के सामाजिक सुधार के कार्यों में किसी भी हद तक चले जाते थे। परंतु सूफी और भक्ति विश्वासों के समान उसने भी रहस्यमय पलायन के तत्व एवं सर्वशक्तिमान के प्रति साधूई भक्ति को उंचा आदर्श मान लिया था।
जब इस्लाम इस उपमहाद्वीप में आया था भारत में बुद्धिवाद का लम्बे पूर्वमिलन से पीछे हटना शुरू हो चुका था । इस्लाम ने इस पिछाहट को गहराने में मदद की।

उस काल में यह सब जो कुछ भी यूरोप में हो रहा था, की एक साफ परंतु विपरीत तस्वीर थी। 18 वीं सदी तक की ईसाई धार्मिक रूढ़िवादिता को आंतरिक एवं बाहय् मानवतावादियों एवं बुद्धिवादियों के द्वारा सामाजिक सुधारों के लिए चुनौतियां मिलने लगी थीं। धर्म के द्वारा बौद्धिक धाराओं को शामिल कर लेने के बाद भी, वे रहस्यों, अंधविश्वासों और धार्मिक भ्रमों के समुद्र से उपर सिर निकालने की कोशिशें करते रहे थे। उन्होंने मध्यकालीन दुनिया की जनता को ओतप्रोत कर रखा था।

भारत में रुख विपरीत दिशा में था और इसने निःसंदेह औपनिवेशिक राज्य को मजबूती पहुंचाई। जबकि ब्रिटिश ने भारतीय जनता को विभाजित एवं वशीभूत करने में सभी धार्मिक दकियानूसी ढंग को लगाया था, इस्लामी अलगाववाद ब्रिटिश हाथों में एक खतरनाक हथियार के समान आ लगा था और मुस्लिम लीग की उलझन इस उपमहाद्वीप का दुर्भाग्यपूर्ण जीवोच्छेदन के लिए उत्प्रेरक बना था। आज, पाकिस्तान में भारत के विरुद्ध इस्लाम जह़र और घृणा उगलने का वाहक बन गया है। इसने इस्लाम के प्रति बड़ी घृणा पैदा कर दी और सभी मुस्लिम देशों और भारतीय समाज के कुछ हिस्सों की जनता को एक ही सांचे में ढाल दिया। भारत में प्रगतिशील ताकतों को अद्भुत रूप से बंधक बना लिया है।

औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध लड़ाई में शताब्दी की शुरूआत में भारतीय जनता की सबसे अधिक एकता की आवश्कता थी। परिणामतः धार्मिक दकियानूसी और दुनियावी त्याग की रहस्यमयता पर आधारित ताकतों को बर्दास्त किया गया बल्कि स्वतंत्राता आंदोलन मंे उनका स्वागत किया गया था। धर्म की आलोचना और यहां तक कि धार्मिक निरंकुशता की अनदेखी की गई। साम्प्रदायिक दंगों का भय और धार्मिक अलगाववाद ने देश के सबसे अच्छे स्वतंत्राता संग्रामियों को धार्मिक रूढ़िवादिता से निपटने से रोक दिया था।

स्वतंत्राता पश्चात् उसी प्रकार के डरों के कारण इस्लाम की आलोचना करने वाले आलेखों पर रोक लगा दी गई थी। हिंदूवाद को भारी बहुमत के विश्वास की तरह माना, परंतु वैसा डर हिंदूवाद की शव परीक्षा करने में नहीं था। हिंदू दकियानूसिता की असफलताओं और कमजोरियों को प्रकाशित करना संभव था परंतु इस्लाम दूसरी ओर, आलोचनात्मक विश्लेषण से संरक्षित था।

आज इसने बुरी तरह से धक्का दिया है। इसने हिंदूवाद की झूठी एवं गैर-ऐतिहासिक महिमा को उत्प्रेरित किया और भारत मे इस्लाम की भूमिका को बुरी तरह से जंगली और क्रूर बताने के लिए मौका दिया। इस तरह भारत को वृहत चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। कैसे सभी मुस्लिमों को समान और विधिसम्मत संरक्षण का आश्वासन दिया जाये और उनके जीवन की रक्षा की जाये खासकर तब जब इस्लामी शासन के कुछ नकारात्मक पहलु रौशनी में प्रगट हो चुके हैं ? उपेक्षा करने एवं निर्बाध तथा गंभीर मूल्याकंन करने को रोकने के पुराने तरीके स्पष्टरूप से आगे चल सकने वाले नहीं हैं। बहुत अधिक समय तक इतिहासकार सचाई को कहने से नहीं रोके जा सकते। तब भी सचाई उन तरीकों से बतलाई जा सकती है जो जागरूकताकारी हैं और वे भड़काउ न बनें। यदि इस्लामी राजदरबारों के अभिलेखों को बिना पूर्वाग्रहों और पक्षपातरहित ढंग से प्रस्तुत किया जा सके, मुस्लिमों के प्रति बिना प्रतिरोध की भावना को उभारे और उनके सकारात्मक योगदान की प्रशंसा करते हुए तब ही यह संभव है कि सबसे साधारण भारतीय भी प्रतिक्रिया करेगा, कि वह आशावादी और चैकन्ना है। वह एक अवसर देगा फिर से दकियानूसिता से लड़ाई लड़ने का जो भारत की उन्नति को रोकती है, फिर चाहे वह हिंदू, मुस्लिम या ईसाई हो।

यदि भारत को तकनीक के दबावपूर्ण वैश्वीकरण की चुनौतियों का सामना करना है तो इस तरह की किसी भी प्रकार के धार्मिक दकियानूसी छाया में लड़खड़ाते रहने से नहीं चलेगा। ऐसा ही पाकिस्तान और बंगला देश पर भी लागू होता है। तीनों देशों में भयंकर गरीबी और उत्पीड़न है। भारत जिसने धर्मनिरपेक्षता के रास्ते को स्वीकारते हुए, अपने पड़ोसियों में से किसी से भी अधिक भारतीय उपमहाद्वीप के एक धर्मनिरपेक्ष और सहकारी-संघ इस उपमहाद्वीप की विशाल बहुसंख्यक जनता को उन्नति की सबसे अधिक संभावनायें एवं आशायें प्रस्तुत करता है।

उपमहाद्वीप के देशों में जीवनयापन के स्तर को बहुत उंचे स्तर तक उठाने के लिए प्राकृतिक स्त्रोत्, वैज्ञानिक और तकनीकी कुशलता उपलब्ध हैं जिनका प्रोत्साहित करने वाले वातावरण में उपयोग किया जा सकता है। आज, कमोबेश भारत में ही आवश्यक वैज्ञानिक और तकनीकी आधारशिला के तत्व उपलब्ध हैं। परंतु पाकिस्तान के मुखतारी युद्धों के कारण वह अपने उपलब्ध शक्ति-स्त्रोत् और अन्य प्राकृतिक स्त्रोतों को और अधिक उन्नत नहीं कर पर रहा है। दूसरी ओर, पाकिस्तान और बंगला देश के पास प्रचुर शक्ति के भंडार हैं परंतु वैज्ञानिक और तकनीकीज्ञान और औद्योगिक आधार के अभाव के कारण उनका उपयोग और उन्नति दोनों बधित हैं। यह एक मार्मिक गतिरोध है।

इस्लामी जिहाद की ताकतें आंशिक तौर पर बटवारे के माध्यम से भारत को आहत और घायल करने में जीती थीं। परंतु यह बहुत ही विचित्रा जीत है जिसमें सभी के बजाय बहुत कम कुलीन-विद्वानों को हानि पहुंची। इस्लाम ने एक समय मध्यकालीन दुनिया को एक विशाल व्यापारिक खंड में बदल दिया था। परंतु यह खेदपूर्ण है कि आज इस्लामी जिहाद की ताकतें ही भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षी व्यापार को रोके हुये हैं। सामाजिक पद्धतियों को एकता में बांधने के बजाय इस्लाम का उपयोग लम्बे समय से चले आये एक ही संस्कृति और इतिहास के लोगों को बांटने में हो रहा है।

अनेक वर्षों से साधारण मुसलमानों के हाथों में भविष्य की कुंजी है क्योंकि वे ही सफलतापूर्वक रूढ़िवादी एवं अब, युद्धोंमादी धर्मगुरूओं को चुनौती दे सकते हैं। भारतीय मुस्लिमों को विशेष भूमिका निभाना होगी क्योंकि उनके पास पाकिस्तान और बंगला देश की जनताओं के मन मस्तिष्क को जीतने का और उन्हें प्रोत्साहित करने का अवसर है कि वे परस्पर सहभागितापूर्ण एवं लाभकारी काम भारत के संग-साथ करें।

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संदर्भः

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2. सेंट्र्ल एशिया अंडर तैमूर फ्राम 1370 टू दा अर्ली 15 सेंचुरी - के. जेड अशफिया,
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