"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

1857 का क्रांतिकारी उभार

यद्यपि जिस विद्रोह को मात्रा सिपाही विद्रोह या सैन्यद्रोह या फिर धार्मिक आस्थाओं के ब्रिटिश अतिक्रमण का प्रतिवाद मानकर खारिज किया जाता था अब,1857 का वह महान विद्रोह भारतीय स्वतंत्राता का पहला संग्राम माना जाने लगा है। उन्नीस वीं सदी के दौरान औपनिवेशिक शासन के लिए वह संग्राम सबसे बड़ी सशस्त्रा चुनौती था। उसने जनता के हर वर्ग के हिंदू और मुसलमान दोनों को आकर्षित किया। सामाजिक और आर्थिक मूलभूत सुधारों की मांग को उत्प्रेरित किया। संग्राम ने नए समाज के निर्माण का आवाहन किया जिसमें जनता की मांगों का अधिक प्रजातंत्राी प्रतिनिधित्व हो सके।

शुरूआती मिसालें

वह कोई आकाश से गिरी गाज नहीं थी। यह तथ्य अच्छी तरह से जाना ही नहीं गया कि 1763 और 1856 का काल ऐसा नहीं था कि भारतवासियों ने विदेशी शासन को बिना किसी प्रतिरोध केे स्वीकार लिया हो। आदिवासियों, किसानों और राजाओं द्वारा ब्रिटिश विरोध बारंबार हुए। कुछ विरोध लम्बे समय तक बने रहे, कुछ छुटपुट ही रहे और कुछ अवरोधों के क्रांतिकारी कार्य थे। सबने औपनिवेशिक शासन को चुनौतियां दीं। वन एवं कृषि संपदा के अनियंत्रित-दोहन से उत्पन्न विकराल दरिद्रता और जनता की पददलित स्थिति, दोनों को उस काल ने देखा था।

ब्रिटिश करों का बोझ कमर तोड़ू था। भारतीय किसानों और दस्तकारों से उनकी पैदावार का हिस्सा, उनसे अतिरिक्त धन वसूली तथा बेगार करवाने में ब्रिटिश अधिकारी बल प्रयोग करते थे। इनके खिलाफ शिकायतों को न्यायालय स्वीकार नहीं करतेे थे। 1856 में ब्रिटिश हाउस आॅफ कमीशंस् के सामने टार्चर कमीशन, मद्रास ने पहली रिपोर्ट में यह स्वीकार किया था कि ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी यातना देने का परित्याग नहीं करते और न ही वे इसे रोकने का कोई उपाय करते थे। 1855 सितम्बर में, कोर्ट आॅफ डायरेक्टर्स आॅफ ईस्ट इंडिया कंपनी को दिये गए लार्ड डलहौजी के पत्रा से पुष्टि होती है कि यातना का वह तरीका केवल मद्रास प्रिसीडेंसी तक ही सीमित नहीं था वरन् उसका प्रयोग प्रत्येक ब्रिटिश शासित प्रदेश में किया जाता था। अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें।

दुखांत प्रतिरोध के सिवाय निराश जनता के पास कोई उपाय नहीं था। लगभग हर वर्ष सशस्त्रा विद्रोह होते थे और ब्रिटिश द्वारा निर्ममतापूर्वक कुचल दिये जाते थे। ब्रिटिश जैसी अग्नेय शक्ति के अभाव में विद्रोहियों को गोली से उड़ा दिया जाता था और संवाद साधनों के अभाव में विद्रोह अन्य विद्रोहों से सहकार्य नहीं कर पाते थे। प्रतिकूल समय के कारण करारी हारें होतीं थीं। तब भी, इनमें से कुछ संघर्ष अनेक वर्षों तक चले। अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें।

पहले के विद्रोहों में से एक शिमोगा के डोंडिया वाॅग के द्वारा किया गया था। 1799 में, उसने टीपू सुलतान की हार के बाद शिमोगा, चित्रादुर्ग और बेल्लारी जिले को थोड़े समय के लिए स्वतंत्रा कर लिया था। 1824 में कर्नाटक की रानी चिन्नम्मा ने कित्तूर क्षेत्रा में एक विद्रोह का नेतृत्व किया। पांच वर्ष बाद, सिंगोली रायना का गौरिल्ला युद्ध हुआ। 1833 तक कर्नाटक में अनेक विद्रोह होते रहे। 1831 का कोल विद्रोह, 1855 का संथाल विद्रोह और 1816 से 1832 तक चला कुच विद्रोह भी महत्वपूर्ण रहे। ब्रिटिश शक्ति के सामने धराशायी होने के पूर्व उड़ीसा एवं पश्चिमी बंगाल के कुछ राजाओं ने अनेक दशाब्दियों तक उनका कठोर प्रतिरोध किया था।

सैन्य विद्रोह के पूर्व वेलूर, उत्तरी तामिलनाडू, के भारतीय सैनिकों ने 1806 में विद्रोह किया। यद्यपि वह असफल रहा परंतु उसके फलस्वरूप ब्रिटिश अधिपतियों के विरूद्ध सैनिकों की समस्याओं के लिए राजनैतिक समितियां बनाईं गईं थीं।

खौलतीं तकलीफें

उदाहरण के लिए बंगाल की सेना में 1,40,000 भारतीय लोग ’’सिपाही’’ नियुक्त हुए थे जो लगभग 26,000 ब्रिटिश अधिकारियों के आधीन थे। इन सिपाहियों ने 1838-42 के पहले, ब्रिटिश-अफगान युद्व की अग्नि को सहा और दो पंजाब के युद्धों 1845-46 एवं 1848-49 और दूसरे एंग्लो-बर्मी युद्धों को निकटता से लड़ा था। उन्हें अफीम युद्ध में चीन के विरूद्ध 1840-42 और 1856-60 तथा रूस के विरूद्ध क्रीमियन युद्ध 1854 में लड़ने के लिए समुद्र पार भेजा गया था। मृत्यु का लगातार सामना करने पर भी भारतीय सिपाहियों को अपनी पदोन्नति के बहुत ही कम अवसर मिलते थे। सभी प्रमुख पदों पर यूरोपियनों का एकाधिकार था।

बंगाल सेना के बहुत से सिपाही, उत्तर प्रदेश के हिंदी भाषी क्षेत्रों से थे जहां अवध को छोड़कर ब्रिटिश ने ’’महलवारी’’ करों को लगाया था जो राजस्व की लगातार बढ़ती हुई मांग से निहित था। 19 वीं शताब्दी के पहले भाग में, ब्रिटिश को दिया जाने वाला कर-राजस्व 70 प्रतिशत तक बढ़ाया गया। इससे कृषि पर कर्ज का भारी बोझ बढ़ा और बहुत तेजी से जमीन महाजनों और व्यापारियों के यहां रेहन रखी जाने लगी। इसी अमानवीय टेक्स प्रथा को अवध तक फैलाया गया जहां की संपूर्ण कुलीनता को सरसरी तौर पर अपदस्थ किया जा चुका था।

परिणामस्वरूप, ब्रिटिश के विरूद्ध असंतुष्टि केवल कृषि समुदायों तक ही सीमित नहीं रही। कुलीन एवं मध्यमवर्ग के दिवालियापन से अनेक वस्तुओं की मांग लुप्तप्राय हो गई। उसी समय, स्थानीय उद्यमों को ब्रिटिश आयातित वस्तुओं की भ्रष्ट प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ा। इन परिणामों को विद्रोही राजा फीरोजशाह ने अपनी 1857 की घोषणा में पेश कियाः ’’यूरोपियनों ने भारत में अंग्रेजी वस्तुओं को लाकर बुनकरों, सूती वस्त्रा कर्मियों, बढ़ईयों, लुहारों और जूता बनाने वालों को बेकार बना दिया और उनके पेशों को हड़प लिया। हर प्रकार का हस्तकार भिखारी बन गया।’’

इन घटनाओं के की तुलना भारत में मुगलों के आगमन से कर लेते हैं। बाबर ने भारतीय जलवायु और रीतिरिवाजों की नपसंदगी के बाबजूद, भारत के हस्तकारों की कुशलता एवं विभिन्नता को परखा और बढ़ते हुए भारतीय उत्पादन में अपार संभावनायें देखीं। ब्रिटिश के बिलकुल विपरीत, मुगलों ने भारतीय शिल्पियों की शक्तियों का गठन किया जो पहले की सल्तनतों के समय में अच्छी तरह से स्थापित थे और उनको बाद के समय में चमत्कारी उंचाईंयों तक उठाया। 19 वीं शताब्दी के मध्य तक, वास्तव में, ब्रिटिश नीतियों ने औद्योगीकरण पूर्व के गुणों को पूरी तरह से दमघोंटकर मार डाला। उस काल के एक ब्रिटिश इतिहासकार थामस लो ने परखा कि कैसे ’’पश्चिमी दुनिया पर अपने नाम और आश्चर्य को फैलाने वाले भारतीय कलाकार और उत्पादक, आज के समय में, लगभग लुप्त हो गए हंै। एक समय के प्रसिद्ध और जाने माने शहर, विनाश के ढेर हैं ...।’’

इन सबने 1857 के विद्रोह के लिए भूमि तैयार की थी। यद्यपि भारत के उत्तर में क्रेंदित 1857 का विद्रोह पूर्व में ढाका और चिटगांव से पश्चिम में दिल्ली तक फैला। बंगाल के मुख्य शहर, उड़ीसा में कटक सहित बिहार, संभलपुर, पटना और रांची ने भागीदारी की। मध्य भारत में विद्रोह इंदौर, जबलपुर, झांसी और ग्वालियर तक फैला। राजस्थान के नसीराबाद, महाराष्ट्र् में औरंगाबाद एवं कोलहापुर और अफगान सीमा पर पेशावर में उपद्रव भड़के थे। उत्तर प्रदेश के समतल मैदान में ही युद्ध-भूमि थी। परंतु ब्रिटिश आक्रमणकारियों को हर बड़े शहर से कठोर अवरोध मिलता रहा।

यह संग्राम सिपाही विद्रोह से शुरू होकर जल्दी ही अवध और उत्तर पश्चिमी प्रदेशों में जनविद्रोहों से संयुक्त हुआ। ब्रिटिश शासन का विरोध जेलों और सरकारी इमारतों पर धावों से प्रगट हुआ। सरकारी ’’खजानों’’ पर धावा बोला, बैरिकों और न्यायालय भवनों पर प्रहार किया और जेल के दरवाजों को तोड़ डाला गया। जनविद्रोह समाज के हर वर्ग के लोगों की सहभागिता का बड़ा आधार था जैसे सीमावर्ती धनवान, कृषक, कारीगर, धार्मिक गुरू एवं भिक्षुकगण, सरकारी सेवक, दुकानदार और नाविक लोग।

1857 में मई 10 को मेरठ में शुरू हुए विद्रोह के बाद कई, महिनों तक भारत के उत्तरी मैदान में ब्रिटिश शासन खत्म हो गया था। कई मुस्लिम और हिंदू राजा विद्रोही सैनिकों, लड़ाकू किसानों और अन्य राष्ट्र्ीय सेनानियों के साथ शामिल हुए। विद्रोह के प्रमुख नेताओं में नाना साहेब, तांतिया टोपे, बक्तखान, अजीमुल्लाखान, रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, कुंअरसिंह, मौलवी अहमदउल्ला, बहादुरखान, और राव तुलाराम थे। ब्रिटिश के विरूद्ध उत्तराधिकार के बदनाम कानून सहित राजाओं की अनेक समस्यायें थीं। उत्तराधिकार कानून ब्रिटिश को किसी भी राज्य में ’’कानूनी पुरूष उत्तराधिकारी’’ न होने पर, उस राज्य को अपने आधीन कर लेने का अधिकार देता था।

जनसामान्य की इच्छा की अभिव्यक्ति

विद्रोहियों ने दस सदस्यों की कोर्ट आॅफ एडमिनिस्ट्र्ेशन का गठन किया जिसमें छै सैनिक और चार नागरिक थे। इनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों को समान प्रतिनिधित्व दिया गया। विद्रोही-सरकार ने सामान्य उपयोग की वस्तुओं को कर मुक्त किया और जमाखोरी को दंडित किया। उनके घोषणापत्रा में ब्रिटिश द्वारा थोपी गई घृणित जमीनदारी प्रथा के उन्मूलन और किसानों को जमीन देने का आदेश था।

यद्यपि जिन राजाओं ने विद्रोहियों का साथ दिया था वे इतने आगे तक नहीं जाना चाहते थे। विद्रोही-सरकार द्वारा की गई घोषणाओं के अनेक पक्षों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। सभी घोषणाएं जनसामान्य भाषा में की गईं थीं। हिंदी और उर्दू के मूलपाठ के साथ हिंदू और मुस्लिम दोनों के नाम से घोषणायें की गईं थीं। फीरोजशाह ने अगस्त 1857 की अपनी घोषणा में कुछ महत्वपूर्ण बातों का समावेश किया था। यथा सरकारी भाप चलित नावों एवं भाप गाड़ियों के मुफ्त उपयोग करने की सुविधा के साथ व्यापार केवल भारतवासियों के लिए सुरक्षित किया जाना चाहिए। सार्वजनिक कार्यालय भी केवल भारतवासियों को दिए जायें और सिपाहियों का वेतन बढ़ाया जाये।

ब्रिटिश शक्ति द्वारा पराजित, राजाओं द्वारा विश्वासघात

घटनाओं के ऐसे मूलगामी मोड़ से घबराकर ब्रिटिश शासकों ने संघर्ष को कुचलने के लिए सैनिकों और हथियारों के सभी स्त्रोतों को झांैका। यद्यपि विद्रोहियों ने वीरतापूर्वक मुकाबला किया परंतु सिख, राजस्थानी और सिंधिया जैसे मराठा राजाओं ने ब्रिटिश राजभक्त बनकर भारत में उनके बने रहने का अवसर दिया। उस समय के गवर्नर जनरल लार्ड केनिन ने ध्यान दियाः ’’राजाओं ने तूफान में तरंगरोध की तरह काम किया अन्यथा उसने हमें एक ही लहर से बहा दिया होता।’’ राजाओं के विश्वासघात की यही मूलभूत भूमिका रही थी ! व्यापारिक समुदायों की पुराणपंथिता ने भी ब्रिटिश की मदद की। वे लम्बे समय तक चलने वाले जनविद्रोह की अनिश्चितताओं का साथ नहीं देना चाहते थे।

परंतु साम्राज्य को बचाने में, ब्रिटिश क्रूरता और हथियारों का भारी महत्व था। विद्रोह दबाने की ब्रिटिश बर्बरता अभूतपूर्व थी। 1858 मई, 8 को लखनउ के हारने के बाद फ्रेडरिक एंग्लिस ने कहा थाः ’’सत्य है कि यूरोप अथवा अमेरिका में ब्रिटिश जैसी क्रूर सेना नहीं थी। लूटमार, हिंसा, कत्लेआम - ये जो अन्य जगहों से सख्ती और पूर्णता से समाप्त हो चुके हैं, ब्रिटिश सैनिकों के निहित स्वार्थ के अधिकार हैं, आदिमकालीन विशेषाधिकार हैं...।’’ अवध अकेले में 1,50,000 लोगों की हत्या की गई जिसमें से 1,00,000 लोग नागरिक थे। दिल्ली के महान उर्दू कवि मिर्जा गालिब ने लिखाः ’’सामने आज खून की नदियां देखता हूं।’’ उन्होंने आगे वर्णन किया कि कैसे विजयी सैनिक हत्या की रंगरेलियां मना रहे थे। लोगों की सम्पत्ति को लूटते और जैसे जैसे आगे बढ़ते हर सामने पड़ने वाले को मौत के घाट उतार रहे थे।

दिल्ली में, बहादुरशाह जफर के तीनों बेटों को ’’खूनी दरवाजे’’ पर आम जनता के बीच फांसी दी गई। बहादुरशाह को अंधा बनाया और देश निकाले पर रंगून भेजा, जहां वे 1862 में मर गए थे। दया की भीख मांगने को नकारते हुए उनने ब्रिटिश को मंुहतोड़ जबाव दिया थाः ’’यदि विद्रोहियों के हृदय में स्वाभिमान की ज्वाला मंद नहीं पड़ी तो भारत की शक्ति एक दिन लंदन को हिला देगी।’’ थामस लो ने लिखा थाः ’’अब भारत में रहना ज्वालामुखी के मुंहाने पर खड़े रहने के समान है जिसके किनारे हमारे कदमों से दूर हो तेजी से बिखर रहे हैं और उबलता हुआ लावा फूट पड़ने तथा हमें भस्म कर देने के लिए तैयार है।’’

1857 के विद्रोह ने हिंदू और मुस्लिम एकता को इस्पात की तरह मजबूत बनाया। वह संग्राम स्वतंत्राता प्रेमियों के भविष्य की पीढ़ियों के लिए आशा और प्रेरणा देने का महत्वपूर्ण मील का पत्थर था। 1857 के बाद औपनिवेशिक शासन में नाटकीय बदलाव आया। राष्ट्र्ीय विद्रोह की 1857 की हार के बाद ब्रिटिश ’’बांटो और राज करो’’ की नीति पर धार्मिक घृणा को फैलाते हुए तेजी से काम करने लगे। झूठ एवं भ्रम का सहारा लेते हुए ब्रिटिश ने भारतीय इतिहास को जानबूझकर साम्प्रदायिक रंगों में ढाला और भारतीय जनगण को बांटने के लिए घातक जातिवादी नीतियों को लागू किया। वे नीतियां आज भी उपमहाद्वीप को परेशान कर रहीं हैं। जब अधिकांश लोग औपनिवेशिक जड़ों के इस अलगाव और जातिवादी खाई को पहचान लेंगे तब संभव है कि हिंदू मुस्लिम एकता को पहंुचे नुकसान को थोड़ा कम किया जा सके। यदि 1857 की आत्मचेतना में हिंदू और मुस्लिम पुनः मिलें और आपसी सहयोगी बन सकंे तो हमारा उपमहाद्वीप आज भी समर्थ है औपनिवेशिक विगत से मुक्ति पाने में।